हालिया लेख/रिपोर्टें

Blogger WidgetsRecent Posts Widget for Blogger

31.12.10

मजदूर बिगुल का नया अंक -- दिसंबर 2010


2010 : घपलों-घोटालों का घटाटोप : भारतीय पूँजीवादी जनतन्त्र का भ्रष्ट-पतित-गन्दा-नंगा चेहरा
उँगलियाँ कटाकर मालिक की तिजोरी भर रहे हैं आई.ई.डी. के मज़दूर
दिल्ली में मज़दूर माँग-पत्रक आन्दोलन-2011 क़ी शुरुआत
श्रमिक अधिकारों के प्रति मज़दूरों को जागरूक करने के लिए प्रचार से आगाज़
लक्ष्मीनगर हादसा : पूँजीवादी मशीनरी की बलि चढ़े ग़रीब मज़दूर
माँगपत्रक शिक्षणमाला - 2
कार्य-दिवस का प्रश्न मज़दूर वर्ग के लिए एक महत्त्‍वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न है, महज़ आर्थिक नहीं
कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पाँचवीं किस्त)
पंजाब सरकार ने बनाये दो ख़तरनाक काले कानून : पूँजीवादी हुक्मरानों को सता रहा है जनान्दोलनों का डर
यू.आई.डी. : जनहित नहीं, शासक वर्ग के डर का नतीजा
अयोध्‍या फ़ैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (अन्तिम किस्त)
कश्मीर समस्या का चरित्र, इतिहास और समाधान : समाजवादी राज्य में ही सम्भव है कश्मीर या अन्य किसी भी राष्ट्रीयता का समाधान
संघर्ष की नयी राहें तलाशते बरगदवाँ के मज़दूर
बिल गेट्स और वॉरेन बुफे की 'गिविंग प्लेज' : लूटो-भकोसो और झूठन आम जनता के ''हित'' में दान कर दो
एलाइड निप्पोन की घटना : एक बार फिर फैक्टरी कारख़ानों में मज़दूरों का घुटता आक्रोश सतह पर आया
प्रबन्धन की गुण्डागर्दी की अनदेखी कर मज़दूरों पर एकतरफ़ा पुलिसिया कार्रवाई

Read more...

9.12.10

मजदूर बिगुल का नया अंक -- नवंबर 2010

साथियो!'
मज़दूर बिगुल' का पहला अंक आपके हाथों में है। किन्हीं अपरिहार्य कारणों से 'नई समाजवादी क्रान्ति का उद्धोषक बिगुल' के प्रकाशन को स्थगित करना पड़ा है। 'मज़दूर बिगुल' उन्हीं राजनीतिक विचारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रतिबद्ध है जिनका प्रतिनिधित्व 'नई समाजवादी क्रान्ति का उद्धोषक बिगुल' कर रहा था। हम उम्मीद करते हैं कि जिस प्रकार का सहयोग और साथ सुधी पाठक उसे दे रहे थे, वही वे 'मज़दूर बिगुल' को देना जारी रखेंगे। 'मज़दूर बिगुल' नई समाजवादी क्रान्ति की सोच को लेकर काम करता रहेगा।




पूँजीवादी लूट इससे ज्यादा नग्न नहीं हो सकती! मेहनतकशों की तबाही-बर्बादी इससे भयंकर नहीं हो सकती! हम अब और तमाशबीन नहीं बने रह सकते! एक ही रास्ता - मज़दूर इंक़लाब! मज़दूर सत्ता! 

सही फरमाया प्रधानमन्त्री महोदय! यह व्यवस्था अनाज सड़ा सकती है लेकिन भुख से मरते लोगों तक नहीं पहुँचा सकती है! 

इराकी जनता को तबाह करने के बाद अब इराक से वापसी का अमेरिकी ड्रामा 

कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में 100 से भी अधिक पावरलूम कारख़ानों के मज़दूरों ने कायम की जुझारू एकजुटता 

तीन-दिवसीय द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी गोरखपुर में सम्पन्न - 21वीं सदी का मज़दूर आन्दोलन : नयी चुनौतियाँ, नये रास्ते, नयी दिशा 

काम के उचित दिन की उचित मज़दूरी 

माँगपत्रक आन्दोलन-2011 शिक्षा माला : माँगपत्रक आन्दोलन-2011 के मुद्दों एवं माँगों के बारे में चर्चा 

देश के विभिन्न हिस्सों में माँगपत्रक आन्दोलन-2011 की शुरुआत - अब चलो नयी शुरुआत करो! मज़दूर मुक्ति की बात करो! 

बादाम उद्योग मशीनीकरण की राह पर 

अयोध्‍या फैसला : मज़दूर वर्ग का नज़रिया (पहली किश्त) https://sites.google.com/site/bigulakhbar/

Read more...

16.11.10

एलाइड निप्‍पोन (साहिबाबाद) के मजदूरों पर मैनेजर की हत्‍या का आरोप और घटना की असलियत

साहिबाबाद भारत के उन औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है जहाँ मजदूरों के संघर्षों का शानदार इतिहास रहा है और जन नाटय मंच के सफदर हाशमी की यहां हुई शहादत भी मजदूर संघर्षों की गवाह रही है। लेकिन आज जब उदारीकरण (कठोरीकरण) व निजीकरण की नीतियों के तहत मजदूरों के हक व अधिकारों पर लगातार हमले तेज कर दिए गए तथा मजदूरों को संगाठित होने से रोकने के लिए प्रशासन व उद्योगपति द्वारा खुली तानाशाही की जा रही है तो स्वाभाविक है कि मजदूरों का भी आक्रोश भी कहीं न कहीं फूटेगा। याद हो भारत के पूर्व राष्ट्रपति के.आर नारायण ने यह अकारण नहीं कहा था कि ''लम्बे समय से कष्ट उठा रहे लोगों का धीरज चुक चुका है जो किसी विस्फोटक स्थिति को पैदा कर सकता है'' और पिछले एक दशक में देखे तो मजदूरों के शोषण, दमन-उत्पीड़न, असुरक्षा और घुटन के बीच सुलगता आक्रोश तो सामने आ ही रहा है (हाल ही में गुड़गांव, लुधियाना, गोरखपुर, ग्रेजियानो में मजदूर संघर्ष इसके गवाह है)। लेकिन इस बार ये आक्रोश
साहिबाबाद साइट-4 पर फूटा।

विगत 13 नवम्बर को साहिबाबाद साइट-4 पर स्थिति इंडो-जापानी कोम्बो एलाइड निप्पोन कम्पनी में मजदूरों द्वारा अपने कानूनी मांगों को लेकर प्रबन्धन और मजदूरों के बीच खूनी संघर्ष हुआ है जिसमें कम्पनी के मैनेजर योगेन्द्र चौधरी की जान चली गई। घटना के फौरन बाद प्रशासन, उद्योगपतियों की संस्थाएं मजदूरों को सबक सिखा देने के लिए मुस्तैसद हो गई हैं और पूरा मीडिया चीख-चीखकर मज़दूरों को हत्यारा साबित करने में जुट गया। आइए पहले एलाइड निप्पोन कम्पनी में मजदूरों के हालात तथा संघर्ष के इतिहास को जान ले तभी हम किसी नतीजे पर पहुँच पायेंगे।

13 नवम्बर हुआ क्या?- यूनियन ने हड़ताल का ऐलान पहले ही कर दिया था जिस कारण कम्पनी प्रबन्धन इस रोकना चाहता था । घटना के दिन दोपहर 2 बजे कम्पनी के एचआर हेड महेन्द्र चौधरी और योगेन्द्र चौधरी दो पहिया क्लच वाइंटिग विभाग में गए। जहां मजदूरों से उनकी कुछ कहासुनी हो गयी। जिसके बाद योगेन्द्र चौधरी ने अपनी पिस्तौल से चार-पांच राउंड फायरिंग की जिसमें एक गोली ब्रजेश नामक मज़दूर को लग गई। उसके बाद गुस्साए मजदूरों ने अधिकारियों से जमकर टक्कर ली और आत्मरक्षा में किये गये प्रयास में मैनेजर की मौत हो गई। इसमें दोनों तरफ के कई लोग घायल हो गए।



घटना का असली कारण- कंपनी में तीन महीने से प्रबंधन और यूनियन के बीच करार, बोनस और वेतन वृद्धि को लेकर तनातनी थी। स्थायी मजदूरों की मांगों में कंपनी में 6-8 साल से काम से कर रहे मजदूरों को प्राथमिकता के आधार पर स्थायी करने की मांग भी थी। और कंपनी के 7 कैजुअल मज़दूरों को भी काम से निकाल रखा था। जिसको लेकर भी प्रबंधन से मांग की जा रही थी और जिसका केस डीएलसी के पास पहले से चल रहा था। दूसरी तरफ मालिक-प्रंबधन इसे लागू नहीं होने देना चाहता था। इसके लिए मालिकान ने लगभग 6 महीने पहले यूनियन को तोड़ने के लिए तथाकथित प्रबंधन (असल में सफेदपोश गुंडों को) - योगेंद्र चौधरी तथा उसके साथियों राजकुमार, ओमवीर, महेंद्र सिंह चौधरी और नरेंद्र डबास को गुप्त रूप से लाखों रुपये दिये गये थे। तब से यह तथाकथित प्रबंधन फैक्टरी में अपनी मनमर्जी चला रहा था। फैक्टरी में सरेआम पिस्तौल लेकर घूमने अलावा इस नये तथाकथित प्रबंधन का आतंकी काम जारी था। बात-बात पर बहाना बनाकर मज़दूरों को डराना-दबाना-धमकाना और हाथ छोड़ देना, पीट देना जारी था तथा वर्करों को छोटी-छोटी बात पर झूठा बहाना बना कर कंपनी से बाहर करने का काम और तेज़ कर दिया गया ताकि मालिक को किसी मज़दूर को स्थायी न करना पड़े तथा अपने करार से पीछे हटा जा सके। जो कोई भी ज़रा सा भी इस दबाव का विरोध करता था उसे निशाना बना कर बाहर का रास्ता दिखाना जारी था। इससे मज़दूरों में भारी रोष था। मज़दूर लगातार डर-भय की स्थिति में रहते थे। शिकायतकर्ता के काम से हाथ धोना तय था। मज़दूर लगातार अपनी आर्थिक जरूरतों और भय के द्वन्द में रहता था। उसे हमेशा इस बात का डर रहता था कि विरोध करता हूं तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा तथा आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी तरफ अपने मान-सम्मान को कैसे बचाये। यह स्थिति अन्दर ही अन्दर लगातार भयंकर रूप धारण करती जा रही थी जिसने 13 तारीख़ को विस्फोटक रूप धारण कर लिया।

