हालिया लेख/रिपोर्टें

Blogger WidgetsRecent Posts Widget for Blogger

3.7.09

भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद - इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य


ऐसा नहीं है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का चरित्र शुरू से ही संशोनवादी रहा हो। पार्टी की गम्भीर विचारधारात्मक कमज़ोरियों, और उनके चलते बारम्बार होने वाली राजनीतिक गलतियों, और उनके चलते राष्ट्रीय आन्दोलन पर अपना राजनीतिक वर्चस्व न कायम कर पाने के बावजूद, कम्युनिस्ट कतारों ने साम्राज्यवाद-सामन्तवाद विरोधी संघर्ष के दौरान बेमिसाल और अकूत कुर्बानियाँ दीं। कम्युनिस्ट पार्टी पर मज़दूरों और किसानों का पूरा भरोसा था।


1951 में तेलंगाना किसान संघर्ष की पराजय के बाद का समय वह ऐतिहासिक मुकाम था, जब, कहा जा सकता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का वर्ग-चरित्र गुणात्मक रूप से बदल गया और सर्वहारा वर्ग की पार्टी होने के बजाय वह बुर्जुआ व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति बन गयी। वह कम्युनिस्ट नामधारी बुर्जुआ सुधारवादी पार्टी बन गयी। लेकिन ऐसा रातोरात और अनायास नहीं हुआ। पार्टी अपने जन्मकाल से ही विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर थी और कभी दक्षिणपन्थी तो कभी ''वामपन्थी'' (ज्यादातर दक्षिणपन्थी) भटकावों का शिकार होती रही।


1920 में ताशकन्द में एम.एन. राय व विदेश स्थित कुछ अन्य भारतीय कम्युनिस्टों की पहल पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों में काम करने वाले कम्युनिस्ट ग्रुप मूलत: अलग-अलग और स्वायत्त ढंग से काम करते रहे। पुन: 1925 में सत्यभक्त की पहल पर कानपुर में अखिल भारतीय कम्युनिस्ट कांफ्रेंस में पार्टी की घोषणा हुई, लेकिन उसके बाद भी एक एकीकृत केन्द्रीय नेतृत्व के मातहत पार्टी का सुगठित क्रान्तिकारी ढाँचा नहीं बन सका। कानपुर कांफ्रेंस तो लेनिनवादी अर्थों में एक पार्टी कांग्रेस थी भी नहीं। बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में, मज़दूरों और किसानों के प्रचण्ड आन्दोलनों, उनके बीच कम्युनिस्ट पार्टी की व्यापक स्वीकार्यता एवं आधार, भगतसिंह जैसे मेधावी युवा क्रान्तिकारियों के कम्युनिज्म की तरफ झुकाव और कांग्रेस की स्थिति (असहयोग आन्दोलन की वापसी के बाद का और स्वराज पार्टी का दौर) ख़राब होने के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी इस स्थिति का लाभ नहीं उठा सकी। यह अलग से विस्तृत चर्चा का विषय है। मूल बात यह है कि विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर एक ढीली-ढाली पार्टी से यह अपेक्षा की ही नहीं जा सकती थी। 1933 में पहली बार, कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल, ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के आग्रहपूर्ण सुझावों-अपीलों के बाद, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का एक स्वीकृत सुगठित ढाँचा बनाने की कोशिशों की शुरुआत हुई और एक केन्द्रीय कमेटी का गठन हुआ। लेकिन वास्तव में उसके बाद भी पार्टी का ढाँचा ढीला-ढाला ही बना रहा। पी.सी. जोशी के सेक्रेटरी होने के दौरान पार्टी प्राय: दक्षिणपन्थी भटकाव का शिकार रही तो रणदिवे के नेतृत्व की छोटी-सी अवधि अतिवामपन्थी भटकाव से ग्रस्त रही। पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी का आलम यह था कि 1951 तक पार्टी के पास क्रान्ति का एक व्यवस्थित कार्यक्रम तक नहीं था। 1951 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा इस विडम्बना की ओर इंगित करने और आवश्यक सुझाव देने के बाद, भारतीय पार्टी के प्रतिनिधिमण्डल ने एक नीति-निर्धारक वक्तव्य जारी किया और फिर उसी आधार पर एक कार्यक्रम तैयार कर लिया गया। यानी तीस वर्षों तक पार्टी अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा प्रस्तुत आम दिशा के आधार पर राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की एक मोटी समझदारी के आधार पर ही काम करती रही। रूस और चीन की पार्टियों की तरह भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने देश की ठोस परिस्थितियों का - उत्पादन-सम्बन्‍धों और अधिरचना का ठोस अध्‍ययन-मूल्यांकन करके क्रान्ति का कार्यक्रम तय करने की कभी कोशिश नहीं की। इसके पीछे पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी ही मूल कारण थी और कार्यक्रम की सुसंगत समझ के अभाव के चलते पैदा हुए गतिरोध ने, फिर अपनी पारी में, इस विचारधारात्मक कमज़ोरी को बढ़ाने का ही काम किया।


