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16.8.09

'विश्व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्यप्रणाली तथा उत्पादन-प्रक्रिया में बदलाव मज़दूर-प्रतिरोध के नये रूपों को जन्म देगा'

प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (24 जुलाई 2009)

विगत 24 जुलाई को नई दिल्ली स्थित गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान के सभागार में 'भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप' विषय पर आयोजित प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में अधिकांश वक्ताओं ने इस विचार के साथ सहमति ज़ाहिर की कि विश्व पूँजीवाद के असाध्‍य आर्थिक संकट के आन्तरिक दबाव, विश्व राजनीतिक परिदृश्य में आये बदलावों तथा स्वचालन, सूचना प्रौद्योगिकी एवं अन्य नयी तकनीकों के सहारे अतिलाभ निचोड़ने के नये तौर-तरीकों के विकास के परिणामस्वरूप आज पूँजी की कार्य-प्रणाली और ढाँचे में कई अहम बदलाव आये हैं। ऐसी स्थिति में श्रम के पक्ष को भी प्रतिरोध के नये तौर-तरीके और नयी रणनीति विकसित करनी होगी।

यह संगोष्ठी दिवंगत साथी अरविन्द की स्मृति में उनकी प्रथम पुण्यतिथि के अवसर पर राहुल फाउण्डेशन की ओर से आयोजित की गयी थी जिसमें पूर्वी उत्‍तर प्रदेश, नोएडा, दिल्ली, बिहार और पंजाब के विभिन्न इलाकों से आये मज़दूर और छात्र-युवा मोर्चे के संगठनकर्ताओं-कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त कई गणमान्य बुद्धिजीवियों ने भी हिस्सा लिया। साथी अरविन्द के व्यक्तित्व और कार्यों से वाम प्रगतिशील धारा के अधिकांश बुद्धिजीवी, क्रान्तिकारी वाम धारा के राजनीतिक कार्यकर्ता और मज़दूर संगठनकर्ता परिचित रहे हैं। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौद्धिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। संगोष्ठी की शुरुआत से पहले राहुल फाउण्डेशन की अध्‍यक्ष कात्यायनी ने साथी अरविन्द को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय-स्रोत है। वे जनता के लिए जिये और फिर जन-मुक्ति के लिए ही अपना जीवन होम कर दिया। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक तक सक्रिय भूमिका निभाने के बाद मज़दूरों को संगठित करने के काम में वे लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्‍तर प्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई थी। ऐसे साथी की स्मृति से प्रेरणा और विचारों से दिशा लेकर जन-मुक्ति के रास्ते पर आगे बढ़ते जाना ही उसे याद करने का सही तरीका हो सकता है।

इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के 'विहान सांस्कृतिक मंच' के साथियों ने साथी अरविन्द की स्मृति में शहीदों का गीत प्रस्तुत किया और फिर संगोष्ठी की शुरुआत हुई।


विषय-प्रवर्तन

संगोष्ठी के विषय का संक्षिप्त परिचय देते हुए संचालक सत्यम ने बताया कि पिछली सदी के लगभग अन्तिम दो दशकों के दौरान वित्‍तीय पूँजी के वैश्विक नियंत्रण एवं वर्चस्व के नये रूप सामने आये हैं, पूँजी की कार्यप्रणाली में व्यापक और सूक्ष्म बदलाव आये हैं और अतिलाभ निचोड़ने की नयी प्रविधियाँ विकसित हुई हैं। अतिलाभ निचोड़ने की प्रक्रिया से एकत्र पूँजी के अम्बार ने विगत लम्बे समय से जारी पूँजीवाद के ढाँचागत संकट और दीर्घकालिक मन्दी को नयी सदी में एक ऐसे विस्फोटक मुकाम तक पहुँचा दिया है, जिसका साक्षी इतिहास पहले कभी नहीं हुआ था। इस स्थिति ने, समाजवाद के बीसवीं शताब्दी के प्रयोगों की पराजय के बाद पूँजीवाद की अजेयता और अमरत्व का जो मिथक गढ़ा जा रहा था, उसे चकनाचूर कर दिया है। लेकिन पूँजी का भूमण्डलीय तंत्र स्वत: नहीं टूटेगा, यह श्रम की शक्तियों के सुनियोजित प्रयासों से ही टूटेगा। आज का विचारणीय प्रश्न यह है कि मज़दूर वर्ग, अपने ऐतिहासिक मिशन के लिए आगे बढ़ पाना तो दूर, अपनी फौरी और आंशिक हितों एवं माँगों की लड़ाई को भी संगठित नहीं कर पा रहा है। छिटपुट मुठभेड़ों, स्वत:स्फूर्त आन्दोलनों और आत्मरक्षात्मक संघर्षों से आगे बढ़कर वह ज्यादा कुछ भी नहीं कर पा रहा है। इसलिए, आज की बुनियादी चुनौती यह है कि भूमण्डलीकरण के दौर में पूरे विश्व पूँजीवादी तंत्र के ढाँचे और क्रियाविधि में आये बुनियादी बदलावों को देखते हुए मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के रूपों और रणनीतियों में बदलाव के प्रश्न पर गहराई और व्यापकता के साथ विचार किया जाये। इस सन्दर्भ में हमें बड़े-बड़े कारख़ानों में मज़दूर-आबादी के संकेन्द्रण के बजाय छोटे-छोटे कारख़ानों-आबादियों में मज़दूर आबादी को बिखेर देने वाली नयी विकेन्द्रित उत्पादन प्रक्रिया पर, मज़दूर आबादी के अनौपचारिकीकरण के विविध रूपों पर तथा श्रम कानूनों और उनको लागू करने वाले तंत्र की बढ़ती निष्प्रभाविता पर गहराई से विचार करना होगा। हमें बहुसंख्यक ठेका, दिहाड़ी व अनियमित मज़दूरों से परम्परागत ट्रेड यूनियनों की दूरी और नियमित मज़दूरों की एक अत्यन्त छोटी आबादी तक उनके सिकुड़ जाने की स्थिति पर सोचते हुए बहुसंख्यक असंगठित मज़दूरों को संगठित करने के नये रूपों पर विचार करना होगा। साथ ही, हमें उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में पूँजीवादी विकास की आम प्रवृत्ति पर सोचते हुए इन देशों में सर्वहाराकरण और बढ़ती ग्रामीण सर्वहारा आबादी की भूमिका का भी पुनर्मूल्यांकन करना होगा। हमारे विचार-विमर्श का एक पहलू यदि मज़दूर आन्दोलन के आर्थिक और फौरी संघर्षों के स्वरूप से जुड़ा है तो दूसरा पहलू उसके पूँजीवाद-विरोधी ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने वाले दूरगामी राजनीतिक संघर्ष की नयी रणनीति के सन्धान से जुड़ा है। यह संगोष्ठी इस विषय पर सार्थक संवाद की एक शुरुआत भर है।