तथाकथित प्रबंधन की असलियत- आस-पास के इलाके और मज़दूरों से बातचीत करने पर पता चला कि योगेंद्र चौधरी अपने असर-रसूख़ का पूरा इस्तेमाल यूनियनें तोड़ने और दबंगई के लिए करता था। एक मज़दूर ने बताया कि उसने रामा स्टील तथा टीसीएल तथा अन्य जगह पर भी यूनियन तोड़ने का काम किया है। योगेंद्र की पत्नी शीला चौधरी गाजियाबाद पुलिस-विभाग में बतौर सब-इंस्पेक्टर तैनात हैं और उसका तमाम बड़े-बड़े लोगों से सांठगाठ थी - चाहे वो प्रशासन में हो, पुलिस में हो या राजनीति में हों। इसके चलते योगेंद्र मजदूरों के संघर्ष को दबाने तथा यूनियन को तोड़ने में कामयाब होता था। और इस तरह का कारोबार और भी जगह चला रहा था। उसने इस फैक्टरी के प्रबंधन में भी अपनी मर्जी से लोगों को रखना-निकालना जारी रखा था ताकि उस का उद्देश्य जल्दी से जल्दी पूरा हो सके। हालांकि, चार साल पहले यूनियन बनने के बाद मालिक श्रमिकों की मांगों को मानने के लिए राजी हो गया था। लेकिन इन्हें लागू करने के सवाल पर श्रमिकों और प्रबंधन में झगड़ा रहता था। जिसको लेकर यूनियन तीन दिवसीय हड़ताल पर जाने वाली थी। लेकिन उपश्रमायुक्त ने 12.11.10 को औद्योगिक विवाद रूल-4 लगाकर हड़ताल पर रोक लगा दी। जिसकी सूचना यूनियन को शाम को मिल गई थी। यूनियन ने इसका जवाब 13 तारीख़ को दे दिया था।


मजदूरों की संख्या- एलाइड निप्पोन कंपनी में लगभग 300 के करीब परमानेंट तथा लगभग इतने ही कैजुअल वर्कर काम करते हैं। इसके इलावा कम्पनी में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की गिनती लगभग दोनों के बराबर है। 2006 में कम्पनी द्वारा बढ़ते शोषण के खिलाफ मजदूरों ने अपनी यूनियन बनाई थी।

कंपनी का साम्राज्य - मजदूर बताते है कि कंपनी के मालिक की इसके इलावा गुड़गांव तथा अन्य जगहों पर 4-5 कंपनियां और भी हैं। दिल्ली में किसी जगह बड़ा शोरूम भी है।

प्रशासन का मजदूर पर तानाशाही रवैया - इस मामले में योगेंद्र के रिश्तेदार व कंपनी के सिक्योरिटी ऑफिसर ओमबीर सिंह ने लिंक रोड थाने में 27 मजदूरों को नामजद कराते हुए 377 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है। पुलिस ने इस मामले में आठ लोगों को गिरफ्तार किया है। वैसे भी घटना के दिन से ही एसएसपी रघुबीर लाल कहे रहे है कि मारपीट मजदूरों की ओर से हुई। दूसरी तरफ श्रम विभाग पहले ही औद्योगिक विवाद की दुहाई देकर यूनियन की हड़ताल पर रोक लगा चुका था। जिस तरह प्रशासन का नजरिया साफ है, उसी तरह पूरे साइट-4 इलाकों को पुलिस छावानी में बदल दिया है। मजदूर बस्तियों में जगह-जगह पुलिस दल छापामारी कर रहे हैं। दूसरी तरफ मजदूर हकों की ठेकेदार बनने वाली सीटू का नेतृत्व चुप्पी मारे बैठा है मानो उन्हें सांप सूँघ गया हो।

कुछ सवाल जिनके जवाब प्रशासन के पास नहीं है- जाहिर तौर पर मैनेजर की मृत्यु को जायज नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन सवाल ये है कि प्रबंधन मजदूरों से वार्ता करना चाहता था तो क्या उसका रास्ता पिस्तौल है? अगर 377 मजदूरों पर मुकदमा दर्ज किया जाता है तो पिस्तौल से मजदूरों पर जानलेवा हमले करने वाले प्रबन्धन पर क्यों नहीं? दूसरा, अगर प्रबंधन ने यूनियन बनने के समय मजदूरों की मांगों को पूरा कराने का वादा किया था और अब वादा खिलाफी कर मनमाने तरीके से मजदूरों की छंटनी कर रहा है तो यूनियन के सामने हड़ताल पर जाने के सिवा और कोई चारा नहीं था। जो की एक नागरिक का संवैधानिक हक है।

एक मैनेजर की मौत के लिए 377 मज़दूर कसूरवार - साइट-4 एलाइड निप्पोन कम्पनी की घटना से ग्रेटर नोएडा के ग्रेजियानो की घटना याद ताजा हो जाती है जिसमें कम्पनी के सीईओ की मौत के लिए 136 मजदूरों को जेल भेज दिया गया था। तथा 6 मजदूरों पर तो रासुका के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। साइट-4 की घटना ने एक बार और यह दिखा दिया है कि पूँजी के मालिकों और मजदूरों के बीच की इस लड़ाई में पूँजीपति और सरकार, पुलिस, प्रशासन, अदालतें, दलाल ट्रेड यूनियन - सब मजदूरों के खिलाफ एकजुट हैं।
क्योंकि भारत की औद्योगिक दुर्घटनाओं में, जिनमें मजदूरों की मृत्यु अप्रत्यक्ष रूप से प्रबन्धन की कारगुजारियों का नतीजा होती है, किसी को सजा नहीं मिलती। भोपाल कांड, मेट्रो रेल जमरूदपुर साइट या कोरबा कांड जिसमें मजदूरों के हत्यारों को आज तक कोई सजा नहीं दी गई। ऐसे में साफ है स्वतन्त्र और निष्पक्ष कही जाने वाली न्यायपालिका का घनघोर वर्गीय पूर्वाग्रह भी इन घटनाओं में दिखता है। जब सम्पत्तिवान वर्गों का कोई व्यक्ति हत्या जैसे जुर्म में गिरफ्तार होता है तो आनन-फानन में उसकी जमानत हो जाती है। दूसरी ओर मजदूरों पर बिना किसी सबूत के हत्या का मुकदमा चलाया जा जाता है।

बिगुल मजदूर दस्ता

Read more...

1.10.10

लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों ने शानदार जीत हासिल की


कारखाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्‍व में लुधियाना के गऊशाला, कश्‍मीर नगर और माधोपुरी इलाकों के पॉवरलूम वर्करों के आंदोलन को 15वें दिन (30 सितंबर) शानदार सफलता हासिल हुई। मज़दूरों की संगठित ताक़त के आगे मालिकान को आख़िर झुकना पड़ा। 26 फैक्‍टरियों के मालिकों का एक प्रतिनिधि समूह सहायक श्रम आयुक्‍त की मौजूदगी में मज़दूरों के प्रति‍निधियों के साथ बैठक करने के बाद अंतत: एक लि‍खित समझौते पर हस्‍ताक्षर करने को राजी हुआ। समझौते में पॉवरलूम मज़दूरों की विभिन्‍न श्रेणियों के पीस रेट/वेतन में 11-12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करने की बात स्‍वीकार की गई है। यह समझौता उन सभी 59 फैक्‍टरियों में लागू होगा जिनके मज़दूर हड़ताल में हिस्‍सा ले रहे थे। समझौते पर हस्‍ताक्षर हो जाने के बाद मज़दूरों ने अपनी 15 दिन पुरानी हड़ताल वापस लेने और 1 अक्‍टूबर से काम पर वापस लौटने का फैसला किया। 

कारखाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्‍व में लुधियाना के पॉवरलूम वर्करों की सफल हड़तालों का यह तीसरा चरण है। इसके पहले शक्तिनगर, टिब्‍बा रोड की 42 पॉवरलूम फैक्‍टरियों के मज़दूरों ने 24 अगस्‍त से 31 अगस्‍त तक चली 8 दिन लंबी हड़ताल के बाद मालिकों को अपनी मांगो पर झुकने को मजबूर किया था। इसके बाद जिंदल टेक्‍सटाइल फैक्‍टरी में एक और सफल हड़ताल हुई। लुधियाना के मज़दूर आंदोलन के पिछले 18 वर्षों के इतिहास में यह पहला मौका है जब मालिकों की संगठित ताकत के आगे मज़दरों ने इतनी बड़ी सफलता हासिल की है। इन हालिया सफलताओं के बाद लुधियाना के मज़दूर आंदोलन में नई जागृति पैदा हुई है। वेतन बढ़ोत्तरी से ज़्यादा अहम तथ्‍य यह है कि मज़दूरों ने अब अपना एक ज़झारू संगठन बना लिया है। संगठन ही मज़दूरों का सबसे बड़ा हथियार है जो यह सुनिश्चित करता है कि समझौते को सही ढंग से लागू किया जाए और साथ ही यह मज़दूरों के जीवन और आजीविका को प्रभावित करने वाले तमाम मसलों पर उन्‍हें एकजुट करने का काम करेगा। 

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ, 

लखविंदर 

सचिव, कारखाना मज़दूर यूनियन

Read more...

