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29.6.10

यूनानी मजदूरों और नौजवानों के जुझारू आन्दोलन के सामने विश्व पूँजीवाद के मुखिया मजबूर

यूरोपीय आर्थिक संघ के संकट ने खोली वित्तीय संकट से उबरने के दावों की पोल!
जनता नहीं उठायेगी सट्टेबाजों, आर्थिक लुच्चों-लफंगों के जुए का बोझ

अभिनव




अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ्रांस समेत विश्व पूँजीवाद के सभी छोटे-बड़े चौधरी अभी हकला-तुतलाकर विश्व पूँजीवाद के वित्तीय संकट से उबरने की बातें कर ही रहे थे कि उनके कर्मों का फल फिर से सामने आ गया। जगह बदल गयी, नाम बदल गये (लेकिन फिर से जाहिर हो गया कि 'अन्तिम विजय' और 'पूँजीवाद के अलावा कोई विकल्प नहीं' जैसे दावे करने वाला विश्व पूँजीवाद अन्दर से एकदम खोखला, कमजोर और क्षरित हो चुका है। आज यह सिर्फ इसलिए टिका हुआ है कि जनता की ताकतें बिखरी हुई हैं और विश्व मजदूर आन्दोलन वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक रूप से कमजोर है। पूँजीवाद एक विश्व व्यवस्था के रूप में सिर्फ और सिर्फ जड़ता की ताकत से टिका हुआ है।
हाल ही के यूनान के आर्थिक संकट और उसके बाद यूनान को दिये गये 1 ट्रिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज ने विश्व पूँजीवाद की सेहत को एक बार फिर बेनकाब कर दिया। पहले यूरोपीय संघ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यूनान, पुर्तगाल और स्पेन को कोई भी सहायता पैकेज देने को तैयार नहीं थे और यूनान पर अपने सार्वजनिक ख़र्चे कम करने, निजीकरण करने, मजदूरी में कटौती करने और सभी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने वाली योजनाओं को रद्द करने की माँग कर रहे थे। लेकिन यूनानी मजदूरों और युवाओं के जुझारू तेवर के सामने पूरे यूरोप के पूँजीवादी देशों को यह समझ में आ गया कि ऐसी कोई भी कटौती नहीं की जा सकती है और न ही निजीकरण कर पाना सम्भव होगा और अगर सहायता पैकेज नहीं दिया गया और यूनान दीवालिया घोषित हुआ तो तमाम यूरोपीय बैंक एक-एक करके धराशायी होंगे और एक 'चेन रिएक्शन' के परिणामस्वरूप संकट पूरे विश्व में फैल जायेगा। इसलिए 7 मई को 1 ट्रिलियन डॉलर का बेलआउट पैकेज देकर विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के मरीज की उखड़ती साँसों को कुछ अस्थायी स्थायित्व प्रदान किया गया। लेकिन इस पूरे संकट की कहानी 2 साल पहले शुरू हुई थी।
2008 के सितम्बर में अमेरिकी सबप्राइम संकट अपने चरम पर था और अमेरिका और यूरोप की जदों से बाहर निकल विश्व पूँजीवाद के आर्थिक संकट की शक्ल अख्तियार कर चुका था। इस संकट का कारण था अमेरिका के वित्तीय इजारेदार पूँजीपतियों के मुनाफे की हवस। इससे पहले कि हम मौजूदा संकट के बारे में कुछ कहें, संक्षेप में 2006 से जारी हुए और 2008 में चरम पर पहुँचे अमेरिकी सबप्राइम संकट के बारे में बता देना उपयोगी होगा, क्योंकि मौजूदा संकट का उससे गहरा रिश्ता है।

मौजूदा संकट की पृष्ठभूमि
दिसम्बर 2006 से अमेरिका में शुरू हुए संकट का कारण था वित्तीय पूँजीपतियों के पापों का घड़ा भर जाना! द्वितीय विश्वयुध्द के बाद करीब दो दशक की तेजी के बाद से ही विश्व पूँजीवाद अतिउत्पादन और मन्दी के अपने संकट से कभी पूरी तरह उबर नहीं पाया था। लेकिन 1990 के दशक के उत्तरार्ध्द से हल्की मन्दी गहरे संकट का रूप लेने लगी थी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था ख़ास तौर पर संकट से घिरती जा रही थी। यह संकट वास्तव में अतिउत्पादन का ही संकट था। पूँजीवाद उत्पादन की प्रक्रिया में ही मजदूर वर्ग को अधिक से अधिक दरिद्र बनाता जाता है, दूसरी ओर वह उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी का इस्तेमाल कर उत्पादन को बढ़ाता जाता है और लागत को घटाता जाता है। इस प्रक्रिया में उत्पादकता को बढ़ाकर वह अधिक से अधिक मजदूरों की छँटनी कर उन्हें सड़क पर धकेलता जाता है। नतीजा यह होता है कि पूरे समाज की बहुसंख्यक आबादी अधिक से अधिक ग़रीब होती जाती है और मुट्ठीभर अमीरजादे और अधिक सम्पत्ति बटोरते जाते हैं। समाज की बहुसंख्या के ग़रीब होते जाने और उत्पादन के बढ़ते जाने के बीच अन्तरविरोध पैदा होता है। सवाल यह खड़ा हो जाता है कि मालों से पटे हुए बाजार में ख़रीदारी करेगा कौन? अमीरजादों को जितनी शाहख़र्ची करनी होती है, वे कर लेते हैं। लेकिन उसकी भी कोई सीमा होती है। उनके हर सुख-सुविधा को ख़रीद लेने के बाद भी बाजार सामानों से पटा रहता है लेकिन ख़रीदने वाला कोई नहीं होता, क्योंकि समाज के मजदूर और निम्न मध्‍यवर्ग के लोग तो ख़रीदने की क्षमता से लगातार वंचित होते जाते हैं। यही कारण बनता है अतिउत्पादन और मन्दी का। अब दुनियाभर के और ख़ास तौर पर अमेरिका के पूँजीपति वर्ग ने अपने मुनाफे को कायम रखने के लिए 1960 के दशक में एक नया तरीका निकाला। उन्होंने महँगी उपभोक्ता सामग्रियों, जैसे कि फ्रिज, टी.वी., वाशिंग मशीन, कार आदि ख़रीदने के लिए मध्‍यवर्ग को ब्याज पर ऋण देने की शुरुआत की। इससे मध्‍यवर्ग ने फिर से थोड़ी ख़रीदारी शुरू की और बाजार में फँसी पूँजी वित्तीय पूँजी के धक्के से फिर से घूमनी शुरू हो गयी। लेकिन पहले बैंक मध्‍यवर्ग के उन्हीं लोगों को ऋण देते थे जिनके पास ब्याज चुकाने लायक आमदनी होती थी। लेकिन मध्‍यवर्ग के बीच ऋण का यह व्यापार भी जल्दी ही सन्तृप्त हो गया और लोगों ने ऋण लेकर ऐशो-आराम के सामान ख़रीदने बन्द कर दिये। इसके बाद बैंकों ने हताशा में निम्न मध्‍यवर्ग के लोगों को ऋण देकर ख़रीदारी करवानी शुरू की। इसके लिए वे अधिक ब्याज लेने लगे क्योंकि ऐसे लोगों के दीवालिया होने का ख़तरा भी होता था और इसलिए बैंक ब्याज के जरिये ही मूलधन की भरपाई जल्दी से जल्दी कर लेना चाहते थे। निम्न मध्‍यवर्ग के बीच भी ऋण का यह बाजार जल्द ही सन्तृप्त हो गया। इसके बाद 2000 के दशक के पूर्वार्ध्द में कुछ बैंकों ने लोगों के ऋण वापसी की क्षमता की परवाह किये बग़ैर अन्‍धाधुन्‍ध ऋण देना शुरू कर दिया। यह पूँजीपतियों की हताशा का नतीजा था। मन्दी के हाथों तबाह हो जाने से बचने का और कोई रास्ता भी उनके पास नहीं बचा था। ऋण स्वयं एक बिकाऊ माल बन गया था और विभिन्न बैंकों में आपस में ऋण बेचने को लेकर भी प्रतिस्पर्धा होने लगी थी। नतीजा यह हुआ कि गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में बैंकों ने समाज के ग़रीब तबकों को भी अन्‍धाधुन्‍ध ऋण बाँटे। इसके लिए अमेरिकी बैंकों ने यूरोप और जापान के बैंकों से ऋण लिया, या यूँ कहें कि अपने द्वारा बेचे गये ख़तरनाक ऋणों को इन बैंकों को बेचा (फिर इन बैंकों ने आपस में भी इन ऋणों की जमकर ख़रीद और बिक्री की)। इंग्लैण्ड के बैंक तो स्वयं भी ऐसे निम्नस्तरीय (सबप्राइम) ऋण देने लगे। लेकिन इस खेल का अन्त ख़तरनाक था।
जब अमेरिका के तमाम कमजोर तबकों के लोगों ने ऋण चुकाने में अक्षमता जाहिर करनी शुरू की, तो अमेरिकी बैंकों ने उनकी सम्पत्ति जब्त करनी शुरू की, ताकि उन्हें फिर से बेचकर अपनी पूँजी को संचरित करते रह सकें। लेकिन मजेदार बात यह थी कि अब बाजार में इस जब्त सम्पत्ति के लिए पर्याप्त ख़रीदार भी नहीं बचे थे। परिणामस्वरूप बैंकों का पैसा मकानों, कारों, आदि में फँसना शुरू हो गया और उनके पास नकदी की भारी कमी हो गयी। यहीं से बैंकों का ढहना शुरू हुआ और साइकिल स्टैण्ड में खड़ी साइकिलों की तरह अमेरिका, इंग्लैण्ड, आयरलैण्ड, आइसलैण्ड, जर्मनी आदि में बैंक, बीमा कम्पनियाँ और अन्य वित्तीय संस्थान एक-एक करके नकदी की कमी में अपनेआप को दीवालिया घोषित करने लगे। पूरा पूँजीवादी विश्व एक भयंकर वित्तीय संकट की गिरफ्त में आ गया। बैंकों के ग्राहक बैंकों के ख़िलाफ प्रदर्शन करने लगे (पूँजीपतियों ने उत्पादन में कमी लानी शुरू कर दी और छँटनी के कारण बेरोजगारी बढ़ना शुरू हो गयी)। व्यापारी अपने जोखिम को कम करने के लिए जमाख़ोरी करने लगे और रोजमर्रा की जरूरत के सामान महँगे होने लगे, समाज के निचले वर्गों में भरा ग़ुस्सा फूटकर सड़कों पर आने लगा।
जब स्थिति हाथ से निकलने लगी तब दुनियाभर के पूँजीवादी लुटेरों ने बैठकर आम सहमति बनायी और बैंकों को बचाने के लिए जनता के पैसे से बने सरकारी ख़जाने से अरबों-ख़रबों निकालकर बैंकों को दे दिये। इससे संकट तात्कालिक तौर पर थमा हुआ नजर आने लगा। लेकिन जल्दी ही वित्तीय संस्थानों, बैंकों और शेयर मार्केट में बैठे परजीवी सटोरियो ने फिर से दाँव लगाना और जुआ खेलना शुरू कर दिया। तभी तमाम विश्लेषक बोलने लगे थे कि बैंकों को बचाकर अमेरिकी, यूरोपीय और दुनियाभर के देशों की पूँजीवादी सरकारों ने एक बुरा उदाहरण पेश किया है और इससे सट्टेबाजी और बढ़ेगी और जब यह संकट एक चक्कर पूरा करके फिर वापस आयेगा, तब और अधिक भयंकर रूप धारण कर चुका होगा। और यही हुआ है। आइये देखते हैं कि यह कैसे हुआ है।

21वीं सदी की यूनानी त्रासदी
अमेरिका और इंग्लैण्ड ने 2008 के उत्तरार्ध्द में बैंकों को जनता के पैसों से बेलआउट पैकेज दे-देकर बचाया और यह साबित कर दिया कि पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग के मामलों का प्रबन्‍धन करने वाली समितियाँ होती हैं और उनका काम उन्हीं की सेवा करना होता है। लेकिन यूरोपीय आर्थिक संघ में शामिल देशों के लिए इस तरह का बेलआउट पैकेज देना सम्भव नहीं था, क्योंकि यूरोपीय आर्थिक संघ का चार्टर इस बात की आज्ञा नहीं देता है। दूसरी बात, यूरोपीय आर्थिक संघ में शामिल देशों में स्पेन, पुर्तगाल, यूनान, आयरलैण्ड, पोलैण्ड और आइसलैण्ड जैसे देश भी शामिल हैं जिनकी अर्थव्यवस्थाएँ कमजोर हैं और काफी समय से संकटग्रस्त हैं और इनके पास इतना अतिरिक्त सरकारी ख़जाना था भी नहीं, जिससे कि ये बैंकों को बचाने के लिए बेलआउट पैकेज दे पाते। इन कारकों का यूनान में असर यह हुआ कि सरकार ने जरूरी सार्वजनिक मदों में कटौती करके, यानी कि जिन मदों से मजदूरों, छात्रों, और निम्न मध्‍यवर्गों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का इन्तजाम किया गया था, बैंकों को बचाया। फिर इन मदों के लिए उन्हीं बैंकों से भारी ब्याज दर पर कर्ज लिया! किसी भी तर्कसंगत मजदूर, नौजवान या आम नागरिक के लिए यह मजाकिया बात हो सकती है। लेकिन पूँजीपति वर्ग और उनकी 'मैनेजिंग कमेटी' का काम करने वाली सरकारों के लिए यह सामान्य बात है। सरकार होती ही है वित्तीय इजारेदार पूँजीपतियों के मुनाफे के लिए! इसलिए पहले दीवालिया होने की कगार पर खड़े बैंकों और सटोरियों को जनता की रोजी-रोटी में कटौती करके बचाया गया और फिर जनता बग़ावत न कर दे इसलिए उनके लिए बनी योजनाओं के वित्तपोषण के लिए यूनान की सरकार ने इन्हीं बैंकों से भयंकर ब्याज दरों पर कर्ज लिया।
आगे सुनिये क्या होता है, इस 21वीं सदी की महान यूनानी त्रासदी में! इन ब्याज दरों के भयंकर रूप से ज्यादा होने और साथ ही वैश्विक संकट के दबाव के कारण यूनानी सरकार के लिए इन कर्जों को चुकाना मुश्किल होने लगा। परिणामत: यूनान की सरकार ने निजी बैंकों से फिर से और भी ज्यादा दरों पर कर्ज लिया। इस पूरी प्रक्रिया का नतीजा यह हुआ कि अक्टूबर 2009 में यूनान की सरकार ऋण चुकता न कर पाने की स्थिति में दीवालिया होने की कगार पर खड़ी हो गयी। ऋणदाता बैंकों ने, जिन्हें कुछ समय यूनानी जनता के पैसों से दीवालिया होने से बचाया गया था, यूनान की सरकार से माँग की कि यूनान की सरकार अपनी सभी कल्याणकारी योजनाओं और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा योजनाओं की मदों में कटौती करे और उन्हें ख़त्म करना शुरू कर दे। सरकार ने ज्यों ही ऐसा करना शुरू किया यूनान के मजदूर और छात्र-युवा सड़कों पर उतरने लगे। सरकार-विरोधी प्रदर्शन सारे देश में फैल गये और राजधानी में संसद के बाहर भी प्रदर्शन होने शुरू हो गये। थोड़े ही समय में ये प्रदर्शन जगह-जगह हिंसक रुख़ अख्तियार करने लगे। कई हिस्सों में भूख से परेशान ग़रीब यूनानी जनता ने खाद्यान्न दंगे शुरू कर दिये और दुकानों में लूटपाट होने लगी। मजदूरों का प्रतिरोध धीरे-धीरे संगठित होने लगा। कई जगहों पर मजदूरों ने कारख़ानों पर कब्जा करने का भी प्रयास किया और कई जगह प्रबन्‍धन और मालिकान को पीटकर भगा दिया। मजदूरों के प्रतिरोध का संगठित होना और उसका छात्रों और नौजवानों के आन्दोलन से मिलना यूनान के पूँजीपति वर्ग के लिए ख़तरे की घण्टी थी। यूनान के नये संशोधनवादी प्रधानमन्त्री जॉर्ज पापैण्ड्रन्न को यह समझ में आ गया कि यूनान अब मजदूरों और आम जनता पर सटोरियों और दलालों की आर्थिक लफंगई का बोझ और नहीं डाल सकता। नतीजतन, उन्होंने विश्व पूँजीवाद के अन्य सरदारों के सामने स्पष्ट कर दिया कि अब अगर यूनान को बेलआउट पैकेज नहीं दिया गया तो वह यूरोपीय आर्थिक संघ से बाहर निकल जायेगा। यूरोपीय आर्थिक संघ से निकलने के बाद यूनान यूरो के स्थान पर स्वयं अपनी मुद्रा का उपयोग करने और उसका अवमूल्यन करके और मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाकर संकट से फिलहाल कुछ समय के लिए निकल पाने में समर्थ हो जाता। लेकिन इससे यूरोपीय संघ में जर्मनी को काफी नुकसान होता, यूरो अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में बेहद कमजोर हो जाता और यूनानी मुद्रा में कर्ज क़े वापस होने का बैंकों के लिए कोई ख़ास मतलब नहीं होता। इस ख़तरे के अलावा एक और ख़तरा मँडरा रहा था। यह यूनानी संकट अब स्पेन और पुर्तगाल तक पहुँच चुका था। अगर तुरन्त सहायता पैकेज नहीं दिया जाता तो दक्षिणी यूरोप के साथ-साथ केन्द्रीय यूरोप की कई अर्थव्यवस्थाएँ दीवालिया हो जातीं। इस बार मामला बैंकों के दीवालिया होने का नहीं था, बल्कि देशों के दीवालिया होने का था। अमेरिका भी अब बेलआउट पैकेज देने के लिए जर्मनी और फ्रांस को मनाने में लग गया। इसमें अमेरिका का भी हित था, क्योंकि अमेरिकी बैंकों के 3.6 ट्रिलियन डॉलर यूरोप के उन बैंकों में लगे थे जिन्होंने यूनान, पुर्तगाल और स्पेन की सरकारों को कर्ज दिया था। अगर यूनान की सरकार ऋण देने में अक्षम साबित होती तो यूरोप के इन बैंकों के ढहने के साथ ही, बीमारी से उठने की कोशिश कर रहे अमेरिकी बैंकों को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ता और पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी फिर चरमराकर बैठ जाती। पहले से ही बेरोजगारी के सामाजिक असन्तोष का कारण बनने से परेशान अमेरिका और अधिक दबाव झेलने की स्थिति में नहीं था। इसीलिए ओबामा साहब मोहतरमा मर्केल और जनाब सरकोजी को इस बात पर मनाने लगे कि वे सहायता पैकेज दे दें। अन्तत: बीती 7 मई को अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय संघ ने मिलकर मुख्य रूप से यूनान और साथ ही पुर्तगाल और स्पेन को निजी बैंकों के कर्ज का एक हिस्सा चुकाने के लिए 980 बिलियन डॉलर का बेलआउट पैकेज दिया। शेयर मार्केट के सटोरिये इसके एकदम ख़िलाफ थे। इसका कारण यह था कि यूनान के दीवालिया होने की सम्भावना पैदा होते ही इन्होंने इस पर भी सट्टा लगा दिया था कि यूनान दीवालिया होगा या नहीं! वित्तीय पूँजी इस हद तक मुर्दाख़ोर हो सकती है कि एक देश के दीवालिया होने के लिए शेयर मार्केट रूपी जुआघर में दाँव लगाये, इसकी कल्पना पूँजीवाद की ओर से क्षमायाचना करने वालों ने शायद कभी नहीं की होगी! वास्तव में, इन सटोरियों ने एक अलग वित्तीय उपकरण का आविष्कार कर डाला ताकि वे यूनान के दीवालिया होने पर सट्टा लगा सकें। इसे कहते हैं 'क्रेडिट डिफॉल्ट स्वॉप'। इस बॉण्ड की कीमत अक्टूबर 2009 में 120 बिन्दु के स्तर से फरवरी 2010 में 419 पर पहुँच गयी। जब बेलआउट पैकेज देकर दूरदर्शी पूँजीवादी राजसत्ताओं ने यूनान को बचाया तो ये सटोरिये बहुत मिनमिनाये और भिनभिनाये! लेकिन उन्हें तमाम वित्त मन्त्री और विशेषज्ञ यह समझाने में अभी भी लगे हुए हैं कि पूँजीवाद की दीर्घकालिक सेहत में अभी वे थोड़ा नुकसान उठा लें वरना न तो शेयर मार्केट रह जायेगा, न सटोरिये और न ही मुनाफे की व्यवस्था।
इस पैकेज के दो अर्थ हैं। एक तो यह कि यूनानी सरकार अपने देश में कुछ कल्याणकारी नीतियाँ जारी रख सके और दूसरा उन बैंकों को दीवालिया होने से बचा लिया जाये, जिन्होंने यूनानी सरकार को कर्ज दिया था (जो वस्तुत: यूनानी आम जनता का ही पैसा था!)। इस तरह एक तीर से दो निशाने लगाये गये। तात्कालिक तौर पर बैंकों को भी बचा लिया गया और साथ ही जनता के असन्तोष पर काबू पाने का काम भी हो गया।
लेकिन अभी से ही विशेषज्ञ कहने लगे हैं कि यह सिर्फ मरणासन्न मरीज को बस ऑक्सीजन देने जैसा है। बेलआउट पैकेज के रूप में भारी मात्रा में नकदी मिलते ही बैंक और तमाम वित्तीय संस्थान उन्ही कारगुजारियों में फिर लग गये हैं, जिनके कारण वे पिछले दो वर्षों में दो बार दीवालिया होने की कगार पर पहुँच गये थे। लेकिन इन लालची मुनाफाख़ोर बैंकरों को अपनी प्रबन्‍धन समितियों, यानी पूँजीवादी सरकारों पर पूरा भरोसा है कि जब भी वे जुए में बरबाद होने और दीवालिया होने की कगार पर पहुँचेंगे तो ये सरकारें जनता की जेब पर डाका डालकर उन्हें बचा लेंगी। लेकिन यूनान के मामले में बेलआउट पैकेज देने की कीमत जर्मन और फ्रांसीसी जनता को चुकानी पड़ी। ऐसा हर बार सम्भव नहीं होगा। और इधर का माल उधर और उधर का माल इधर करने से संकट ख़त्म नहीं होता है, बल्कि केवल कुछ देर के लिए टल जाता है और अगली बार और भयंकर रूप आता है। पहले यह समय एक-डेढ़ दशक का हुआ करता था, लेकिन साम्राज्यवाद के और अधिक मरणासन्न होने के साथ ही यह समय अब एक-दो साल का हो गया है। हर साल-दो साल पर विश्व पूँजीवाद भयंकर संकट का शिकार हो रहा है। नये सहस्राब्दी का बीता एक दशक इसी बात का गवाह है। लेकिन हर संकट विश्वभर के मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता को यह अहसास दिलाता जा रहा है कि पूँजीवाद के रहते उनकी बरबादी का कोई अन्त नहीं है और इसका विकल्प ढूँढ़े बग़ैर गुजारा नहीं है। इस बात का अहसास तीसरी दुनिया के ग़रीब देशों में तो गहरा रहा ही है, लेकिन भूमण्डलीकरण के रूप में साम्राज्यवाद की अन्तिम अवस्था के आगे बढ़ते जाने के साथ विकसित देशों में पीछे की कतार में खड़े देशों में भी गहराता जा रहा है, मिसाल के तौर पर दक्षिणी और मध्‍य यूरोप के देश।
21वीं सदी की इस 'यूनानी त्रासदी' ने साफ कर दिया है कि हर बीतते पल के साथ पूँजीवाद अधिक से अधिक परजीवी, मरणासन्न और खोखला होता जा रहा है। साथ ही, यूनानी संकट ने यह भी साफ कर दिया है कि विश्व साम्राज्यवाद का संकट टलने या थमने वाला नहीं है। यह पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है जो पूँजीवाद के अन्त के साथ ही समाप्त होगा।

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26.6.10

भोपाल हत्याकाण्ड : कटघरे में है पूरी पूँजीवादी व्यवस्था

भोपाल पर अदालती फैसले ने नरभक्षी मुनाफाखोर व्यवस्था, पूँजीवादी राजनीति और पूँजीवादी न्याय को नंगा कर दिया है


सम्पादक मण्डल

भोपाल गैस दुर्घटना पर पिछली 7 जून को आये अदालत के फैसले ने पूँजीवादी न्याय की कलई तो खोली ही है, इसके बाद मीडिया के जरिये शुरू हुए भण्डाफोड़ और आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले ने पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के आदमख़ोर चरित्र को नंगा करके रख दिया है। कम से कम 20,000 लोगों को मौत के घाट उतारने और पौने छह लाख लोगों को विकलांग और घातक बीमारियों से ग्रस्त बना देने वाली इस भयानक दुर्घटना के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड कम्पनी के 8 पूँजीपतियों को भोपाल की एक अदालत ने महज 2-2 साल की सजा सुनाकर छोड़ दिया। इतना ही नहीं, दो घण्टे के भीतर ही उन सबकी जमानत भी हो गयी और वे हँसते हुए घर चले गये। 

दरअसल, इंसाफ के नाम पर इस घिनौने मजाक की बुनियाद तो 14 साल पहले ही रख दी गयी थी जब 1996 में भारत के भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी ने यूनियन कार्बाइड के ख़िलाफ आरोपों को बेहद हल्का बना दिया था। इस ''सेवा'' के बदले उन्हें यूनियन कार्बाइड के पैसे से भोपाल गैस पीड़ितों के नाम पर बने ट्रस्ट का आजीवन अध्‍यक्ष बनाकर पुरस्कृत किया गया। आज जस्टिस अहमदी कुतर्क कर रहे हैं कि कानूनी दायरे के भीतर उनके पास और कोई विकल्प ही नहीं था। वह भारत के प्रधान न्यायाधीश थे, क्या उन्हें इतनी मोटी-सी बात समझ नहीं आ रही थी कि दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के दोषियों पर मामूली मोटर दुर्घटना पर लागू होने वाले कानून के तहत मुकदमा दर्ज करना कानून का ही मजाक है? इस कानून में दो साल से ज्यादा की सजा दी ही नहीं जा सकती है। अगर वे चाहते तो देश की संसद को ऐसे मामलों के लिए विशेष कानून बनाने की सलाह दे सकते थे। सरकार की नीयत अगर साफ होती तो वह 1984 के बाद ही जल्द से जल्द विशेष अध्‍यादेश लाकर भोपाल के हत्यारों पर कठोर कार्रवाई कर सकती थी। उल्टे, कदम-कदम पर मुकदमे को कमजोर किया जाता रहा। केन्द्र सरकार के इशारे पर काम करने वाली सीबीआई ने मुकदमे की पैरवी से लेकर यूनियन कार्बाइड के अमेरिकी प्रमुख वारेन एण्डरसन को भारत लाने तक में स्पष्टत: जानबूझकर ढिलाई बरती। 

जनता के सच्चे प्रतिनिधियों की कोई भी सरकार ऐसा भीषण हत्याकाण्ड रचने वाली कम्पनी की देश में सारी सम्पत्ति को तत्काल जब्त कर लेती। होना तो यह चाहिए था कि यूनियन कार्बाइड अगर भारी हरजाना देने में आना-कानी करती तो उसकी सम्पत्तियों को बेचकर यह धन उगाहा जाता और गैस पीड़ितों को मुआवजे, उनके इलाज तथा पुनर्वास और भोपाल की मिट्टी-पानी में फैले जहर की सफाई का बन्दोबस्त किया जाता। लेकिन इतना तो दूर, भारत सरकार ने कई वर्ष बाद, कम्पनी के साथ एक शर्मनाक समझौता किया जिसके तहत उसने सिर्फ 47 करोड़ डॉलर देकर भोपाल के प्रति अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। दुनिया में शायद पहली बार ऐसा हुआ होगा कि किसी अपराधी पर जुर्माने की रकम उसकी मर्जी से तय की गयी हो। 

इतना ही नहीं, भोपाल में कार्बाइड के ख़ूनी कारख़ाने में आज भी हजारों टन जहरीला कचरा पड़ा है जिसकी सफाई पर ही अरबों रुपये का ख़र्चा आयेगा। पहले कार्बाइड और फिर उसे ख़रीदने वाली डाउ केमिकल्स नाम की अमेरिकी कम्पनी लगातार इसकी जिम्मेदारी लेने से इंकार करती रही हैं। भारत सरकार ने कई साल बाद दबी ज़ुबान से इस काम के लिए 100 करोड़ रुपये की माँग तो की, लेकिन कभी इस पर जोर नहीं दिया। और अब यह बात भी सामने आ गयी है कि सरकार ने डाउ केमिकल्स को आश्वासन दिया था कि भारत में निवेश के बदले उसे इस जिम्मेदारी से बरी कर दिया जायेगा। यानी कार्बाइड के जहरीले कचरे की सफाई भी सरकारी पैसे से, यानी ग़रीबों की जेब से खसोटे गये पैसे से की जायेगी। सरकार की नजर तो डाउ जैसी दैत्याकार रासायनिक कम्पनियों द्वारा भारत में 70,000 करोड़ रुपये के सम्भावित पूँजी निवेश पर टिकी है। हरजाने की माँग करके उन्हें नाराज करने का जोखिम भला वह क्यों उठायेगी। दरअसल यह सारा खेल ही पूँजी का है। इसके लिए अपनी जनता के हत्यारों के आगे नाक रगड़ने में सरकार को कोई परेशानी नहीं है। 

कार्बाइड के प्रमुख वारेन एण्डरसन को भारत से भगाने के मामले में तत्कालीन सरकारों ने जिस बेशर्मी का परिचय दिया उस पर नफरत से थूका ही जा सकता है। जिस वक्त भोपाल में लाशों के ढेर लगे थे और हजारों घायल और विकलांग लोगों से शहर के अस्पताल पटे पड़े थे, उसी समय राज्य की सरकार इस हत्यारे को गिरफ्तार कर लेने की ''ग़लती'' का प्रायश्चित करने और उसे ससम्मान अमेरिका भेजने में लगी हुई थी। एण्डरसन को भोपाल पहुँचते ही गिरफ्तार कर लिया गया था, लेकिन छह घण्टे में ही उसकी न सिर्फ जमानत हो गयी, बल्कि सरकार के विशेष हवाई जहाज से उसे दिल्ली ले जाया गया जहाँ से वह उसी दिन अमेरिका भाग गया। उसके बाद वह कभी अदालत में हाजिर ही नहीं हुआ। उस समय मध्‍य प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे अर्जुन सिंह अब कह रहे हैं कि भोपाल में कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए ऐसा करना जरूरी था, वरना लोगों का ग़ुस्सा भड़क जाता। वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी भी ऐसी ही बात कह रहे हैं। पूँजी के इन बेशर्म चाकरों से कोई यह पूछे कि अगर उसे भोपाल से बाहर ले जाना जरूरी भी था, तो देश से बाहर क्यों जाने दिया गया। वैसे अब यह सच्चाई भी उजागर हो चुकी है कि एण्डरसन को पहले ही आश्वासन दे दिया गया था कि उसे सुरक्षित वापस जाने दिया जायेगा। जाहिर है, प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की मर्जी क़े बग़ैर ऐसा मुमकिन नहीं था। आज राजीव गाँधी का नाम आते ही कांग्रेस की पूरी चमचा मण्डली सफाई देने में जुट गयी है। लेकिन यहाँ सवाल व्यक्तियों का है ही नहीं। पूँजीवादी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं और पूँजीपतियों तथा उनके हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म होता है। अमेरिकी सत्ता अमेरिकी पूँजी की प्रतिनिधि है और उसने एण्डरसन की रिहाई के लिए दबाव डाला और भारतीय पूँजी के प्रतिनिधियों की क्या मजाल थी, जो लूट के खेल के अपने सीनियर पार्टनर की बात नहीं मानते। 

और बात सिर्फ एण्डरसन की नहीं है। कार्बाइड की भारतीय सब्सिडयरी के प्रमुख केशव महिन्द्रा सहित सभी बड़े अधिकारी कठोरतम सजा के हकदार थे। मगर उनको बचाने के लिए भारत का पूरा सत्ता तंत्र तन-मन से लगा हुआ था। 

आज बहुतेरे लोगों को ठीक से पता नहीं है कि 2 दिसम्बर, 1984 की उस भयावह रात को क्या हुआ था, और क्यों हुआ था। उसे जानने के बाद बिल्कुल साफ हो जाता है कि यह महज एक दुर्घटना नहीं थी, मुनाफे की अन्धी हवस के हाथों हुई ठण्डी हत्या थी। 

आज से 26 साल पहले 2 दिसम्बर 1984 की रात को अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल स्थित कीटनाशक फैक्टरी से निकली चालीस टन जहरीली गैसों ने हजारों सोये हुए लोगों का कत्लेआम किया था। उस दिन करीब साढ़े ग्यारह बजे रात में कारख़ाने से गैस का रिसाव शुरू हुआ। फैक्टरी के चारों ओर मेहनतकश लोगों की बस्तियों में दिनभर की मेहनत से थके लोग सो रहे थे। देखते ही देखते 40,000 किलो जहरीली गैसों के बादलों ने भोपाल शहर के 36 वार्डों को ढँक लिया। इनमें सबसे अधिक मात्रा में थी दुनिया की सबसे जहरीली गैसों में से एक मिथाइल आइसोसाइनेट यानी एमआईसी गैस। गैस का असर इतना तेज था कि चन्द पलों के भीतर ही सैकड़ों लोगों की दम घुटने से मौत हो गयी, हजारों लोग अन्‍धे हो गये, बहुत सी महिलाओं का गर्भपात हो गया, हजारों लोग फेफड़े, लीवर, गुर्दे, या दिमाग़ काम करना बन्द कर देने के कारण मर गये या अधमरे-से हो गये। बच्चों, बीमारों और बूढ़ों को तो घर से निकलने तक का मौका नहीं मिला। हजारों लोग महीनों बाद तक तिल-तिल कर मरते रहे और करीब छह लाख लोग आज तक विकलांगता और बीमारियों से जूझ रहे हैं। यह गैस इतनी जहरीली थी कि पचासों वर्ग किलोमीटर के दायरे में मवेशी और पक्षी तक मर गये और जमीन और पानी तक में इसका जहर फैल गया। जो उस रात मौत से बच गये, वे छब्बीस बरस बीत जाने के बाद भी आज तक तरह-तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। इस जहर के असर से कई साल बाद तक उस इलाके में पैदा होने वाले बहुत से बच्चे जन्म से ही विकलांग या बीमारियों से ग्रस्त होते रहे। आज भी वहाँ की जमीन और पानी से जहर का असर ख़त्म नहीं हुआ है। 

लेकिन यह कोई दुर्घटना नहीं थी! यह मुनाफे के लिए पगलाये पूँजीवाद के हाथों हुआ एक और हत्याकाण्ड था। 

यूनियन कार्बाइड के देशी और विदेशी मैनेजमेण्ट को अच्छी तरह मालूम था कि ऐसी दुर्घटना कभी भी हो सकती है, लेकिन उन्हें लोगों की जान पर ख़तरे की नहीं, सिर्फ और सिर्फ अपने मुनाफे की चिन्ता थी। उन्होंने एक के बाद एक ऐसे कदम उठाये जो भोपाल के लोगों को मौत की ओर धकेलते रहे। 

भोपाल में लगाये गये कीटनाशक कारख़ाने की टेक्नोलॉजी बेहद पुरानी पड़ चुकी थी और ख़तरनाक होने के कारण अमेरिका में उसे ख़ारिज किया जा चुका था। सबकुछ जानते हुए भी भारत के सत्ताधारियों ने उसे लगाने की इजाजत दी। एमआईसी इतनी जहरीली और ख़तरनाक गैस होती है कि उसे बहुत थोड़ी मात्रा में ही रखा जाता है। लेकिन पैसे बचाने के लिए कार्बाइड कारख़ाने में उसका इतना बड़ा भण्डार रखा गया था, जो एक शहर की आबादी को ख़त्म करने के लिए काफी था। ऊपर से कम्पनी के मैनेजमेण्ट ने पैसे बचाने के लिए सुरक्षा के सारे इन्तजामों में एक-एक करके कटौती कर डाली थी। इस गैस को शून्य से पाँच डिग्री तापमान पर रखना जरूरी होता है, लेकिन कुछ हजार रुपये बचाने के लिए गैस टैंक का कूलिंग सिस्टम छह महीने पहले से बन्द कर दिया गया था। एमआईसी गैस के टैंक का मेनटेनेंस स्टाफ घटाकर आधा कर दिया गया था। यहाँ तक कि गैस लीक होने की चेतावनी देने वाला सायरन भी बन्द कर दिया गया था। कारख़ाने में काम करने वाले मजदूर जानते थे कि भोपाल शहर मौत के सामान के ढेर पर बैठा है, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। शहर के एक अख़बार ने एक साल पहले से चेतावनी दी थी कि ऐसी कोई भयानक घटना कभी भी हो सकती है। मगर कम्पनी के मालिकान और मैनेजमेण्ट सबकुछ जानते हुए भी सिर्फ पैसे बचाने के हथकण्डों में लगे रहे। जिस दिन जहरीली गैस मौत बनकर भोपाल के लोगों पर टूटी, उस दिन इन सफेदपोश कातिलों में से किसी को खरोंच भी नहीं आयी। वे फैक्टरी एरिया से कई किलोमीटर दूर अपने आलीशान बँगलों में, और मुम्बई तथा अमेरिका में आराम से बैठे थे। 

पूँजी के इस हत्याकाण्ड के बाद देश की सरकारों ने अपने ही नागरिकों के साथ जो सलूक किया, वह इससे कम बर्बर और अमानवीय नहीं है। पिछले छब्बीस साल से भोपाल के गैस पीड़ितों के साथ एक घिनौना मजाक जारी था। इसमें सब शामिल रहे हैं - केन्द्र और राज्य की कांग्रेस, भाजपा और संयुक्त मोर्चा की सरकारें और सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक पूरी न्यायपालिका और स्थानीय नौकरशाही। 

इस फैसले से देश में फैली ग़ुस्से की लहर से घबरायी सरकार ने अब मामले पर लीपापोती करने के लिए मन्त्रियों का समूह गठित करने और सुप्रीम कोर्ट में फिर से मुकदमा चलाने की बातें शुरू कर दी हैं। लेकिन देशी-विदेशी पूँजीपतियों की सेवा में जी-जान से जुटी इस सरकार की असली मंशा जगजाहिर है। 

आज तमाम टीवी चैनल और अख़बार भोपाल को लेकर जो ताबड़तोड़ ख़बरें दे रहे हैं, उसके पीछे जनहित की चिन्ता नहीं, टीआरपी और सर्कुलेशन की होड़ की चिन्ता है। वरना इतने बरसों में किसी को भोपाल की याद क्यों नहीं आयी। कोई नयी मसालेदार ख़बर मिलते ही ये सब एक बार फिर भोपाल को भूलकर उसके पीछे लग जायेंगे। भोपाल की घटना बार-बार यह याद दिलाती है कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की अन्धी हवस में पागल पूँजीपतियों के लिए इंसान की जिन्दगी का कोई मोल नहीं होता। पूँजीवाद युध्द के दिनों में हिरोशिमा और नागासाकी को जन्म देता है और शान्ति के दिनों में भोपाल जैसी त्रासदियों को। यह पर्यावरण को तबाह करके पूरी पृथ्वी को विनाश की ओर धकेल रहा है। इस नरभक्षी व्यवस्था का एक-एक दिन मनुष्यता पर भारी है। इसे जल्द से जल्द मिट्टी में मिलाकर ही धरती और इंसानियत को बचाया जा सकता है। और यह जिम्मेदारी इतिहास ने मजदूर वर्ग के कन्‍धों पर सौंपी है।

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15.6.10

लुधियाना के होजरी मजदूर संघर्ष की राह पर



लुधियाना में हौजरी उद्योग में पैसा लगाने वाले उद्योगपति तेजी से तरक्की करके बेहिसाब मुनाफा कमा रहे हैं। इसलिए अब छोटे कारखानों के अलावा होजरी उद्योग में बड़े-बड़े कारखाने आये और आ रहे हैं जिनमें मजदूरों की संख्या कुछ सौ से लेकर हजारों तक भी है।

इन होजरियों में एक के मालिक पी.के. का नाम आता है जिसके तीन कारखानों में 1000 से ऊपर कारीगर काम करते हैं। सभी कारखानों में ठेके (पीस रेट) पर काम होता है। कारखाने में किसी वर्कर का पहचान पत्र, पक्का हाजिरी रजिस्टर, हाजिरी कार्ड, पीएफ, बोनस, छुट्टियाँ, डबल ओवर टाइम आदि कोई भी श्रम कानून लागू नहीं। आदर्श नगर वाली यूनिट में 500 से अधिक मजदूर होने पर भी फैक्ट्री लिमिटेड नहीं है। गैरकानूनी तरीके से चल रही है। यही हाल लुधियाना की अधिकतर होजरियों का है। लेकिन पी.के. के नियम कुछ खास हैं। कारीगरों के बताये अनुसार जो माल वे बना रहे हैं, उसका बाजार में रेट 15-16 रुपये प्रति पीस मिलता है लेकिन पी.के. उसके 11.30 रुपये देता था और माल अधिक कसा हुआ बनवाता था। इस कारण मशीन भारी चलती है और मेहनत ज्यादा लगती है।

पिछली 14 अप्रैल को पी.के. होजरी में पीस रेट बढ़ाने के लिए फैक्ट्री मजदूरों ने काम बन्द कर दिया। पाँचवें दिन आखिरकार मालिक कुछ पीस रेट बढ़ाने के लिए मजबूर हुआ। इस तरह मजदूरों ने एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण संघर्ष किया और कुछ सफलता भी प्राप्त की और बाकी कारखानों के मजदूरों को भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी, जो पी.के. फैक्ट्री के कारीगरों की तरह ही दिन-रात मेहनत करके अपनी पारिवारिक जरूरतें पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं।

पिछले वर्ष भी कारीगरों ने पीस रेट में बढ़ोत्तरी के लिए हड़ताल की थी जिसके बाद पीस रेट में एक रुपये चालीस पैसे की बढ़ोत्तरी हो गयी थी। लेकिन इस वर्ष महँगाई में दोगुना बढ़ोत्तरी हुई है तो भी मालिक ने पीस रेट बढ़वाने की बात तक नहीं की। कारीगरों ने मालिक तक पीस रेट बढ़वाने के लिए आवाज पहुँचायी जो अनसुनी कर दी गयी। वर्करों की माँग के अनुसार मालिक रेट देने के लिए तैयार नहीं था। इससे मजबूर होकर कारीगरों ने हड़ताल कर दी थी, जो पाँच दिन तक चली। 19 अप्रैल को मालिक ने प्रति पीस 1 रुपये 95 पैसे की बढ़ोत्तरी की, तो कारीगरों ने 13 रुपये 25 पैसे पीस रेट पर आपसी सहमति से फैसला कर लिया और इस तरह एक आंशिक सफलता प्राप्त की। मजदूरों द्वारा लड़ा गया यह छोटा-सा लेकिन महत्वपूर्ण संघर्ष था जिसके बहुत से अच्छे पक्ष रहे।

आदर्श नगर (नजदीक समराला चौक) वाले कारखाने में 500 से अधिक मजदूर काम करते हैं। इसमें स्वेटर, जर्सियाँ बनती हैं। इस कारखाने में 400 फ्रलैट मशीनें चलाने वाले, लगभग 70 दर्जी, 20 कोना बैण्डर वाले, लगभग 20-25 मजदूर सफाई और हेल्पर हैं। इस कारखाने के मजदूरों ने संघर्ष की पहलकदमी की। अपनी परिस्थितियों को बेहतर बनाने के लिए मजदूरों द्वारा किया गया यह संघर्ष जायज और प्रशंसनीय था। इस आन्दोलन में परस्पर विचार-चर्चा और आपसी सहमति से हड़ताल करने का पहलू तारीफ करने लायक था।

14 अप्रैल को वेतन मिलने के बाद हड़ताल करना मजदूरों के अनुभव में से सीखे सबकों में से एक था। क्योंकि पिछले वर्ष बिना वेतन लिये ही काम बन्द कर दिया गया था जिस कारण कारीगर हड़ताल के बाद आर्थिक संकट में फँसने के कारण जल्दी ही हड़ताल तोड़ने के लिए मजबूर हो गये थे। मजदूरों ने अपनी एकता के दम पर निडर होकर मालिक के सामने अपनी माँगें रखीं और बातचीत की, जिसने मालिकों के मजदूरों के अन्दर आतंक को तोड़ा। मजदूरों की एकता और आत्मविश्वास की भावना मजबूत हुई।

कुछ बातों का धयान रखा जाये तो ऐसे संघर्ष को और बेहतर ढंग से तथा और अधिक माँगें मनवाने की तरफ मोड़ा जा सकता है।

सबसे पहले तो परिस्थितियों की ठोस जानकारी हासिल करना जरूरी था। मजदूर आन्दोलनों के इतिहास का यह एक अहम सबक है कि जब कारखाना मन्दी में चल रहा हो तो हड़ताल करना एक हद तक मालिक का फायदा करना ही होता है। क्योंकि मालिक के पास कोई ऑर्डर नहीं होता और वह पहले ही काम बन्द कर देना चाहता है। अपनी माँगें मालिकों के आगे तब रखनी चाहिए, जब काम पूरे जोर-शोर से चल रहा होता है। मालिक को ऑर्डर टूटने का डर रहता है और मालिक जल्दी माँगें मानने को मजबूर होता है। इस बात का पी.के. होजरी के मजदूर साथियों ने धयान नहीं रखा।

अगर कारखाने में हड़ताल करनी ही हो तो हमें संघर्ष में ऐसी माँगें भी शामिल करनी चाहिए जो सभी मजदूरों की साझी हों। वे भले ही वेतन वाले हों या पीस रेट वाले। जैसे कारखाने की ओर से पहचान पत्र बनाने, ई.एस.आई, साप्ताहिक छुट्टी, जबरदस्ती ओवर टाइम लगवाने पर पाबन्दी, कारखाने में मजदूरों का हाजिरी रजिस्टर, पीने के साफ पानी, साफ-सफाई का प्रबन्ध, आदि ऐसी माँगें हो सकती हैं।

हड़ताल से पहले हड़ताल की तैयारी करनी होती है। हड़ताल तो मजदूरों का आखिरी हथियार है। जब कोई सुनवाई नहीं होती, हड़ताल तब की जाती है। इससे पहले विभिन्न विभागों में मीटिंगें, गेट मीटिंगें, कुछ घण्टों के लिए काम बन्द करना जिससे पता चल जाता है कि कितने कारीगर एकता में शामिल हैं। संघर्ष फण्ड जमा करना - अगर हड़ताल कुछ दिन अधिक चल जाये तो परिवार का पेट पालने के लिए यूनियन अपने सदस्यों की मदद करे। अपनी कुछ माँगें छाँटकर माँगपत्र तैयार करके सभी कारीगरों से साइन करवाकर कारखाना प्रबन्धन और लेबर अधिकारियों को देना चाहिए। अगर तय समय पर माँगें नहीं मानी जाती हैं तो हड़ताल की जा सकती है। इसके लिए भी हड़ताल का दायरा बड़ा करना चाहिए। कारीगरों की एक साझी संघर्ष कमेटी बनाकर बहुमत की सहमति से फैसले लागू होने चाहिए। अन्य कारखानों के मजदूरों को भी हड़ताल में शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए।

पी.के. में पहले हुई हड़ताल और इस बार हुई हड़ताल में भी कारीगर छुट्टी करके घर बैठ गये थे और सिर्फ बीस-पच्चीस प्रतिशत कारीगर ही कारखाने के आसपास घूमते रहते थे या कारखाने के पास पार्क में बैठ जाते थे। इस तरह छुट्टी करके घर बैठ जाना आन्दोलन से पलायन कर जाना है। आपसी सहयोग और एकता में विश्वास करके ही मालिकों से कोई माँग मनवायी जा सकती है। हड़ताल करके गेट पर धरना लगाकर बैठ जाने से मालिक को इस बात का अहसास हो जाता है कि मजदूर संघर्ष करने के लिए दृढ़ हैं।

इस आन्दोलन में जो मजदूर साथी आगे होकर मालिकों से रेट की बात कर रहे थे, उन्हें मालिक काम से हटाने की कोशिश करेंगे। अधिकतर कारखानों में मालिक नेतृत्वकारी मजदूरों को किसी न किसी बहाने कारखाने से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। इन्हीं बातों के मद्देनजर आपसी एकता बनाये रखना आने वाले समय की माँग है। बाकी कारखानों के मजदूरों से सम्पर्क करके होजरी उद्योग के मजदूरों की एक साझा संघर्ष कमेटी बनाने और एक साझा माँगपत्र तैयार करके उस पर संघर्ष का आधार तैयार करने का यह समय है।

राजविन्दर

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3.6.10

मन्दी की मार झेलते मध्‍य और पूर्वी यूरोप के मजदूर



आज के पूर्वी यूरोप के देशों की औद्योगिक-वैज्ञानिक प्रगति जिस हद तक भी है वह मुख्यत: समाजवादी अतीत की देन है, जबकि इसके जो भी संकट हैं वे पूँजीवादी ढाँचे की देन हैं, यह इतिहास की सच्चाई है।

स्तालिन की मृत्यु के बाद ही रूस और पूर्वी यूरोप में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी थी लेकिन मार्क्‍सवाद का मुखौटा लगाये नये पूँजीवादी शासकों ने जनता को छल-कपट से ख़ूब निचोड़ा। 1989 में ये संशोधनवादी कुलीन सत्ताएँ बालू की भीत की तरह ढह गयीं और इनकी जगह बुर्जुआ शासकों ने सम्हाल ली। अब वैश्विक आर्थिक संकट के दुश्चक्र में ये देश भी फँस चुके हैं।

वर्तमान मन्दी ने मध्‍य और पूर्वी यूरोप की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह हिला दिया है। हर दिन यह संकट और ज्यादा गहरा और व्यापक होता जा रहा है। हंगरी, उक्रेन और बाल्टिक राज्यों में आर्थिक गिरावट बहुत ही तेज मानी जा रही है। विश्व बैंक के अनुसार इस वित्तीय संकट से मध्‍य और पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए नये देशों में गरीबों की संख्या बढ़कर 3.5 करोड़ हो जायेगी, जैसाकि 1990 के बाद से देखी नहीं गयी है। कुछ देशों जैसे लातविया, एस्तोनिया, रूस और उक्रेन में बेरोजगारी महीने में एक प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।

निर्माण उद्योग में, जिसमें ज्यादातर उक्रेन के प्रवासी मजदूर काम करते थे, बड़े पैमाने पर मन्दी छा गयी है। उक्रेन के मजदूर सालाना लगभग 8.4 करोड़ डॉलर घर भेजते थे, जो उक्रेन के सकल घरेलू उत्पाद का 8 प्रतिशत था। अब घर लौटे उक्रेनियाई मजदूरों के लिए जीविका का कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं रह गया है। इस संकट का सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ रहा है। एक तो उनका रोजगार चला गया और आमदनी का कोई जरिया न रहा और दूसरा उनसे बहुत ही खराब परिस्थिति में घरेलू काम कराये जाने की उम्मीद रखी जाती है। बहुत-सी नौजवान स्त्रियाँ मन्दी और बेरोजगारी की मार से वेश्यावृत्ति का रास्ता अपनाने को मजबूर हो गयी हैं।

मन्दी ने हालत इतनी बिगाड़ दी है कि हर जगह प्रवासी मजदूरों की माँग कम होने लगी है। चेक गणराज्य में तो वियतनामी मजदूरों को घर वापस भेजने के लिए मुफ्त हवाई टिकट और 500 यूरो नगदी तक दिये जा रहे हैं। नीदरलैण्ड, रोमानिया, बुल्गारिया में पहले से ही प्रवासी मजदूरों को घर वापस भेजने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

पिछले 20 सालों में पूर्वी यूरोपीय देश अलग-अलग स्तरों पर विश्व अर्थव्यवस्था के साथ नत्थी हो चुके हैं। नतीजतन वर्तमान संकट वैश्विक उत्पादन और वितरण पर असर डाल रहा है। बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थिति, भले ही वे अमेरिकी (जनरल मोटर्स) हों या भारतीय (वीडियोकॉन ग्रुप), स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं पर बेहद असर डालती है। जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थानीय फैक्टरियाँ बन्द या स्थानान्तरित होती हैं तो स्थानीय अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है।

कम्पनियों के स्थानान्तरण का खामियाजा भी मजदूरों को ही भुगतना पड़ता है। उन्हें जितनी मजदूरी अपने देश में मिलती थी उससे कम मजदूरी पर उनसे स्थानान्तरित कम्पनियों में काम लिया जाने लगता है। जैसे कुछ कम्पनियाँ जो मध्‍य पूर्वी यूरोप में स्थानान्तरित हुईं, उन्होंने अपनी ऑपरेशनल लागतें कम कर दीं और मजदूरों को बेहद कम मजदूरी देने लगीं। डेल कम्पनी, जिससे कि आयरलैण्ड के सकल घरेलू उत्पाद का 5 प्रतिशत आता है, ने अपने कम्प्यूटर मैन्युफैक्चर को लिमरिक (आयरलैण्ड) से लोड्ज (पोलैण्ड) में स्थानान्तरित कर दिया। इससे आयरलैण्ड में 1700 स्त्री-पुरुष मजदूरों का रोजगार छिन गया। लिमरिक की स्थानीय अर्थव्यवस्था, जो कभी आयरलैण्ड के आर्थिक ''चमत्कार'' का शो-पीस हुआ करती थी, बुरी तरह ढह गयी।

पोलैण्ड में कपड़ा उद्योग भी भयंकर संकट में है। इस उद्योग से लगभग 40,000 मजदूरों की छँटनी की जा चुकी है, जिनमें ज्यादातर महिलाएँ थीं। चेक गणराज्य के टेक्सटाइल उद्योग में पिछले साल लगभग 52,000 मजदूरों की छँटनी की गयी और इस साल 10,000 और नौकरियाँ छिन जायेंगी। बैंकिंग सेक्टर में भी छँटनी की कुल्हाड़ी चल रही है। केवल पोलैण्ड में ही इस सेक्टर में 12,000 मजदूरों पर छँटनी की गाज गिरी। इसका सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ा है। छँटनीशुदा महिला मजदूर जो रिटायरमेण्ट की उम्र तक पहुँच चुकी हैं, उन्हें अब कहीं भी रोजगार मिलना मुश्किल हो रहा है।

वर्तमान संकट का सामना करते हुए मध्‍य और पूर्वी यूरोप की सरकारें खस्ताहाल हैं। इस संकट को टालने का उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है और वे अधिक से अधिक कर्ज के जाल में फँसती जा रही हैं। कई देश जैसे हंगरी, उक्रेन और बाल्टिक राज्य तो लगभग दिवालियेपन के कगार पर हैं।

अर्थव्यवस्था को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय सरकारों ने राहत पैकेजों का ढेर लगा दिया है। हंगरी को आई.एम.एफ., विश्व बैंक और ईस्टर्न यूनियन ने 15.7 बिलियन डॉलर कर्ज देकर दिवालिया होने से बचाया। रूस में 20 बिलियन डॉलर के राहत पैकेज के साथ बड़े कारपोरेट घरानों के इनकम टैक्स में 20 से 25 प्रतिशत की कटौती भी की गयी। हंगरी ने छोटे और मँझोले उद्योगों को 1.4 मिलियन डॉलर दिया और इनकम टैक्स में कटौती की। लिथुआनियाई सरकार ने देश में रहने वाले मेहनतकशों की तबाही-बर्बादी से पल्ला झाड़ते हुए बड़े ही बेशर्मी से कहा कि ये राहत पैकेज देश के आर्थिक हालात को सुधारने और व्यापार की सहायता के लिए दिया जा रहा है ताकि बाजार के संचालन, निर्यात और निवेश को प्रोत्साहन दिया जा सके।

लेकिन इस वैश्विक मन्दी की सबसे बुरी मार दुनियाभर की गरीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ रही है। उन्हें ही लगातार महँगाई, बेरोजगारी, छँटनी, तालाबन्दी का सामना करना पड़ रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य से बेदखल किया जा रहा है, आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। पूँजीपतियों को दिये जाने वाले राहत पैकेजों की कीमत भी जनता से टैक्सों के जरिये वसूली जायेगी और उसे तबाही-बर्बादी के नर्ककुण्ड में ढकेलकर विश्व अर्थव्यवस्था को बचाने में वैश्विक डाकू एक हो जायेंगे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। आम जनता चुपचाप नहीं बैठी है। इसके खिलाफ हर जगह विरोध प्रदर्शनों का ताँता लग गया है। हंगरी, बुल्गारिया, रूस, लिथुआनिया, लातविया, एस्तोनिया जैसे कई देशों में संसदों पर हिंसक हमले हुए। पिछले साल रूस में पिकोलोवा नामक जगह पर स्थानीय लोगों ने स्त्री मजदूरों के नेतृत्व में रोजगार की माँग को लेकर हाईवे जाम किया। इस जगह सीमेण्ट के चार कारखानों में से तीन बन्द हो गये थे और जो उद्योग चल रहे थे उनमें मजदूरों को तनख्वाह नहीं दी जा रही थी। दुनियाभर में मजदूरों के छोटे-बड़े विरोध प्रदर्शनों ने जता दिया है कि जनता के अन्दर सुलग रहा लावा कभी भी फट सकता है।

इतना तो तय है कि चाहे कितने भी उपाय सुझा लिये जायें, यह संकट दूर नहीं होने वाला। अगर थोड़े समय के लिए पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इससे उबर भी जायेगी तो कुछ ही वर्षों में इससे भी भीषण मन्दी की चपेट में आ जायेगी। इस बूढ़ी, जर्जर, मानवद्रोही व्यवस्था को कब्र में धकेलकर ही इसका अन्त किया जा सकता है जिससे इंसानियत भी इसके पंजे से मुक्त होकर खुली हवा में साँस ले सकेगी।

नमिता

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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