आधार-वक्तव्य

इस विषय पर अपना लम्बा आधार-वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए 'आह्नान' पत्रिका के सम्पादक और छात्रों-युवाओं-मज़दूरों के बीच काम करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता अभिनव ने सबसे पहले भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों की सिलसिलेवार चर्चा की। उन्होंने कहा कि हम अभी भी साम्राज्यवाद के ही युग में जी रहे हैं, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वित्‍तीय पूँजी का प्रभुत्व अभूतपूर्व ढंग से बढ़ा है तथा पूँजी का परजीवी, अनुत्पादक, परभक्षी और ''सोन्मुख चरित्र सर्वथा नये रूप में सामने आया है। आज पूरी दुनिया की पूँजी का लगभग 90 प्रतिशत भाग वित्‍तीय और सट्टा पूँजी का है, जो शेयर बाजार में, सूदखोरी में तथा विज्ञापन, मनोरंजन उद्योग आदि जैसे अनुत्पादक क्षेत्रों में लगा हुआ है। ऐसी स्थिति लेनिन के समय में नहीं थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि साम्राज्यवाद के युग के लिए लेनिन ने सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल का जो फ्रेमवर्क दिया, वह बुनियादी तौर पर आज भी प्रासंगिक है, पर विगत लगभग आधी सदी के दौरान आये बदलावों को देखने और उक्त फ्रेमवर्क की तफ़सीलों में सम्भावित कई बुनियादी बदलावों पर विचार करने की चुनौती से हम मुँह नहीं मोड़ सकते। मार्क्‍सवाद सिद्धान्तों के खाँचे में सच्चाइयों को फिट करने की कोशिश के बजाय, हमें तथ्यों से सत्य का निगमन करने की शिक्षा देता है।

अभिनव ने विषय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विहंगावलोकन करते हुए बताया कि जहाँ तक विश्व पूँजीवाद की आर्थिक क्रिया-विधि का सवाल है, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के दौर की दो बड़ी अभिलाक्षणिकताएँ रेखांकित की जा सकती हैं। पहला था ''कल्याणकारी'' राज्य की कीन्सवादी अवधारणा का अमली रूप और दूसरा था 'फोर्डिस्ट मास प्रोडक्शन।' ये परिघटनाएँ युद्ध के पहले से मौजूद थीं, लेकिन युद्ध के बाद की दुनिया में ये प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में सामने आयीं। यह अमेरिका, और विश्व पूँजीवाद का भी, तथाकथित ''स्वर्णिम युग'' था। लेकिन जल्दी ही यह ''स्वर्णिम युग'' पराभव की ढलान पर फिसलता दिखा और 1970 के दशक में पूँजीवादी ''कल्याणकारी'' राज्य और 'फोर्डिस्ट मास प्रोडक्शन' के क्षरण-विघटन की प्रक्रिया शुरू होकर लगातार तेज होती चली गयी। यह समय ब्रेट्टनवुड्स समझौता और 'डॉलर-गोल्ड स्टैण्डर्ड' के टूटने का समय था। इसी दौर में ब्रेट्टनवुड्स संस्थाओं की भूमिका का पुनर्गठन करते हुए उन बुनियादी नीतियों को विकसित करने की शुरुआत हुई, जिन्हें आज भूमण्डलीकरण की नीतियाँ कहा जा रहा है। उस समय तक ''कल्याणकारी राज्य'' की नीतियाँ धीरे-धीरे पूँजी के लिए अनुपयोगी और अवरोधक बनने लगी थीं क्योंकि वे पूँजी के स्वतंत्र प्रवाह में बाधक बन रही थीं, जो पूँजी संचय की दर को बढ़ाने के लिए जरूरी था। 1980 के दशक में पहले लातिन अमेरिकी देशों में और फिर अन्य पिछड़े पूँजीवादी देशों में निजीकरण-उदारीकरण आदि भूमण्डलीकरण की ट्रेडमार्क नीतियों पर अमल शुरू हुआ। 1990 का दशक इन नीतियों पर निर्बाध विश्वव्यापी अमल का काल था और अब नयी सदी के पहले दशक में हम 1930 के दशक की महामन्दी के बाद के सबसे बड़े पूँजीवादी संकट के गवाह बन रहे हैं।

अभिनव ने बताया कि पूँजीवादी नीतियों के इन बदलावों और उनकी परिणतियों के अतिरिक्त, दुनिया के पूँजीपतियों के, कुछ अपने नकारात्मक अनुभव भी रहे हैं, जिन्होंने अधिशेष निचोड़ने और शासन चलाने की नीतियों में बदलाव लाने के लिए उन्हें विवश करने में अहम भूमिका निभाई। बीसवीं शताब्दी में रूसी अक्टूबर क्रान्ति, चीन की नवजनवादी क्रान्ति और एशिया-अफ्रीका के तूफानी राष्ट्रीय मुक्तियुध्दों ने विश्व पूँजीवादी तंत्र को झकझोरकर रख दिया था। हालाँकि संशोधनवादियों के सत्तासीन होने के बाद, रूस और चीन के अन्दरूनी वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की पराजय हो चुकी थी और इन देशों में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी थी लेकिन विश्व पूँजीवाद के चौधरी जानते थे कि जनक्रान्तियों का खतरा अभी टला नहीं था। इसलिए उन्होंने ऐसी नयी रणनीतियाँ ईजाद कीं जिनसे विश्व स्तर पर मज़दूर आन्दोलन को कमज़ोर बनाया जा सके। ज्यादा से ज्यादा सस्ती दरों पर श्रम शक्ति निचोड़ने के आर्थिक उद्देश्य के अतिरिक्त, उपरोक्त राजनीतिक उद्देश्य की भी 'फोर्डिस्ट मास प्रोडक्शन असेम्बली लाइन' को तोड़ने की रणनीति के पीछे एक अहम भूमिका थी। पूँजी के भूमण्डलीकरण ने उसे सस्ते श्रम को निचोड़ने और कच्चे माल को सस्ती से सस्ती दरों पर हड़पने के लिए पूरी दुनिया में निर्बाध विचरण की आजादी दे दी। 1990 के दशक में 'विखण्डित भूमण्डलीय असेम्बली लाइन' की परिघटना एक प्रतिनिधि प्रवृत्ति के रूप में सामने आयी। बड़ी औद्योगिक इकाइयों को छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों में तोड़कर दूर-दूर (कभी-कभी तो कई देशों तक में) बिखरा दिया जाने लगा। यह प्रवृत्ति अभी भी लगातार जारी है। कुछ ऊर्ध्‍वस्थ पूँजीगत माल उत्पादक उद्योगों (ओवरहेड कैपिटल गुड्स इण्डस्ट्रीज़) को छोड़कर, सभी जगह काम की काण्ट्रैक्टिंग, सबकाण्ट्रैक्टिंग और आउटसोर्सिंग एक आम प्रवृत्ति के रूप में देखने को मिलती है।

पिछड़े पूँजीवादी देशों में निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों की ओर संक्रमण की आन्तरिक गतिकी की चर्चा करते हुए अभिनव ने कहा कि राजनीतिक आजादी मिलने के बाद उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में राष्ट्रीयता का सवाल, जिस हद तक बुर्जुआ दायरे में हल हो सकता था, उस हद तक हल हो चुका था। इनमें से कुछ देशों के नये शासक बुर्जुआ वर्ग ने साम्राज्यवाद पर सापेक्षत: अधिक निर्भर रहते हुए पूँजीवादी विकास का रास्ता पकड़ा, जबकि कुछ अन्य देशों के बुर्जुआ वर्ग ने (साम्राज्यवादी देशों की प्रतिस्पर्द्धा का अधिक कुशलतापूर्वक लाभ उठाते हुए और आयात-प्रतिस्थापन औद्योगीकरण का रास्ता अपनाते हुए) सापेक्षत: अधिक स्वतंत्र पूँजीवादी विकास का रास्ता पकड़ा। भारत को उक्त दूसरी श्रेणी में रखा जा सकता है। 1980 के दशक में इन उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में भूमण्डलीकरण की नीतियों का सूत्रपात हो चुका था। पूँजी के भूमण्डलीकरण के साथ ही राष्ट्र-राज्यों की मुख्य भूमिका देश के सस्ते श्रम के प्रबन्‍धन और नियंत्रण करनेमात्र की तथा विदेशी पूँजी को ज्यादा से ज्यादा अनुकूल और लचीला श्रम-परिवेश मुहैया कराने की रह गयी थी। देश के प्राकृतिक और मानव संसाधनों की लूट में अब देशी पूँजी और विदेशी पूँजी का सुस्पष्ट और पहले की अपेक्षा अत्यधिक घर्षणमुक्त सहकार-सम्बन्‍ध कायम हो चुका था।

भूमण्डलीकरण की नीतियों के चलते मज़दूरों की भारी आबादी अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठी। जिन थोड़े से मज़दूरों की नौकरियाँ बची थी, उनमें से भी अधिकांश को 'कैजुअलाइजेशन', 'काण्ट्रैक्टिंग' और 'सबकाण्ट्रैक्टिंग' की प्रक्रिया के द्वारा अनिश्चतता और बदहाली के भँवर में लगातार धकेलते जाने का सिलसिला चलता रहा। जैसाकि श्रम मामलों के विशेषज्ञ इतिहासकार जान ब्रेमन ने इंगित किया है, 1991 के बाद के दौर में, स्थायी मज़दूर कुल मज़दूर आबादी का एक छोटा-सा सुविधासम्पन्न हिस्सा मात्र बनकर रह गया था। एक आकलन के अनुसार, भारत की कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है। इस अनौपचारिक क्षेत्र का बड़ा संघटक हिस्सा उन स्वच्छन्द ('फुटलूज़') मज़दूरों का है, जो कभी वेण्डर, हॉकर या लेबर चौराहे के दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते हैं तो कभी किसी फैक्टरी में काम करने लगते हैं। इन मज़दूरों को किसी एक कार्यस्थल पर पकड़ पाना मुश्किल होता है। अनौपचारिक क्षेत्र का दूसरा संघटक हिस्सा उन मज़दूरों का है जो छोटे वर्कशॉपों में काम करते हैं, या जो अपने ही परिवारीजनों के श्रम के बूते ऐसे वर्कशॉप चलाते हैं (यानी बाहर से मज़दूर नहीं रखते)। इसी श्रेणी में वे भी शामिल हैं जो पीसरेट पर काम करते हैं, या घर पर कुछ ऐसी प्रणाली के अन्तर्गत काम करते हैं, जो काफी हद तक मध्‍ययुगीन 'पुटिंग आउट सिस्टम' से मिलती-जुलती होती है। इसके अतिरिक्त मज़दूरों का एक ऐसा भी हिस्सा है, जो प्रत्यक्षत: 'पूँजी के मुख्य परिपथ' में नहीं होता है, उसका अस्तित्व सापेक्षत: स्‍वायत्‍त होता है और काफी हद तक वह 'जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था' में जीता है।

अभिनव ने कल्याण सान्याल और राजेश भट्टाचार्य जैसे उन अकादमीशियनों के दृष्टिकोण को भ्रामक और निम्न बुर्जुआ पूर्वाग्रहों से युक्त बताया जो भाड़े पर उजरती मज़दूर रखकर छोटे वर्कशॉप चलाने वाले छोटे उत्पादकों को अनौपचारिक मज़दूर वर्ग की श्रेणी में रखते हैं और उनमें बड़ी पूँजी के हमले का प्रतिरोध करने की सर्वाधिक सम्भावना देखते हैं। निश्चय ही इन छोटे उत्पादकों का बड़े पूँजीपतियों के साथ अन्तरविरोध होता है, पर इनका भी बड़ा हिस्सा बड़े पूँजीपतियों द्वारा सहयोजित कर लिया जाता है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि मज़दूरों से अधिशेष निचोड़ने वाला यह वर्ग किसी भी तरह से मज़दूर वर्ग के संघर्ष का भागीदार नहीं बन सकता।

अभिनव ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि अनौपचारिक मज़दूर अनौपचारिक क्षेत्र के अतिरिक्त औपचारिक क्षेत्र में भी काम करता है और वहाँ भी उसकी प्रतिशत भागीदारी बढ़ती जा रही है। यह अनौपचारिक मज़दूर कुल मज़दूर आबादी का 93 प्रतिशत है। रूपवादी पहुँच-पद्धति से मुक्त होकर अन्तर्वस्तु को देखने पर पता चलता है कि आज के अनौपचारिक मज़दूर का बड़ा हिस्सा 30-40 वर्षों पहले के उस असंगठित मज़दूर से सर्वथा भिन्न है जो या तो लेबर चौक की दिहाड़ी करता था, किसी छोटे-मोटे वर्कशॉप (जो किसी बड़े कारख़ाने का सहायक अंग न होकर सीधे किसी उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करता था) में काम करता था अथवा करघा या कोल्हू या अपने घरेलू श्रम पर आधारित वर्कशॉप चलाता था। यह अनौपचारिक मज़दूर ज्यादातर किसी छोटे-मोटे वर्कशॉप में काम करते हुए या किसी आधुनिक कारख़ाने में या कंस्ट्रक्शन कम्पनी में ठेका, दिहाड़ी, अस्थायी या कैजुअल मज़दूर के रूप में काम करते हुए बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है, यह उन्नत तकनोलॉजी के इस्तेमाल में सक्षम है और बहुधन्‍धी कुशल मज़दूर है (वैसे भी तकनीकी प्रगति ने कुशल और अकुशल मज़दूर के बीच की विभाजक रेखा काफी धुँधली कर दी है), इसकी चेतना उन्नत एवं आधुनिक है और प्रत्यक्षत: नहीं दिखाई पड़ते हुए भी यह अपने वर्ग बन्‍धुओं की एक बहुत बड़ी आबादी के साथ, वस्तुगत तौर पर, घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। जो संगठित संशोधनवादी और बुर्जुआ ट्रेड यूनियनें हैं, उनका 93 प्रतिशत मज़दूरों की इस आबादी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। बस रस्मी तौर पर कभी-कभार इनके बीच भी कुछ कर दिया जाता है या कुछ साइनबोर्ड टाँग दिये जाते हैं। जो सच्ची क्रान्तिकारी वाम शक्तियाँ हैं, उन्हें इसी तथाकथित ''असंगठित'' मज़दूर आबादी को संगठित करने पर अपने को मुख्यत: केन्द्रित करना होगा। जो संगठित औपचारिक मज़दूर हैं, उनका एक भाग तो ऐसा है जो 'श्रमिक कुलीन जमात' बन चुका है और क्रान्तिकारी सामाजिक बदलाव से उसका कुछ भी लेना-देना नहीं है। इनका जो शेष भाग है, जाहिर है कि उसे हम संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ सकते। लेकिन आज के हालात में, एक बड़ी ताकत जुटाये बिना क्रान्तिकारी शक्तियाँ औपचारिक क्षेत्र के औपचारिक मज़दूरों के बीच नहीं घुस सकती, जहाँ संशोधनवादियों और बुर्जुआओं की पैठ-पकड़ बहुत मजबूत है। इसके लिए भी जरूरी यह है कि पहले हम अनौपचारिक मज़दूरों को संगठित करने पर जोर दें।

अपने आधार-वक्तव्य के अन्तिम भाग में अभिनव ने अनौपचारिक मज़दूरों को संगठित करने की चुनौतियों-समस्याओं को रेखांकित किया। ये अनौपचारिक मज़दूर चेतनशील, जागरूक और कुशल हैं, लेकिन किसी एक कारख़ाना स्थल पर इन्हें हमेशा नहीं पाया जा सकता। इसलिए इन्हें कारख़ानों के बजाय इनके रिहाइशी इलाकों में पकड़ना होगा। काम ये चाहे जहाँ करें, इनकी समस्याएँ और माँगें आज सर्वत्र एक ही हैं। अत: उन माँगों को लेकर इन्हें संगठित करने की प्रक्रिया मज़दूर बस्तियों से शुरू की जा सकती है। इनके काम की स्थितियों से जुड़ी माँगों के अतिरिक्त हमें इनके आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि ऐसी माँगों को भी उठाना होगा जो राजनीतिक अधिकार की माँगें हैं और सीधे सत्ता को कठघरे में खड़ा करती हैं। इन मज़दूरों को जागृत-संगठित करने का शुरुआती दौर लम्बा और समस्याओं-परेशानियों भरा हो सकता है, लेकिन इनके जीवन और काम की स्थितियाँ ऐसी हैं कि (एक कारख़ाने से नहीं बँधे होने के कारण) इनके भीतर 'पेशागत संकुचित वृत्ति' का आधार कमजोर होता है और एक मालिक के बजाय मालिक वर्ग से लड़ने के लिए ये ज्यादा मज़बूती से उठ खड़े होंगे। इन मज़दूरों को इलाकाई और पेशागत आधार पर बनने वाली यूनियनों में संगठित करना होगा। इन मज़दूरों में इस बात की प्रचुर सम्भावना मौजूद है कि ये मज़दूर वर्ग का नया नेतृत्व पैदा कर सकें।

वाद-विवाद-संवाद

बहस की शुरुआत करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्राध्‍यापक और श्रम इतिहास के विशेषज्ञ डा. प्रभु महापात्र ने आधार-वक्तव्य के द्वन्द्वात्मक विवेचन की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि मार्क्‍स और लेनिन ने हमें सिखाया है कि समस्या की द्वन्द्वात्मक विवेचना करके कमज़ोरी को मज़बूती में बदला जा सकता है, लेकिन भारतीय मार्क्‍सवादियों में इस तरह सोचने की कमी रही है। आधार वक्तव्य में यह चर्चा की गयी कि मज़दूर वर्ग की 93 प्रतिशत सबसे बिखरी और कमज़ोर आबादी को किस तरह क्रान्ति की मुख्य ताकत बनाया जा सकता है। आज यह एक सपना लग सकता है, लेकिन क्रान्ति के लिए सपना देखना ज़रूरी है। भूमण्डलीकरण के दौर का एक बड़ा असर यह हुआ है कि बहुत से लोगों के सपने मर गये हैं या छीन लिये गये हैं।

डा. महापात्र का कहना था कि यह एक ग़लत अवधारणा है कि श्रम कानून मज़दूरों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करते हैं। ज्यादातर मामलों में श्रम कानून, राज्य को बीच में लाकर, श्रम और पूँजी के बीच के अन्तरविरोध को धुँधला करने का काम करते रहे हैं। राज्य पूँजी की अन्तर्निहित पक्षधरता के बावजूद, आभासी तौर पर तटस्थता का दिखावा करता रहा है। श्रम कानून पूँजीवाद के एक खास दौर में सामने आये। 19वीं सदी के अन्त में पहले इंग्लैण्ड, शेष यूरोप और अमेरिका में श्रम कानूनों का बनना शुरू हुआ। भारत में श्रम कानूनों का इतिहास बहुत छोटा क़रीब 60-70 वर्षों पुराना है। 'ओपन एण्डेड एम्प्लायमेण्ट काण्ट्रैक्ट' के साथ श्रम कानून का निर्माण एवं अमल शुरू हुआ। इसका मूल कारण यह था कि राज्यसत्ता कुछ चीजों का नियंत्रण अपने हाथ में लेना चाहती थी, ताकि पूँजीवाद ठीक से चलता रहे। श्रम और पूँजी के सम्बन्‍धों को 'रेग्यूलेट' करना व्यवस्था के हित में था। 1970 के दशक में स्थिति बदलने लगी। उत्पादन के चरित्र में बदलाव के साथ ही 'काण्ट्रैक्ट' के चरित्र में भी बदलाव आने लगा। अब यह सामूहिक और 'ओपन एण्डेड' न होकर व्यक्तिगत मज़दूर के स्तर पर होने लगा। इसके साथ अधिकांश देशों में श्रम कानूनों में बदलाव और उनकी भूमिका के संकुचन की प्रक्रिया शुरू हो गयी। अब पूँजीवादी संकट के नये गम्भीर दौर में एक बार फिर कुछ कीन्सवादी नुस्खों को आज़माने के साथ ही श्रम और पूँजी के सम्बन्‍धों को 'रेग्यूलेट' करने के लिए श्रम कानूनों को प्रभावी बनाने की ज़रूरत महसूस की जा रही है। 'डीरेग्यूलेशन' से 'रीरेग्यूलेशन' की ओर 'शिफ्ट' की बात की जा रही है। भारत में भी सत्ता नीति-परिवर्तन कर रही है और इस सन्दर्भ में दो-तीन कमीशन बैठाये जा चुके हैं। असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों का राष्ट्रीय आयोग (अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी) वास्तव में असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का आयोग बन गया। इस आयोग की रिपोर्ट के अनुसार कुल 43.4 करोड़ मज़दूरों में से 93 प्रतिशत अनौपचारिक मज़दूर हैं। इनकी परिभाषा आयोग ने यह दी कि इन्हें राज्य या नियोक्ता की ओर से किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं हासिल है। लेकिन इस रिपोर्ट का दूसरा पहलू, जो बुनियादी है, वह यह है कि इसने मज़दूरों की सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा का सारा दायित्व राज्य पर डालकर पूँजीपतियों को खुला हाथ दे दिया है कि वे उन मज़दूरों से अतिलाभ निचोड़ते रहें और इस प्रक्रिया के दौरान श्रम और पूँजी का अन्तरविरोध भी (राज्य के हस्तक्षेप के चलते) तीखा न हो पाये।

डा. महापात्र ने रवि श्रीवास्तव कमेटी की रिपोर्ट के हवाले से इस तथ्य की ओर भी ध्‍यान आकृष्ट किया कि ग्रामीण इलाकों के कामगारों की आय का 50 प्रतिशत से भी कम हिस्सा अब खेती से आता है। चर्चित नन्दीग्राम और आसपास के इलाके के करीब 6 लाख लोग खिदिरपुर के रेडिमेड कपड़ा उद्योग में काम करते हैं। यानी ग्रामीण मज़दूरों का बड़ा हिस्सा भी वास्तव में औद्योगिक उत्पादन तंत्र से जुड़ चुका है। श्रम के अदृश्यीकरण के बौद्धिक विभ्रम के बारे में डा. महापात्र का कहना था कि यह तथ्यत: गलत है। चूँकि मज़दूर का सार्वजनिक जीवन में कोई दखल नहीं है, इसलिए मध्‍य वर्ग को वह दिखता नहीं है। 'कुलीन मज़दूर' (लेबर एरिस्टोक्रेसी) शब्दावली के बारे में उनका कहना था कि हमें इसका सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए और सभी संगठित, स्थायी मज़दूरों को कुलीन मज़दूर नहीं मान लेना चाहिए। मज़दूर बस्तियों में जाकर अनियमित-अनौपचारिक मज़दूरों को इलाकाई और पेशागत आधार पर संगठित करने के विचार को महत्वपूर्ण और नया बताते हुए उन्होंने उसका स्वागत किया।

भा.क.पा. (मा.ले.) (नया सर्वहारा) के सेक्रेटरी शिवमंगल सिद्धान्तकर ने कहा कि आज साम्राज्यवाद के नये दौर और नयी सर्वहारा क्रान्ति पर बात करना जरूरी है। हमें भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर आन्दोलन के सामने उपस्थित संकटों से लड़ने के लिए नये औज़ारों पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। साम्राज्यवाद के इस नये दौर ने एक ओर मेहनतकशों को तबाह किया है तो दूसरी ओर लड़ने के नये औज़ार और आधार भी दिये हैं। लेकिन 'सेज' के विरुद्ध आज होने वाले संघर्ष ज्यादातर क्रान्तिकारी न होकर सुधारवादी प्रकृति के ही हैं। ऐसे प्रश्नों पर ध्‍यान देना होगा। नयी सर्वहारा क्रान्ति का नया नेतृत्व आज वह नया सर्वहारा ही कर सकता है, जो उत्पादक शक्तियों के अभूतपूर्व विकास और तकनीकी प्रगति के बाद अस्तित्व में आया है।

साहिबाबाद से आये 'हमारी सोच' पत्रिका के सम्पादक सुभाष शर्मा ने कहा कि संघर्ष के नये रूपों की खोज का मतलब सिर्फ हड़ताल या 'टूल डाउन' आदि के विकल्प तलाशने से नहीं होना चाहिए। आर्थिक संघर्ष और ट्रेड यूनियन आन्दोलन तक ही मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध की बात सीमित नहीं है। लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना था कि मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप स्वयं उसके आन्दोलन के दौरान पैदा होंगे। हरावल शक्तियाँ प्रतिरोध के नये रूपों के बारे में न तो पहले से भविष्यवाणी कर सकती हैं, न ही उनके बारे में मज़दूर वर्ग को बता सकती हैं। साथ ही, ऐसा भी नहीं है कि भूमण्डलीकरण के दौर में बहुत कुछ बदल गया है। संगठित और असंगठित मज़दूर के बीच का अन्तर पहले भी था। ट्रेड यूनियन संघर्ष के जो रूप 'कल्याणकारी राज्य' के दौर में विकसित हुए और जिन्हें संशोधनवादी नेतृत्व ने अपना एकमात्र काम बना लिया, वे अब निष्प्राण हो चुके हैं। अत: नये रूप तो पैदा होंगे ही। हमें अंतर्वस्तु के प्रश्न पर भी सोचना होगा। भूमण्डलीकरण के दौर में मज़दूर वर्ग के विखण्डन के साथ उसके एकत्रीकरण की प्रक्रिया भी जारी है। आज मज़दूर जहाँ कहीं भी लड़ रहा है, वह संशोधनवादियों से अलग संगठित होने की कोशिश कर रहा है। हमारा दायित्व है कि हम उनकी राजनीतिक सचेतनता बढ़ाने का काम करें। आज की एक अभूतपूर्व परिस्थिति यह है कि विगत 30-40 वर्षों से मज़दूर वर्ग बिना अपनी किसी क्रान्तिकारी पार्टी के संघर्ष कर रहा है। उसे अपनी क्रान्तिकारी पार्टी खड़ी करने का अहसास कराना बेहद जरूरी है।

इंकलाबी मज़दूर केन्द्र (फरीदाबाद) के नागेन्द्र ने कहा कि वर्तमान संकट का दौर सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करणों का दौर है। स्थिति बहुत उलझी हुई है, पुराने सूत्र हमारा मार्गदर्शन नहीं कर पा रहे हैं और आन्दोलन के पुराने रूप बहुत काम नहीं आ रहे हैं। आज वर्गीय आन्दोलन के बजाय स्त्री, पर्यावरण आदि मुद्दों पर आन्दोलन की पलायनवादी प्रवृत्ति बढ़ रही है। उन्होंने इस आकलन को अतिरंजनापूर्ण बताया कि असेम्बली लाइन अब रह नहीं गयी है। उत्पादन अभी भी असेम्बली लाइन पर ही होता है। उनका कहना था कि आज भी बड़े पैमाने के उद्योगों का संगठित सर्वहारा ही नेतृत्वकारी भूमिका निभायेगा और संगठित सर्वहारा लड़ाई की मुख्य ताकत होगा। प्रत्यक्ष उत्पादन के क्षेत्र की लड़ाइयाँ ही वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ा सकती हैं। रिहाइशी इलाकों में स्वास्थ्य-सफाई आदि की लड़ाइयाँ उपभोग के मुद्दों पर केन्द्रित होती हैं। 1991 के बाद ट्रेड यूनियन आन्दोलन में अर्थवाद का आधार कमज़ोर पड़ा है। आज आर्थिक मुद्दों पर भी आन्दोलन शुरू करते ही मज़दूर का सामना पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका सहित पूरे वर्ग की सत्ता की ताकत से होता है। नागेन्द्र ने एक-एक कारख़ाने के आन्दोलन की सफलता की सम्भावना कम होने के तथ्य को स्वीकारते हुए इलाकेवार, ट्रेडवार संगठन बनाने की ज़रूरत का समर्थन किया।

पंजाब से आये मज़दूर संगठनकर्ता और 'बिगुल' अखबार और 'प्रतिबद्ध' पत्रिका के सम्पादक सुखविन्दर ने कहा कि भूमण्डलीकरण ने वैश्विक स्तर पर मज़दूरों की एकजुटता की नयी ज़मीन तैयार की है। असेम्बली लाइन बिखरा दी गयी है, लेकिन है वह असेम्बली लाइन ही। जहाँ तक छोटे-बड़े उद्योगों का सवाल है, अलग-अलग इलाकों में स्थितियाँ अलग-अलग हैं। कुछ इलाकों में बड़े उद्योगों के कम होने का ट्रेण्ड यदि है, तो पंजाब जैसे इलाके में बहुत से बड़े उद्योग लग रहे हैं, जिसमें 5 से 15 हजार तक मज़दूर काम कर रहे हैं। पर मुख्य बात यह है कि इन मज़दूरों का अधिकतम हिस्सा भी छोटे उद्योगों की ही तरह अनौपचारिक मज़दूर है - यानी अस्थायी, दिहाड़ी या ठेका मज़दूर है जिसे न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं मिलती और कोई भी सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं होती। आज की मुख्य विशिष्टता यह है कि मज़दूरों को एक शोषक नहीं बल्कि पूरा शोषक वर्ग अपने दुश्मन के रूप में नजर आ रहा है। लुधियाना में पिछले 3-4 वर्षों से मज़दूरों के जुझारू आन्दोलन उठते रहे हैं, समस्या नेतृत्व की है, मनोगत ताकतों की है। बीसवीं सदी की सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय से उत्पन्न हालात का नयी क्रान्तिकारी भरती और तैयारी की प्रक्रिया पर जो असर पड़ा, वह अभी भी जारी है। साथ ही क्रान्तिकारी आन्दोलन में मौजूद भ्रामक प्रवृत्तियों और कठमुल्ला सोच का भी गम्भीर दुष्प्रभाव पड़ रहा है। इनसे छुटकारा पाना जरूरी है। मज़दूर वर्ग को आर्थिक और फौरी राजनीतिक माँगों पर संगठित करने के अतिरिक्त उसके ऐतिहासिक मिशन से भी परिचित कराना होगा।

छत्‍तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के शेख अंसार ने बताया कि उनके संगठन का ज़ोर शुरू से ही इलाकाई पैमाने पर संघर्ष संगठित करने पर और ट्रेड यूनियनों में मज़दूरों को पेशागत आधार पर संगठित करने पर था। उन्होंने अपने अनुभवों के हवाले से बताया कि मज़दूर लड़ने को तैयार हैं। यदि आज की परिस्थितियों की सही समझ से लैस क्रान्तिकारी ताकतें मज़दूरों के बीच जायेंगी, तो वे फिर से उठ खड़े होंगे। शंकर गुहा नियोगी ने अपने अन्तिम सन्देश में स्पष्ट कहा था कि संशोधनवाद, अर्थवाद और ''वामपंथी'' दुस्साहसवाद का सामना किये बिना नया रास्ता नहीं निकलेगा। साथ ही, मज़दूर वर्ग की सच्ची क्रान्तिकारी पार्टी की अनिवार्यता पर उन्होंने बल दिया था। समय आ गया है कि हम इस प्रश्न पर नये सिरे से, गम्भीरता के साथ सोचें। एकता बनाने के लिए हमें अपने मतभेदों को चिन्हित करना होगा और वाद-विवाद, विचार-विमर्श के रास्ते आगे बढ़ना होगा। शेख अंसार ने कहा कि संघर्ष के नये रूप आन्दोलन से ही पैदा होते हैं, पर यह क्रिया स्वत:स्फूर्त नहीं होती। अनुभव का यदि विश्लेषण-समाहार करके आगे के रास्ते का ब्लू प्रिण्ट न बनाया जाये तो नेतृत्व की भूमिका नहीं निभाई जा सकती।

पटना से आये ट्रेड यूनियनकर्मी और लेखक-कवि नरेन्द्र कुमार ने आधार वक्तव्य पर टिप्पणी करते हुए कहा कि प्रतिरोध के नये रूपों की बात करते हुए असंगठित मज़दूरों पर ज्यादा ज़ोर दिया जा रहा है। अक्सर अलग-अलग जगहों के सीमित अनुभव के आधार पर केन्द्रीय नीति तय होने लगती है, जबकि राष्ट्रीय पैमाने का यथार्थ वैसा ही नहीं होता। आधार वक्तव्य में वास्तविक मज़दूर पर ज़ोर कम दिया गया है और मज़दूर वर्ग के दायरे को बहुत फैला दिया गया है। साथ ही 'लेबर एरिस्टोक्रेसी' की बात पर भी कुछ ज्यादा ही ज़ोर दिया जा रहा है। नरेन्द्र कुमार ने मज़दूर वर्ग के आन्दोलनों के किसी राष्ट्रीय समन्वय केन्द्र की आवश्यकता को विशेष तौर पर रेखांकित किया।

शहीद भगतसिंह विचार मंच, सिरसा के कश्मीर सिंह ने इस बात से असहमति ज़ाहिर की कि आज वास्तविक उत्पादन में पूँजी निवेश नहीं हो रहा है। जनसंघर्ष मंच, हरियाणा के सौमदत्‍त गौतम ने कहा कि भूमण्डलीकरण के दौर में प्रतिरोध के नये रूप विकसित करने के साथ ही पुराने रूपों को पूरी तरह खारिज नहीं कर देना चाहिए। जनचेतना मंच, गोहाना के संयोजक डा. सी.डी. शर्मा ने भारत के मज़दूर आन्दोलन के वैचारिक पक्ष को कमज़ोर बताते हुए कहा कि नयी चुनौतियों-समस्याओं का सामना करने के लिए वैज्ञानिक विचारधारा का अध्‍ययन ज़रूरी है। क्रान्तिकारी युवा संगठन, दिल्ली के आलोक ने मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में उन्हें संगठित करने के विचार से सहमति जताते हुए कहा कि कारख़ानों में संगठित मज़दूरों के संघर्षों की उपेक्षा करना ख़तरनाक होगा।

यू.एन.आई. इम्प्लाइज़ फेडरेशन के महासचिव चन्द्रप्रकाश झा ने संगोष्ठी के लिए विशेष तौर पर मुम्बई से भेजे अपने आलेख में मीडिया में श्रम से जुड़े मुद्दों के लिए जगह लगातार कम होते जाने की चर्चा करते हुए कहा कि आज ज्यादातर पत्रकार स्वयं को श्रमजीवी मानते ही नहीं हैं। बहुत से पत्रकारों को यह नहीं पता है कि उनके लिए बना एकमात्र कानून 'वर्किंग जर्नलिस्ट्स एक्‍ट' लगभग पूरी तरह औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947) और ट्रेड यूनियन अधिनियम (1926) पर आधारित है। आज बहुत ही कम मीडिया घरानों में यूनियनें रह गयी हैं, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो स्थिति और भी बुरी है। बाज़ार की अन्‍धी शक्तियों के विरुद्ध मज़दूरों के संगठित प्रतिरोध से ही स्थितियाँ बदलेंगी।

समापन वक्तव्य

अन्त में आधार वक्तव्य के प्रस्तोता अभिनव ने अपना एक संक्षिप्त समापन-वक्तव्य रखा, जिसमें उन्होंने कुछ विभ्रमों और भ्रान्त धारणाओं का निराकरण करते हुए कुछ विरोधी अवस्थितियों की आलोचना भी प्रस्तुत की।

नेतृत्व देने और संगठित होने की अनौपचारिक मज़दूरों की क्षमता से जुड़े प्रश्नों का उत्‍तर देते हुए उन्होंने कहा कि पूरा आन्दोलन और यहाँ तक कि अकादमिक जगत भी लम्बे समय से जड़ जमाये इस रूढ़ मताग्रही धारणा का आज भी शिकार है कि अनौपचारिक मज़दूर ग्रामीण या पिछड़ी चेतना वाला और आधुनिकता विरोधी होता है। लेकिन आज का अनौपचारिक मज़दूर शहरी है, आधुनिक है, औद्योगिक है, कुशल है और प्रगतिशील विचारों वाला है। हमें आज के यथार्थ का अध्‍ययन करके यह समझना होगा कि उत्पादन-प्रक्रिया में बदलाव के चलते, न केवल बड़े उद्योगों के अनौपचारिक मज़दूर, बल्कि उनके 'एन्सिलियरी' के तौर पर काम करने वाले छोटे उद्योगों के अनौपचारिक मज़दूर और इस शृंखला से जुड़े 'सबकाण्ट्रैक्टिंग' और पीसरेट के मज़दूर भी वस्तुगत तौर पर, आधुनिक दृष्टि से, मैन्युफैक्चरिंग और मशीनोफैक्चरिंग के आधुनिक संगठित सर्वहारा हैं। फर्क सिर्फ यह है कि ये एक छत के नीचे स्थायी तौर पर कार्यरत मज़दूर नहीं हैं। लेकिन, अलग-अलग कारख़ानों में काम करने से इनकी ''पेशागत संकुचित वृत्ति'' टूटी है और 'दृष्टि' व्यापक हुई है। यह एक और अतिरिक्त सकारात्मक पहलू है, जो बताता है कि यह आज का आधुनिक, औद्योगिक सर्वहारा है और अन्तर्वस्तु की दृष्टि से संगठित सर्वहारा है। बेशक, जैसाकि पहले ही बताया जा चुका है, समूचे अनौपचारिक क्षेत्र का चरित्र समरूपी नहीं है, उसमें एक छोटी-सी ऐसी बिखरी हुई मेहनतकश आबादी भी है जो पूँजी के मुख्य परिपथ से पृथक्कृत है और कुछ ऐसे छोटे उत्पादक भी हैं, जो अधिशेष का विनियोजन करते हैं।

इसी तरह, असेम्बली लाइन के विखण्डन की परिघटना को भी समझने में रूढ़ मताग्रह बाधक बन रहा है। आधार वक्तव्य में यह कहीं नहीं कहा गया है कि असेम्बली लाइन है ही नहीं। असेम्बली लाइन है, पर उसे बिखरा दिया गया है, यह 'फ्रैग्मेण्टेड ग्लोबल असेम्बली लाइन' है। एक ही छत के नीचे कार्यरत मज़दूर आबादी को बिखरा देने के लिए और श्रम-शक्ति और कच्चे माल को सस्ती से सस्ती दरों पर लूटने के लिए एक बड़ी असेम्बली लाइन की जगह दूर-दूर बिखरी कई छोटी असेम्बली लाइनों, छोटे-छोटे वर्कशॉपों और पीसरेट पर काम करने वाले घरेलू उपक्रमों की एक संश्लिष्ट शृंखला बना दी गयी है, जो स्वचालन की नयी प्रविधियों, संचार क्रान्ति, कम्प्यूटरीकरण, परिवहन के आधुनिकीकरण और पूँजी की आवाजाही को निर्बाध बनाने वाली राष्ट्र-राज्यों की नयी भूमिका के चलते सम्भव हो सका है।

'लेबर एरिस्टोक्रेसी' के प्रश्न पर भी अभिनव ने स्पष्ट किया कि ऐसा कत्‍तई नहीं कहा गया है कि बड़े उद्योगों के सभी स्थायी मज़दूर कुलीन मज़दूर हैं। हाँ, उनका एक हिस्सा निश्चय ही कुलीन मज़दूर की श्रेणी में आता है। शेष जो नियमित मज़दूर हैं, जिन्हें बेहतर वेतन और सामाजिक सुरक्षा हासिल है, आज के ठहराव और राजनीतिक कार्यों के अभाव के समय में वे अनियमित मज़दूरों के साथ खड़े नहीं हैं और आन्दोलनों से दूर हैं, पर उनमें काम अवश्य करना होगा। समस्या यह है कि वहाँ संशोधनवादी ट्रेड यूनियन नौकरशाहों की जकड़बन्दी सर्वाधिक मज़बूत है जिसे तोड़ने के लिए बहुत अधिक संगठित शक्ति और सुदीर्घ प्रयासों की जरूरत है।

सुभाष शर्मा द्वारा उठाये गये प्रश्न का उत्‍तर देते हुए अभिनव ने कहा कि संघर्ष के नये रूप मज़दूर वर्ग के हिरावल के सचेतन हस्तक्षेप के बिना नहीं ईजाद होते। बेशक हम जनता के स्वत:स्फूर्त संघर्षों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों का समाहार करते हैं और वस्तुगत परिस्थितियों के अध्‍ययन के निष्कर्षों के साथ इनका संश्लेषण करते हैं, और तब फिर संघर्ष के नये रूपों की परिकल्पना की जाती है, जो फिर सामाजिक प्रयोगों के दौरान सत्यापित, संशोधित और परिवर्धित होते हैं। यदि हम ऐसा नहीं करते और सोचते हैं कि आने वाले दिनों के संघर्ष स्वत: अपने नये रूप विकसित कर लेंगे, तो यह पूरी तरह से स्वत:स्फूर्ततावाद होगा। हरावल दस्ता मज़दूर वर्ग से सीखता है, लेकिन फिर अपनी पारी में, वह उसे सिखाता भी है। आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में मज़दूर-स्वत:स्फूर्तता की पूजा और लोकरंजकतावाद का भटकाव गम्भीर रूपों में नजर आ रहा है। मज़दूर वर्ग की स्वत:स्फूर्तता की आलोचनात्मक जाँच-परख करके और उसे परिष्कृत करके नये रूपों की सर्जना हरावल शक्तियों का काम है।

केवल आधे घण्टे का विराम लेकर पूर्वाह्न 11.30 से रात 8.30 बजे तक चले इस गम्भीर बहस-मुबाहसे के बाद गर्मजोशी और संजीदगी भरे कामरेडाना माहौल में संगोष्ठी का समापन हुआ। अधिकांश भागीदारों का मानना था कि इस विषय पर, और ऐसे ही महत्वपूर्ण अन्य विषयों पर कई दिनों की संगोष्ठी करना आज वक्त की ज़रूरत है। सबका कहना था कि यह शुरुआत आगे बढ़नी चाहिए और सिलसिले के रूप में जारी रहनी चाहिए।

संगोष्ठी में प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. दलीप स्वामी, कवि इब्बार रब्बी, 'बिगुल' के सम्पादक डा. दूधनाथ, 'अलाव' पत्रिका के सम्पादक रामकुमार कृषक, शहीद भगतसिंह विचार मंच, सिरसा के डा. सुखदेव हुंदल, मज़दूर एकता लहर के धर्मेन्द्र कुमार, सेंटर फॉर स्ट्रगलिंग विमेन की माया, समाजवादी जबरन जोत हक्क अभियान, नागपुर के एकनाथ बावनकर, दलितों पर अत्याचार विरोधी समिति के जयप्रकाश, दिल्ली उच्च न्यायालय में श्रम मामलों के वकील आग्नेय, टाइम्स ऑफ इंडिया कर्मचारी यूनियन के सी.के. पाण्डेय, मेहनतकश मज़दूर मोर्चा, आईसीटीयू, मेट्रो कामगार संघर्ष समिति, दिल्ली, बादाम मज़दूर यूनियन, करावलनगर दिल्ली, कारख़ाना मज़दूर यूनियन, लुधियाना तथा गोरखपुर, मर्यादपुर, लखनऊ, नोएडा, गाजियाबाद, लुधियाना और चण्डीगढ़ से बिगुल मज़दूर दस्ता, दिशा छात्र संगठन, नौजवान भारत सभा, स्त्री मुक्ति लीग, देहाती मज़दूर यूनियन आदि के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। आर्थिक विकास संस्थान (दिल्ली वि.वि.) से जुड़ी जापानी शोधार्थी मायुमी मुरियामा ने भी संगोष्ठी में भागीदारी की।

संगोष्‍ठी की तस्‍वीरें

2 कमेंट:

कनिष्क कश्यप August 16, 2009 at 6:50 PM  

आप किस प्रतिरोध को जन्म देंगे। छ्द्म स्वरूप
के साथ जीने वाले मजदूर यूनियनों का किया कराया है कि आज मजदूर वर्ग किसी क्रान्ती की बात नहीं सोच सकता। जब सेफ़्टी वाल्व हीं गलत हो, तो चावल क्या खाक पकेगी।

belaus August 16, 2009 at 7:27 PM  

जनाब टिप्‍पणी करने की ऐसी भी क्‍या जल्‍दी थी। थोड़ा ठहरकर पढ़ लिया होता। छद्म यूनियनों, मज़दूर आंदोलन के दलालों, और दशकों से मज़दूर वर्ग को महज़ दुअन्‍नी-चवन्‍नी की लड़ाई में उलझाए रखने वाले अर्थवादी मदारियों के खिलाफ़ लड़े बिना मज़दूर वर्ग कोई कारगर प्रतिरोध नहीं कर सकता, इस व्‍यवस्‍था की हिफ़ाज़त के लिए बनाए गए सेफ़्टी वाल्‍वों को समझकर उन्‍हें खारिज किए बिना अपने ऐतिहासिक मिशन - यानी पूंजीवाद का ख़ात्‍मा करने की ओर नहीं बढ़ सकता... यह तो हम भी मानते हैं। संगोष्‍ठी की पूरी रिपोर्ट और ब्‍लॉग/वेबसाइट के अन्‍य लेख अगर आप पढ़ें तो स्‍पष्‍ट हो जाएगा।

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1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

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3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

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10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

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12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

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14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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