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2.7.09

संशोधनवाद और मार्क्‍सवाद : बुनियादी फर्क

मज़दूर साथियो! असली और नकली कम्युनिज्म में फर्क करना सीखो!


इतिहास में किसी भी नूतन सामाजिक व्यवस्था के जन्म में बल की भूमिका बच्चा पैदा कराने वाली धाय माँ की होती है। प्रकृति हो या समाज, मौजूदा स्थिति को बदलने के लिए बल लगाना अनिवार्य होता है। आदिम कम्यूनों के ज़माने से लेकर आज तक का पूरा इतिहास वर्ग-संघर्षों और क्रान्तियों का इतिहास रहा है। वर्ग-संघर्ष ही अब तक के इतिहास-विकास की मूल चालक शक्ति रही है। वर्ग-सहयोग दो परस्पर विरोधी वर्गों के बीच के टकराव में, किसी पराजित वर्ग की सर्वथा तात्कालिक बेबसी हो सकती है या पराजय के दिनों का एक आभासी सत्य हो सकता है, लेकिन वह वर्गों की सामान्य प्रकृति या किसी भी वर्ग-समाज का आम नियम नहीं हो सकता। किसी भी वर्ग-समाज के बुनियादी आर्थिक नियम इसकी इजाज़त ही नहीं देते।

अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व रखने वाले वर्ग का केन्द्रीय व सर्वोच्च राजनीतिक संगठन राज्यसत्‍ता होता है जिसका उद्देश्य विद्यमान सामाजिक आर्थिक ढाँचे को बनाये रखना और दूसरे वर्गों के प्रतिरो को कुचल देना होता है। उत्पादन के सानों पर निजी स्वामित्व पर आधारित समाज में राज्यसत्‍ता सदैव सत्‍ताधारी शोषक वर्ग की तानाशाही का औज़ार होती है तथा शोषित जनसाधारण के दमन के लिए एक विशेष शक्ति होती है, चाहे सरकार का रूप कुछ भी हो।

जनवाद (या जनतन्त्र या डेमोक्रेसी) कोई वर्गमुक्त या समतामूलक व्यवस्था नहीं होती, जैसाकि बुर्जुआ किताबों में बुर्जुआ जनवाद के बारे में प्राय: लिखा जाता है। बुर्जुआ जनवाद अपने सार रूप में आम जनता पर बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व होता है। यह मेहनतकशों और बुद्धिजीवियों को इतनी ही आज़ादी देता है कि वे बाज़ार में अपनी शारीरिक श्रमशक्ति और मानसिक श्रमशक्ति बेचकर जीवित रह सकें। इसके अतिरिक्त पँजीवादी समाज में जनता को जो भी आज़ादी और अधिकार हासिल हैं, उन्हें जनता ने अपने लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों के द्वारा हासिल किया है। शेष जो भी है, वह आज़ादी के नाम पर भ्रामक छल है। बुद्धिजीवियों के उस ऊपरी तबके को ज्यादा सुख-सुविा और आज़ादी हासिल होती है जो राजकाज और उत्पादन के ढाँचे के प्रबन्‍धन की ज़िम्मेदारी उठाकर पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। ये ऊपरी तबके के पढ़े-लिखे लोग वास्तव में हुकूमती जमात के ही अंग बन जाते हैं। भारत हो या अमेरिका, किसी भी पूँजीवादी जनवाद में, सेना-पुलिस और ज़ोर-ज़बरदस्ती के अन्य सान राज्यसत्ता के केन्द्रीय उपादान होते हैं। बुर्जुआ चिन्तक-विचारक व्यवस्था को चलाने के नियम-कानून बनाते हैं और नौकरशाही उन्हें अमल में लाती है। सरकारों की भूमिका महज़ पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी की होती है। संसद मात्र बहसबाज़ी का अड्डा होती है, मात्र दिखाने के दाँत होती है। वास्तविक फैसले तो पूँजीपतियों के सभाकक्षों में लिये जाते हैं। सरकारें और नौकरशाही उन्हें अमली जामा पहनाती हैं। पूँजी और राजकीय बल के बूते सम्पन्न होने वाले पूँजीवादी संसदीय चुनाव मात्र यह तय करते हैं कि बुर्जुआ वर्ग की कौन-सी पार्टी अब बुर्जुआ वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करेगी।