तेलंगाना किसान संघर्ष की पराजय के बाद पार्टी नेतृत्व ने पूरी तरह से बुर्जुआ वर्ग की सत्‍ता के प्रति आत्मसमर्पणवादी रुख अपनाया। 1952 के पहले आम चुनाव में भागीदारी तक पार्टी पूरी तरह से संशोनवादी हो चुकी थी। संसदीय चुनावों में भागीदारी और अर्थवादी ढंग से मज़दूरों-किसानों की माँगों को लेकर आन्दोलन - यही दो उसके रुटीनी काम रह गये थे। पार्टी के रहे-सहे लेनिनवादी ढाँचे को भी विसर्जित कर दिया गया और इसे पूरी तरह से खुले ढाँचे वाली और ट्रेडयूनियनों जैसी चवन्निया मेम्बरी वाली पार्टी बना दिया गया। सोवियत संघ में ख्रुश्‍चेवी संशोनवाद के हावी होने और 1956 की बीसवीं कांग्रेस के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संशोनवाद को अन्तरराष्ट्रीय प्रमाण पत्र भी मिल गया। 1958 में अमृतसर की विशेष कांग्रेस में पार्टी संविधान की प्रस्तावना से, सर्वसम्मति से, क्रान्तिकारी हिंसा की अवधारणा को निकाल बाहर करने के बाद पार्टी का संशोनवादी दीक्षा-संस्कार पूरा हो गया।


लेकिन अब पार्टी के संशोनवादी ही दो ड़ों में बँट गए। डांगे-अधिकारी-राजेश्वर राव आदि के नेतृत्व वाले ड़े का कहना था कि कांग्रेस के भीतर और बाहर के रूढ़िवादी बुर्जुआ वर्ग का विरो करते हुए नेहरू के नेतृत्व में प्रगतिशील राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा कर रहे हैं अत: कम्युनिस्ट पार्टी को उनका समर्थन करना चाहिए, और इस काम के पूरा होने के बाद उसका दायित्व होगा संसद के रास्ते त्‍ता में आकर समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देना। ये लोग राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की बात कर रहे थे, जबकि लोक जनवादी क्रान्ति की बात करने वाला सुन्दरैया-गोपालन-नम्बूदिरिपाद आदि के नेतृत्व वाला दूसरा ड़ा कह रहा था कि त्‍तारूढ़ कांग्रेस साम्राज्यवाद से समझौते कर रही है और भूमि सुधार के वायदे से मुकर रही है, अत: जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के लिए हमें बुर्जुआ वर्ग के रैडिकल हिस्सों को साथ लेकर संघर्ष करना होगा। दोनों ही ड़े जनवादी क्रान्ति की बात करते हुए, त्‍तासीन बुर्जुआ वर्ग के चरित्र का अलग-अलग आकलन करते हुए अलग-अलग कार्यकारी नतीजे निकाल रहे थे लेकिन दोनों के वर्ग-चरित्र में कोई फर्क नहीं था। दोनों ही ड़े संसदीय मार्ग को मुख्य मार्ग के रूप में चुन चुके थे। दोनों बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों व ढाँचे का परित्याग कर चुके थे और काउत्स्की, मार्तोव और ख्रुश्‍चेव की राह अपना चुके थे। फर्क सिर्फ यह था कि एक ड़ा सीधो उछलकर बुर्जुआ वर्ग की गोद में बैठ जाना चाहता था, जबकि दूसरा विपक्षी संसदीय पार्टी की भूमिका निभाना चाहता था ताकि रैडिकल विरो का तेवर दिखलाकर जनता को ज्यादा दिनों तक ठगा जा सके। एक ड़ा अर्थवाद का पैरोकार था तो दूसरा उसके बरक्स ज्यादा जुझारू अर्थवाद की बानगी पेश कर रहा था। देश की परिस्थितियों के विश्लेषण और कार्यक्रम से सम्बन्धित मतभेदों-विवादों का तो वैसे भी कोई मतलब नहीं था, क्योंकि यदि क्रान्ति करनी ही नहीं थी तो कार्यक्रम को तो 'कोल्ड स्टोरेज' में ही रखे रहना था।


1964 में दोनों धड़े औपचारिक रूप से अलग हो गये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से अलग होने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के नेतृत्व ने भाकपा को संशोधनवादी बताया और कतारों की नज़रों में ख़ुद को क्रान्तिकारी सिद्ध करने के लिए ख़ूब गरमागरम बातें कीं। लेकिन असलियत यह थी कि माकपा भी एक संशोधनवादी पार्टी ही थी और ज्यादा धूर्त और कुटिल संशोधनवादी पार्टी थी।


इस नयी संशोनवादी पार्टी की असलियत को उजागर करने के लिए केवल कुछ तथ्य ही काफी होंगे। 1964 में गठित इस नयी पार्टी ने अमृतसर कांग्रेस द्वारा पार्टी संविधान में किये गये परिवर्तन को दुरुस्त करने की कोई कोशिश नहीं की। शान्तिपूर्ण संक्रमण की जगह क्रान्ति के मार्ग की खुली घोषणा और संसदीय चुनावों में भागीदारी को मात्र रणकौशल बताने की जगह इसने ''संसदीय और संसदेतर मार्ग'' जैसी गोल-मोल भाषा का अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल किया जिसकी आवश्यकतानुसार मनमानी व्याख्या की जा सकती थी। आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के अन्तर्सम्बन्‍धों के बारे में इसकी सोच मूलत: लेनिनवादी न होकर संघाधिपत्यवादियों एवं अर्थवादियों जैसी ही थी। फर्क यह था कि इसके अर्थवाद का तेवर भाकपा के अर्थवाद के मुकाबले अधिक जुझारू था। इसके असली चरित्र का सबसे स्पष्ट संकेतक यह था कि भाकपा की ही तरह यह भी पूरी तरह से खुली पार्टी थी और सदस्यता के मानक भाकपा से कुछ अधिक सख्त लगने के बावजूद (अब तो वह भी नहीं है) यह भी चवन्निया मेम्बरी वाली 'मास पार्टी' ही थी।


ख्रुश्‍चेवी संशोनवाद के विरुद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का संघर्ष 1957 से ही जारी था, जो 1963 में 'महान बहस' नाम से प्रसिद्ध खुली बहस के रूप में फूट पड़ा और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन औपचारिक रूप से विभाजित हो गया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के नेतृत्व ने पहले तो इस बहस की कतारों को जानकारी ही नहीं दी। इस मायने में भाकपा नेतृत्व की पोज़ीशन साफ थी। वह डंके की चोट पर ख्रुश्‍चेवी संशोनवाद के साथ खड़ा था। महान बहस की जानकारी और दस्तावेज़ जब कतारों तक पहुँचने लगे तो माकपा-नेतृत्व पोज़ीशन लेने को बाध्‍य हुआ। पोज़ीशन भी उसने अजीबोगरीब ली। उसका कहना था कि सोवियत पार्टी का चरित्र संशोनवादी है लेकिन राज्य और समाज का चरित्र समाजवादी है। साथ ही उसका यह भी कहना था कि ख्रुश्‍चेवी संशोनवाद का विरो करने वाली चीनी पार्टी ''वाम'' संकीर्णतावाद व दुस्साहसवाद की शिकार है। अब यदि मान लें कि साठ के दशक में सोवियत समाज अभी समाजवादी बना हुआ था, तो भी, यदि त्‍ता संशोनवादी पार्टी (यानी सारत: पूँजीवादी पार्टी) के हाथ में थी तो राज्य और समाज का समाजवादी चरित्र कुछेक वर्षों से अधिक बना ही नहीं रह सकता था। लेकिन माकपा अगले बीस-पच्चीस वर्षों तक (यानी सोवियत संघ के विघटन के समय तक) न केवल सोवियत संघ को समाजवादी देश मानती रही, बल्कि दूसरी ओर, धीरे-धीरे सोवियत पार्टी को संशोनवादी कहना भी बन्द कर दिया। इसके विपरीत, माओ और चीन की पार्टी के प्रति उसका रुख प्राय: चुप्पी का रहा। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की उसने या तो दबी जुबान से आलोचना की, या फिर उसके प्रति चुप्पी का रुख अपनाया। चीन में माओ की मृत्यु के बाद तो मानो इस पार्टी की बाँछें खिल उठीं। वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद देघ सियाओ-पिघ और उसके चेले-चाटियों ने समाजवादी संक्रमण विषयक माओ की नीतियों को पूरी तरह से तिलांजलि दे दी और ''चार आधुनिकीकरणों'' तथा उत्पादक शक्तियों के विकास के सिध्दान्त के नाम पर वर्ग सहयोग की नीतियों पर अमल की शुरुआत की। दुनिया के सर्वहारा वर्ग को ठगने के लिए उन्होंने पँजीवादी पुनर्स्थापना की अपनी नीतियों को ''बाज़ार समाजवाद'' का नाम दिया। लेकिन इस नकली समाजवाद का चरित्र आज पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। चीन में समाजवाद की सारी उपलब्धियाँ समाप्त हो चुकी है। कम्यूनों का विघटन हो चुका है। खेती और उद्योग में समाजवाद के राजकीय पूँजीवाद में रूपान्तरण के बाद अब निजीकरण और उदारीकरण की मुहिम बेलगाम जारी है। अब यह केवल समय की बात है कि समाजवाद का चोंगा और नकली लाल झण्डा वहाँ कब धूल में फेंक दिया जायेगा।


माकपा और भाकपा अपने असली चरित्र को ढँकने के लिए आज चीन के इसी ''बाज़ार समाजवाद'' के गुण गाती हैं। उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के विरो का जुबानी जमाख़र्च करते हुए ये पार्टियाँ वास्तव में इन्हीं की पैरोकार बनी हुई हैं। बंगाल, केरल और त्रिपुरा में त्‍तासीन रहते हुए वे इन्हीं नीतियों को लागू करती हैं, लेकिन केन्द्र में वे इन नीतियों के विरो की नौटंकी करती हैं और भूमण्डलीकरण की बर्बरता को ढँकने के लिए उसे मानवीय चेहरा देने की, उसकी अन्‍धाधुन्‍ध रफ़्रतार को कम करने की और नेहरूकालीन पब्लिक सेक्टर के ढाँचे को बनाये रखने की वकालत करती हैं। बस यही इनका ''समाजवाद'' है! ये पार्टियाँ कम्युनिज्म के नाम पर मज़दूर वर्ग की ऑंखों में धूल झोंककर उन्हें वर्ग-संघर्ष के रास्ते से विमुख करती हैं, उन्हें मात्र कुछ रियायतों की माँग करने और आर्थिक संघर्षों तक सीमित रखती हैं, संसदीय राजनीति के प्रति उनके विभ्रमों को बनाये रखते हुए उनकी चेतना के क्रान्तिकारीकरण को रोकने का काम करती हैं, तथा उनके आक्रोश के दबाव को कम करने वाले 'सेफ्टीवॉल्व' का तथा पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करती हैं।


आज साम्प्रदायिक फासीवाद का विरो करने का बहाना बनाकर ये संशोनवादी रंगे सियार कांग्रेस की अगुवाई वाले गठबन्‍धन सरकार के खम्भे बने हुए हैं। ये संसदीय बातबहादुर भला और कर भी क्या सकते हैं? फासीवाद का मुकाबला करने के लिए मेहनतकश जनता की जुझारू लामबन्दी ही एकमात्र रास्ता हो सकती है, लेकिन वह तो इनके बूते की बात है ही नहीं। ये तो बस संसद में गत्तो की तलवारें भाँज सकते हैं, कभी कांग्रेस की पूँछ में कंघी कर सकते हैं तो कभी तीसरे मोर्चे का घिसा रिकार्ड बजा सकते हैं।


शेर की खाल ओढ़े इन छद्म वामपन्थी गीदड़ों की जमात में भाकपा और माकपा अकेले नहीं हैं। और भी कई नकली वामपन्थी छुटभैये हैं और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के बीच से निकलकर भाकपा (मा-ले) लिबरेशन को भी इस जमात में शामिल हुए पच्चीस वर्षों से भी कुछ अधिक समय बीत चुका है।


1967 में नक्सलबाड़ी किसान उभार ने माकपा के भीतर मौजूद क्रान्तिकारी कतारों में ज़बरदस्त आशा का संचार किया था। संशोधनवाद से निर्णायक विच्छेद के बाद एक शानदार नयी शुरुआत हुई ही थी कि उसे ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद के राहु ने ग्रस लिया। भाकपा (मा-ले) इसी भटकाव के रास्ते पर आगे बढ़ी और खण्ड-खण्ड विभाजन की त्रासदी का शिकार हुई। कुछ क्रान्तिकारी संगठनों ने क्रान्तिकारी जनदिशा की पोज़ीशन पर खड़े होकर ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद का विरोध किया था, वे भी भारतीय समाज की प्रकृति और क्रान्ति की मंज़िल के बारे में अपनी ग़लत समझ के कारण जनता के विभिन्न वर्गों की सही क्रान्तिकारी लामबन्दी कर पाने और वर्ग-संघर्ष को आगे बढ़ा पाने में विफल रहे। नतीजतन ठहराव का शिकार होकर कालान्तर में वे भी बिखराव और संशोधनवादी विचलन का शिकार हो गये। भाकपा (मा-ले) (लिबरेशन) पच्चीस वर्षों पहले तक ''वामपन्थी'' दुस्साहसवादी लाइन का शिकार था। पर उसके पिट जाने के बाद धीरे-धीरे रेंगते-घिसटते आज दक्षिणपन्थी भटकाव के दूसरे छोर तक जा पहुंचा है और आज खाँटी संसदवाद की बानगी पेश कर रहा है।


भाकपा (माओवादी) आज ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद के भटकाव का प्रतिनिधित्व कर रहा है और मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को बदनाम कर रहा है। अन्य कई सारे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन हैं जो अलग-अलग अंशों में संशोनवादी भटकावों-विच्युतियों के शिकार हैं और भारतीय समाज के पूँजीवादी चरित्र की असलियत को समझने के बजाय आज भी नई जनवादी क्रान्ति के चरखे पर ''मार्क्‍सवादी'' नरोदवाद का सूत काते जा रहे हैं। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर आज लम्बे गतिरो का शिकार होकर विघटित होने के मुकाम तक जा पहुँचा है। हालाँकि आज भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी तत्तवों की सबसे बड़ी तादाद इसी धारा के संगठनों में मौजूद हैं, लेकिन इन संगठनों को एकजुट करके आज एक सर्वभारतीय पार्टी का पुनर्गठन एक असम्भवप्राय काम हो चुका है। अब नये सिरे से मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद की सुसंगत एवं गहरी समझ तथा भारतीय क्रान्ति के कार्यक्रम की सही समझ के आधार पर एक क्रान्तिकारी पार्टी का नये सिरे से निर्माण करके ही भारत में सर्वहारा क्रान्ति को अंजाम तक पहुँचाया जा सकता है।


इसके लिए हमें क्रान्ति की कतारों में नई भर्ती करनी होगी, उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा-दीक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के काम को लगन और मेहनत से पूरा करना होगा, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को संशोनवादियों और अतिवामपन्थी कठमुल्लों का पुछल्ला बने रहने से मुक्त होने का आह्नान करना होगा और इसके लिए उनके सामने क्रान्तिकारी जनदिशा की व्यावहारिक मिसाल पेश करनी होगी। लेकिन इस काम को सार्थक ढंग से तभी अंजाम दिया जा सकता है जबकि कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास से सबक लेकर हम अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरी को दूर कर सकें और बोल्शेविक साँचे-खाँचे में तपी-ढली पार्टी का ढाँचा खड़ा कर सकें। संशोनवादी भितरघातियों के विरुद्ध निरन्तर समझौताहीन संघर्ष के बिना तथा मज़दूर वर्ग के बीच इनकी पहचान एकदम साफ किये बिना हम इस लक्ष्य में कदापि सफल नहीं हो सकते। बेशक हमें अतिवामपन्थी भटकाव के विरुद्ध भी सतत संघर्ष करना होगा, लेकिन आज भी हमारी मुख्य लड़ाई संशोनवाद से ही है।

0 कमेंट:

बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


  © Blogger templates Newspaper III by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP