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16.11.10

एलाइड निप्‍पोन (साहिबाबाद) के मजदूरों पर मैनेजर की हत्‍या का आरोप और घटना की असलियत

साहिबाबाद भारत के उन औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है जहाँ मजदूरों के संघर्षों का शानदार इतिहास रहा है और जन नाटय मंच के सफदर हाशमी की यहां हुई शहादत भी मजदूर संघर्षों की गवाह रही है। लेकिन आज जब उदारीकरण (कठोरीकरण) व निजीकरण की नीतियों के तहत मजदूरों के हक व अधिकारों पर लगातार हमले तेज कर दिए गए तथा मजदूरों को संगाठित होने से रोकने के लिए प्रशासन व उद्योगपति द्वारा खुली तानाशाही की जा रही है तो स्वाभाविक है कि मजदूरों का भी आक्रोश भी कहीं न कहीं फूटेगा। याद हो भारत के पूर्व राष्ट्रपति के.आर नारायण ने यह अकारण नहीं कहा था कि ''लम्बे समय से कष्ट उठा रहे लोगों का धीरज चुक चुका है जो किसी विस्फोटक स्थिति को पैदा कर सकता है'' और पिछले एक दशक में देखे तो मजदूरों के शोषण, दमन-उत्पीड़न, असुरक्षा और घुटन के बीच सुलगता आक्रोश तो सामने आ ही रहा है (हाल ही में गुड़गांव, लुधियाना, गोरखपुर, ग्रेजियानो में मजदूर संघर्ष इसके गवाह है)। लेकिन इस बार ये आक्रोश
साहिबाबाद साइट-4 पर फूटा।

विगत 13 नवम्बर को साहिबाबाद साइट-4 पर स्थिति इंडो-जापानी कोम्बो एलाइड निप्पोन कम्पनी में मजदूरों द्वारा अपने कानूनी मांगों को लेकर प्रबन्धन और मजदूरों के बीच खूनी संघर्ष हुआ है जिसमें कम्पनी के मैनेजर योगेन्द्र चौधरी की जान चली गई। घटना के फौरन बाद प्रशासन, उद्योगपतियों की संस्थाएं मजदूरों को सबक सिखा देने के लिए मुस्तैसद हो गई हैं और पूरा मीडिया चीख-चीखकर मज़दूरों को हत्यारा साबित करने में जुट गया। आइए पहले एलाइड निप्पोन कम्पनी में मजदूरों के हालात तथा संघर्ष के इतिहास को जान ले तभी हम किसी नतीजे पर पहुँच पायेंगे।

13 नवम्बर हुआ क्या?- यूनियन ने हड़ताल का ऐलान पहले ही कर दिया था जिस कारण कम्पनी प्रबन्धन इस रोकना चाहता था । घटना के दिन दोपहर 2 बजे कम्पनी के एचआर हेड महेन्द्र चौधरी और योगेन्द्र चौधरी दो पहिया क्लच वाइंटिग विभाग में गए। जहां मजदूरों से उनकी कुछ कहासुनी हो गयी। जिसके बाद योगेन्द्र चौधरी ने अपनी पिस्तौल से चार-पांच राउंड फायरिंग की जिसमें एक गोली ब्रजेश नामक मज़दूर को लग गई। उसके बाद गुस्साए मजदूरों ने अधिकारियों से जमकर टक्कर ली और आत्मरक्षा में किये गये प्रयास में मैनेजर की मौत हो गई। इसमें दोनों तरफ के कई लोग घायल हो गए।



घटना का असली कारण- कंपनी में तीन महीने से प्रबंधन और यूनियन के बीच करार, बोनस और वेतन वृद्धि को लेकर तनातनी थी। स्थायी मजदूरों की मांगों में कंपनी में 6-8 साल से काम से कर रहे मजदूरों को प्राथमिकता के आधार पर स्थायी करने की मांग भी थी। और कंपनी के 7 कैजुअल मज़दूरों को भी काम से निकाल रखा था। जिसको लेकर भी प्रबंधन से मांग की जा रही थी और जिसका केस डीएलसी के पास पहले से चल रहा था। दूसरी तरफ मालिक-प्रंबधन इसे लागू नहीं होने देना चाहता था। इसके लिए मालिकान ने लगभग 6 महीने पहले यूनियन को तोड़ने के लिए तथाकथित प्रबंधन (असल में सफेदपोश गुंडों को) - योगेंद्र चौधरी तथा उसके साथियों राजकुमार, ओमवीर, महेंद्र सिंह चौधरी और नरेंद्र डबास को गुप्त रूप से लाखों रुपये दिये गये थे। तब से यह तथाकथित प्रबंधन फैक्टरी में अपनी मनमर्जी चला रहा था। फैक्टरी में सरेआम पिस्तौल लेकर घूमने अलावा इस नये तथाकथित प्रबंधन का आतंकी काम जारी था। बात-बात पर बहाना बनाकर मज़दूरों को डराना-दबाना-धमकाना और हाथ छोड़ देना, पीट देना जारी था तथा वर्करों को छोटी-छोटी बात पर झूठा बहाना बना कर कंपनी से बाहर करने का काम और तेज़ कर दिया गया ताकि मालिक को किसी मज़दूर को स्थायी न करना पड़े तथा अपने करार से पीछे हटा जा सके। जो कोई भी ज़रा सा भी इस दबाव का विरोध करता था उसे निशाना बना कर बाहर का रास्ता दिखाना जारी था। इससे मज़दूरों में भारी रोष था। मज़दूर लगातार डर-भय की स्थिति में रहते थे। शिकायतकर्ता के काम से हाथ धोना तय था। मज़दूर लगातार अपनी आर्थिक जरूरतों और भय के द्वन्द में रहता था। उसे हमेशा इस बात का डर रहता था कि विरोध करता हूं तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा तथा आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी तरफ अपने मान-सम्मान को कैसे बचाये। यह स्थिति अन्दर ही अन्दर लगातार भयंकर रूप धारण करती जा रही थी जिसने 13 तारीख़ को विस्फोटक रूप धारण कर लिया।

तथाकथित प्रबंधन की असलियत- आस-पास के इलाके और मज़दूरों से बातचीत करने पर पता चला कि योगेंद्र चौधरी अपने असर-रसूख़ का पूरा इस्तेमाल यूनियनें तोड़ने और दबंगई के लिए करता था। एक मज़दूर ने बताया कि उसने रामा स्टील तथा टीसीएल तथा अन्य जगह पर भी यूनियन तोड़ने का काम किया है। योगेंद्र की पत्नी शीला चौधरी गाजियाबाद पुलिस-विभाग में बतौर सब-इंस्पेक्टर तैनात हैं और उसका तमाम बड़े-बड़े लोगों से सांठगाठ थी - चाहे वो प्रशासन में हो, पुलिस में हो या राजनीति में हों। इसके चलते योगेंद्र मजदूरों के संघर्ष को दबाने तथा यूनियन को तोड़ने में कामयाब होता था। और इस तरह का कारोबार और भी जगह चला रहा था। उसने इस फैक्टरी के प्रबंधन में भी अपनी मर्जी से लोगों को रखना-निकालना जारी रखा था ताकि उस का उद्देश्य जल्दी से जल्दी पूरा हो सके। हालांकि, चार साल पहले यूनियन बनने के बाद मालिक श्रमिकों की मांगों को मानने के लिए राजी हो गया था। लेकिन इन्हें लागू करने के सवाल पर श्रमिकों और प्रबंधन में झगड़ा रहता था। जिसको लेकर यूनियन तीन दिवसीय हड़ताल पर जाने वाली थी। लेकिन उपश्रमायुक्त ने 12.11.10 को औद्योगिक विवाद रूल-4 लगाकर हड़ताल पर रोक लगा दी। जिसकी सूचना यूनियन को शाम को मिल गई थी। यूनियन ने इसका जवाब 13 तारीख़ को दे दिया था।


मजदूरों की संख्या- एलाइड निप्पोन कंपनी में लगभग 300 के करीब परमानेंट तथा लगभग इतने ही कैजुअल वर्कर काम करते हैं। इसके इलावा कम्पनी में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की गिनती लगभग दोनों के बराबर है। 2006 में कम्पनी द्वारा बढ़ते शोषण के खिलाफ मजदूरों ने अपनी यूनियन बनाई थी।

कंपनी का साम्राज्य - मजदूर बताते है कि कंपनी के मालिक की इसके इलावा गुड़गांव तथा अन्य जगहों पर 4-5 कंपनियां और भी हैं। दिल्ली में किसी जगह बड़ा शोरूम भी है।

प्रशासन का मजदूर पर तानाशाही रवैया - इस मामले में योगेंद्र के रिश्तेदार व कंपनी के सिक्योरिटी ऑफिसर ओमबीर सिंह ने लिंक रोड थाने में 27 मजदूरों को नामजद कराते हुए 377 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है। पुलिस ने इस मामले में आठ लोगों को गिरफ्तार किया है। वैसे भी घटना के दिन से ही एसएसपी रघुबीर लाल कहे रहे है कि मारपीट मजदूरों की ओर से हुई। दूसरी तरफ श्रम विभाग पहले ही औद्योगिक विवाद की दुहाई देकर यूनियन की हड़ताल पर रोक लगा चुका था। जिस तरह प्रशासन का नजरिया साफ है, उसी तरह पूरे साइट-4 इलाकों को पुलिस छावानी में बदल दिया है। मजदूर बस्तियों में जगह-जगह पुलिस दल छापामारी कर रहे हैं। दूसरी तरफ मजदूर हकों की ठेकेदार बनने वाली सीटू का नेतृत्व चुप्पी मारे बैठा है मानो उन्हें सांप सूँघ गया हो।

कुछ सवाल जिनके जवाब प्रशासन के पास नहीं है- जाहिर तौर पर मैनेजर की मृत्यु को जायज नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन सवाल ये है कि प्रबंधन मजदूरों से वार्ता करना चाहता था तो क्या उसका रास्ता पिस्तौल है? अगर 377 मजदूरों पर मुकदमा दर्ज किया जाता है तो पिस्तौल से मजदूरों पर जानलेवा हमले करने वाले प्रबन्धन पर क्यों नहीं? दूसरा, अगर प्रबंधन ने यूनियन बनने के समय मजदूरों की मांगों को पूरा कराने का वादा किया था और अब वादा खिलाफी कर मनमाने तरीके से मजदूरों की छंटनी कर रहा है तो यूनियन के सामने हड़ताल पर जाने के सिवा और कोई चारा नहीं था। जो की एक नागरिक का संवैधानिक हक है।

एक मैनेजर की मौत के लिए 377 मज़दूर कसूरवार - साइट-4 एलाइड निप्पोन कम्पनी की घटना से ग्रेटर नोएडा के ग्रेजियानो की घटना याद ताजा हो जाती है जिसमें कम्पनी के सीईओ की मौत के लिए 136 मजदूरों को जेल भेज दिया गया था। तथा 6 मजदूरों पर तो रासुका के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। साइट-4 की घटना ने एक बार और यह दिखा दिया है कि पूँजी के मालिकों और मजदूरों के बीच की इस लड़ाई में पूँजीपति और सरकार, पुलिस, प्रशासन, अदालतें, दलाल ट्रेड यूनियन - सब मजदूरों के खिलाफ एकजुट हैं।
क्योंकि भारत की औद्योगिक दुर्घटनाओं में, जिनमें मजदूरों की मृत्यु अप्रत्यक्ष रूप से प्रबन्धन की कारगुजारियों का नतीजा होती है, किसी को सजा नहीं मिलती। भोपाल कांड, मेट्रो रेल जमरूदपुर साइट या कोरबा कांड जिसमें मजदूरों के हत्यारों को आज तक कोई सजा नहीं दी गई। ऐसे में साफ है स्वतन्त्र और निष्पक्ष कही जाने वाली न्यायपालिका का घनघोर वर्गीय पूर्वाग्रह भी इन घटनाओं में दिखता है। जब सम्पत्तिवान वर्गों का कोई व्यक्ति हत्या जैसे जुर्म में गिरफ्तार होता है तो आनन-फानन में उसकी जमानत हो जाती है। दूसरी ओर मजदूरों पर बिना किसी सबूत के हत्या का मुकदमा चलाया जा जाता है।

बिगुल मजदूर दस्ता

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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