राज्य के सन्दर्भ में मज़दूर वर्ग का मुख्य कार्यभार बुर्जुआ राजकीय कार्ययन्त्र - यानी राज्यसत्‍ता को चकनाचूर करके समाजवादी जनवाद के रूप में एक नया राजकीय कार्ययन्त्र स्थापित करना होता है जो उत्पादन के सानों पर सार्वजनिक स्वामित्व कायम करता है और वर्ग-शोषण के ख़ात्मे की दिशा में आगे कदम बढ़ाता है। समाजवादी जनवाद भी वर्गमुक्त नहीं होता। वह सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व होता है। वह भी बल-प्रयोग का ही उपकरण होता है, पर वह शोषक वर्गों की पूर्ववर्ती राज्यसत्‍ताओं से इन अर्थों में भिन्न होता है कि वह सभी मेहनतकशों और विशाल आम जनता के हित में काम करता है और अल्पसंख्यक शोषक वर्गों के विरुद्ध बल का प्रयोग करता है। समाजवादी संक्रम की लम्बी अवधि में आगे जब वर्गों और वर्ग-शोषण के सभी रूपों का विलोप होगा तो सर्वहारा राज्यसत्‍ता का भी विलोपन होता चला जायेगा।

मोटे तौर पर और संक्षेप में, राज्य और क्रान्ति के बारे में मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद के यही बुनियादी सिध्दान्त हैं, जिनमें नकली कम्युनिस्ट तरह-तरह से तोड़-मरोड़ किया करते हैं और इसलिए उन्हें संशोनवादी कहा जाता है। लेनिन के अनुसार, संशोनवाद का मतलब होता है मार्क्‍सवादी ख़ोल में पूँजीवादी अन्तर्वस्तु। संशोनवादी, किसी न किसी रूप में, कभी खुले तौर पर तो कभी भ्रामक शब्दजाल रचते हुए, वर्ग-संघर्ष के बुनियादी ऐतिहासिक नियम को ख़ारिज करते हुए वर्ग-सहयोग की वकालत करते हैं, बल-प्रयोग और राज्यसत्‍ता के ध्‍वंस की ऐतिहासिक शिक्षा को नकार देते हैं और क्रान्ति के बजाय शान्तिपूर्ण संक्रमण की वकालत करते हैं, या फिर क्रान्ति शब्द को शान्तिपूर्ण संक्रमण का पर्याय बना देते हैं। संशोनवादी इस सच्चाई को नकार देते हैं कि इतिहास में कभी भी शोषक-शासक वर्गों ने अपनी मर्ज़ी से सत्‍ता त्यागकर ख़ुद अपनी कब्र नहीं खोदी है और कभी भी उनका हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ है।

आमतौर पर संशोनवादियों का तर्क यह होता है कि बुर्जुआ जनवाद और सार्विक मताधिकार ने वर्ग-संघर्ष और बलात् सत्‍ता-परिवर्तन के मार्क्‍सवादी सिध्दान्त को पुराना और अप्रासंगिक बना दिया है, पूँजीवादी विकास की नयी प्रवृत्तियों ने पूँजीवादी समाज के अन्तरविरोधों की तीव्रता कम कर दी है और अब पूँजीवादी जनवाद के मंचों-माध्‍यमों का इस्तेमाल करते हुए, यानी संसदीय चुनावों में बहुमत हासिल करके भी समाजवाद लाया जा सकता है। ऐसे दक्षिणपन्थी अवसरवादी मार्क्‍स और एंगेल्स के जीवनकाल में भी मौजूद थे, लेकिन इस प्रवृत्ति को आगे चलकर अधिक व्यवस्थित ढंग से बर्नस्टीन ने और फिर काउत्स्की ने प्रस्तुत किया। लेनिन के समय में इन्हें संशोनवादी कहा गया। लेनिन ने रूस के और समूचे यूरोप के संशोनवादियों के ख़िलाफ अनथक समझौताविहीन संघर्ष चलाया और सर्वहारा क्रान्ति के प्रति उनकी ग़द्दारी को बेनकाब किया।

सभी प्रकार के संशोनवादी क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन के विभीषण, जयचन्द और मीरजाफर होते हैं। वे मज़दूर आन्दोलन में बुर्जुआ वर्ग के एजेण्ट का काम करते हैं। वे पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करते हैं। ये मज़दूर वर्ग के सामने खड़े खुले दुश्मन से भी अधिक ख़तरनाक होते हैं। संशोनवादी पूँजीवादी संसदीय राजनीति को ही व्यवस्था-परिवर्तन का माध्‍यम तो मानते ही हैं, साथ ही मज़दूर वर्ग को राज्यसत्‍ता के ध्‍वंस के लक्ष्य से दूर रखने के मकसद से, वे उनके बीच न तो क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार करते हैं, न ही उनके राजनीतिक संघर्षों को आगे विकसित करते हैं। राजनीति के नाम पर बस वे चुनावी राजनीति करते हैं और मेहनतकश जनता का इस्तेमाल मात्र वोट बैंक के रूप में करते हैं। ये पार्टियाँ और इनकी ट्रेडयूनियनें प्राय: मज़दूरों को वेतन-भत्तो आदि की माँगों को लेकर चलने वाले आर्थिक संघर्षों में ही उलझाये रहती हैं और उनकी चेतना को पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दी में बाँधो रखती हैं। प्राय: सीधो-सीधो या घुमा-फिराकर ये यह तर्क देती हैं कि आर्थिक संघर्ष ही आगे बढ़कर राजनीतिक संघर्ष में बदल जाता है। इसके विपरीत सच्चा लेनिनवाद बताता है कि आर्थिक संघर्ष इस व्यवस्था के भीतर मज़दूर वर्ग को संगठनबद्ध होकर अपनी माँगों के लिए लड़ना सिखाता है, लेकिन वह स्वयं विकसित होकर राजनीतिक संघर्ष नहीं बन जाता। मज़दूर वर्ग के बीच राजनीतिक प्रचार और राजनीतिक संघर्ष में उसे उतारने का काम आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ शुरू से ही करना होता है। इस तरह अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ते हुए मज़दूर वर्ग बुर्जुआ राज्यसत्‍ता को चकनाचूर करने के अपने ऐतिहासिक मिशन को समझता है और उस दिशा में आगे बढ़ता है। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी सर्वहारा वर्ग के हरावल के रूप में इस काम में नेतृत्वकारी भूमिका निभाती है। संशोनवादी पार्टियाँ जन संघर्षों को मात्र आर्थिक संघर्षों तक सीमित कर देती हैं और राजनीति के नाम पर केवल वोट बैंक की राजनीति करती हैं।

क्रान्ति के लिए इस्पाती साँचे में ढली पार्टी की ज़रूरत और उसकी कार्यप्रणाली आदि के बारे में लेनिन ने मार्क्‍सवादी सिध्दान्त को सुसंगत और सांगोपांग रूप में विकसित किया। इन्हें संगठन के लेनिनवादी उसूलों के रूप में या बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों के रूप में जाना जाता है। लेनिन का विचार था कि शोषक वर्गों की सुसंगठित राज्यसत्‍ता से टकराने के लिए सर्वहारा वर्ग की उतनी ही सुसंगठित इन्कलाबी शक्ति की ज़रूरत होती है। इसीलिए एक क्रान्तिकारी पार्टी शुरू से ही इस बात की पूरी तैयारी रखती है कि वक्त पड़ने पर वह दुश्मन के हर हमले का सामना करके ख़ुद को बिखरने से बचा सके, अन्यथा जनता नेतृत्वविहीन हो जायेगी। ज़ाहिर है कि जिस पार्टी का लक्ष्य इस व्यवस्था को नष्ट करने के लिए राज्यसत्‍ता से टकराना है, वह एकदम खुले दरवाज़े से भर्ती करने वाली, चवन्निया मेम्बरी बाँटने वाली एक ''जन पार्टी'' नहीं हो सकती। उसे बहुत छाँट-बीनकर क्रान्तिकारी भर्ती करनी होगी। ऐसी पार्टी केवल तपे-तपाये, अनुशासित, कर्मठ कार्यकर्ताओं की ही पार्टी हो सकती है, जिसके मेरुदण्ड के रूप में पेशेवर क्रान्तिकारियों (पूरावक्ती संगठनकर्ताओं-कार्यकर्ताओं) की टीम हो। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का मत था कि पार्टी सदस्यता केवल ऐक्टिविस्टों के स्तर तक, यानी पार्टी की विचारधारा और लाइन को मानकर उसके किसी न किसी संगठन में काम करने वालों को ही दी जानी चाहिए, जबकि मार्तोव के नेतृत्व में मेंशेविकों का कहना था कि जो भी पार्टी की लाइन को स्वीकार करके सदस्यता शुल्क भर दे, उसे सदस्यता दी जा सकती है। लेनिन का कहना था कि ऐसी ढीली-ढाली पार्टी एक संगठित दस्ते के रूप में सर्वहारा क्रान्ति को नेतृत्व नहीं दे सकती।

लेनिन का कहना था कि एक सच्ची क्रान्तिकारी पार्टी पूँजीवादी जनवाद की स्थितियों का लाभ तो उठायेगी, लेकिन अधिकतम पूँजीवादी जनवाद की स्थिति में भी वह पूरी तरह से खुले ढाँचे वाली पार्टी नहीं हो सकती। इसका मतलब होगा, अपने को बुर्जुआ वर्ग और उसकी राज्यसत्‍ता की मर्ज़ी पर छोड़ देना। अस्तित्व का संकट पैदा होते ही कोई भी बुर्जुआ राज्यसत्‍ता बुर्जुआ जनवाद को पूर्णत: निरस्त करके बर्बर दमनकारी बन जाती है और क्रान्ति को कुचल डालने के लिए निर्णायक चोट सर्वहारा के हरावल दस्ते पर ही करती है। एक सच्ची क्रान्तिकारी पार्टी तमाम खुले और कानूनी संघर्षों में भागीदारी करते हुए हर कठिनाई के लिए तैयार रहती है और अपना गुप्त ढाँचा अनिवार्यत: बरकरार रखती है। परिस्थिति अनुसार वह संघर्ष के उन रूपों को भी अवश्य अपनाती है जो बुर्जुआ संविधान और कानून को स्वीकार नहीं होते। आर-पार की फैसलाकुन लड़ाई का लक्ष्य हर हमेशा उसके सामने होता है और शासक वर्ग के साथ उसकी हर झड़प और हर लड़ाई उसी की तैयारी की कड़ी होती है। बुर्जुआ संसद और संसदीय चुनावों के बारे में भी मार्क्‍सवाद का नज़रिया बिल्कुल साफ है। पर्याप्त आधार एवं ताकत वाली कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी अपने लक्ष्य एवं कार्यक्रम के प्रचार के लिए तथा बुर्जुआ व्यवस्था के भण्डाफोड़ के लिए संसदीय चुनावों और बुर्जुआ संसद के मंच का इस्तेमाल परिस्थिति अनुसार और आवश्यकतानुसार कर सकती है। ऐसे इस्तेमाल को ''टैक्टिकल'' या कार्यनीतिक या रणकौशलात्मक इस्तेमाल कहा जाता है। लेकिन संसदीय मार्ग से, पूँजीवाद से समाजवाद में शान्तिपूर्ण संक्रमण असम्भव है। संसदीय चुनाव किसी भी सूरत में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति (स्ट्रैटजी) नहीं हो सकता, केवल रणकौशल (टैक्टिक्स) के रूप में ही इसका इस्तेमाल हो सकता है।

लेनिनवादी समझ के ठीक विपरीत, दुनिया की सभी संशोनवादी पार्टियाँ चवन्निया मेम्बरी बाँटा करती हैं, उनका पूरा ढाँचा पूरी तरह खुला हुआ और ढीला-पोला होता है। ज़ाहिर है कि जिन्हें क्रान्ति करनी ही न हो, वे पार्टियाँ ऐसा ही करेंगी। मज़दूरों को धोखा देने के लिए वे क्रान्ति, समाजवाद, कम्युनिज्म आदि शब्दों की जुगाली करती रहती हैं, लेकिन काम के नाम पर मज़दूरों को केवल आर्थिक संघर्षों में उलझाये रखती हैं, चुनाव लड़कर संसदीय सुअरबाड़े में जाकर लोट लगाने के लिए जुगत भिड़ाती रहती हैं, पूँजीवादी नीतियों के रस्मी विरो की कवायद करती हुई जनता को ठगती रहती हैं।

भारत में भी रेगे सियारों की ऐसी दर्जनों जमातें हैं, लेकिन इनमें भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी, लिबरेशन) सर्वप्रमुख हैं। ये पार्टियाँ नाम तो मार्क्‍स-एंगेल्स-लेनिन का लेती हैं, लेकिन इनके आराध्‍य हैं काउत्स्की, मार्तोव, अल ब्राउडर, टीटो, ख्रुश्‍चेव और देघ सियाओ-पिघ जैसे संशोनवादी सरगना। भाकपा और माकपा के नकली कम्युनिज्म का गन्दा चेहरा तो काफी पहले ही नंगा हो चुका है, अब भाकपा (मा-ले) की कलई भी खुलती जा रही है। संशोनवादी और अतिवामपन्थी दुस्साहसवादी भटकावों से लड़े बिना भारत का मज़दूर वर्ग अपनी क्रान्तिकारी पार्टी नये सिरे से खड़ी करने के काम को कत्तई अंजाम नहीं दे सकता। क्रान्तिकारी विचारधारा का मार्गदर्शन क्रान्ति की सर्वोपरि शर्त है। इसलिए ज़रूरी है कि भारत का मज़दूर वर्ग असली और नकली कम्युनिज्म के बीच फर्क करना सीखे। संशोनवाद को सही ढंग से समझने के लिए, यूँ तो बहुत सारा मार्क्‍सवादी साहित्य मौजूद है, लेकिन मज़दूर साथी ख़ासकर 'राज्य और क्रान्ति'] 'सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की', 'महान बहस' (सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के ख्रुश्‍चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बहस के दस्तावेज़) और राज्य एवं क्रान्ति के प्रश्न पर चीनी सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के कुछ चुनिन्दा दस्तावेज़ों का अध्‍ययन कर सकते हैं। बल्कि उन्हें ऐसा अवश्य ही करना चाहिए।



अगली पोस्‍ट में

भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में संशोधनवाद -- इतिहास के कुछ ज़रूरी और दिलचस्प तथ्य


1 कमेंट:

Kapil July 2, 2009 at 8:26 PM  

बेहद जरूरी और विचारोत्तेजक लेख। सचमुच आंख खोलने वाला लेख है जो बताता है कि असली मार्क्‍सवाद और मार्क्‍सवाद के नाम पर धोखा देने वाली पार्टियों को कैसे पहचाना जाए। इस महत्‍वपूर्ण लेख के लिए 'बिगुल' टीम को बहुत बधाई।

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बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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