28.9.10

भगतसिंह के जन्मदिवस (28 सितम्बर) के अवसर पर

एक सपने को टालते रहने से क्या होता है
           ''यह अंधेरा
           कालिख की तरह
           स्मृतियों पर छा जाना चाहता है।
           यह सपनों की जमीन को
           बंजर बना देना चाहता है।
           यह उम्मीदों के अंखुवों को
           कुतर जाना चाहता है।
           इसलिए जागते रहना है
           स्मृतियों की स्लेट को पोंछते रहना है।''
           -- शशि प्रकाश

     विस्मृति के विरुध्द संघर्ष भी सामाजिक क्रान्ति की लड़ाई का एक अहम मोर्चा है। कभी-कभी, क्रान्तियों की पराजय या संकट के दौरों में किसी भी देश का मेहनतकश अवाम अपनी परम्परा को, इतिहास को, अपने नायकों और उनके विचारों को भुलाकर अपने स्वप्नों से लक्ष्यों-आदर्शों से भी विमुख हो जाता है, उन्हें भी भुला देता है और उसे गतिरोध की स्थिति जकड़ लेती है। गतिरोध की इसी स्थिति को तोड़ने के लिए भगतसिंह ने ''क्रान्ति की स्पिरिट ताजा'' करने की बात की थी ''ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो।''
     भारतीय इतिहास के (और विश्व इतिहास के भी) एक अभूतपूर्व कठिन दौर में इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने के लिए, क्रान्ति की स्पिरिट ताजा करने के लिए भारतीय जन-मुक्ति संघर्ष के महान नायक शहीदे-आजम भगतसिंह के विचारों को आज बार-बार पढ़ने की जरूरत है, इन्हें हर जीवित हृदय तक पहुँचाने की जरूरत है। भगतसिंह और उनके साथियों का अप्रतिम शौर्य और बलिदान नौजवानों को आज भी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी अन्याय के विरुध्द अन्तिम सांस तक लड़ने की प्रेरणा देता है। उनके विचार हमें आज भी नयी क्रान्ति की दिशा देने में सक्षम हैं। कांग्रेसी नेतृत्व के हाथों में राजनीतिक सत्ता आने के रूप में देश को जो आजादी मिली थी, उसके बाद आधी सदी से अधिक का समय बीत चुका है। सच्चाई को जानने और फैसला लेने के लिए छप्पन वर्ष बहुत होते हैं। 1947 का 'दाग-दाग उजाला' आज संगीन अंधेरी रात की शक्ल ले चुका है। जब सिर पर दोपहर का सूरज होना चाहिए था, उस समय यह अंधेरा तो और अधिक अपशकुनकारी है। साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के राहु-केतु ने विकास के सूरज को पूरी तरह ग्रस लिया है। पचास साल पहले जो सवाल एक शायर ने पूछा, वो आज पूरे देश की जनता का सवाल है -

           'कौन आजाद हुआ
           किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी
           मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
           मादरे-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही।'

भगतसिंह को याद करो! नयी क्रान्ति की राह चलो!
     सन '47 में मिली आजादी की हकीकत एकदम सामने आ जाने के बाद, देश के हर मेहनतकश को, हर छात्र-युवा को आज यह बताना और अधिक जरूरी लगने लगा है कि शहीदे-आजम भगतसिंह ने राष्ट्रीय आन्दोलन के (कांग्रेसी) पूँजीवादी नेतृत्व के बारे में काफी पहले ही आगाह किया था और कहा था कि कांग्रेस की लड़ाई का अन्त किसी न किसी समझौते में ही होगा। भगतसिंह और उनके साथियों ने स्पष्टत: और बार-बार अपने बयानों, पर्चों और लेखों में बताया था कि कांग्रेस के नेतृत्व में जो लड़ाई लड़ी जा रही है, उसका लक्ष्य व्यापक जनता की शक्ति का इस्तेमाल करके देशी पूँजीपति वर्ग के लिए सत्ता हासिल करना है, गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाना है, दस फीसदी ऊपर के लोगों की आजादी हासिल करना है। दूसरी ओर उन्होंने साफ-साफ शब्दों में घोषणा की थी कि क्रान्तिकारी आजादी हासिल करने का मतलब 90 फीसदी आम मेहनतकश जनता के लिए आजादी हासिल करना समझते हैं, वे साम्राज्यवाद और सामन्तवाद का नाश करने के साथ ही देशी पूँजीवाद का भी ख़ात्मा करना चाहते हैं, उनकी पूरी पूँजी और कारख़ाने जब्त करके मेहनतकशों के राज्य के हाथों में सौंप देना चाहते हैं, भूमि पर समूची जनता का साझा मालिकाना कायम करना चाहते हैं और एक ऐसा जनतन्त्र बहाल करना चाहते हैं जो 90 फीसदी जनता का जनतन्त्र हो। स्पष्ट शब्दों में भगतसिंह ने समाजवाद की स्थापना को, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना को अपना लक्ष्य घोषित किया था।
     आज जब एक अधूरी, खण्डित आजादी के रूप में साम्राज्यवाद से साँठगाँठ किये हुए देशी पूँजीवाद के जालिम शासन के जुवे को ढोते-ढोते आधी सदी से अधिक का समय बीत चुका है, आज जबकि 'इस' आजादी का वास्तविक रूप उदारीकरण-निजीकरण की आर्थिक नीतियों के दौर में खुलकर सामने आ चुका है, तो 'उस' आजादी को याद करना इस अंधेरे के ख़िलाफ निर्णायक संघर्ष के लिए बेहद जरूरी है जिसका भगतसिंह ने न सिर्फ सपना देखा था बल्कि उसका एक नक्शा भी सामने रखा था और उसे हासिल करने के रास्ते की भी एक रूपरेखा प्रस्तुत की थी। इसीलिए हम भारतीय नौजवानों का आह्नान करते हैं : 'भगतसिंह को याद करो। नयी क्रान्ति की राह चलो।'
     नयी क्रान्ति की राह चलने के लिए भगतसिंह के विचारों से, क्रान्तिकारी इतिहास की उस गौरवशाली विरासत से परिचित होना जरूरी है जिसे जन-जन तक पहुँचने से रोकने की हरचन्द कोशिश देशी सत्ताधारियों ने हमेशा से की है और यह सच है कि आज देश के अधिकांश युवा नहीं जानते कि 23 वर्ष की छोटी-सी उम्र में फाँसी का फन्दा चूमने वाला वह जांबाज नौजवान कितना ओजस्वी, प्रखर और दूरदर्शी विचारक था! हमें भगतसिंह और उनके साथियों के विचारों को भुला देने की साजिश के विरुध्द संघर्ष करना है। विस्मृति के विरुध्द हमारा यह संघर्ष ही फिर से हमें सपने देखने की क्षमता देगा, हमारे कल्पनालोक को मुक्त करेगा और हमारे पराजय-बोध को समाप्त करेगा।
     शहीदेआजम भगतसिंह के आदर्श और विचार हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं, बल्कि पहले हमेशा से अधिक प्रासंगिक हैं। भगतसिंह की स्मृति में नयी क्रान्ति की प्रेरणा है और विचारों में उसकी दिशा!

भगतसिंह की वैचारिक विकास यात्रा : वह मशाल जिसे आगे लेकर जाना है!
     भगतसिंह और 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' के उनके साथी भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक ऐतिहासिक मोड़ देने वाले क्रान्तिकारी थे। यूं तो इनमें भगवतीचरण वोहरा, विजयकुमार सिन्हा, सुखदेव, शिव वर्मा, बटुकेश्वर दत्त आदि भी गम्भीर चिन्तनशील प्रकृति के क्रान्तिकारी थे, पर एक युगप्रवर्तक विचारक के रूप में भगतसिंह का स्थान सबसे आगे था जिन्होंने पूरे संगठन और पूरे क्रान्तिकारी आन्दोलन को एक नयी दिशा देने का काम किया।
     भगतसिंह और उनके साथियों की राजनीतिक-वैचारिक समझ 1917 की रूसी सर्वहारा क्रान्ति के प्रखर रक्तिम आलोक से आलोकित हुई थी। तीसरे दशक के इन युवा क्रान्तिकारियों ने युगान्तर और अनुशीलन से लेकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन तक के मध्‍यवर्गीय अराजकतावादी क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास-क्रम की गहराई से पड़ताल की तथा किसान-मजदूर समुदाय को संगठित करने की महत्ता को क्रमश: ज्यादा से ज्यादा समझना शुरू किया। इस वैचारिक विकास में गदर पार्टी के निकट अतीत की भूमिका काफी महत्‍वपूर्ण थी और साथ ही तीसरे दशक के राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य की भी, जहाँ एक ओर तो असहयोग आन्दोलन की वापसी के बाद कांग्रेसी नेतृत्व विशृंखलित हो गया था और दूसरी ओर मजदूर हड़तालों और किसान संघर्षों का अनवरत सिलसिला जारी था। पूरी दुनिया में मध्‍यवर्गीय बुध्दिजीवी, विशेषकर उनकी युवा पीढ़ी उस समय सोवियत समाजवादी क्रान्ति की उपलब्धियों और विचारों से प्रभावित हो रही थी। भगतसिंह की पीढ़ी भी इसी परिवेश में जी रही थी।
     1925-26 के आसपास भगतसिंह, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव आदि लाहौर में सक्रिय युवा क्रान्तिकारियों की पीढ़ी रूसी अराजकतावादी बाकुनिन से प्रभावित थे। कॉमरेड सोहन सिंह जोश और लाला छबीलदास से लगातार सम्पर्क-संवाद और गहन अध्‍ययन के परिणामस्वरूप भगतसिंह और उनके साथी 1928 तक समाजवाद को अपना लक्ष्य मानने लगे थे। सोवियत व्यवस्था और सर्वहारा शासन की स्थापना की बातें भी वे करने लगे थे, हालाँकि इसकी पूरी प्रक्रिया और स्वरूप से वे परिचित नहीं थे तथा किसानों-मजदूरों को संगठित करने का विरोध न करते हुए भी उनका मुख्य जोर गुप्त तैयारियों व सशस्त्र कार्रवाइयों के लिए नौजवानों के ग्रुप तैयार करने पर ही था। उधर कानुपर में सक्रिय क्रान्तिकारी भी राधामोहन गोकुलजी, सत्यभक्त और हसरत मोहानी के प्रभाव से मार्क्‍सवाद के भावनात्मक प्रभाव में आये, हालाँकि उसकी कोई सुसंगत समझ अभी उनकी नहीं बन सकी थी।
     अप्रैल 1928 में लाहौर में नौजवान भारत सभा की एक जन संगठन के रूप में स्थापना क्रान्तिकारी आन्दोलन की रणनीति में एक महत्‍वपूर्ण बदलाव का सूचक था। सितम्बर, 1928 में बिखरे हुए क्रान्तिकारी आन्दोलन को देश स्तर पर पुनर्गठित करने के उद्देश्य से 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' (एच.एस.आर.ए.) का गठन हुआ। भगतसिंह और उनके साथियों के इस समय तक के वैचारिक विकास को विशेष तौर पर नौजवान भारत सभा, लाहौर के घोषणा-पत्र और एच.एस.आर.ए. के घोषणापत्र में देखा जा सकता है।
     एच.एस.आर.ए. ने समाजवाद को सिद्धान्त के रूप में और समाजवादी समाज की स्थापना को अन्तिम उद्देश्य के रूप में स्वीकार तो किया, पर उसकी रणनीति और कार्यप्रणाली अभी भी व्यक्तिवादी दु:स्साहसवादी ही थी। किसानों-मजदूरों, मध्‍यम वर्ग के लोगों के जनसंगठन बनाने पर और जन कार्रवाइयों पर जोर नहीं था।
     फिर भी महत्‍वपूर्ण बात यह थी कि एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारी न केवल यह मानते थे कि राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का लक्ष्य समाजवाद की स्थापना होनी चाहिए, बल्कि वे पूरे साम्राज्यवादी विश्व में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र के शोषण के भी विरोधी थे और अपनी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद से नहीं बल्कि साम्राज्यवाद की विश्व व्यवस्था से मानते थे। सोवियत संघ को वे आदर्श मानते थ और भारत में भी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना को अपना लक्ष्य मानते थे। भाषाई-धार्मिक-जातिगत संकीर्णता के विरुध्द संघर्ष में उनका रुख़ एकदम समझौताविहीन था। वैचारिक तौर पर वे धर्म, रहस्यवाद और भाग्यवाद की दिमाग़ी ग़ुलामी से छुटकारा पा चुके थे। और सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह थी कि इस दौर में भी भगतसिंह और उनके साथी इस बात को समझने लगे थे कि कांग्रेस के झण्डे तले गाँधीजी ने व्यापक जनता के एक बड़े हिस्से को भले ही जुटा लिया हो, पर कांग्रेस उनके हितों की नुमाइन्दगी नहीं करती, बल्कि देशी धनिक वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी करती है और यह कि कांग्रेस की लड़ाई का अन्त किसी न किसी समझौते के रूप में ही होगा।
     असेम्बली बम काण्ड के बाद, 1929 के मध्‍य तक एच.एस.आर.ए. के अधिकांश प्रमुख नेता जेलों में बन्द कर दिये गये थे। जेल में इन क्रान्तिकारियों ने न केवल अपने और पूरे क्रान्तिकारी आन्दोलन के अनुभवों पर गहन विचार-विमर्श और सिंहावलोकन किया, बल्कि हमदर्दों की सहायता से बाहर से जुटाकर भीतर पहुँचाये गये मार्क्‍सवादी और अन्य क्रान्तिकारी साहित्य का गहन अध्‍ययन किया। 1929-30 के दो वर्षों का समय एच.एस.आर.ए. के क्रान्तिकारियों और भगतसिंह के वैचारिक विकास का सबसे अहम दौर था। इस दौरान भगतसिंह ने मार्क्‍सवादी दर्शन का और दुनिया के क्रान्तिकारी साहित्य का कितना गहन अध्‍ययन किया, इसका प्रमाण उनकी दुर्लभ जेल नोटबुक के सामने आने के बाद मिल चुका है (यह नोटबुक अंग्रेजी में जयपुर से और हिन्दी में राहुल फाउण्‍डेशन से प्रकाशित हो चुकी है)। उक्त नोटबुक में रूसो, टॉमस पेन, जेफरसन, पैट्रिक हेनरी, अप्टन सिंक्लेयर, बर्ट्रेण्ड रसल, क्रोपाटकिन, बाकुनिन आदि के विचारों को नोट करने के साथ ही मार्क्‍स-एंगेल्स की 'पूँजी', 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र', 'परिवार, व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति', 'हेगेल के न्याय दर्शन की समालोचना का प्रयास', 'जर्मनी में क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति' आदि रचनाओं से, लेनिन की 'राज्य और क्रान्ति', 'सर्वहारा क्रान्ति और गद्दार काउत्स्की' जैसी रचनाओं से तथा त्रात्स्की और बुखारिन की कृतियों से भी कई उद्धरण दर्ज किये गये हैं। इसके अतिरिक्त मार्क्‍सवादी विचारधारा और अन्य दार्शनिक विचारों की कई पुस्तकों तथा रूसी क्रान्ति, सोवियत समाजवाद व बोल्शेविज्म के इतिहास की कई पुस्तकों के हवाले सहित भगतसिंह ने अपनी नोटबुक में टिप्पणियाँ दर्ज की हैं।
     अध्‍ययन और साथियों से लम्बे विचार-विमर्श के बाद, बोर्स्टल जेल में रहते समय भगतसिंह इस नतीजे पर मुकम्मिल तौर पर पहुँच चुके थे कि मुट्ठीभर बहादुर नौजवानों के गुप्त संगठन, उनकी कुर्बानियों और कुछ तोड़-फोड़ तथा जालिम अफसरों-जासूसों की हत्या से जनता में जागृति आ जायेगी, वह उठ खड़ी होगी और आजादी मिल जायेगी - यह सम्भव नहीं है। औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए शस्त्र बल की जरूरत होगी, पर इस शस्त्र बल का इस्तेमाल व्यापक जनता करेगी। इसके लिए किसानों-मजदूरों सहित व्यापक जनता को पहले जगाना होगा और उनके व्यापक जन संगठन खड़े करने होंगे। जनता के इन संगठनों को दिशा और नेतृत्व देने का काम तपे-तपाये क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं की संगठित गुप्त टीम करेगी और वही नेतृत्वकारी क्रान्तिकारी पार्टी होगी।
     भगतसिंह के ये विचार अपने सर्वाधिक विकसित रूप में फरवरी 1931 के उनके अन्तिम महत्‍वपूर्ण दस्तावेज 'क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा' में देखने को मिलते हैं जिसका एक हिस्सा छापकर बाँटने के लिए 'नौजवान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र' के रूप में लिखा गया है और दूसरा हिस्सा क्रान्तिकारी साथियों के बीच विचार-विमर्श के लिए प्रस्तुत मसौदे के रूप में। इस दस्तावेज के पहले के 1929-30 के पत्रों-वक्तव्यों में भी भगतसिंह की विचार-यात्रा के महत्‍वपूर्ण मुकामों की शिनाख्त की जा सकती है।
     19 अक्टूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन को भेजे गये अपने सन्देश में भगतसिंह ने लिखा था : ''इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्‍वपूर्ण काम है। ...नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फैक्टरी-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।''
     फरवरी 1931 के ऊपर उल्लिखित अपने ऐतिहासिक मसविदा दस्तावेज में भगतसिंह ने स्पष्ट कहा था कि ''आतंकवाद हमारे समाज में क्रान्तिकारी चिन्तन के पकड़ के अभाव की अभिव्यक्ति है; या एक पछतावा। इसी तरह यह अपनी असफलता का स्वीकार भी है।... आतंकवाद अधिक से अधिक साम्राज्यवादी ताकत को समझौते के लिए मजबूर कर सकता है। ऐसे समझौते, हमारे उद्देश्य - पूर्ण आजादी - से हमेशा ही कहीं दूर रहेंगे। इस प्रकार आतंकवाद, एक समझौता, सुधारों की एक किश्त निचोड़कर निकाल सकता है और इसे ही हासिल करने के लिए गाँधीवाद जोर लगा रहा है। वह चाहता है कि दिल्ली का शासन गोरे हाथों से भूरे हाथों में आ जाये। ये लोगों के जीवन से दूर हैं और इनके गद्दी पर बैठते ही जालिम बन जाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं।''
     भगतसिंह ने आतंकवाद की सीमाओं और गाँधीवाद के असली चरित्र को पहचानने के साथ ही यह भी स्पष्ट कहा कि ''गाँवों और कारख़ानों में किसान और मजदूर ही असली क्रान्तिकारी सैनिक हैं।'' उनके अनुसार, ''क्रान्ति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं, वे हैं किसान और मजदूर।''
     भगतसिंह ने स्पष्ट कहा कि कांग्रेस के 'बुर्जुआ' नेता किसानों-मजदूरों को उनके वास्तविक लक्ष्य के लिए संगठित कर ही नहीं सकते, हाँ, उन्हें बरगलाकर इस्तेमाल अवश्य कर सकते हैं। उन्होंने इसी दस्तावेज में युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को सलाह दी है कि वे मार्क्‍स और लेनिन का अध्‍ययन करें, उनकी शिक्षा को अपना मार्गदर्शक बनायें, जनता के बीच जायें, मजदूरों-किसानों और शिक्षित मध्‍यवर्गीय नौजवानों के बीच काम करें, उन्हें राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित करें, उनमें वर्ग-चेतना उत्पन्न करें, उन्हें यूनियनों में संगठित करें, आदि। साथ ही, लेनिन को उद्धृत करते हुए उन्होंने एक ऐसी क्रान्तिकारी पार्टी की (जिसका नाम उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी रखने का सुझाव दिया है) जरूरत पर बल दिया है जो मुख्यत: पेशेवर क्रान्तिकारी - ऐसे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं पर निर्भर हो जिनकी क्रान्ति के सिवा न कोई आकांक्षा हो, न ही जीवन का दूसरा कोई लक्ष्य।
     उक्त दस्तावेज में भगतसिंह ने क्रान्ति का जो कार्यक्रम प्रस्तुत किया है वह साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के बाद सामन्तवाद की समाप्ति तक ही सीमित न रहकर सर्वहारा राज्य के अन्तर्गत कारख़ानों और भूमि के राष्ट्रीकरण तथा आवास-शिक्षा आदि की गारण्टी का समाजवादी कार्यक्रम है।

एक सपना जो पूरा न हो सका!
     भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, जो भगतसिंह की शहादत के पहले अस्तित्व में आ चुकी थी, व्यापक मेहनतकश अवाम को संगठित करके उनके सपनों को पूरा कर सकती थी। लेकिन उसकी वैचारिक और सांगठनिक कमजोरी तथा नेतृत्व के बड़े हिस्से के अवसरवादी होने के कारण ऐसा नहीं हो सका। 1945-46 में पूरे विश्व के करवट बदलने के साथ ही भारत भी उठ खड़ा हुआ था। नौसेना की ऐतिहासिक बगावत के बाद थलसेना और वायुसेना में भी विद्रोह की स्थितियाँ उत्पन्न हो चुकी थीं। मजदूरों की हड़तालों का अनवरत सिलसिला जारी था और छात्र-युवा भी संघर्ष की अगली कतारों में थे। तेलंगाना, तेभागा और पुनप्रा-वायलार के किसान-संघर्ष जंगल की आग की तरह फैल रहे थे। इस शानदार स्थिति का भी यहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी लाभ न उठा सकी। क्रान्ति के अधूरे प्रयास विफल हो गये। पीछे हटने को बाध्‍य उपनिवेशवादी जाते-जाते वही कर गये जिसका अन्देशा था। राजनीतिक सत्ता वे भारतीय पूँजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस के हाथों में सौंप गये।
     1951 में तेलंगाना की पराजय के बाद यहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह संसदमार्गी होकर पूँजीवादी सत्ता की ही एक सुरक्षा-पंक्ति बनकर रह गयी और भगतसिंह के विचारों एवं सपनों का वारिस बन पाने का हक पूरी तरह खो बैठी।
     1967 में नक्सलबाड़ी के किसान उभार से जो नयी शुरुआत हुई, वह जल्दी ही आतंकवाद की उसी ग़लती का शिकार हो गयी, जिसकी आलोचना भगतसिंह ने भी अपने अन्तिम दिनों में की थी। इस धारा के सर्वहारा क्रान्तिकारी अपनी विचारधारात्मक कमजोरियों के चलते देश की नयी परिस्थितियों को भी समझने में असफल रहे। क्रान्तिकारी इतिहास का यह दौर भी अब बीत चुका है। अब एक नया दौर शुरू हो चुका है। आज आर्थिक नवउपनिवेशवाद के नये दौर की नयी क्रान्ति के लिए बिखरी हुई क्रान्तिकारी शक्तियों को एकजुट करने का, क्रान्तिकारी कतारों में छात्रों-युवाओं के बीच से नयी भरती करने का तथा किसानों-मजदूरों को संगठित करते हुए उनके भीतर से भी क्रान्तिकारी नेतृत्व पैदा करने का कार्यभार हमारे सामने है। एक बार फिर देश स्तर पर क्रान्तिकारी संगठन बनाना होगा जिसके कार्यकर्ता साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी नयी क्रान्तियों के हिरावल होंगे। आज की परिस्थितियों में भगतसिंह के सपने को पूरा करने का रास्ता यही होगा, क्योंकि इतिहास वहीं रुका हुआ क्रान्ति की प्रतीक्षा नहीं कर रहा है जहाँ वह भगतसिंह की शहादत के समय, 1931 में था।

'47 का ऐतिहासिक छल और आधी सदी का अंधेरा
     आज उस आजादी के बाद पचास वर्षों का समय बीत चुका है, जो हमें कांग्रेस के नेतृत्व में मिली।
     पचास वर्षों के भीतर देशी पूँजीवादी सत्ता की गोलियों ने उससे अधिक जनता का ख़ून बहाया है, जितना दो सौ वर्षों के दौरान अंग्रेजों ने बहाया था। कहने को जनतन्त्र है, पर अन्यायी सत्ता के विरुध्द उठने वाली हर आवाज को, हर आन्दोलन को कुचल देने के लिए न तो नये-नये काले कानूनों की कमी है, न जेलों, पुलिस और फौज की। दमनकारी तन्त्र अंग्रेजों के समय से अधिक संगठित, मजबूत और आधुनिक है। साथ ही, पुराने औपनिवेशिक कानून भी आज तक मौजूद हैं। प्रतिदिन देश के किसी न किसी कोने में छात्रों, मजदूरों या किसानों पर गोलियाँ चल रही हैं।
     पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर की जनता गत आधी सदी से फौजी संगीनों के साये तले जी रही है। अरबों-खरबों के घोटाले, घटिया बुर्जुआ जातिवादी और कट्टरपन्थी धार्मिक राजनीति के हथकण्डे, साम्प्रदायिक दंगे, दलित उत्पीड़न, नारी उत्पीड़न का लगातार बढ़ता घटाटोप - यही है आजादी के पचास वर्षों बाद का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य।
     15 अगस्त 1947 को भारत न सिर्फ विदेशी कर्जे से पूरी तरह मुक्त था, बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.62 करोड़ रुपये का कर्ज था। आज देश पर कुल 50 खरब रुपये से भी अधिक का विदेशी कर्ज लदा है जो भारत सरकार की कुल सम्पत्ति के लगभग बराबर है। 1948-49 में भारत का वार्षिक साम्राज्यवादी शोषण 20 करोड़ रुपये था जो 1995-96 तक बढ़कर 3 खरब रुपये हो चुका था। पिछले पचास वर्षों के दौरान ऊपर के करीब सौ बड़े पूँजीपति घरानों की पूँजी में दोगुने-चौगुने की नहीं बल्कि दो सौ गुने से लेकर चार सौ गुने तक की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि दूसरी ओर आधी आबादी को शिक्षा और दवा-इलाज तो दूर, भरपेट भोजन भी मयस्सर नहीं है।
     1947 में देश को जो अधूरी और विकलांग आजादी मिली, उसका पूरा फायदा सिर्फ ऊपर की बीस फीसदी धनिक आबादी को ही मिला है जो पूँजीपतियों की चाकरी बजाती है और साम्राज्यवादियों के तलवे चाटने के लिए तैयार है।
     1947 में सत्तासीन होने के बाद भारत के पूँजीपतियों ने साम्राज्यवादी ताकतों के छुटभैये की स्थिति को स्वीकार करके पूँजीवादी विकास का रास्ता चुना। ब्रिटेन की जगह देश सभी साम्राज्यवादी ताकतों का चरागाह बन गया। शासक वर्ग इस या उस साम्राज्यवादी ताकत से मोल-तोल करके तकनोलाजी और पूँजी लेता रहा तथा उन्हें लूटने का अवसर देकर ख़ुद भी लूटता रहा। समाजवाद का नारा देकर 'पब्लिक सेक्टर' खड़ा किया गया ताकि जनता को निचोड़कर पूँजी जुटाई जा सके। गाँवों में सामन्तों की जमीन छीनने की जगह उन्हें यह अवसर दिया गया कि वे पूँजीवादी भूस्वामी बन जायें। साथ ही पहले के धनी काश्तकार भी खेतों के मालिक होकर मुनाफाखोर कुलक बन गये। मध्‍यम और छोटे किसान पूँजी की मार से उजड़कर सर्वहारा की कतारों में शामिल होते चले गये।
     चालीस साल बीतते-बीतते पब्लिक सेक्टर का पूँजीवाद बोझ बन गया। जनता की गाढ़ी कमाई से खड़े किये गये उद्योगों को निजी पूँजीपतियों के हाथों में सौंपा जाने लगा। निजीकरण की इस नीति के साथ ही, उदारीकरण के नाम पर विदेशी लूट के लिए भी अर्थव्यवस्था के दरवाजों को पूरी तरह खोल दिया गया। वर्तमान दशक के शुरू से कांग्रेस से लेकर संयुक्त मोर्चा सरकार ने इन्हीं नीतियों को लागू किया है और अब भाजपा की सरकार हो या कोई भी और सरकार आये - आर्थिक नीतियों में कोई बदलाव नहीं आने वाला, क्योंकि यह रास्ता पूँजीवाद के पास एकमात्र विकल्प है, देश स्तर पर भी और विश्व स्तर पर भी।
     और यह आखिरी विकल्प भी पूँजीवाद के संकट को घटाने के बजाय लगातार बढ़ाता ही जा रहा है। तीसरी दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत भी आज एक ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा हुआ है। यही नहीं, बढ़ते संकट के चलते जन आन्दोलनों का ज्वार अब पश्चिमी देशों की सड़कों पर भी उमड़ने लगा है।
     भारत में बेरोजगारों की संख्या इस समय 20 करोड़ है जो इस सदी के अन्त तक इससे दूनी हो जायेगी। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद तीन लाख छोटे-बड़े उद्योग बन्द हो चुके हैं और करोड़ों मजदूर बेकार हो चुके हैं। देश की आजादी की असलियत तो काफी पहले ही सामने आ चुकी थी, अब इसका सबसे नंगा और सबसे गन्दा रूप हमारे सामने है।

वह जलता हुआ प्रश्न जो हमारी ऑंखों में झाँक रहा है!
     एक नयी क्रान्ति का प्रबल झंझावात ही इस नर्क से हमें उबार सकता है। इसके लिए, जैसा कि भगतसिंह ने जेल की कालकोठरी से सन्देश दिया था, नौजवानों को आगे आना होगा और क्रान्ति की स्पिरिट को ताजा करने के लिए कुर्बानी की भावना से ओतप्रोत होकर आना होगा। उन्हें ''क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज'' करनी होगी, यानी आज की परिस्थितियों का, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद का अध्‍ययन करना होगा, क्रान्ति के विज्ञान का अध्‍ययन करना होगा और इतिहास का भी। फिर उन्हें कारख़ानों और गाँवों तक क्रान्ति का सन्देश लेकर जाना होगा और जनता को संगठित करना होगा।
     फाँसी से तीन दिन पहले भगतसिंह ने लिखा था : ''हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है - चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति और अंग्रेज या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है।''
     यही सन्देश आज एक-एक जीवित हृदय तक पहुँचाना है कि यह लड़ाई आज भी जारी है और यह आज एक ऐसे मुकाम पर पहुँच चुकी है जब पूँजीवादी सत्ता पर फैसलाकुन चोट की जा सकती है।
मगर कोई भी सामाजिक क्रान्ति अपने-आप सम्पन्न नहीं होती। निश्चित, सचेतन तैयारी के बिना बीच-बीच में विद्रोह तो होते रह सकते हैं, पर ऐसी क्रान्ति नहीं हो सकती जो नयी सामाजिक व्यवस्था के जन्म में धाय का काम करती है।
     शहीदेआजम भगतसिंह ने जिस आजादी का सपना देखा था, उसे पूरा करने के लिए उन्होंने फाँसी की कालकोठरी से युवाओं का आह्नान किया था। पूँजीवादी शासन के रूप में मिली अधूरी, खण्डित, विकलांग आजादी की आधी सदी के दुखदाई सफरनामे के बाद भी क्या नौजवानों की यह पीढ़ी उस सपने को यथार्थ में बदलने के लिए तैयार नहीं है? - यह जलता हुआ प्रश्न आज हमारी ऑंखों में झांक रहा है।
     सपने अपनेआप पूरे नहीं होते। उन्हें सिर्फ पालने से भी कुछ नहीं होता। सपनों से सिर्फ शुरुआत होती है। सपने अन्त नहीं। आने वाले दिनों के ऐतिहासिक तूफान को एक निश्चित दिशा देकर सामाजिक क्रान्ति में रूपान्तरित करने के लिए हमें आज ही से तैयारियों में जुट जाना होगा।
           ''एक सपने को टालते रहने से क्या होता है?
           क्या वह सूख जाता है
           किशमिश सा धूप में?
           या जख्म सा पक जाता है
           और फिर रिसा करता है?
           ... ...
           मुमकिन है वह सिर्फ लच जाता हो
           भारी बोझे जैसा।
           कहीं वह बारूद-सा फट तो नहीं पड़ता?
                                (लैंग्स्टन ह्यूज)
 - सत्यम

राहुल फाउण्‍डेशन से प्रकाशित पुस्‍तक ''विचारों की सान पर'' से साभार
(राहुल फाउण्‍डेशन ने भगतसिंह और उनके साथियों के दस्‍तावेजों को छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से लेकर संपूर्ण उपलब्‍ध दस्‍तावेज तक के रूप में छापी हैं)

Read more...

27.9.10

आज श्रम कार्यालय पर निर्णायक धरना -- जब तक माँगें नहीं मानी जाएँगी, तब तक नहीं उठाया जाएगा धरना

लुधियाना के गौशाला, कशमीर नगर, माधोपुरी के पावरलूम मजदूरों का संघर्ष
पावरलूम मजदूरों का श्रम कार्यालय पर निर्णायक धरना 
     
     गौशाला, कशमीर नगर, माधोपुरी के पचास से भी अधिक कारखानों में चल रही हड़ताल का आज बारहवाँ दिन है लेकिन आज भी मालिकों ने मजदूरों की कोई सुनवाई नहीं की। कल वर्धमान मिल के सामने बड़े मैदान में कारखाना मजदूर यूनियन ने विभिन्न इलाकों के मजदूरों की बड़ी मीटिंग की, जिसमें 1000 से भी अधिक मजदूरों ने भाग लिया। मीटिंग में फैसला लिया गया है कि आज (27 सितम्बर) को श्रम कार्यालय पर निर्णायक धरना लगाया जाएगा और धरना तब तक नहीं उठाया जाएगा, जब तक मजदूरों की माँगें नहीं मान ली जातीं, भले ही सारी रात श्रम कार्यालय पर ही क्यों न काटनी पड़े। 

     कारखाना मजदूर यूनियन के प्रधान राजविन्दर ने कहा है कि श्रम विभाग की बेशर्मी की हर हद पार हो चुकी है। मजदूर 11 दिन से हड़ताल पर बैठे हैं। और वे जो माँग रहे हैं कुछ अधिक भी नहीं हैं। पिछले 10-12 वर्षों में मजदूरों की आमदन में कहने लायक भी बढ़ौतरी नहीं हुई है जबकि महँगाई कई गुणा बढ़ गई है। मालिकों के मुनाफे दिन दौगुने रात चौगुने बढ़ चुके हैं लेकिन मजदूर को एक पैसा भी और देने को तैयार नहीं हैं। 

     उन्‍होंने कहा कि जिसे आजाद भारत कहा जा रहा है वहाँ मजदूर गुलामों की जिन्दगी जीनी पड़ रही है। मजदूरों की जिन्दगी नर्क बन गई है। लेकिन मालिकों को सिर्फ अपने मुनाफे की चिन्ता है, श्रम विभाग शर्मनाक नींद सोया हुआ है, सरकारें अपनी सारी शर्म बेच चुकी हैं। सांसदों, विधायकों, अफसरों के वेतन-भत्ते तो कई गुणा बढ़ा दिए गए हैं लेकिन भूखे मर रहे मजदूरों की आमदनी में कोई एक पैसा भी बढ़ाने को तैयार नहीं। उन्होंने कहा कि यह अन्याय किसी भी हालत में सहन नहीं किया जाएगा। अब मजदूर शोषकों को झुकाकर ही दम लेंगे। 

     आज वर्धमान मिल के सामने हुई मीटिंग में नौजवान भारत सभा, मोल्डर एण्ड स्टील वर्कर्ज यूनियन, लोक एकता संगठन, मजदूर चेतना मंच, भारतीय किसान यूनियन (उगराहां), डी.ई.एफ, डी. टी. एफ., एटक और इंटक के प्रतिनिधि भी पहुँचे और उन्होंने गौशाला, कशमीर नगर और माधोपुरी के हड़ताल पर बैठे पावरलूम मजदूरों को हर तरह का समर्थन और सहयोग देने का वायदा करते हुए 27 सितम्बर के श्रम कार्यालय पर कल के धरने में बढ़-चढ़ कर शामिल होने का ऐलान किया। उन्होंने मजदूरों का हौंसला बढ़ाते हुए कहा कि अब उनके हक को दबा सकने की हिम्मत किसी मालिक में नहीं है। 

जारीकर्ता -- लखविन्दर, मोबाइल 096461 50249 

सचिव, कारखाना मजदूर यूनियन, लुधियाना

Read more...

24.9.10

नौवें दिन भी जारी रहेगा धरना-प्रदर्शन - बेनतीजा रही आठवें दिन मालिकों से वार्ता

23 सितंबर को धरना देते पावरलूम मजदूर
लुधियाना के  गौशाला, कशमीर नगर और माधोपुरी इलाके में जारी 52 पावरलूम कारखानों के सैकड़ों मजदूरों की हड़ताल आज भी किसी नतीजे तक नहीं पहुँची। श्रम अधिकारियों की उपस्थिति में आज मालिकों से वार्ता चली लेकिन बेनतीजा रही। लुधियाना के वर्धमान मिल (चण्डीगढ़ रोड) के सामने मैदान में मजदूरों का धरना आज भी जारी रहा। कारखाना मजदूर यूनियन के प्रधान राजविन्दर ने कहा है कि मालिकों में आपस में बुरी तरफ फूट पड़ी हुई है और वे आपस में कोई सहमति नहीं बना पा रहे हैं। मालिकों को इस बात की अधिक चिन्ता है कि अगर मजदूरों की यह हड़ताल सफल हो जाती है तो मजदूरों का संगठन में विश्वास बढ़ जाएगा और यह बात उन्हें दूरगामी तौर पर अधिक घातक महसूस होती है। उन्होंने कहा कि जो भी हो मालिकों को आखिर झुकना ही पड़ेगा। मजदूर पूरे जोश में हैं और वे माँगें मनवाए बिना काम पर नहीं लौटेंगे।
     गौशाला, कशमीर नगर और माधोपुरी इलाके के पावरलूम कारखानों में 16 सितम्बर को हड़ताल की शुरुआत हुई थी। हड़ताल की शुरुआत 22 कारखानों के मजदूरों द्वारा की गई थी लेकिन धीरे-धीरे हड़ताल फैलती गयी और इस समय इस इलाके के 52 पावरलूम कारखानों के मजदूर हड़ताल पर हैं। इन कारखानों में विभिन्न किस्मों का उत्पादन होता है। यहाँ काम करने वाले मजदूरों की बेहद अमानवीय जिन्दगी जीनी पड़ रही है। रोज का 12-14 घंटे का काम लेकिन आमदनी पैंतीस सौ, चार हजार। श्रम कानूनों के नाम की इन कारखानों में कोई चीज नहीं। यहाँ तक कि पहचान पत्र भी नहीं बना कर दिए जाते। हादसों से सुरक्षा के प्रबन्धों की मालिकों को कोई सिरदर्दी नहीं, ऊपर से काम का लोड। नतीजा यह कि मजदूर अकसर जानलेवा हादसों का शिकार होते रहते हैं। 24 अगस्त 2010 को लुधियाना के शक्ति नगर इलाके के 42 कारखानों के मजदूरों ने पीस रेट बढ़ौतरी, सुरक्षा इंतजामों सहित अन्य सभी श्रम कानूनों को लागू करने की माँगों को लेकर हड़ताल करके लूधियाना के पावरलूम मजदूरों में नई जागृति का संचार किया था। 31 अगस्त तक चली इस हड़ताल ने मालिकों को मजदूरों की मुख्य माँग पीस रेट/वेतन बढ़ौतरी मानने के लिए घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। इन्हीं सब माँगों को लेकर गौशाला, कशमीर नगर और माधोपुरी के मजदूर 16 सितम्बर से कारखाना मजदूर यूनियन के नेतृत्व में हड़ताल पर हैं। लुधियाना के एक और इलाके गीता नगर के सैकड़ो पावरलूम मजदूर भी हौजरी एण्ड टेक्सटाइल मजदूर यूनियन (सीटू, पंजाब से सम्बन्धित संगठन) के नेतृत्व में हड़ताल पर हैं। राजविन्दर ने बताया कि गीता नगर के संघर्ष के साथ भी तालमेल बिठाने की कारखाना मजदूर यूनियन की ओर से बहुत कोशिशें की गई थीं लेकिन सीटू के नेतृत्व ने अपनी संकीर्णता से ये कोशिशें सफल नहीं होने दीं। 

जारीकर्तालखविन्दर
सचिव, कारखाना मजदूर यूनियन, लुधियाना। मोबा - 96461 50249


Read more...

22.9.10

गौशाला, कशमीर नगर, माधोपुरी के पावरलूम मजदूरों का संघर्ष -- श्रम कार्यालय पर कारखाना मजदूर यूनियन ने की विशाल अधिकार रैली

आज कारखाना मजदूर यूनियन ने गौशाला, कशामीर नगर, माधोपुरी आदि इलाकों के 50 से भी अधिक पावरलूम कारखानों के हड़ताली मजदूरों की माँगें मनवाने के लिए श्रम विभाग पर विशाल अधिकार रैली की। इस रैली में हड़ताल पर बैठे मजदूरों के अलावा लुधियाना के अन्य अनेकों कारखानों के मजदूर भी बड़ी संख्या में शामिल हुए। 16 अगस्त को इन इलाकों के 22 कारखानों में पीस रेट बढ़ौतरी और अन्य श्रम कानूनों को लागू करवाने की माँगों को लेकर हड़ताल शुरू हुई थी जो दिन-ब-दिन विशाल होती जा रही है। आज हड़ताल के छठे दिन तक हड़ताल में 52 पारवलूम कारखानों के मजदूर शामिल हो चुके हैं। मजदूरों ने प्रण किया है कि जब तक उनकी माँगें नहीं मान ली जातीं तब तक वे काम पर नहीं लौंटेंगे भले ही भूखे मरने की नौबत क्यों न आ जाए। 

रैली को सम्बोधित करते हुए कारखाना मजदूर यूनियन के प्रधान राजविन्दर ने श्रम विभाग और प्रशासन को चेतावनी दी है कि मजदूर की माँगें तुरंत मानीं जाए, नहीं तो यूनियन संघर्ष को और बड़े स्तर पर ले जाएगी। आज की अधिकार रैली में नौजवान भारत सभा (डा. परमिन्दर), बजाज सन्स कारखाना मजदूर यूनियन(धरमेन्द्र), मोल्डर एण्ड स्टील वर्कर्ज यूनियन (हरजिन्दर सिंह और विजय नारायण), लोक एकता संगठन (गल्लर चौहान), मजदूर चेतना मंच (शेर बहादुर), लोक मोर्चा पंजाब (कस्तूरी लाल), इंकलाबी केन्द्र पंजाब (जसवंत जीरख) आदि संगठनों ने शामिल होकर पावरलूम मजदूरों के संघर्ष का पुरजोर समर्थन करने का ऐलान किया। यूनियन के प्रधान राजविन्दर ने इंसाफपसंद संगठनों के साथ में आने का स्वागत किया और कहा कि संघर्ष अब और भी मजबूती के साथ लड़ा जाएगा। 

गौरतलब है कि पावरलूम मजदूरों की आमदनी में पिछले 10-12 वर्षों में कोई कहने लायक बढ़ौतरी नहीं हूई है जबकि इस दौरान महँगाई कई गुणा बढ़ गई है। इन कारखानों में श्रम कानून नाम की कोई चीज नहीं है। श्रम विभाग, पुलिस प्रशासन, सरकार की नाक के नीचे मालिक खुलेआम मजदूरों के संवैधानिक अधिकारों का हनन कर रहे हैं। इस सब के कारण मजदूरों की जिन्दगी नरक बन चुकी है। मजदूरों को मजबूरन हड़ताल का रास्ता चुनना पड़ा है। 

लखविन्दर, सचिव, कारखाना मजदूर यूनियन, मोबाइल-96461 50249

रैली की कुछ तस्‍वीरें और वीडियो के लिंक। पूरा वीडियो बाइट देखने के लिए इनके लिंक पर क्लिक करें।

रैली को सम्बोधित करते कारखाना मजदूर यूनियन के प्रधान राजविन्दर

श्रम विभाग पर प्रदर्शन करते पावरलूम मजदूर
वीडियो


 



Read more...

18.9.10

लुधियाना के पावरलूम वर्कर्स के आंदोलन का तीसरा दौर

दो सफल हड़तालों के बाद अब तीन दर्जन नए कारखानों में हड़ताल का तीसरा दिन। 


कारखाना मजदूर यूनियन की अगुवाई में लुधियाना के गऊशाला, कशमीर नगर, माधोपुरी आदि इलाकों के करीब तीन दर्जन पावरलूम कारखानों के मजदूरों की हड़ताल ने आज तीसरे दिन में प्रवेश किया। लुधियाना के पावरलूम करखानों के सैकड़ों मजदूर पीस रेट/वेतन बढ़ोत्तरी और अन्‍य बुनियादी अधिकारों को लागू करने के लिए एक संघर्षपूर्ण हड़ताल पर बैठे हैं और उनका प्रण है कि वे तब तक हड़ताल से नहीं उठेंगे जबतक कि उनकी मांगे मान नहीं ली जातीं।
लुधियाना के पावरलूम कारखाने मजदूरों के शोषण के लिए कुख्‍यात हैं। इन कारखानों में ज्‍यादातर पुरबिया मजदूर काम करते हैं जिन्‍हें कारखाना मालिक इंसान ही नहीं समझते। इन कारखानों में किसी भी प्रकार का श्रम कानून लागू नहीं होता। पी.एफ., ईएसआई, जॉब कार्ड, हाजिरी रजिस्‍टर जैसी कोई चीज इन कारखानों में नहीं पाई जाती। मजदूरों को काम के बदले मिलने वाले पीस रेट में कई सालों से कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है जबकि पिछले दो-तीन वर्षों में ही भोजन, आवास, दवा-इलाज, परिवहन जैसी हर बुनियादी आवश्‍यकता की चीजों में तीन-चार गुने की बढ़ोत्तरी हो चुकी है। स्‍थानीय श्रम विभाग पूरी तरह मालिकों की जेब में रहता है और बार-बार की शिकायतों के बावजूद श्रम विभाग और स्‍थानीय प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंगती। मालिकों के गुण्डों का खौफ लगातार मजदूरों के सिर पर बना रहता है।

इन परिस्थितियों से तंग आकर लुधियाना के मजदूरों ने कारखाना मजदूर यूनियन के नेतृत्‍व में संघर्ष की आवाज बुलंद कर दी है। इसकी शुरुआत 24 अगस्‍त को शक्तिनगर, टिब्‍बा रोड के 42 पावरलूम कारखानों के मजदूरों ने की और आठ दिन की हड़ताल के बाद उनकी जुझारू एकजुटता के सामने 31 अगस्‍त को मालिकों को आखिरकार झुकना पड़ा और उन्‍होंने मजदूरों की लगभग सभी मांगें मान लीं। यहां तक कि मजदूरों ने मालिकों को हड़ताल के दिनों का आधा वेतन देने के लिए भी मजबूर किया।  इसके बाद जिंदल टेक्‍स्‍टाइल नामके कारखाने में भी हड़ताल हुई और वहां भी उन्‍हें जीत हासिल हुई। लुधियाना के मजदूर आंदोलन के पिछले 18 वर्षों के इतिहास में यह पहला मौका था जब मजदूरों ने मालिकों की एकजुट ताकत के आगे कोई जीत दर्ज की थी। पिछले एक-डेढ़ दशक के दौरान मजदूरों ने कई बार बड़ी-बड़ी लड़ाइयां भी लड़ीं लेकिन हर बार पुरानी यूनियनों की गद्दारी के कारण आखिरकार मजदूरों को हार का मुंह देखना पड़ा। इस लिहाज से इस जीत का विशेष महत्व है और इसने मजदूरों में नए उत्‍साह का संचार किया है।

इन संघर्षों से सबक लेते हुए लुधियाना के अन्‍य क्षेत्रों (गऊशाला, कशमीर नगर, माधोपुरी आदि) के पावरलूम कारखानों के मजदूरों ने भी अपनी आवाज बुलंद कर दी है। कारखाना मजदूर यूनियन के रूप में उनके पास एक जुझारू और क्रांतिकारी यूनियन का समर्थन और नेतृत्‍व मौजूद है। मजदूरों ने यह सीखा है कि कारखाना मालिकों को झुकाने के लिए वे समझौतापरस्‍त, संशोधनवादी, नकली लाल झंडे वाली यूनियनों के भरोसे नहीं रह सकते। उन्‍हें एक क्रान्तिकारी यूनियन और फौलादी एकजुटता बनानी होगी। यही दो चीजें जीत की गारंटी दिला सकती हैं।

इस बीच गीतानगर में एक अन्‍य यूनियन के नेतृत्‍व में आंदोलन कर रहे मजदूरों पर पिछले सप्‍ताह मालिकों के गुण्‍डों ने कातिलाना हमला किया। इसमें करीब 50 मजदूर घायल हो गए। कारखाना मजदूर यूनियन ने प्रशासन से इस घटना की जांच करवाने और हमलावरों को सजा दिलाने की मांग की है। साथ ही मजदूरों ने मालिकों के किसी नए हमले का मुकाबला करने के लिए अपने सतर्कता दस्‍ते भी तैयार कर लिए। इन आंदोलनों की एक बहुत बड़ी सफलता यह है कि मजदूरों में मालिकों के गुण्‍डों और पुलिस का डर खत्‍म हो गया है। मोल्‍डर एवं स्‍टील वर्कर्स यूनियन लुधियाना ने भी पावरलूम मजदूरों की इस हड़ताल का समर्थन किया है। इसके साथ ही मजदूरों ने स्‍थानीय आबादी में भी पर्चे बांटकर नागरिकों को अपने जीवन व काम की असह्य परिस्थितियों और अपने आंदोलन के औचित्‍य के बारे में बताया है और इन्‍हीं परिस्थितियों में काम कर रहे लुधियाना के अन्‍य कारखानों के मजदूरों से भी समर्थन और आंदोलन में शामिल होने की अपील की है। मजदूरों ने श्रम विभाग के अधिकारियों को बताया कि उन्‍हीं की मेहनत की बदौलत वे मोटी-मोटी तनख्‍वाहें पाते हैं और अगर उन्‍होंने अपनी संवैधानिक जिम्‍मेदारी का भी निर्वाह नहीं किया तो मजदूर अपने आंदोलन को और तेज करेंगे।

Read more...

2.9.10

लुधियाना के पावरलूम मजदूरों की 8 दिन पुरानी शानदार हड़ताल की गौरवशाली जीत

लुधियाना के 42 पावरलूम कारखानों (शक्तिनगर, टिब्‍बा रोड) में पिछले 24 अगस्‍त से चल रही सैकड़ों मजदूरों की हड़ताल 31 अक्‍टूबर को एक शानदार जीत के साथ समाप्‍त हुई। मजदूरों ने अपनी जुझारू दृढ़ता के दम पर न सिर्फ मालिकों को अपनी प्रमुख मांगें मानने पर विवश किया, बल्कि हड़ताल के दिनों का मुआवजा देने पर भी मालिकों को मजबूर किया। हाल के इतिहास में यह पहला मौका था जब मालिकों ने हड़ताल के दिनों का भी मुआवजा देना स्‍वीकार किया है वरना अधिकतर मामलों में उल्‍टा मजदूरों को ही जुर्माना देना पड़ता था या जैसा कि लुधियाना में एवन साइकिल की हड़ताल के समय हुआ था जब मजदूरों को 9 दिन तक मुफ्त काम करना पड़ा था। 
आठ दिन तक चली हड़ताल के बाद मजदूरों ने गौरवशाली संघर्ष से यह जीत हासिल की। लुधियाना के पावरलूम कारखानों की अमानवीय परिस्थितियों और बेहद कम वेतन और लगभग सभी बुनियादी मानवीय अधिकारों से वंचित मजदूरों की इस जीत ने साबित कर दिया कि मुनाफाखोर मालिकों और पूंजीवादी प्रशासन के खिलाफ मजदूरों की फौलादी एकजुटता ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। साथ ही इस आंदोलन ने यह भी पुष्‍ट कर दिया कि एक जुझारू नेतृत्‍व के तहत चलाया जाने वाला समझौताहीन संघर्ष ही मजदूरों को उनके अधिकार दिला सकता है। 
कारखाना मजदूर यूनियन लुधियाना के नेत़त्‍व में लुधियाना के पावरलूम मजदूरों का यह आंदोलन और इसकी सफलता सभी मजदूरों के लिए प्रेरणादायी है। हम लुधियाना के पावरलूम मजदूरों का क्रान्तिकारी अभिवादन करते हैं। लुधियाना के मज़दूरों के नाम शक्तिनगर के पावरलूम मज़दूरों की जीत पर निकाले गये पर्चे यहां प्रस्‍तुत हैं। दोनों पर्चे पीडीएफ़ प्रारूप में हैं। पढ़ने के लिए क्लिक करें - 


पहला पर्चा
पावरलूम मजदूरों की 8 दिन चली हड़ताल की शानदार जीत -- अंधकार का युग बीतेगा, जो लड़ेगा वो जीतेगा


दूसरा पर्चा 
शक्तिनगर के पावरलूम मजदूर को शानदार जीत की हार्दिक बधाई -- अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे और लड़ाई है।

Read more...

29.8.10

शक्ति नगर के पावरलूम मजदूर हड़ताल पर - मजदूरों ने संघर्ष का रास्‍ता क्‍यों चुना ?















लुधियाना में 42 पावरलूम कारख़ानों के सैकड़ों मज़दूर अपनी मांगों को लेकर कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्‍व में 24 अगस्‍त से हड़ताल पर हैं। पीसरेट पर काम करने वाले इन मज़दूरों की मज़दूरी 10-12 वर्ष से नहीं बढ़ी है जबकि इस बीच कारख़ाना मालिकों के मुनाफ़े और महंगाई कई गुना बढ़ चुकी है। इन कारख़ानों में को
ई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होते। आये दिन कारख़ानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मज़दूर घायल होते और मरते रहते हैं लेकिन सुरक्षा के बुनियादी इंतज़ाम भी नहीं किये जाते। श्रम विभाग मालिकों की जेब में है। मज़दूर श्रम 
विभाग के दफ़्तर के सामने लगातार धरना-प्रदर्शन करते रहे हैं लेकिन उसके अधिकारी मालिकों को बचाने और मज़दूरों को बहलाने तथा धमकाने में लगे हुए हैं। सैकड़ों मज़दूर शक्तिनगर के कारख़ानों वाले इलाके में लगातार दिन-रात धरने पर डटे हुए हैं। अब शक्तिनगर के मज़दूर लुधियाना के अन्‍य पावरलूम वाले इलाकों में काम करने वाले मज़दूरों से भी इस आन्‍दोलन में शामिल होने का आह्वान कर रहे हैं जोकि उन्‍हीं जैसे हालात में काम करते हैं। बुनियादी अधिकारों से वंचित लुधियाना के लाखों दूसरे मज़दूरों से भी ये मज़दूर अपना साथ देने की अपील कर 
रहे हैं। लुधियाना के मज़दूरों के नाम शक्तिनगर के पावरलूम मज़दूरों का पर्चा यहां प्रस्‍तुत है। पर्चा पीडीएफ़ प्रारूप में है। पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें -
नारे लगाते हुए पावरलूम मजदूर

Read more...

बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


  © Blogger templates Newspaper III by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP