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21.12.09

2000 मज़दूरों ने विशाल चेतावनी रैली निकाली

दिल्ली के बादाम मज़दूरों की हड़ताल - 5वां दिन
पिछले 20 वर्षों में दिल्ली के असंगठित मज़दूरों की विशालतम हड़तालों में से एक हड़ताल अपने छठे दिन जारी
अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में आपूर्ति को धक्का, दिल्ली का बादाम संसाधन उद्योग ठप्प

20 दिसम्बर, दिल्ली। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर इलाके में स्थित विशालकाय बादाम संसाधन उद्योग लगातार छठे दिन भी ठप्प रहा। ज्ञात हो कि बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में करीब 30 हज़ार बादाम मज़दूरों ने अपने परिवारों समेत हड़ताल कर रखी है। 16 दिसम्बर की सुबह हड़ताल का एलान किया गया था। इस बीच 17 दिसम्बर की सुबह बादाम के गोदाम मालिकों ने अपने भाड़े के गुण्डों से बादाम तोड़ने वाली महिला मज़दूरों, यूनियन कार्यकर्ताओं आदि पर लाठी-डण्डों के साथ जानलेवा हमला किया जिसमें कई यूनियन कार्यकर्ताओं और मज़दूरों को गम्भीर चोट आई। आत्मरक्षा में मज़दूरों ने पथराव किया जिसमें 4 गुण्डे भी घायल हो गये। लेकिन पुलिस ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए यूनियन के तीन नेताओं के ख़िलाफ़ धारा 107 व धारा 151 के तहत मामला दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया। ये यूनियन नेता 19 दिसम्बर की रात ज़मानत पर छूटे। शर्मनाक बर्ताव करते हुए करावलनगर पुलिस ने घायल हालत में इन यूनियन नेताओं को पुलिस थाने में जानबूझकर बिठा रखा और उन्हें चिकित्सीय सहायता तक नहीं प्रदान की। दूसरी ओर, हमला करने वाले गुण्डों और मालिकों का पुलिस ने बाइज्जत रिहा भी कर दिया और उनके विरुध्द कोई मामला भी दर्ज नहीं किया। इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह थी कि मज़दूरों से घबराई हुई पुलिस ने मज़दूरों से यह झूठ बोला कि मालिकों के ऊपर भी मामला दर्ज किया है। मालिकों ने दलित मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं के विरुध्द जातिसूचक अपमानजन शब्दावली का भी इस्तेमला किया। इसके बावजूद पुलिस ने उन व्यक्तियों के विरुध्द कोई मामला दर्ज नहीं किया। मालिकों और ठेकेदारों को यह उम्मीद थी कि पुलिस के जरिये यूनियन के नेतृत्व को जेल में डलवाकर आन्दोलन को तोड़ा जा सकता है। लेकिन उनकी उम्मीदों के उलट, नेताओं की गिरफ्तारी और दमन से मज़दूरों का हौसला टूटने की बजाय और बुलन्द हो गया और 20 फीसदी मज़दूर जो हड़ताल में शामिल नहीं थे, वे भी हड़ताल में शामिल हो गये।
19 दिसम्बर को रिहाई के बाद मज़दूरों ने अपने नेताओं का गर्मजोशी से स्वागत किया और 20 दिसम्बर की सुबह करावलनगर के इलाके में एक ऐतिहासिक रैली का आयोजन किया। इस रैली को मज़दूरों ने पुलिस दमन और मालिकों के बर्बर रवैये के विरुध्द एक चेतावनी रैली के रूप में आयोजित किया। इसमें करीब 2000 मज़दूरों ने शिरकत की, जिसमें कि बड़े पैमाने पर महिला मज़दूर शामिल थीं। इस रैली को करावलनगर के प्रकाश विहार इलाके से शुरू करके पूरे पश्चिमी करावलनगर में निकाला गया। रैली के दौरान मज़दूर 'अब मज़दूरों की बारी है-हमारी हड़ताल जारी है', 'जेल के फाटक टूट गये-हमारे साथी छूट गये', 'मज़दूर हितों का हनन हुआ तो-खून बहेगा सड़कों पर', 'बादाम मज़दूर यूनियन-ज़िन्दाबाद', 'हमारी माँगें पूरी करो!' आदि जैसे नारे लगा रहे थे। करावलनगर इलाके के नागरिक इस विशाल जुलूस को देखकर चकित थे और उन्होंने मज़दूरों की माँगों का समर्थन भी किया। करावलनगर के इतिहास में यह सबसे बड़ी मज़दूर रैली थी। इस रैली के जरिये मज़दूरों ने अपनी जुझारू एकजुटता का प्रदर्शन किया और यह संकल्प दुहराया कि बिना अपनी माँगें जीते वे पीछे हटने वाले नहीं हैं।
मज़दूरों की हड़ताल के छठे दिन भी जारी रहने के कारण दिल्ली का बादाम संसाधन उद्योग एकदम ठप्प पड़ गया है। असंसाधित बादाम गोदामों में आकर हज़ारों बोरियों की तादाद में बेकार पड़ा हुआ है। दूसरी ओर क्रिस्मस और नये वर्ष के मौके पर बादाम की माँग देशी ही नहीं बल्कि अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में भी बढ़ती जा रही है। ग़ौरतलब है कि दिल्ली के पूरे बादाम संसाधन उद्योग में जिस बादाम का संसाधन होता है वह अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया व कई यूरोपीय कम्पनियों के बादाम होते हैं। ये कम्पनियाँ सस्ते श्रम को निचोड़ने के लिए इस बादाम को खारी बावली के मालिकों के पास भेजती हैं। ये बड़े मालिक छोटे-टटपुंजिये ठेकेदारों को यह काम ठेके पर देते हैं और ये छोटे ठेकेदार सभी श्रम कानूनों को ताक पर रखकर, सभी नियमों-कायदों की धज्जियाँ उड़ाते हुए यह काम मज़दूरों का बर्बर शोषण करते हुए करवाते हैं। ये ही वे मज़दूर हैं जो पिछले छह दिनों से हड़ताल पर डटे हुए हैं और यह माँग कर रहे हैं कि श्रम कानूनों द्वारा प्रदत्त सभी अधिकारों को पूरा किया जाय, मिसाल के तौर पर, न्यूनतम मज़दूरी के बराबर पीस रेट फिक्स किया जाय, यानी कि प्रति बोरी दर को न्यूनतम मज़दूरी के बराबर लाया जाय; मज़दूरी कार्ड व पहचान पत्र मुहैया कराया जाय; डबल रेट से ओवरटाइम का भुगतान हो; हर महीने के पहले सप्ताह में बकाया मज़दूरी का भुगतान किया जाय; और महिला मज़दूरों के साथ बदसलूकी और गाली-गलौच बन्द की जाय। पिछले वर्ष इन मज़दूरों ने बादाम मज़दूर यूनियन का गठन किया था और पिछले एक वर्ष से यूनियन के नेतृत्व में मज़दूर तमाम संघर्षों में शामिल हो चुके हैं। इस हड़ताल के कारण दिल्ली के ही बाज़ार में बादाम की कीमतें बढ़ती जा रही हैं।
बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक आशीष कुमार सिंह ने बताया, ''अब तक के संघर्ष में पुलिस प्रशासन ने पूरी तरह पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हुए मालिकों के निर्देशों पर काम किया है। हमें करावलनगर पुलिस प्रशासन पर कोई विश्वास नहीं है और मज़दूरों पर हमला करने वाले गुण्डों पर कार्रवाई के लिए हम सीधे पुलिस उपायुक्त, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पास शिकायत दर्ज करेंगे। अगर तब भी कार्रवाई नहीं हुई तो हम न्यायालय तक भी जाएँगे। लेकिन मज़दूरों पर हमला करने वालों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाएगा। हड़ताल हमारा हथियार है। हम तब तक हड़ताल जारी रखेंगे जब तक कि हमारी सारी माँगें मान नहीं ली जातीं।''
यूनियन के ही योगेश ने बताया, ''यह पहला मौका है जब इतनी बड़ी तादाद में एकजुट होकर करावलनगर के मज़दूरों ने हड़ताल की है। इसके पहले भी कुछ छिटपुट हड़तालें हुई थीं, लेकिन तब बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के मज़दूर एकजुट नहीं हो पाते थे और हड़तालें सफल नहीं हो पाती थीं। बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में यह पहला मौका है जब सभी मज़दूर जाति, गोत्र और क्षेत्र के बँटवारों को भुलाकर अपने वर्ग हित को लेकर एकजुट हुए हैं।'' योगेश ने बताया कि विभिन्न सूत्रों के अनुसार बादाम गोदाम मालिक यूनियन के नेतृत्व पर फिर से जानलेवा हमला करने की साज़िश रच रहे हैं। अगर ऐसी कोई कार्रवाई होती है तो इसका उचित जवाब दिया जाएगा। मालिकों को पुलिस का संरक्षण प्राप्त है। लेकिन इसके बावजूद संगठित मज़दूर ताक़त से टकरा पाना मालिकों के बस की बात नहीं है।

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19.12.09

बादाम मज़दूरों के नेता रिहा

बादाम मज़दूरों की हड़ताल चौथे दिन भी जारी

19 दिसम्बर, दिल्ली। करावलनगर के बादाम मज़दूर यूनियन के गिरफ्तार नेताओं आशीष कुमार सिंह, कुणाल जैन और प्रेमप्रकाश यादव शनिवार को जमानत पर रिहा हो गए. 17 दिसम्बर की सुबह बादाम के गोदाम मालिकों और उनके गुण्डों ने महिला मज़दूरों पर और यूनियन के सदस्यों पर लाठियों-डण्डों से जानलेवा हमला किया और इसमें कई महिला मज़दूर और यूनियन कार्यकर्ता गम्भीर रूप से घायल हो गये। आत्मरक्षा में मज़दूरों ने गुण्डों पर पथराव शुरू किया जिसमें मालिकों के करीब 4 लठैत घायल हो गये। इसके बाद पुलिस ने दोनों पक्षों के कुछ लोगों को हिरासत में लेकर उनका बयान लिया। लेकिन मालिकों और उनके गुण्डों पर पुलिस ने कोई भी कार्रवाई नहीं की जबकि यूनियन के कार्यकर्ताओं पर धारा 107 व धारा 151 के तहत मामला दर्ज़ कर लिया।
17 दिसम्बर को पुलिस ने बिना कोई चिकित्सीय सहायता प्रदान किये मज़दूर नेताओं को घायल हालत में ही गोकलपुरी थाने में लाॅक-अप में बन्द कर दिया। ज्ञात हो, कि यह मामला करावलनगर थाने के अन्तर्गत आता है लेकिन मज़दूरों से भयाक्रान्त पुलिस प्रशासन ने इन मज़दूर नेताओं को करावलनगर या खजूरी थाने में नहीं बन्द किया। जाहिर है कि पुलिस पूरी तरह मालिकों की ओर से कार्रवाई कर रही है। मालिकों को किराए के गुण्डे रखने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
इस बीच करावलनगर इलाके में चौथे दिन भी हज़ारों की संख्या में मज़दूर हड़ताल स्थल पर मौजूद रहे। हड़ताल के जारी रहने से करावलनगर का पूरा बादाम संसाधन उद्योग ठप्प पड़ गया है। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि करावलनगर पुलिस थाने के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और मज़दूरों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ न कराए जाने के कारण यूनियन सीधे पुलिस उपायुक्त, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के पास शिकायत दर्ज़ कराएगी और अगर तब भी कार्रवाई नहीं होती है तो फिर हमारे पास अदालत जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा। ग़ौरतलब है कि बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में पिछले एक वर्ष से बादाम मज़दूर अपने कानूनी हक़ों की माँग कर रहे हैं और साथ ही बादाम संसाधन उद्योग को सरकार द्वारा औपचारिक दर्ज़ा दिये जाने की माँग कर रहे हैं। फिलहाल, सभी बादाम गोदाम मालिक गैर-कानूनी ढंग से बिना किसी सरकारी लाईसेंस या मान्यता के ठेके पर मज़दूरों से अपने गोदामों में काम करवा रहे हैं। इसमें बड़े पैमाने पर महिला मज़दूर हैं लेकिन उनके लिए शौचालय या शिशु घर जैसी कोई सुविधा नहीं है। बादाम मज़दूरों को तेज़ाब में डाल कर सुखाए गए बादामों को हाथों, पैरों और दांतों से तोड़ना पड़ता है। उनके लिए सुरक्षा के कोई इंतज़ाम नहीं हैं और उन्हें टी.बी., खांसी, आदि जैसे रोग आम तौर पर होते रहते हैं। महिला मज़दूरों के बच्चे भी काफ़ी कम उम्र में ही जानलेवा बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। बादाम मज़दूर यूनियन इन मज़दूरों के लिए बेहतर कार्य स्थितियों की भी माँग कर रही है। लेकिन मालिक और ठेकेदार पुलिस प्रशासन और स्थानीय नेताओं और गुण्डों के बल पर अपनी मनमानी और गुण्डागर्दी चला रहे है। बादाम मज़दूर यूनियन के योगेश ने कहा कि लेकिन अब वे दिन लद गये हैं जब मज़दूर गुलामों की तरह चुपचाप खटते रहते थे और कोई आवाज़ नहीं उठाते थे। वे एक यूनियन के रूप में संगठित हो चुके हैं और अपने कानूनी हक़ों को जीतने से नीचे वे किसी जीत पर नहीं रुकेंगे।
बादाम मज़दूर यूनियन के आज रिहा हुए संयोजक आशीष कुमार सिंह ने कहा कि बादाम के ठेकेदार बुरी तरह से डर गये हैं। पुलिस को अपने साथ मिलाकर और गुण्डों के बल पर निहत्थे मज़दूरों पर कायराना हमला कराकर उन्होंने साबित कर दिया है कि वे झुण्ड में निहत्थे महिलाओं और बच्चों पर ही अपने पौरुष का प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन महिला मज़दूरों ने उनके हमले का मुँहतोड़ जवाब देकर साबित कर दिया है कि वे ऐसे किसी भी नापाक हमले का जवाब उसी भाषा में दे सकते हैं। अब वे दिन गये जब मज़दूर चुपचाप मालिकों की मार और गाली-गलौच को बर्दाश्त करते थे। मज़दूर अपनी एकता के बल पर बिकी हुई पुलिस और मालिकों के गुण्डों, दोनों से टकराने की ताक़त रखते हैं। इस कायराना हमले ने मज़दूरों के हौसले को तोड़ने की बजाय उन्हें और बुलन्द कर दिया है। यह अकारण नहीं है कि करीब 15 फीसदी मज़दूर जो भय के कारण हड़ताल में शामिल नहीं थे, मज़दूर नेताओं की गिरफ्तारी के बाद वे भी हड़ताल में शामिल हो चुके हैं और उन्होंने मालिकों की मुनाफे की मशीनरी का चक्का पूरी तरह जाम कर दिया है।

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बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में मज़दूरों की जुझारू हड़ताल तीसरे दिन भी जारी

प्रेस विज्ञप्ति

वैश्विक बादाम व्यवसाय के मुनाफे की चक्की में पिसते दिल्ली के बादाम मज़दूरों का संघर्ष

पुलिस प्रशासन मुस्तैदी से मालिकों की सेवा में
बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में मज़दूरों की जुझारू हड़ताल तीसरे दिन भी जारी

18 दिसम्बर, दिल्ली। ज्ञात हो कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र में करीब 30 हज़ार मज़दूर परिवार बादाम तोड़ने का काम करते हैं। यह पूरा व्यवसाय देशव्यापी नहीं, बल्कि विश्वव्यापी है। बेहद आदिम परिस्थितियों में गुलामों की तरह खटने वाले ये मज़दूर जिन कम्पनियों के बादाम का संसाधन करते हैं, वे कम्पनियाँ भारत की नहीं बल्कि अमेरिका, आस्‍ट्रेलिया और कनाडा की हैं। ये भारत के सस्ते श्रम के दोहन के लिए अपने ड्राई फ्रूट्स की प्रोसेसिंग यहाँ करवाते हैं। दिल्ली की खारी बावली पूरे एशिया की सबसे बड़ी ड्राई फ्रूट मण्डी है। खारी बावली के बड़े मालिक सीधे विदेशों से बादाम मँगवाते हैं और उन्हें संसाधित करके वापस भेज देते हैं। ये मालिक संसाधन का काम छुटभैये ठेकेदारों से करवाते हैं जिन्होंने दिल्ली के करावलनगर, सोनिया विहार, बुराड़ी-संतनगर और नरेला में अपने गोदाम खोल रखे हैं। इन गोदामों कोई भी सरकारी मान्यता या लाईसेंस नहीं प्राप्त है और ये पूरी तरह से गैर-कानूनी तरह से काम कर रहे हैं। एक-एक गोदाम में 20 से लेकर 40 तक मज़दूर काम करते हैं। इनके काम के घंटे अधिक मांग के सीज़न में कई बार 16 घण्टे तक होते हैं। इन्हें बादाम की एक बोरी तोड़ने पर मात्र 50 रुपये दिये जाते हैं। इनमें महिला मज़दूर बहुसंख्या में हैं। उनके साथ मारपीट, गाली-गलौज और उनका उत्पीड़न आम घटनाएँ हैं।

इन मज़दूरों ने पिछले तीन दिनों से अपनी यूनियन ‘बादाम मज़दूर यूनियन’ के नेतृत्व में पीस रेट को 50 रुपये से बढ़ाकर 80 रुपये करने, डबल रेट से ओवरटाइम देने, जॉब कार्ड व पहचान पत्र देने, आदि की माँगों को लेकर हड़ताल कर रखी है। इस हड़ताल के दूसरे दिन मालिकों ने अपने गुण्डों के जरिये महिला मज़दूरों, उनके बच्चों और तीन यूनियन कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमला किया। इस हमले में दो यूनियन कार्यकर्ता गम्भीर रूप से जख्मी हो गये, जबकि कई महिला मज़दूरों और उनके बच्चों को चोटें आईं। इस दौरान मालिक और उनके गुण्डे दलित मज़दूरों को लगातार जातिसूचक टिप्पणियों से अपमानित करते रहे और ख़ास तौर पर दलित मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया। बचाव के लिए महिला मज़दूरों ने गुण्डों पर पथराव शुरू किया जिसमें मालिकों के चार गुर्गे घायल हुए। इसके बाद पुलिस आई और उसने घायल गुण्डों को तो मालिकों की शह पर तुरन्त अपनी गाड़ी में अस्पताल पहुँचाया और उनकी प्राथमिक चिकित्सा करवाई, लेकिन यूनियन के घायल नेताओं और मज़दूरों को बिना किसी चिकित्सीय देखभाल के सीधे गिरफ्तार करके थाने ले गई। 12 बजे से साढ़े चार बजे तक पुलिस उनका बयान दर्ज़ करने का बहाना कर देर करती रही। इस बीच कई मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं का खून बहता रहा और उन्हें बीच में अन्य यूनियन कार्यकर्ताओं ने बाहर से लाकर दवाइयां और खाने का सामान दिया। इस अमानवीय व्यवहार के बाद पुलिस उन्हें लेकर थाने से निकली और उसने मज़दूरों को बताया कि दोनों पक्षों के लोगों के खि़लाफ़ प्राथमिकी दर्ज़ कर ली गई है और अब घायल मज़दूरों और यूनियन कार्यकर्ताओं को मेडिकल चेक अप के लिए गुरू तेग बहादुर अस्पताल ले जाया जा रहा है जिसके बाद उन्हें कोर्ट में पेश किया जाएगा। लेकिन पुलिस उन्हें बिना किसी चिकित्सा के सीधे गोकलपुरी थाने लेकर गई और वहाँ उन्हें बन्द कर दिया गया। आज उनकी सीलमपुर जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई लेकिन तकनीकी कारणों से उनकी ज़मानत नहीं हो पाई और उन्हें एक दिन तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है। इस बीच मज़दूरों ने अपनी हड़ताल को और मज़बूत बनाते हुए चेतावनी जुलूस निकाला और संघर्ष को जारी रखने की शपथ खाई। इस समय करावलनगर का पूरा बादाम संसाधन उद्योग मज़दूरों की हड़ताल के कारण ठप्प पड़ा है। 18 दिसम्बर की शाम तक करावलनगर में हज़ारों मज़दूर हड़ताल स्थल के इर्द-गिर्द एकजुट हैं। बादाम मज़दूर यूनियन के नवीन ने कहा कि हमारे साथियों की गिरफ्तारी ने हमारे संघर्ष को और मज़बूत कर दिया है। अब इस संघर्ष को किसी भी सूरत में जीत तक पहुँचाना सभी मज़दूरों का पहला कर्तव्य है।

जब यूनियन के कार्यकर्ता और ‘बिगुल’ अखबार के पत्रकारों ने पुलिस प्रशासन से इस बात पर सफाई माँगी कि गुण्डों और मालिकों के खि़लाफ़ कोई प्राथमिकी क्यों नहीं दर्ज़ की गई और पुलिस ने पूरी तरह मालिकों की शह पर यूनियन और उसके मज़दूरों के खि़लाफ़ क्यों कार्रवाई की तो पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों तक का कहना यह था कि यूनियन वालों को सबक सिखाना ज़रूरी है और हड़ताली मज़दूरों के होश ठिकाने ला दिये जाएँगे। साफ़ है कि पुलिस पूरी तरह मालिकों की शह पर काम कर रही है और मज़दूर आन्दोलन को दबाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। इस बीच करावलनगर के कांग्रेस, आरएसएस और भाजपा आदि के नेता पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जाकर खड़े हो गये हैं। ग़ौरतलब है कि कई बादाम गोदाम मालिक स्वयं इन पार्टियों के स्थानीय नेता हैं।यह पहली बार नहीं है जब पुलिस ने मालिकों के पक्ष से कार्रवाई की हो। एक वर्ष पहले, 2008 के अगस्त में भी मज़दूरों ने अपनी कानूनी माँगों को लेकर एक आन्दोलन किया था। उस दौरान भी मालिकों ने मज़दूरों पर हमला किया था और बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक और प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता आशीष कुमार को मनमाने तरीके से गिरफ्तार कर लिया था। लेकिन उस समय कोई केस दर्ज़ होने के पहले ही मज़दूरों ने हज़ारों की संख्या में थाने का घेराव कर उन्हें छुड़ा लिया था। लेकिन इस बार पुलिस ने झूठ बोलकर मज़दूरों को गुमराह किया और बताया कि दोनों पक्षों की ओर से प्राथमिकी दर्ज़ कर ली है और मज़दूरों को धोखा देकर उन्हें बिना किसी सुनवाई के करावलनगर से दूर गोकलपुरी के थाने में लॉक अप में बन्द कर दिया। कई मज़दूरों का कहना था कि थाने के अन्दर मालिकों ने पुलिस से लाखों रुपये का लेन-देन किया है। जाहिर है कि मालिकों की सेवा करने की फीस पुलिस प्रशासन ने वसूली ही होगी! यूनियन के शीर्ष नेतृत्व को एक दिन तक लॉक अप में बन्द कर हड़ताल को तोड़ने की उम्मीद में मालिकों ने पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर यह साज़िश की है। लेकिन उनकी उम्मीद के पलट मज़दूरों की हड़ताल और मज़बूत हो गई है और मज़दूरों के बीच से ही नये नेतृत्व ने गिरफ्तार मज़दूर नेताओं की गिरफ्तारी तक आन्दोलन की कमान संभाल ली है। हज़ारों मज़दूर इस समय करावलनगर की सड़कों पर हैं।ग़ौरतलब है कि ये मज़दूर पिछले एक वर्ष से अपने कानूनी हक़ों को पूरा करवाने की माँग कर रहे हैं। इनमें न्यूनतम मज़दूरी कानून, ट्रेड यूनियन अधिनियम, ठेका मज़दूर कानून आदि जैसे कानूनों के तहत मज़दूरों को प्रदत्त अधिकारों की माँगें शामिल हैं। इसके लिए बादाम मज़दूर यूनियन के सदस्य पिछले एक वर्ष में कई बार उत्तर-पूर्वी दिल्ली के उप श्रमायुक्त कार्यालय के भी दर्ज़नों बार चक्कर लगा चुके हैं। लेकिन वहाँ जाकर भी हर बार यही पता चला कि मालिकों के हाथ पूरा प्रशासन बिका हुआ है और लेन-देन का एक व्यापक नेटवर्क काम कर रहा है जो मज़दूरों को गुलामों की तरह खटाते रहने और सभी कानूनों का अन्धेरगर्दी के साथ उल्लंघन करने पर आमादा रहता है। इस आन्दोलन की ख़ास बात यह है कि इन हज़ारों मज़दूरों में महिला मज़दूरों की बहुसंख्या है और वे पूरी प्रतिबद्धता के साथ इस संघर्ष में डटी हुई हैं। मज़दूर इस बात पर अडिग हैं कि चाहे पूरा पुलिस प्रशासन मालिकों के हाथ बिका रहे, वे झुकेंगे नहीं और इस संघर्ष को जारी रखेंगे।
हम सभी मीडियाकर्मियों से अपील करते हैं कि वे स्वयं इस पूरे मामले की जाँच करें और इस तथ्यपत्रक में दिये गये तथ्यों की पड़ताल करें और मज़दूरों के इस संघर्ष को सारे समाज के सामने लाएँ। साथ ही, किस प्रकार पूरा पुलिस प्रशासन आज मज़दूरों के विरुद्ध पूँजीपतियों के साथ खड़ा होता है यह भी पूरे देश के सामने लाने की आज सख़्त ज़रूरत है। हम सभी संवेदनशील मीडियाकर्मियों से अपील करते हैं कि वे मज़दूरों के इस न्यायपूर्ण संघर्ष के साथ अपनी पक्षधरता जाहिर करें और उचित जांच-पड़ताल के बाद इस पूरे मामले को अपने पत्र में या चैनल में स्थान दें।

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17.12.09

बादाम तोड़ने वाले 25-25 हज़ार मज़दूर हड़ताल पर

नई दिल्‍ली के करावल नगर इलाके में बादाम तोड़ने वाले मज़दूरों ने हड़ताल की घोषणा कर दी है। 'बादाम मज़दूर यूनियन' के बैनर तले इन मज़दूरों के हड़ताल पर जाने से अमेरिका और ऑस्‍ट्रेलिया सहित कई यूरोपीय देशों में बादाम निर्यात प्रभावित हो गया है। बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक आशीष ने कहा कि सरकार ने 1970 में ठेका मज़दूरी क़ानून के तहत जो बुनियादी अधिकार दिए थे उनका यहां कोई पालन नहीं हो रहा है। श्रम क़ानूनों के उल्‍लंघन से यहां के 20 हज़ार से ज्‍़यादा मज़दूर त्रस्‍त हैं। यूनियन के सदस्‍य राहुल ने कहा कि बेहिसाब महंगाई में न्‍यूनतम मज़दूरी भी न मिलने से मज़दूरों के परिवारों के सामने दाल-रोटी की चिंता बढ़ गयी है। लिहाज़ा मज़दूरों ने काम बंद कर दिया है।

जानकारी के मुताबिक, 23 किलो की एक बोरी पर मज़दूरों को केवल 50 रुपये मिलते हैं। दिनभर में हाड़-तोड़ मेहनत कर एक मज़दूर मुश्किल से दो बोरी बादाम तोड़ पाता है। इसके अलावा उनका पिछला हिसाब भी व्‍यापारी रोक कर उन्‍हें धमकी देता रहता है। वे सामाजिक सुरक्षा की सुविधा से भी वंचित हैं।

(जनसत्ता (17 दिसंबर) से साभार )

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बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजकों पर हमला, पुलिस ने गुण्‍डो की जगह संयोजकों को ही गिरफ्तार किया

करावल नगर के बादाम मज़दूर कल से मज़दूरी बढ़ाने की मांग को लेकर हड़तालत पर हैं। आज सुबह क़रीब 1500 महिला-पुरुष मज़दूर अपनी मांग के समर्थन में यूनियन के संयोजक आशीष तथा अन्‍य लोगों की अगुवाई में इलाकाई पैमाने का जुलूस निकाल रहे थे। ये मज़दूर प्रति बोरा 40 रुपये की बेहद मामूली दरों पर ठेकेदारों के लिए काम करते हैं। आन्‍दोलन के बढ़ते जनसमर्थन से बौखलाए बादाम ठेकेदारों ने सुबह क़रीब 11:30 बजे अपने गुण्‍डो से जुलूस पर हमला करा दिया। हमले में आशीष, कुणाल और प्रेमप्रकाश बुरी तरह घायल हो गये। ठेकेदारों की बर्बरता से बौखलाए मज़दूरों ने इस पर ज़बर्दस्‍त प्रतिरोध किया।

इस पूरे मामले में करावल नगर पुलिस की भूमिका साफ़तौर पर मज़दूर विरोधी दिखी। पुलिस दिनभर जहां एक ओर मज़दूरों की लिखित नामजद तहरीर पर एफआईआर दर्ज करने का आश्‍वासन देती रही, वहीं शाम 7 बजहे तक ठेकेदार और उनके गुण्‍डो के खिलाफ न तो एफआईआर ही दर्ज हुई और न ही घायल मज़दूरों का मेडिकल मुआयना कराया गया। उल्‍टे पुलिस ने बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक आशीष तथा कुणाल और प्रेमप्रकाश को धारा 107/151 के तहत गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस की इस अंधेरगर्दी से पूरे क्षेत्र के मज़दूरों में गुस्‍से की लहर दौड़ गयी। इस पूरे इलाके में क़रीब 25,000 मज़दूर बादाम तोड़ने का काम करते हैं। इन मज़दूरों के ठेकेदार बेहद निरंकुश हैं और क़रीब-क़रीब मुफ्त में मज़दूरों से काम करवाने के आदि हैं। बादाम मज़दूर यूनियन ने गुण्‍डों द्वारा मारपीट और पुलिस की मालिक परस्‍त भूमिका की तीखे शब्‍दों में निंदा की है। यूनियन ने बताया कि कल एक प्रतिनिधिमण्‍डल पुलिस के उच्‍चाधिकारियों से मिलेगा और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग करेगा। युनियन का कहना हैकि यदि उन्‍हें न्‍याय नहीं मिला तो वे आन्‍दोलनात्‍मक रुख अपनाने के लिए तैयार रहेंगे।

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14.11.09

एक युद्ध जनता के विरुद्ध : पूरे देश में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून लागू करने की तैयारी

दबे पाँव दहलीज़ तक आ पहुँचा है अघोषित आपातकाल!

उसकी आहट पहचानो, ख़ूनी पंजों के निशानों की शिनाख्त करो!


सम्पादक मण्डल

अभी 'बिगुल' के पिछले ही अंक में प्रकाशित अग्रलेख में हमने यह चेतावनी दी थी कि ''वामपन्थी'' उग्रवाद से निपटने के नाम पर भारतीय शासक वर्ग और उसकी राज्यसत्ता आम जनता के ख़िलाफ एक खूनी युद्ध की तैयारी में लग चुकी है। हाल की घटनाओं ने इस तथ्य की पूरी तरह से पुष्टि कर दी है।

15 अक्टूबर 2009 के 'हिन्दू' अखबार में श्रीनगर से प्रकाशित शुजात बुखारी की रिपोर्ट के मुताबिक, सामाजिक और अवरचनागत मामलों पर वहाँ आयोजित अखिल भारतीय सम्पादक सम्मेलन में गृहमन्त्री चिदम्बरम ने कहा कि सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून में संशोधन का प्रस्ताव जल्दी ही मन्त्रिमण्डल के सामने रखा जायेगा। उन्होंने बताया कि ये संशोधन केवल जम्मू-कश्मीर में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में लागू होंगे।

इन प्रस्तावित संशोधनों के दो पहलू हैं। पहला यह कि आज़ाद भारत के सर्वाधिक निरंकुश दमनकारी इस काले-कानून को अमल में लाते हुए सेना ने कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर भारत में फासिस्ट दमन का जो बर्बर नंगनाच किया है, उसके ख़िलाफ वहाँ सड़कों पर उमड़ते जन-प्रतिरोध का ज्वार लाख कोशिशों के बावजूद दबाया नहीं जा सका है। इसलिए इस दानवी कानून को कुछ ''मानवी'' शक्ल देने की ज़रूरत हुकूमती हलकों में शिद्दत के साथ महसूस की जा रही थी। इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि अर्द्धसैनिक माओवादी सशस्त्र प्रतिरोध को कुचलने में नाकाम रहते हैं, तो पूरे देश के प्रभावित हिस्सों में सेना के इस्तेमाल को जायज़ ठहराने की कानूनी तैयारी समय रहते कर ली जाये। इसलिए शस्त्रागार में पहले से मौजूद इस शस्त्र को अब पूरे देश में जनता के विरुद्ध सम्भावित युद्ध की दृष्टि से सुधारना-सँवारना ज़रूरी है।

किन क्षेत्रों में अब तक लागू हुआ है 'सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून' और क्या सामने आये हैं उसके नतीजे?

दिलचस्प बात यह है कि यह काला कानून भी हमारे शासक वर्ग को बर्तानवी हुकूमत से विरासत में मिला है। 1942 के जनउभार को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने 'सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अध्‍यादेश - 1942' जारी किया था और फिर इसका जमकर इस्तेमाल भी किया गया था। हूबहू इसी के साँचे में ढालकर 1958 में भारतीय संसद में एक विधेयक तत्कालीन गृहमन्त्री गोविन्द वल्लभ पन्त द्वारा प्रस्तुत किया गया, जो पारित होने के बाद 'सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून - 1958' (ए.एफ.एस.पी.ए.) बन गया।

1958 में यह कानून असम और मणिपुर के पूर्वोत्तर राज्यों के लिए बना था। 1972 में इसे संशोधित करके पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों - असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैण्ड में लागू करने की घोषणा की गयी। फिर 1990 में एक संशोधन के बाद इसे जम्मू-कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। इन क्षेत्रों के बारे में विस्तार में चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है। संक्षेप में, इन सभी राष्ट्रीयताओं के लोग 1947 से ही अपने को दबाया और ठगा हुआ महसूस करते रहे हैं और दिल्ली की सत्ता को बलात थोपी गयी औपनिवेशिक सत्ता से अधिक कुछ नहीं मानते। जहाँ तक पूर्वोत्तर के भूराजनीतिक इतिहास का सवाल है, भारतीय उपमहाद्वीप के साम्राज्यों के उतार-चढ़ाव प्रभाव से 19वीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कमोबेश अछूता था। इसकी राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाएँ दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ी रही थीं। पहली बार बर्मी विस्तार को रोकने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने आज के मणिपुर और असम में प्रवेश किया। मणिपुर के राजा के साथ 1828 में हुई यान्दाबो सन्धि के अनुसार, असम ब्रिटिश भारत का अंग हो गया, लेकिन मणिपुर में वहाँ के राजा के ज़रिये ही ब्रिटिश भारत का परोक्ष प्रभाव बना रहा। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पूर्वोत्तर के इसी सँकरे गलियारे से होकर जापानियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया। इस घटना ने भारत के तत्कालीन और भावी शासकों को इस इलाके के रणनीतिक महत्व का अहसास कराया।

1947 में ब्रिटिश शासकों के भारत छोड़ने के बाद, इस इलाके में एक राजनीतिक शून्य-सा पैदा हो गया। यहाँ की जनता की नियति का निर्णय उसकी राय लिये बिना दूरस्थ राजधानियों में हुआ और इस पूरे इलाके के अलग-अलग भाग भारत, बर्मा, पूर्वी पाकिस्तान और चीन में शामिल कर लिये गये। 1947 में मणिपुर संविधान कानून के अनुसार, मणिपुर में संवैधानिक राजतन्त्र की स्थापना हुई और विधायिका के चुनाव हुए। 1949 में भारत सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी वी.पी. मेनन ने राजा को कानून-व्यवस्था पर विचार-विमर्श के लिए शिलांग बुलाया और फिर वहाँ बलात विलय समझौते पर हस्ताक्षर करा लिये गये। इस समझौते को मणिपुर असेम्बली से पारित कराने के बजाय असेम्बली को ही भंग करके मणिपुर को एक चीफ कमिश्नर के शासनाधीन रख दिया गया। तब से मणिपुर में बहुत सारे बदलाव हुए, लेकिन जनता 1949 की घटनाओं को विश्वासघात मानती रही और प्रतिरोध संघर्ष लगातार जारी रहा। सेना और ए.एफ.एस.पी.ए. जैसे काले कानूनों के बल पर उसे जितना दबाया गया, अलगाव और प्रतिरोध की भावना उतनी ही बढ़ती चली गयी।

भारत-बर्मा सीमा क्षेत्र में फैली नगा पहाड़ियों के निवासी बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही नगा राष्ट्रीय परिषद (एन.एन.सी.) के बैनर तले एक साझा मातृभूमि और स्वशासन की माँग को लेकर लड़ते रहे हैं। 1929 में उन्होंने अपनी यह माँग साइमन कमीशन के सामने रखी थी। गाँधीजी ने भी उनकी आज़ादी की माँग का समर्थन किया था। ब्रिटिश प्रशासन और एन.एन.सी. के बीच हुए हैदरी समझौते के मुताबिक नगालैण्ड को दस वर्ष के लिए संरक्षित दर्जा प्रदान किया गया था, लेकिन इसी बीच भारत स्वतन्त्र हुआ और नगा क्षेत्र को नये गणराज्य का हिस्सा बना लिया गया। एन.एन.सी. 1975 तक नगालैण्ड की आज़ादी के लिए लड़ता रहा। 1975 में उसने जब शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर किये, तो उसे ग़द्दार मानते हुए अन्य नगा नेताओं ने 'नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैण्ड (एन.एस.सी.एन.) के बैनर तले संघर्ष जारी रखा। इन दिनों एन.एस.सी.एन. के दो गुट हैं जिनके साथ फिलहाल भारत सरकार ने युद्ध विराम सन्धि कर रखी है।

1960 के दशक में असम की लुशाई पहाड़ियों में भीषण अकाल पड़ा था। वहाँ गठित एक राहत टीम द्वारा बार-बार अपील के बावजूद केन्द्र से राहत के नाम पर बस कुछ भीख के दाने ही मिले। इसी राहत टीम ने स्वयं को 'मिज़ो राष्ट्रीय मोर्चा' (एम.एन.एफ.) घोषित कर दिया और मिज़ोरम की मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष की घोषणा कर दी। फरवरी 1966 में एम.एन.एफ. ने आइज़ोल शहर पर कब्ज़ा कर लिया था। तब पहली बार भारतीय सेना ने अपने ही नागरिकों पर बमबारी की थी और हफ्ते भर की लड़ाई के बाद आइज़ोल को फिर से कब्जे में लिया जा सका था। भारतीय सेनाओं ने जनविद्रोह को काबू में रखने के लिए पूरी आबादी को उजाड़कर सड़कों के किनारे अलग गाँव बसाये। इससे मिज़ो समाज का ढाँचा हमेशा के लिए तबाह हो गया। 1986 में एम.एन.एफ. ने भारत सरकार के साथ समझौता करके भारतीय संविधान के दायरे के भीतर काम करना स्वीकार कर लिया, लेकिन मिज़ो जनता के भीतर अलगाव, दिल्ली की सत्ता से घृणा और प्रतिरोध की भावना आज भी बरकरार है।

आज भी पूर्वोत्तर की व्यापक आबादी भारतीय समाज के पूँजीवादी विकास की मुख्य धारा से अपने को उपेक्षित, अलग-थलग और उत्पीड़ित महसूस करती है। इसका एक ऐतिहासिक कारण भारतीय संघ में उनका बलात मिलाया जाना था, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है। लेकिन इसका एक अहम कारण पूँजीवादी राज्य और समाज से जुड़ा संरचनागत कारण है। पूँजीवादी विकास की यह प्रकृति है कि वह क्षेत्रीय असमानता पैदा करती है। इसी की एक अभिव्यक्ति कुछ उपेक्षित राष्ट्रीयताओं के आर्थिक रूप से पीछे छूटते जाने तथा राजनीतिक-सामाजिक रूप से दोयम दर्जे पर बने रहने के रूप में सामने आती है। केन्द्रीय सत्ता या वर्चस्वशाली राष्ट्रीयता प्राय: उनकी आकांक्षाओं को कुचलने का काम करती है और इस तरह प्राय: बहुराष्ट्रीय पूँजीवादी देश कुछ राष्ट्रीयताओं के लिए जेलख़ाने बनकर रह जाते हैं।

पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता के साथ ऐसा ही हुआ। समृद्ध खनिज सम्पदा (असम कुल देश के एक चौथाई तेल का उत्पादन करता है) और वन उपज के बावजूद इस क्षेत्र के विकास पर बहुत कम ध्‍यान दिया गया। पर्याप्त सम्भावना होते हुए भी, न औद्योगिक विकास हुआ, न कृषि का और न ही अवरचनागत ढाँचे का विकास हुआ। सिर्फ कच्चे माल का दोहन होता रहा। सांस्कृतिक अलगाव और उत्पीड़न का भी पहलू महत्वपूर्ण था। कालान्तर में इस क्षेत्र में एक बेहद भ्रष्ट मध्‍यवर्ग पैदा हुआ जो शासन-प्रशासन के कार्यों से जुड़ा था। बाद में केन्द्र की सत्ता ने विकास कार्यों के लिए कुछ पैसे लगाकर जन-तुष्टीकरण की यदि कुछ कोशिशें भी कीं, तो वह पैसा सत्ता से नाभिनालबद्ध भ्रष्ट स्थानीय मध्‍यवर्ग की जेबों में ही अटककर रह जाता था (आज भी यही स्थिति है)। पूँजीवादी विकास के साथ देशव्यापी स्तर पर होने वाले आबादी के 'माइग्रेशन' (प्रवासन) ने भी समस्या बढ़ायी। असम में युवाओं में भारी बेरोज़गारी थी, पर वहाँ बिहार-उ.प्र. और बांग्लादेश से आये ग़रीब लोग सस्ती मज़दूरी करते हुए उनके सामने उपस्थित समस्या को और गम्भीर बना रहे थे। असम आन्दोलन इसी ज़मीन पर पैदा हुआ था। बाद में असम गण परिषद जब भ्रष्ट चुनावी राजनीति के रंग में रंग गया, तो 'उल्फा' ने उग्र असन्तोष को अलगाव के लिए सशस्त्र संघर्ष का रूप दे दिया। बेरोज़गारी, प्रवासन और क्षेत्रीय असमानता का मूल कारण पूँजीवादी सत्ता और उसकी नीतियाँ होती हैं, लेकिन 'उल्फा' ने इसके बजाय अन्य इलाकों से आकर मेहनत-मज़दूरी करने वाले आम लोगों को ही निशाना बनाना शुरू कर दिया और लक्ष्यच्युत होकर एक आतंकवादी संगठन बन गया। कालान्तर में पूर्वोत्तर की नगा, कुकी, मैती आदि विभिन्न राष्ट्रीयताओं-उपराष्ट्रीयताओं के आपसी अन्तरविरोध भी उग्र हो गये। जब मूल समस्या का समाधान नहीं होता है, तो लाज़िमी तौर पर तमाम गौण अन्तरविरोध भी उग्र हो जाते हैं। केन्द्रीय सत्ता ने भी इन अन्तरविरोधों को उग्र बनाने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन इन सबके बीच, सर्वप्रमुख बात यह है कि पूर्वोत्तर की जनता का अलगाव आज भी कायम है। भारतीय शासक वर्ग के उत्पीड़क रवैये ने आज़ादी और आत्मनिर्णय की उनकी आकांक्षा को लगातार ज़िन्दा रखा है। आज की दुनिया में, एक शक्तिशाली पूँजीवादी केन्द्र से यदि वे मुक्त न हो सकें, तो भी उनका संघर्ष जारी रहेगा। उसे कुचलना सम्भव नहीं।

जम्मू-कश्मीर में ए.एफ.एस.पी.ए. 1990 में लागू हुआ। यहाँ संक्षेप में वहाँ की स्थिति को भी जानना ज़रूरी है। औपनिवेशिक काल के दौरान कश्मीर डोगरा वंश के शासन के अधीन एक रियासत थी। शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कान्फ्रेंस ने वहाँ औपनिवेशिक सरपरस्ती वाले डोगरा शासन के विरुद्ध और भूमि सुधारों के लिए रैडिकल किसान संघर्ष और जनान्दोलन संगठित किया था। सेक्युलर विचारों वाली नेशनल कान्फ्रेंस तब मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति की विरोधी थी और इस नाते वह पाकिस्तान में कश्मीर के शामिल होने की विरोधी थी। डोगरा राजा हरिसिंह तब दोहरी चाल चल रहा था और एक आज़ाद रियासत का राजा बनना चाहता था। नेशनल कान्फ्रेंस का झुकाव भारतीय संघ में शामिल होने की ओर था, पर वह कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार की पक्षधर थी और कश्मीर के भीतर स्वशासन का विशेष अधिकार चाहती थी। अक्टूबर '47 में पाकिस्तानी कबायली घुसपैठ के विरुद्ध राजा हरिसिंह ने भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउण्टबेटन से मदद की अपील की। बदले में, 26 अक्टूबर '47 को उसने भारत के साथ विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किये। लेकिन कश्मीर को एक विशेष दर्जा दिया गया। उसका अलग संविधान था, जिसके तहत 30 अक्टूबर '48 को गठित आपातकालीन सरकार में वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमन्त्री) शेख अब्दुल्ला को बनाया गया और राजा को सद्र-ए-रियासत का पद दिया गया। भारत सरकार ने न केवल कश्मीर के विशेष दर्जे को स्वीकार किया था बल्कि स्थिति सामान्य होने पर जनमतसंग्रह के ज़रिए कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को लागू करने की भी बात की थी। शेख़ अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर में सर्वाधिक आमूलगामी ढंग से भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करके काफी लोकप्रियता हासिल की थी। लेकिन स्वायत्तता के प्रश्न पर अविचल स्टैण्ड के कारण 1953 में उनकी सरकार को बर्ख़ास्त करके ग्यारह साल के लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया। 1957 में एकदम एकतरफा ढंग से कश्मीर के भारत में औपचारिक विलय की घोषणा कर दी गयी। अप्रैल '64 में नेहरू से बातचीत के बाद गतिरोध तोड़ने के लिए एक बार फिर कोशिश हुई और शेख़ अब्दुल्ला की रिहाई हुई। लेकिन 1965 में फिर उन्हें नज़रबन्द कर दिया गया, जो 1968 तक जारी रहा। 1971 में जनमतसंग्रह मोर्चा को प्रतिबन्धित कर दिया गया और 18 माह के लिए शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर से निर्वासित कर दिया। 1974 में इन्दिरा गाँधी के साथ समझौते के बाद शेख़ अब्दुल्ला अपनी सभी माँगों से पीछे हट गये। वे तब से लेकर 1982 में अपनी मृत्यु तक कश्मीर के मुख्यमन्त्री रहे।

कश्मीर की जनता ने 1948 से लेकर 1957 में कश्मीर के एकतरफ़ा विलय की घोषणा और 1953 से लेकर 1971 तक शेख़ अब्दुल्ला के साथ हुए व्यवहार को अपने साथ विश्वासघात के रूप में देखा। 1974 के समझौते को भी आबादी के बड़े हिस्से ने शेख़ अब्दुल्ला के घुटने टेकने के रूप में देखा। 1982 के बाद कश्मीरी जनता का पहले से ही कायम अलगाव और तेज़ी से बढ़ा और 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में जे.के.एल.एफ. के नेतृत्व में कश्मीर की आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष फूट पड़ा। जे.के.एल.एफ. भारतीय भाग के अतिरिक्त पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भी सक्रिय व्यापक जनाधार और सेक्युलर विचारों वाला संगठन था, जिसे दोनों ही देशों में दमन का सामना करना पड़ा। घाटी में सशस्त्र संघर्ष के साथ ही व्यापक जनान्दोलन की स्थिति थी, जिसे भारतीय शासक वर्ग ने बल के व्यापक और बर्बर इस्तेमाल के द्वारा कुचलने की कोशिश की। 1990 में वहाँ ए.एफ.एस.पी.ए. लागू होने के बाद सेना को दमन के अपरिमित अधिकार मिल गये। ऐसी स्थिति में कश्मीरी जनता में अलगाव की भावना ज्यादा से ज्यादा मज़बूत होती चली गयी। जे.के.एल.एफ. और जनान्दोलन के सैनिक दमन से पैदा हुई निराशा-निरुपायता की ज़मीन पर उन धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवादी संगठनों को भी जड़ें जमाने का मौका मिला, जिन्हें पाकिस्तानी शासक वर्ग अपने निहित स्वार्थों से समर्थन-प्रोत्साहन दे रहा था। ये ग्रुप धार्मिक आधार पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की बात करते हैं। कश्मीर में साम्प्रदायिक राजनीति का ऐतिहासिक तौर पर कोई आधार नहीं रहा है। भारतीय सेना के दमन से पैदा हुए नैराश्यपूर्ण अलगाव ने वहाँ धार्मिक कट्टरपन्थ के लिए ज़मीन तैयार की है।

भारत में इन राष्ट्रीयताओं के संघर्ष की समस्या एक जटिल समस्या है। एक पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर इसका समाधान मुश्किल है। राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार की यह लड़ाई सैन्य दमन से समाप्त नहीं हो सकती। पूर्वोत्तर भारत में 51 वर्षों से और जम्मू-कश्मीर में 19 वर्षों से ए.एफ.सी.पी.ए. के अन्तर्गत वस्तुत: सेना का शासन जारी है, लेकिन इससे समस्या हल होने के बजाय और अधिक गम्भीर ही हुई है। और अब यदि शासक वर्ग किसी भी रूप में इस कानून को पूरे देश में लागू करना चाहता है, तो जाहिर है कि व्यवस्था का संकट काफी गम्भीर शक्ल अख्तियार कर चुका है।

ए.एफ.सी.पी.ए. : नग्न-निरंकुश दमनतन्त्र का सबसे प्रभावी हथियार!

सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून के मुताबिक, जब कोई क्षेत्र अशान्त (डिस्‍टर्ब्‍ड) घोषित कर दिया जाता है, तो वहाँ एकदम निर्बाध कार्रवाई चलाने के लिए सभी सुरक्षा बलों को (जिनमें सेना की भूमिका सर्वप्रमुख होती है), बेहिसाब अधिकार हासिल हो जाते हैं। इसके अनुसार, सेना के एक नॉन-कमीशण्ड ऑफिसर को भी यह अधिकार होता है कि वह ''कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए'' महज़ सन्देह के आधार पर किसी को गोली मार देने का निर्देश दे दे। ए.एफ.सी.पी.ए. ''नागरिक शासन की सहायता'' के नाम पर सशस्त्र बलों को बिना किसी वारण्ट के तलाशी, पूछताछ, गिरफ्तारी और गोली मार देने तक के व्यापक अधिकार देता है।

इस कानून के अनुच्छेद-5 के अनुसार, सेना यदि अशान्त क्षेत्र में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है तो उसे ''यथाशीघ्र'' नज़दीक के पुलिस स्टेशन को सौंप देगी। लेकिन इस ''यथाशीघ्र'' को अस्पष्ट और अपरिभाषित रहने दिया गया है।

कानून के अनुच्छेद-6 के अनुसार, ए.एफ.सी.पी.ए. के अन्तर्गत काम कर रही सेना के किसी भी व्यक्ति पर केन्द्र सरकार की अनुमति के बग़ैर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती। यानी वह कानून किसी भी प्रभावित व्यक्ति को कानूनी राहत का कोई विकल्प नहीं देता।

1991 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमेटी के सदस्यों ने जब ए.एफ.सी.पी.ए. की वैधता पर सवाल उठाये तो भारत के महाधिवक्ता का एकमात्र तर्क यह था कि पूर्वोत्तर के राज्यों के अलग होने को रोकने लिए यह कानून लागू करना ज़रूरी था, क्योंकि भारतीय संविधान की धारा-355 राज्यों को आन्तरिक अशान्ति से बचाने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार को सौंपती है। इस तर्क की पहली विसंगति यह है कि यदि किसी राज्य की बहुसंख्यक आबादी आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए आन्दोलन करती है तो क्या इसे आन्तरिक अशान्ति कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को बुर्जुआ जनवाद के आम उसूल और भारतीय संविधान भी किसी नागरिक के मूलभूत अधिकारों के ऊपर नहीं रखते। राज्य के हित में केन्द्र सरकार को कोई ऐसा कानून बनाने का कत्तई अधिकार नहीं है, जो नागरिक के जीने का अधिकार भी छीन ले।

ए.एफ.सी.पी.ए. भारतीय संविधान की धारा-21 का खुला उल्लंघन है जो बताता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार या व्यक्तिगत आज़ादी से वंचित नहीं किया जा सकता और ऐसा केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है। साथ ही यह कानून गिरफ्तारी और हिरासत के विरुद्ध नागरिक को कानूनी सुरक्षा का अधिकार देने वाली संविधान की धारा-22 का भी खुला उल्लंघन करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ए.एफ.सी.पी.ए. को असंवैधानिक घोषित करने का काम केवल उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है और उसके सामने इससे सम्बन्धित कई मामले बरसों से लम्बित पड़े हैं, लेकिन उन पर कोई निर्णय नहीं हो रहा है।

और अब यदि सरकार इस काले कानून को पूरे देश में लागू करने के लिए हर तरह की प्रक्रियागत तैयारी कर लेना चाहती है तो इसका मतलब यह है कि शासक वर्ग आने वाले दिनों में व्यवस्था के लिए गम्भीर संकट देख रहा है और उससे निपटने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। वह लोकतन्त्र का लबादा उतारकर तानाशाही का जिरहबख्तर पहनने के लिए भी तैयार है और समूची जनता के ख़िलाफ़ एक ख़ूनी युद्ध छेड़ देने के लिए भी तैयार है। वैसे आज की ही स्थिति यह है कि देश के कुल सशस्त्र बलों का पचास प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा ''आन्तरिक सुरक्षा'' के कामों में देश के भीतर ही लगा हुआ है। यानी शासक वर्ग को ख़तरा सीमा पार से नहीं, बल्कि देश के भीतर से है, अपनी जनता से है, उस जनता से, जो साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट से तबाह है, महंगाई-बेरोज़गारी ने जिसका जीना मुहाल कर रखा है, नेताशाही-नौकरशाही के भ्रष्टाचार से जो आजिज आ चुकी है, जिसे कहीं से भी न्याय नहीं मिल रहा है और इंसाफ और हक के लिए आवाज़ उठाने पर जिसे बस लाठी-गोली-जेल ही मिलती है।

वैसे देखा जाये तो यह शासक वर्गों की भयातुरता ही है कि वे ज़रूरत पड़ने पर पूरे देश में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून लागू करने का विकल्प पहले से ही आरक्षित कर लेना चाहते हैं, हालाँकि यह कानून देश के जिन क्षेत्रों में लागू है वहाँ के उल्टे नतीजे उनके सामने हैं। शासक वर्गों के पास आन्तरिक आपातकाल लागू करने का संवैधानिक प्रावधान भी मौजूद है। लेकिन सच पूछा जाये तो इसकी भी कोई ज़रूरत नहीं है। सरकारें पहले भी समय-समय पर रासुका, टाडा, पोटा जैसे काले कानून बनाती रही हैं, जिनके अमल में आने का मतलब ही होता है नागरिकों के सभी जनवादी अधिकारों का पूर्ण अपहरण। इनके अतिरिक्त 'डिस्‍टर्ब्‍ड एरियाज़ (स्पेशल कोट्स) एक्ट, 1976 आदि, और राज्यों के स्तर पर 'छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम' और 'मकोका' आदि जैसे बहुतेरे निरंकुश काले कानून पहले से ही मौजूद हैं।

इससे भी अहम बात यह है कि जनान्दोलनों के दमन के लिए सशस्त्र बलों को वैसे भी किसी कानून की ज़रूरत नहीं पड़ती रही है। हिरासत में यन्त्रणा और हत्या तथा फर्ज़ी मुठभेड़ों के दोषी पुलिस अधिकारियों को अपवादस्वरूप ही कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ता है। लाठीचार्ज से लेकर गोलीकाण्ड तक के दोषी अधिकारियों को कभी कोई सज़ा नहीं होती। जिला से लेकर थाने के स्तर तक पुलिस और अन्य अधिकारियों के लिए कानून का कोई मतलब नहीं होता।

दरअसल, देश के किसी भी हिस्से में सेना को विशेष अधिकार सौंपना सत्ताधिकारियों के भय और बौखलाहट का सूचक है, अन्यथा जनसंघर्षों और सशस्त्र विद्रोहों तक का सामना करने के लिए बी.एस.एफ., सी.आर.पी.एफ., आई.टी.बी.पी., एस.पी.जी., एन.एस.जी., और राज्यों के सशस्त्र पुलिस बलों की विशेष प्रशिक्षित बटालियनें पूरी तरह से तैयार हैं। कोबरा बटालियन की तरह कई राज्यों ने और आई.टी.बी.पी. आदि ने छापामार युद्ध विरोधी और सशस्त्र विद्रोह विरोधी प्रशिक्षण देकर जो विशेष दस्ते तैयार किये हैं उनके प्रशिक्षण और आधुनिक हथियारों का स्तर सेना के समकक्ष है।

जनता के विरुद्ध शासक वर्ग ख़ूनी युद्ध की शुरुआत कर चुका है!

'बिगुल' के पिछले अंक में हमने यह लिखा था कि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, प. बंगाल, झारखण्ड और बिहार की परस्पर लगी सीमाओं से जुड़े एक विस्तृत क्षेत्र में भा.क.पा. (माओवादी) की सशस्त्र कार्रवाइयों को कुचलने के लिए विशेष प्रशिक्षित सशस्त्र बलों की उतनी बड़ी लामबन्दी हो चुकी है, जैसी, पूर्वोत्तर भारत और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, शेष भारत में पिछले साठ वर्षों में कभी नहीं हुई थी। एक ख़ूनी अभियान शुरू करने से पहले सरकार हरियाणा, महाराष्ट्र, अरुणाचल के विधानसभा चुनावों के निपटने का इन्तज़ार कर रही थी।

चुनाव अब समाप्त हो चुके हैं और 'ऑपरेशन रेड ब्लड' नाम से अभियान की शुरुआत हो चुकी है। मध्‍य भारत के उपरोक्त राज्यों के ''नक्सल-प्रभावित'' क्षेत्रों में, पहले से मौजूद अर्द्धसैनिक बलों और सशस्त्र पुलिस के अतिरिक्त भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आई.टी.बी.पी.), सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.), केन्द्रीय आरक्षित पुलिस बल (सी.आर.पी.एफ.) आदि के एक लाख विशेष प्रशिक्षित जवानों को इस मुहिम में लगाया गया है। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत से अर्द्धसैनिक बलों को हटाकर इन क्षेत्रों में लाया जा रहा है। जल्दी ही 'राष्ट्रीय राइफल्स' की टुकड़ियों को भी इस अभियान में शामिल किया जायेगा, जिन्हें सेना की देखरेख में 'काउण्टर इन्सर्जेंसी' की ट्रेनिंग दी गयी है। इस अभियान के लिए अतिउन्नत हथियारों, बख्तरबन्द गाड़ियों आदि की बड़े पैमाने पर ख़रीदारी हुई है।

'ऑपरेशन रेड ब्लड' को कई चरणों में बाँटा गया है। पहले चरण की शुरुआत महाराष्ट्र के गढ़चिरौली क्षेत्र से हुई है। अगले चरण छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड और फिर पश्चिम बंगाल, आन्‍ध्रप्रदेश पर केन्द्रित होंगे। वायुसेना के 17 ए.आई. हेलीकॉप्टर पहले चरण में ज़मीनी अभियान की मदद करेंगे। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इसके पहले महीनों से किस तरह ''माओवादी ख़तरे के चलते आन्तरिक सुरक्षा माहौल के बिगड़ने'' और ''आन्तरिक सुरक्षा के लिए माओवाद सबसे बड़ा ख़तरा'' होने का उन्मादी प्रचार किया गया। मनमोहन सिंह और चिदम्बरम ने दर्जनों ऐसे बयान दिये। टी.वी. चैनलों और अख़बारों ने माओवादियों की ''ख़ूनी आतंकवादी'' हरकतों के बारे में लगातार विशेष रिपोर्टें प्रसारित कीं और छापीं। स्वयंभू रक्षा-विशेषज्ञों ने साक्षात्कार दिये और बहसों में भाग लिया। और ''उचित निर्णायक कार्रवाई'' के लिए जनमत की सहमति ''निर्मित'' कर ली गयी। लेकिन फिर भी यह प्रश्न हर विवेकशील नागरिक के दिलो-दिमाग़ को मथता है कि आखिर यह स्थिति क्यों पैदा हुई कि राज्यसत्ता को अपने ही देश की सर्वाधिक ग़रीब, पिछड़ी और उत्पीड़ित आबादी के विरुद्ध, एक युद्ध छेड़ना पड़ रहा है?

भा.क.पा. (माओवादी) के सघन प्रभाव का इलाका देश का सबसे पिछड़ा और ग़रीब इलाका है, जहाँ मुख्यत: आदिवासी आबादी रहती है। आबादी के इस सबसे पिछड़े और उत्पीड़ित-वंचित हिस्से में भा.क.पा. (माओवादी) के सशस्त्र विद्रोह की लाइन के व्यापक प्रभाव का सर्वोपरि कारण यह रहा है कि स्वतन्त्र भारत में पूँजीवादी विकास की लहर से ये इलाके पूर्वोत्तर भारत की राष्ट्रीयताओं के इलाकों के मुकाबले भी अधिक अछूते रहे हैं। नागरिक प्रशासन और सार्वजनिक सुविधाएँ यहाँ बरायनाम ही रही हैं। ठेकेदारों, भूस्वामियों और अफसरों का उत्पीड़न यहाँ वैसा ही रहा है, जैसा अंग्रेजों के ज़माने में था। मध्‍य और पूर्वी भारत का यह इलाका खनिज सम्पदा की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध है। गत शताब्दी के साठ और सत्तर के दशक में इस सम्पदा का दोहन करने के लिए इन क्षेत्रों में पब्लिक सेक्टर के कुछ कारख़ाने लगे। इससे यहाँ के मूल निवासियों का एक हिस्सा विस्थापित हुआ। साथ ही, नये बसे औद्योगिक नगरों के जीवन और आधुनिक सार्वजनिक सुविधाओं से वंचित रहने का असन्तोष और अलगाव की भावना उनके भीतर गहराती गयी। विगत लगभग दो दशकों के दौरान स्थिति में कुछ और व्यापक और बुनियादी बदलाव आये हैं। इस इलाके की अकूत अनछुई खनिज सम्पदा की ओर, देशी और विदेशी पूँजी का ध्‍यान तेजी से आकृष्ट हुआ है। पास्को, टाटा, जिन्दल, मित्तल सभी टूट पड़े हैं। समय उदारीकरण-निजीकरण का है। सरकार भी यह सारी सम्पदा लूटने के लिए खदानें और कारख़ाने लगाने के लिए ज़मीन उन्हें देने के लिए तैयार बैठी है। समस्या केवल एक है और वह यह है कि इसके लिए करोड़ों आदिवासी जन समुदाय को उनकी जगह-जमीन से उजाड़ना होगा।

पूँजीवादी विकास वाली खेती के इलाकों से, पूँजी की मार से उजड़ने वाले किसान जितनी आसानी से शहरों में आकर औद्योगिक सर्वहारा बन जाते हैं, आदिवासी आबादी के लिए यह इतना सुगम नहीं होता। वे अपनी जगहों से विस्थापित भी होते हैं तो भवन-निर्माण, ईंट-भट्ठे जैसे कामों में निकृष्टतम कोटि के उजरती गुलाम ही बन पाते हैं। सांस्कृतिक-सामाजिक ढाँचे की दृष्टि से भी, अचानक अपनी जड़ों से विस्थापित होकर नये परिवेश में व्यवस्थित होने के लिए उनकी चेतना तैयार नहीं होती। इसलिए, यह आबादी साझा सामाजिक सम्पदा, जंगल, चरागाहों, जलस्रोतों और खेतीबाड़ी से बलात विच्छिन्न किये जाने की कोशिशों का जीजान से विरोध कर रही है। अभी एक महीने पहले ही अर्द्धसैनिक बलों, पुलिस बलों और गुप्तचर एजेंसियों के शीर्ष अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था कि आदिवासी आबादी के इलाकों में व्यापक प्रतिरोध के कारण खनिज सम्पदा का दोहन नहीं हो पा रहा है और विदेशी निवेश पर गम्भीर असर पड़ रहा है।

संविधान की पाँचवीं अनुसूची आदिवासियों को उनकी परम्परागत ज़मीन और जंगलों पर पूरे अधिकार की गारण्टी देती है और निजी कम्पनियों को उनकी ज़मीन पर खदानें खोदने से रोकती है। अब मनमोहन सरकार ने इसका आसान रास्ता निकाल लिया है। माओवादियों से लड़ने के नाम पर, वह पूरे इलाके की आदिवासी आबादी को ही उजाड़कर राहत शिविरों में बसा देना चाहती है, ताकि उनके जंगल और ज़मीन को देशी बड़े पूँजीपति घरानों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सुपुर्द किया जा सके। नियमगिरि में बहुराष्ट्रीय कम्पनी वेदान्त को, जगसिंहपुरा में पास्को को और कलिंगनगर में टाटा को खदान और कारख़ाने के लिए ज़मीन देने के लिए यही किया गया। लाखों आदिवासी परिवारों को उजाड़ दिया गया और उन्हें जीने का कोई विकल्प नहीं दिया गया। प्रश्न यहाँ माओवादियों या आदिवासियों के सशस्त्र प्रतिरोध को कुचलने मात्र का ही नहीं है। देश में जहाँ भी किसी सेज़ या औद्योगिक पार्क की स्थापना के लिए या किसी एक्सप्रेस हाईवे के निर्माण के लिए लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ा गया, वहाँ विस्थापितों के शान्तिपूर्ण आन्दोलनों-संघर्षों को भी सत्ता ने उतनी ही बेरहमी से बलपूर्वक कुचला है।

प्रश्न यहाँ निरपेक्ष रूप से औद्योगिक विकास का विरोध करने का नहीं है। लेकिन कारख़ाना लगने से विस्थापित लोगों को जीने के वैकल्पिक साधन और आत्मिक विकास का सामाजिक परिवेश मुहैया कराना सत्ता की ज़िम्मेदारी है। दूसरी बात, पर्यावरण-सन्तुलन को दरकिनार करके औद्योगिक विकास की बात सोचना वस्तुत: विनाशकारी होगा। लेकिन उत्पादन जब तक मुनाफे के लिए होगा, तब तक ऐसा ही होता रहेगा। इसलिए मौजूदा जन-प्रतिरोध भी व्यापक अर्थों में पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी संघर्ष ही है, विकास के वैकल्पिक मार्ग - समाजवादी मार्ग के लिए ही संघर्ष है, भले ही इसकी दिशा स्पष्ट न हो।

सिर चढ़कर बोल पड़ा सच्चाई का भूत!

यह सच है कि सच्चाई का भूत कभी-कभी हुकूमती जमातों के सिर पर भी चढ़कर बोलने लगता है। 31 अक्टूबर '09 के हिन्दुस्तान टाइम्स (दिल्ली संस्करण, पृ. 10) में कोने में प्रकाशित एक छोटे से समाचार के अनुसार, भूमि सुधार विषयक एक पन्द्रह सदस्यीय सरकारी कमेटी (कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एण्ड अनफिनिश्ड टास्क ऑफ लैण्ड रिफॉर्म) ने छत्तीसगढ़ के लौह अयस्क समृद्ध जिलों - बस्तर, दन्तेवाड़ा और बीजापुर में औद्योगीकरण अभियान को कोलम्बस के बाद मूल निवासियों की ज़मीन हड़पने की सबसे बड़ी घटना की संज्ञा दी है।

कमेटी के अनुसार, ''20,000 करोड़ रुपये के कुल निवेश से इस्पात और बिजली के कारख़ाने लगाने के लिए अब तक 3,50,000 आदिवासियों को उजाड़ा जा चुका है। जमीन हड़प का यह महाअभियान एक खुले घोषित युद्ध के समान था। इस नाटक की स्क्रिप्ट टाटा और एस्सार ग्रुप ने लिखी थी, जो उन सात गाँवों और निकटवर्ती क्षेत्रों को खाली कराना चाहते थे, जो भारत में उपलब्ध लौह अयस्क की खुदाई की दृष्टि से शायद सबसे अधिक समृद्ध हैं।''

इस कमेटी का गठन जनवरी 2008 में हुआ था और इसने अपनी रिपोर्ट हाल ही में ग्रामीण विकास मन्त्री सी.पी. जोशी को सौंपी है, जिन्होंने इसे प्रधानमन्त्री की अध्‍यक्षता वाली राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद को भेज दिया है। सलवा जुडुम के बारे में अब तक कई जनवादी अधिकार संगठनों की रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं। सभी रिपोर्टों में यह कहा गया है कि सलवा जुडुम आदिवासियों का माओवाद-विरोधी स्वत:स्फूर्त जनान्दोलन नहीं है, बल्कि राज्य-प्रायोजित एक आतंकवादी मुहिम है जिसके निशाने पर माओवादियों से अधिक वह आम आदिवासी है, जिसे बलात राहत शिविरों में बाड़ेबन्दी करके रखा गया है। अब इस सरकारी कमेटी ने सच्चाई के एक और पहलू को उद्धाटित किया है। इस कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, सलवा जुडुम से सबसे अधिक लाभ टाटा और एस्सार जैसे घरानों को है और वही उसे सर्वाधिक प्रोत्साहन दे रहे हैं। इन घरानों ने सलवा जुडुम की जमकर आर्थिक मदद भी की है। दूसरे नम्बर पर, सलवा जुडुम के साथ उन ठेकेदारों, व्यापारियों, छोटे उद्योगपतियों के हित जुड़े हैं, जिनका धन्धा उद्योगों के लगने के बाद चमक जायेगा। वे भी इस पर दाँव लगाये हुए हैं और इसकी सफलता का इन्तज़ार कर रहे हैं। कमेटी ने स्वीकार किया है कि इन ज़िलों में आज गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है।

आश्चर्य नहीं कि अपनी अमेरिका-यात्रा से लौटने के बाद गृहमन्त्री चिदम्बरम ने अपने एक बयान में कहा था कि आदिवासी क्षेत्रों में सैनिक कार्रवाई का उद्देश्य है, ''जीतना, कब्ज़ा बनाये रखना और विकास करना।'' यह जुमला उन्होंने अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी जनरल के वक्तव्य से सीधे उधार ले लिया था। अमेरिकी जनरल ने यह बात अफगानिस्तान के बारे में कही थी। चिदम्बरम यह बात अपने ही देश के नागरिकों के बारे में कह रहे हैं और बिल्कुल सच्ची-सच्ची बोल रहे हैं। तेल के लिए अमेरिका ने इराक में महाविनाश रचा। तेल की वैश्विक राजनीति के चलते ही वह अफगानिस्तान को अपना सामरिक चेकपोस्ट बनाये रखना चाहता है। भारत का पूँजीपति वर्ग अपने और साम्राज्यवादियों की हितपूर्ति के लिए, आज देश के भीतर इराक और अफगानिस्तान जैसा महाविनाश रचने के लिए कमर कस चुका है। खनिज सम्पदा के दोहन के लिए उसने वस्तुत: देश की जनता के ख़िलाफ युद्ध छेड़ दिया है। लेकिन उसे एक बात नहीं भूलनी चाहिए। अमेरिका इराक में वैसे ही फँस चुका है जैसे दलदल में बूढ़ा हाथी। और अफगानिस्तान के बारे में अमेरिका और नाटो के शीर्ष सैन्य अधिकारियों का मानना है कि यह युद्ध जीतना नामुमकिन है। अपने देश की जनता के ख़िलाफ छेड़े गये युद्ध में भारतीय शासक वर्ग की भी यही स्थिति हो सकती है। चिदम्बरम ने अफगानिस्तान से जो रूपक लिया है, वह अपनी परिणति तक भी लागू हो सकता है।

माओवाद बहाना है, जनता ही निशाना है

इसी वजह से हम पहले से ही, और बार-बार इस बात पर बल देते रहे हैं कि ''माओवाद तो बहाना है जनता ही निशाना है।'' वैसे भी सेना या अर्द्धसैनिक बलों के पास ऐसा कोई भी उपाय नहीं है कि वे स्थानीय जनता को हमले का निशाना बनाये बग़ैर माओवादियों से निपट सकें। पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में सशस्त्र ग्रुपों से निपटने के दौरान सेना का मुख्य कहर जनता पर ही बरपा होता रहा है। सशस्त्र ग्रुप छापामार कार्रवाई के बाद दुर्गम जंगल-पर्वतों में और जनता के बीच बिखर जाते हैं। बौखलायी सेना फिर जनता को ही निशाना बनाती है और ज्यादा से ज्यादा अलग-थलग पड़ती जाती है। अन्तरराष्ट्रीय अनुभव भी यही बताते हैं।

पूरे देश में सर्वहारा क्रान्ति की दृष्टि से भा.क.पा. (माओवादी) की ''वाम'' दुस्साहसवादी रणनीति का जनदिशा का हामी कोई मार्क्‍सवादी- लेनिनवादी निश्चय ही समर्थन नहीं कर सकता। देश की व्यापक मेहनतकश आबादी - उद्योगों के उन्नत चेतना वाले सर्वहाराओं और विकसित खेती वाले इलाकों के ग्रामीण सर्वहाराओं, शहरी-ग्रामीण अर्द्धसर्वहाराओं और मध्‍यवर्ग को जागृत और संगठित किये बिना, कुछ पिछड़े इलाकों की पिछड़ी चेतना वाली आबादी को उसके अस्तित्व के सवाल पर जीवन-मृत्यु के संघर्ष के लिए संगठित किया जा सकता है, पर इससे देशव्यापी क्रान्ति तक पहुँचना सम्भव नहीं हो सकता। मात्र कुछ पिछड़े इलाकों में संघर्ष को छापामार युद्ध की मंज़िल तक पहुँचा देना भी ''वामपन्थी'' उग्रवाद का ही एक रूप है (साथ ही, भारत जैसे पूँजीवादी देश में जनवादी क्रान्ति की सोच भी ग़लत है)। हम राजनीतिक हत्याओं और आम लोगों को प्रभावित करने वाली आतंकी कार्रवाइयों का भी कतई समर्थन नहीं कर सकते। लेकिन इस सच्चाई से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड से लेकर प. बंगाल के जंगलमहल इलाके तक माओवादी कैडरों ने न केवल वहाँ की उत्पीड़ित-वंचित आबादी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी है और उनकी आकांक्षाओं को स्वर दिया है, बल्कि आधी सदी से भी अधिक समय से उपेक्षित इस इलाके में जनशक्ति को लामबन्द करके महत्वपूर्ण रचनात्मक काम भी किये हैं। उन्होंने स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र, सड़क, पुल और बाँध तक बनाये हैं। जहाँ 62 साल में सरकारी अमले कभी नहीं पहुँचे, वहाँ तक उन्होंने पहुँच बनायी है। अत्याचारी ठेकेदारों, भूस्वामियों को इन इलाकों से भागना पड़ा है। इसके चलते स्थानीय आम जनता में भा.क.पा. (माओवादी) का ज़बर्दस्त समर्थन आधार तैयार हुआ है। उस आधार को सैनिक कार्रवाई के द्वारा तोड़ा नहीं जा सकता। उल्टे जितना दमन होगा, प्रतिरोध उतना ही मज़बूत होगा।

और फिर सबसे बुनियादी बात वह है, जिसकी ओर लेखिका अरुन्धति राय ने भी अपने एक साक्षात्कार में इंगित किया था। उन्होंने कहा था कि जब प्रतिरोध के सारे लोकतान्त्रिक विकल्पों को सत्ता छीन लेगी तो लोगों के सामने हथियार उठाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता। एक हद तक यह बात छत्तीसगढ़, झारखण्ड, जंगलमहल आदि के संघर्षों पर भी लागू होती है। सलवा जुडुम के बाद अब जिस पैमाने पर सैनिक कार्रवाई की योजना बनायी जा रही है, वह लोगों को विवश कर देगी कि वे हथियार उठाने का विकल्प चुनें। दूसरी बात जो अरुन्धति राय ने कही, वह भी उचित है। उन्होंने कहा कि उस आदमी के बारे में सोचिये, जिसकी बहन या पत्नी के साथ बलात्कार हुआ हो, बच्चे को मार दिया गया हो, परिवार को उजाड़ दिया गया हो। वह व्यावहारिकता के प्रश्न पर बिना अधिक सोचे हथियार उठाने को तैयार हो जायेगा।

इसीलिए, हमारी यह दृढ़ धारणा है कि राजकीय आतंकवाद ही सबसे बड़ा आतंकवाद होता है और हर प्रकार के आतंकवाद का मूल कारक होता है। आज भारतीय शासकवर्ग के निशाने पर केवल माओवादी कहलाने वाली राजनीतिक धारा ही नहीं है, बल्कि उसके बहाने देश के खनिज-समृद्ध इलाकों की आबादी को उजाड़कर उसके जंगल-ज़मीन को देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपने के लिए उन इलाकों की समूची जनता के ख़िलाफ एक ख़ूनी युद्ध छेड़ा जा रहा है। इस युद्ध में शासक वर्ग कभी नहीं जीत सकता। आतंकवाद-विरोधी विशेषज्ञ माने जाने वाले पूर्व पुलिस अधिकारी के.पी.एस. गिल का भी मानना है कि सैनिक कार्रवाई करने पर सरकार छत्तीसगढ़ या अन्य ऐसे क्षेत्रों में वैसे ही फँस जायेगी जैसे अमेरिकी अफगानिस्तान में फँस गये हैं।

और बात सिर्फ छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पं. बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों की ही नहीं है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ व्यापक मजदूर आबादी को उनके रहे-सहे अधिकारों से भी वंचित करके जिस तरह निचोड़ रही हैं, महँगाई और बेरोज़गारी जिस तरह से आम लोगों का जीना दूभर कर रही है, धनी-ग़रीब की खाई जितने विकराल एवं कुरूप शक्ल में बढ़ रही है और लोकतान्त्रिक दायरे में प्रतिरोध का स्पेस जिस तरह सिकुड़ता जा रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पूरा भारतीय समाज एक ज्वालामुखी के दहाने की ओर सरकता जा रहा है। शासक वर्ग इस स्थिति से चिन्तित और भयभीत है। उसके सामने अन्तत: एक ही विकल्प बचेगा - नग्न-निरंकुश दमनतन्त्र का विकल्प। और वह इस तैयारी में भी लगा है। उसकी समस्या यह है कि देश के एक छोटे-से हिस्से में तो जनता के विरुद्ध ख़ूनी युद्ध चलाया जा सकता है, लेकिन पूरे देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी जब सड़कों पर होगी तो उसके विरुद्ध सेना उतारना आसान विकल्प नहीं होगा। यह भविष्य दूर हो सकता है, लेकिन उसकी कल्पना से भी शासक वर्ग काँप उठता है।

असल बात यह है कि देश की इस दशा-दिशा को सर्वहारा क्रान्तियों की उन हरावल ताकतों को सही ढंग से समझना होगा जो जनदिशा को अमल में लाने की हामी हैं। स्थितियों को, और उनके विकास की दिशा को सही-सटीक तरीके से समझकर ही सामने खड़ी चुनौती का ठीक तरह से सामना किया जा सकता है और ठीक तरीके से भविष्य का रास्ता चुना जा सकता है।

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13.11.09

बिगुल का नया अंक



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2.11.09

गोरखपुर मजदूर आन्दोलन ने नयी राजनीतिक हलचल पैदा की

गोरखपुर श्रमिक अधिकार समर्थक समिति की ओर से ‘श्रमिक अधिकार और नागरिक समाज का दायित्व’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में वक्ताओं ने कहा कि बरगदवां के मजदूर आन्दोलन ने गोरखपुर में काफी समय से व्याप्त अराजनीतिक माहौल को तोड़कर एक नयी राजनीतिक हलचल पैदा की है। वक्ताओं का मानना था कि इस आन्दोलन ने मज़दूरों के मुद्दों को पुरज़ोर ढंग से समाज के सामने रखने का बड़ा काम किया है। अधिकांश वक्ताओं का कहना था कि मुख्यधारा के मीडिया और मध्यवर्गीय शिक्षित आबादी की नज़रों से मज़दूरों के हालात और उनकी समस्याएँ प्रायः छिपी ही रहती हैं। लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान इस आन्दोलन ने लोगों को इन सवालों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। गोष्ठी में शहर के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, ट्रेडयूनियन कर्मियों, वामपन्थी संगठनों और नागरिक अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। वक्ताओं ने एक स्वर से शासन और प्रशासन से श्रम क़ानून लागू कराने की माँग की तथा मजदूर आन्दोलन के खिलाफ उद्योगपतियों की ओर से किये जा रहे दुष्प्रचार की कड़ी निन्दा की।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए पीयूसीएल गोरखपुर के संयोजक फतेहबहादुर सिंह ने कहा कि इस आन्दोलन से पैदा हुई राजनीतिक हलचल को आगे बढ़ाना होगा। गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डा. अनन्त मिश्र ने कहा कि मज़दूरों के उत्पीड़न के विरुद्ध समाज के जागरूक नागरिकों को एकजुट होना होगा। राजनीति शास्त्र विभाग के डा. रजनीकान्त पाण्डेय ने कहा कि आज सत्ता खुलकर मज़दूरों और आम आदमी के खिलाफ खड़ी है। इसके विरुद्ध पूरे समाज को खड़ा होना होगा। उन्होंने कहा कि गोरखपुर की जनता का बहुमत मज़दूर आन्दोलन के साथ है।
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डा. अनिल राय ने मज़दूर आन्दोलनों के सम्बन्ध में मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये। डा. जर्नादन ने मज़दूरों को उनका हक दिलाने के लिए नागरिक समाज के लोगों से आगे आने की अपील की। डा. असीम सत्यदेव ने कहा कि जब मज़दूर अधिकार सुरक्षित रहेंगे तभी नागरिक अधिकारों की भी रक्षा हो सकेगी।
मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स एसोसिएशन के सचिव राकेश श्रीवास्तव ने कहा कि श्रम क़ानूनों को लागू कराना प्रशासन की जिम्मेदारी है। रेल मज़दूरों के नेता मुक्तेश्वर राय और राम सिंह ने बरगदवां के मज़दूर आन्दोलन के प्रति एकजुटता ज़ाहिर करते हुए कहा कि श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए मिलकर लड़ना होगा। मानवाधिकार कार्यकर्ता मनोज कुमार सिंह ने श्रमिक अधिकारों पर हो रहे हमले को मानवाधिकारों पर हमला बताया। चतुरानन ओझा ने कहा कि जन प्रतिनिधियों का श्रमिक अधिकारों के खिलाफ खड़ा होना गम्भीर मामला है। कथाकार मदनमोहन, चक्रपाणि, भाकपा के ओमप्रकाश चन्द, माकपा के जावेद, भाकपा (माले) के हरिद्वार प्रसाद, अयोध्या साहनी आदि ने भी अपने विचार रखे। विषय प्रवर्तन डा. रामू दुबे ने किया और संचालन श्रमिक अधिकार समर्थक समिति के संयोजक यशवन्त सिंह ने किया।

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30.10.09

थैली की ताकत से सच्चाई को ढँकने की नाकाम कोशिश

बौखलाये पूँजीपतियों का प्रचार युद्ध : गोयबेल्स अभी ज़िन्दा है!

थैली की ताकत से सच्चाई को ढँकने की नाकाम कोशिश
औद्योगिक अशान्ति के लिए ज़िम्मेदार कौन?

हक और इंसाफ का झण्डा ऊपर उठा रहेगा!

मेहनतकश का बढ़ा कदम अब पीछे नहीं हटेगा!!

इंसाफपसन्द नागरिक भाइयो-बहनो और मेहनतकश साथियो,

पिछले कई महीनों से आप हम मजलूम मेहनतकशों की हक और इंसाफ की लड़ाई के गवाह रहे हैं और दिल से हमारा साथ दिया है। हमें डराने-धमकाने, दबाने-कुचलने के लिए फैक्ट्री मालिकों ने क्या कुछ नहीं किया! ज़मीन-आसमान एक कर दिया उन्होंने। मज़दूरों पर और उनके अगुआ नेताओं पर अपने गुण्डों से हमले करवाये। प्रशासन के मुँह और जेबों में नोट ठूँसकर जबरन वसूली, डकैती आदि के कई मुकदमे लगवाये। स्वयं ए.डी.एम.(सिटी) और सिटी मजिस्ट्रेट ने अपने दफ्तर में बुलवाकर हमारे नेताओं की जानलेवा पिटाई की। इसके पहले हमारे नेताओं में से कुछ को ज़िलाबदर और कुछ के एनकाउण्टर की साज़िश भी रची गयी थी, लेकिन कुछ भलेमानसों के चलते हमें इस साज़िश की भनक लग गयी और मज़दूरों की चौकसी ने इस साज़िश को नाकाम कर दिया। आप सभी ने इसी दौरान उन चुनावी नेताओं का ''चाल-चेहरा-चरित्र'' और ''ईमान-धरम'' भी देखा, जो पूँजीपतियों के सुर में सुर मिलाते हुए अख़बारी बयानों में ये दावे करते रहे कि गोरखपुर के फैक्ट्री मालिकों से अच्छी तनख्वाह और सुविधाएँ पाने के बावजूद, मज़दूर ''बाहरी तत्‍वों'', ''माओवादियों-नक्सलवादियों'' के बहकावे में आकर आन्दोलन कर रहे हैं! ध्‍यान रहे कि इसी प्रकार के बयान कई बार 'चैम्बर ऑफ कॉमर्स' नामधारी थैलीशाहों के जमावड़े ने भी दिये और ज़िला प्रशासन के अधिकारियों ने भी। हमने हर बार इन झूठे एवं फरेबी प्रचारों का नपा-तुला, मुख्तसर-सा जवाब दिया और बार-बार यह साफ करने की कोशिश की कि हमारी माँगें क्या हैं!

बहरहाल, तमाम दमन-उत्पीड़न और झूठे प्रचारों के बावजूद, यह हक और इंसाफ के पक्ष में उठने वाली व्यापक आम आबादी की संगठित आवाज़ थी, जिसके चलते शासन-प्रशासन को और मालिकान को पीछे कदम खींचने को मजबूर होना पड़ा। हमारे पक्ष में शहर के नागरिकों-बुद्धिजीवियों ने तो आवाज़ उठायी ही, पूरे देश के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार कर्मियों और मज़दूर भाइयों ने भी जमकर हमारा साथ दिया। हमारे समर्थन में एक नागरिक मोर्चा बना, जिसने यहाँ आकर नागरिक सत्याग्रह किया, दिल्ली-लखनऊ में प्रदर्शन हुए और पूरे देश से हज़ारों विरोध-पत्र मायावती सरकार को भेजे गये। गोरखपुर का मज़दूर आन्दोलन एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया और लोगों को लग गया कि आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पूर्वांचल की धरती उदारीकरण-निजीकरण की जनविरोधी-श्रमिक विरोधी नीतियों के ख़िलाफ लड़ने के लिए एक बार फिर जाग रही है।

आपको पता ही है कि व्यापक जनता के 'करो या मरो' के संग्रामी संकल्प के आगे घुटने टेककर पिछले दिनों प्रशासन ने मज़दूर नेताओं को बिना शर्त रिहा कर दिया, कुछ मुकदमे हटा लिये और कुछ को जल्दी ही हटाने का आश्वासन दिया तथा कारख़ानों में श्रम कानूनों पर अमल और मज़दूरों की कानूनसम्मत माँगों को मनवाने का भरोसा दिया। लेकिन अगले दिन से ही फिर धोखाधड़ी का खेल शुरू हो गया। मालिक पवन बथवाल-किशन बथवाल ने फिर सभी मज़दूरों को काम पर लेने और न्यूनतम मज़दूरी जैसी माँगों को मानने में हीला-हवाली शुरू कर दी। फिर मज़दूरों ने तय किया कि बहुत हो चुका, अब उन्हें बथवाल भाइयों के कसाईख़ाने में अपना ख़ून निचोड़वाना ही नहीं है। लेकिन अब ये नये ज़माने के ड्रैकुला (इंसानों का ख़ून पीने वाला शैतान) मज़दूरों की बकाया मज़दूरी का हिसाब-किताब भी नहीं कर रहे हैं। बहरहाल, हम बथवाल बन्‍धुओं से बस इतना ही निवेदन करना चाहते हैं कि हम तो अपने ख़ून-पसीने की कमाई खाने वाले मेहनतकश हैं, पूँजीपतियों को हमारी ज़रूरत है और जब दिहाड़ी ही करनी है तो हम कहीं न कहीं काम पा ही लेंगे। ख़ास बात यह है कि हम अब अपने वाजिब हकों के लिए लड़ना सीख गये हैं। हम जहाँ भी जायेंगे, वहाँ गुलामों की तरह खटने के बजाय संगठित होने का काम जारी रखेंगे। हम अपने भाइयों के बीच एक नये न्याय-युद्ध का सन्देश लेकर जायेंगे। लेकिन बथवाल बन्‍धु, जब भी आप अपने कारख़ाने चलायेंगे और उनमें हमारे ही जैसे मज़दूर भरती होंगे तो गुलामों की तरह चुपचाप खटने के बजाय वे भी हक और इंसाफ की आवाज़ उठायेंगे। बथवाल भाइयों और सभी फैक्ट्री मालिकों से तथा उनके खूँटे से बँधी, घूस का चारा और कमीशन की खली-चूनी खाने वाली नेताशाही-नौकरशाही से हमारा वायदा है -

हर दिल में बग़ावत के शोलों को जला देंगे
हम जंगे-अवामी से कोहराम मचा देंगे।

हम यह घोषणा करते हैं :

मज़दूर हर जुलम का अब तुमसे हिसाब माँगेगा

शोषण का सच जानेगा, हक लेकर ही मानेगा।

झूठ-फरेब, अफवाहबाज़ी, कुत्सा-प्रचार की नयी मुहिम

आने वाले दिनों की सच्चाई को बथवाल बन्धु और उन्हीं की प्रजाति के अन्य जीव-जन्तु भली-भाँति जानते हैं। इसलिए एक बार फिर, खिसियानी बिल्ली उछल-उछलकर खम्भा नोच रही है। तथाकथित 'उद्योग बचाओ समिति' के स्वयंभू संयोजक पवन बथवाल ने थैली के ज़ोर से हमारे खिलाफ एक नया प्रचार-युद्ध छेड़ दिया है - झूठ-फरेब, अफवाहबाज़ी, और कुत्सा-प्रचार की नयी गालबजाऊ मुहिम शुरू हुई है। इसकी शुरुआत स्थानीय अख़बारों में छपे एक विज्ञापन से हुई है, जिसमें हमारे ऊपर कुछ नयी और कुछ पुरानी, तरह-तरह की तोहमतें लगाई गयी हैं। इनमें से कुछ घिनौने आरोपों के लिए हम पवन बथवाल को अदालत में भी घसीट सकते हैं, लेकिन उसके पहले हम इस फरेबी प्रचार की असलियत का खुलासा अवाम की अदालत में करना चाहते हैं।

पहला झूठ - कपटी झूठ : 'उद्योग बचाओ समिति' के स्वयंभू संयोजक ने एक स्थानीय अख़बार में प्रकाशित विज्ञापन में छाती पीट-पीटकर यह दुखड़ा रोया है कि पूर्वांचल के तमाम लघु उद्योगों को बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों से प्रतिस्पर्द्धा और मन्दी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में मज़दूर आन्दोलन ने उनके सामने गम्भीर संकट पैदा कर दिया है। उनके मुताबिक, जब कारख़ाने रहेंगे, तभी श्रमिक और श्रमिक कानून रहेंगे।

इसके जवाब में हम पवन बथवाल और अन्य फैक्ट्री मालिकों से निवेदन करना चाहते हैं कि इन हालात में, बड़े उद्योगों का मुकाबला करने के लिए उन लोगों को भी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का संगठित होकर विरोध करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं के चलते बड़े देशी-विदेशी उद्योगों को विशेष छूट मिली है और मन्दी लाने में भी इन नीतियों का विशेष योग है! लेकिन नहीं, ऐसा करने के बजाय आप लोग तो मज़दूरों का ही पेट काटकर मुनाफाखोरी की प्रतिस्पर्द्धा में बड़ी पूँजी का मुकाबला करना चाहते हैं क्योंकि यही छोटे पूँजीपति की फितरत होती है। पूँजी और तकनोलॉजी में पिछड़ जाने के बाद वह मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर बाज़ार में टिके रहना चाहता है। लेकिन एक मुनाफाखोर के रूप में आपको बचाने के लिए हम मज़दूर अपने बाल-बच्चों का पेट क्यों काटें? इससे क्या आप अपनी अकूत सम्पत्ति में से हमें भी कुछ दे देंगे? महोदय, पूँजी के इस खेल में बड़ी मछली छोटी मछली को खाती रहती है और इसमें आप हमसे पूछकर नहीं शामिल हुए हैं। मुनाफाखोरी की होड़ में आपके टिके रहने के लिए हम अपनी बलि क्यों दें? आपका संकट अपना मुनाफा बनाये रखने का है और हमारा संकट जीने का है। हमसे हमारा श्रम मुफ्त माँगने से तो अच्छा है कि आप गोरखनाथ मन्दिर के बाहर बैठकर भीख माँगिये। जिस दिन आप उजड़कर आम आदमी बन जायेंगे, तब हमारा और आपका हित एक होगा और हम उसके लिए लड़ेंगे। लेकिन असल बात यह है कि आप उजड़ने कतई नहीं जा रहे हैं। आपके पास उद्योगों, होटल, ज़मीन आदि के रूप में देश के विभिन्न शहरों में जो चल-अचल सम्पत्ति है और उसमें (आपके मेयर बनने के पहले से लेकर अब तक) लगातार जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसका हमें भी अन्दाज़ा है और इस शहर की जनता को भी। फिर आप अपने विलाप से किसे प्रभावित करना चाह रहे हैं?

दूसरा झूठ - बेशर्म झूठ : पवन बथवाल का दावा है कि गोरखपुर का कोई भी उद्यमी श्रमिकों से ज़बरदस्ती काम नहीं कराता या आपसी समझौते से कम पैसा नहीं देता। पहली बात तो यह कि यह एक ऐसा सफेद झूठ है जिस पर हिटलर का प्रचार मन्त्री गोयबेल्स भी शरमा जाता। श्रमिकों से यहाँ के सभी पूँजीपति सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी से भी काफी कम पर, उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर काम कराते हैं और मजबूरी का लाभ उठाने से बड़ी ज़बरदस्ती और कोई नहीं होती। जहाँ तक आपसी समझौते की बात है, अब तक मज़दूरों के बिखराव का लाभ उठाकर पूँजीपति उन पर अपनी मनमानी शर्तें थोपते रहे हैं। मज़दूरों ने जैसे ही एकजुट होकर पगार सम्बन्धी समझौते की शर्तें रखीं, वैसे ही मालिकान की असलियत सामने आ गयी। वे गुण्डागर्दी, षड्यन्त्र और अफसरों को नोट खिलाकर मज़दूरों का दमन करवाने लगे और बार-बार समझौता करने और मुकरने का खेल खेलने लगे। बथवाल महोदय, यह तमाशा तो कई महीनों से इस शहर की जनता देख रही है, आप किसकी ऑंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहे हैं? दूसरी अहम बात यह है कि मालिक और मज़दूर के बीच मज़दूरी सम्बन्धी कोई समझौता यदि हो भी जाये और वह श्रम कानूनों द्वारा बतायी गयी न्यूनतम मज़दूरी और अन्य शर्तों के अनुसार न हो, तो वह ग़ैर कानूनी है, जिस पर मज़दूर ही नहीं, कोई तीसरा पक्ष - कोई नागरिक भी सवाल उठा सकता है तथा जनहित याचिका भी दाख़िल कर सकता है। मज़दूर अब तक मालिकों की मनमानी शर्तों को इसलिए मानकर बेबस गुलामों का जीवन जीते रहे हैं, क्योंकि वे संगठित नहीं रहे हैं। अब वे एक साथ एक स्वर में, श्रम कानूनों को लागू करते हुए वेतन और सेवा शर्तों के सवाल पर नया समझौता चाह रहे हैं, तो मालिक गुण्डागर्दी और अंधेरगर्दी पर आमादा हैं। मज़दूर संगठित होकर समझौते की शर्तों पर कोई मोलतोल न कर सकें, इसीलिए गोरखपुर के फैक्ट्री मालिक हर कीमत पर अभी भी उन्हें यूनियन बनाने से रोक रहे हैं और इसके लिए सालाना श्रम विभाग के अफसरों को ऊपर से नीचे तक घूस खिलाने में एक-एक पूँजीपति लाखों-लाख रुपये खर्च करता है।

तीसरा झूठ - झूठ ही झूठ : ''सत्यवादी'' पवन बथवाल ने अपने विज्ञापन में दावा किया है कि आठ घण्टे के अतिरिक्त मज़दूर जो भी ओवरटाइम करता है, उसका उसे अतिरिक्त पैसा मिलता है जिससे उसकी अच्छी-ख़ासी अतिरिक्त आय होती है। अरे भूतपूर्व मेयर साहब, झूठ और छल-प्रपंच की भी कोई हद होती है! पहली बात यह कि आपके कारख़ाने में आठ घण्टे के कार्यदिवस की मज़दूरी भी न्यूनतम मज़दूरी की निर्धारित दर से नहीं मिलती। दूसरी बात यह कि कानूनन ओवरटाइम की दर सामान्य काम के घण्टों से दूनी होनी चाहिए, लेकिन आपके वहाँ सिंगल रेट पर ही ओवरटाइम होता है। अन्य कारख़ानों में भी यही होता है। दूसरे, यह सच्चाई भी तो आपको जनता को बतानी चाहिए कि एक-एक मज़दूर से आप कितने लूम एक साथ चलवाते हैं, और प्रोडक्शन का ऊँचा टारगेट मनमाने ढंग से तय करके किस तरह उनका नस-नस निचोड़ लेते हैं। आपको यह सच्चाई भी बतानी चाहिए कि किस तरह 55 और 60 डिग्री तापमान पर मज़दूर भयंकर हानिकारक गैसीय प्रदूषण के बीच बिना किसी सुरक्षा उपकरण और बिना एक्जास्ट आदि सुविधा के काम करते हैं। आपको यह भी बताना चाहिए कि आप मज़दूरों को जॉब कार्ड आदि नहीं देते, निर्धारित दर से बोनस नहीं देते, ई.एस.आई., पी.एफ. आदि से सम्बन्धित श्रम कानून के किसी प्रावधान को लागू नहीं करते। मज़दूरों का हक मारकर यह सारा बचाया गया पैसा आपकी अंटी में ही जाता है। यह मुनाफा कमाना नहीं है, बल्कि एक साथ लूट-डकैती, ठगी और जेबकतरी सब है। यही नहीं, वास्तविक उत्पादन को छिपाकर बड़े पैमाने पर यहाँ के सभी फैक्ट्री मालिक राजस्व की चोरी करते हैं।

चौथा झूठ - सन्त होने का दिखावा करने वाले लुटेरे का झूठ : पवन बथवाल द्वारा प्रकाशित विज्ञापन, इतनी अंधेरगर्दी के बावजूद यह दावा करता है कि वे मज़दूरों की भलाई की सोचते हैं और औद्योगिक प्रबन्धन उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाता है। आपके ''मानवीय दृष्टिकोण'' की असलियत मज़दूर तो हमेशा से जानते थे, अब शहर के नागरिक भी आन्दोलन के दौरान आपकी ''मानवीयता'' देख चुके हैं। आपका कहना है कि ओवरटाइम से हमारे समय का रचनात्मक उपयोग कारख़ाने के लिए भी होता है और हमारे लिए भी। हम अपने समय का रचनात्मक उपयोग अपने और अपने परिवार के लिए कैसे करेंगे, यह आप हमारे ऊपर छोड़ दीजिए। आप तो सिर्फ यह चाहते हैं कि हम अपने समय का ''रचनात्मक उपयोग'' करके (सिंगल रेट पर ओवरटाइम करते हुए) आपका मुनाफा कैसे बढ़ाएँ!

बथवाल जी, आप जैसे धन्ना सेठ फैक्ट्री में नौकरी देकर मज़दूरों पर कोई अहसान नहीं करते। उनके बिना आप मुनाफा भला कैसे कमा पायेंगे? कारख़ाने में आपने जो पूँजी-निवेश किया है, वह पूँजी हमारे जैसे मज़दूरों को निचोड़कर ही आयी है। यह मज़दूर हैं, जो कारख़ानों में श्रमशक्ति लगाकर उत्पादन करते हैं। आपका अस्तित्व हमारे ऊपर निर्भर है, हमारा आप पर नहीं। हम समाज के लिए उपयोगी चीज़ें पैदा करते हैं। आप अपने लिए मुनाफा निचोड़ते हैं। हमारे ऊपर दया का अश्लील दिखावा कृपया न करें।

पाँचवाँ झूठ - ''लोक कल्याणकारी'' प्रपंची झूठ : आपका विज्ञापन यह भी दावा करता है कि सरकार को गोरखपुर के उद्योगों से एक हज़ार करोड़ रुपये राजस्व के रूप में प्राप्त होता है, जो लोक कल्याणकारी कार्यों पर ख़र्च होता है। यहाँ भी थोड़ा छल-प्रपंच है। पहली बात यह कि लोक कल्याणकारी कार्यों पर जो सरकारी धन ख़र्च होता है, उसका नब्बे प्रतिशत हिस्सा उन परोक्ष (इनडाइरेक्ट) करों से आता है जो आम लोग सीधे सरकार को देते हैं। दूसरी बात यह कि, पूँजीपति सरकार को जो टैक्स देते हैं, वह मज़दूरों से निचोड़े गये मुनाफे का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा होता है। तीसरी बात यह कि, वास्तविक देय राजस्व का 50 से 70 फीसदी हिस्सा पूँजीपति चुरा लेते हैं। इस चोरी के लिए वे अफसरों-नेताओं को जो घूस देते हैं, वह सरकारी कोष में दिये जाने वाले राजस्व से अधिक होता है। इस तरह फैक्ट्री मालिक अपना मुनाफा बढ़ाने के अतिरिक्त जो ''योगदान'' करते हैं, वह समाज में भ्रष्टाचार बढ़ाने का ''योगदान'' है तथा काले धन की समान्तर अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने का ''योगदान'' है। यानी ख़ुद लूटो और ठगों-बटमारों' को भी हिस्सा दो! है न ''लोक कल्याणकारी'' काम!

छठा झूठ - भेड़ों की रखवाली करने वाले भेड़िये का झूठ : पवन बथवाल अपने विज्ञापन में गुहार लगाते हैं कि श्रमिक अशान्ति के चलते पूर्वांचल के उद्योग ठप्प हो जायेंगे और पूर्वांचल का विकास रुक जायेगा। इन जैसे लोग ही यदि पूर्वांचल के विकास के ठेकेदार हैं, तो यह बात कुछ वैसी ही है जैसे भेड़िये ने भेड़ों की रखवाली का ज़िम्मा सम्हाल लिया हो। इलाके का विकास व्यापक मेहनतकश जनता की ख़ुशहाली से होगा, थोड़े से मुनाफाखोरों का मुनाफा बढ़ने तथा भ्रष्ट नेताओं-अफसरों की सम्पत्ति बढ़ने से नहीं। पवन बथवाल जैसे लोग मज़दूरों को निचोड़ते हुए श्रम कानूनों तक का पालन न करें और अपने मुनाफे से ज्यादा से ज्यादा कारख़ाने खोलकर ज्यादा से ज्यादा मज़दूरों को निचोड़ते रहें, तो इससे इलाके का भला क्या भला होगा? इलाके का भला जनता की भलाई से होगा। यह तब होगा जब सरकार सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं का ढाँचा खड़ा करने में सार्वजनिक धन लगाये और इन कार्यों में व्यापक आबादी को रोज़गार मिले। इलाके की भलाई की चिन्ता है तो पूँजीपतियों को कम से कम सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम की मज़दूरी, बोनस, पी.एफ. आदि देना चाहिए ताकि मज़दूर अपने परिवार का पेट भर सकें, दवा-इलाज करा सकें, बच्चों को पढ़ा-लिखा सकें। पवन बथवाल जैसे पूँजीपति यदि मज़दूरों को वाजिब मज़दूरी देंगे तो उजड़ नहीं जायेंगे। मुनाफा तो तब भी होगा, बस अतिलाभ नहीं निचोड़ सकेंगे। बथवाल जैसों को चिन्ता अपनी तिजोरी की है, पर इसे वे इलाके की चिन्ता के रूप में पेश कर रहे हैं। पूँजीपतियों के शब्दकोश में इलाके का एक अर्थ शायद तिजोरी होता हो।

लेकिन, पवन बथवाल सच में उतने समझदार पूँजीपति नहीं हैं, अन्यथा उनके मुँह से सच्चाई ख़ुद ब ख़ुद नहीं निकल पड़ती। अपने विज्ञापन में वह आख़िरी बिन्दु तक आते-आते धीरज खो बैठते हैं और श्रम कानून को ही दुष्चक्र बताने लगते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत के श्रम कानून मज़दूरों को बहुत ही कम अधिकार देते हैं और उदारीकरण-निजीकरण के वर्तमान दौर में उनका अमली तौर पर कोई विशेष मतलब नहीं रह गया है। लेकिन पवन बथवाल और उनके संगी-साथी तो इन रहे-सहे श्रम कानूनों को भी दुष्चक्र मानते हैं। ज़ाहिर है कि वे इस दुष्चक्र से दूर ही रहते हैं। यानी प्रकारान्तर से वे स्वीकार करते हैं कि वे श्रम कानूनों का पालन करने को तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि श्रम कानूनों के दुष्चक्र के कारण ही ठेकेदारी प्रथा बढ़ रही है। लेकिन जनाब, ठेका मज़दूरों के लिए भी न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे आदि के जो कानूनी प्रावधान हैं, आप तो उन्हें भी नहीं मानते। कहने को तो वे यह भी कहते हैं कि विकास के रास्ते में सिर्फ कायदे-कानून की बात करना नकारात्मक होता है। यानी ''विकास'' के लिए उनकी आत्मा इतनी बेकल है कि गैरकानूनी काम करने को भी तैयार हैं। बथवाल जी दरअसल अपनी पूँजी के विकास की बात कर रहे हैं। यही सच है। पूँजीवादी हुकूमत पूँजीवाद को कायम रखने के लिए लूटपाट-शोषण की अनियन्त्रित होड़ और रफ्तार पर कुछ कानूनी नियन्त्रण कायम रखना चाहती है ताकि जनता का लोकतान्त्रिक भरम बना रहे। लेकिन पूँजीपति अपना-अपना मुनाफा बढ़ाने की होड़ में उन कानूनों के भी खुले-छिपे उल्लंघन की कोशिश करते रहते हैं। हम मज़दूर आज तो महज़ मौजूद श्रम-कानूनों पर अमल की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन आगे हम इन श्रम कानूनों के दायरे को भी बढ़ाने की लड़ाई लड़ेंगे। यही नहीं, हमारी अन्तिम लड़ाई तो पूँजीवादी व्यवस्था के ही ख़िलाफ है। पवन बथवाल जी, हम अपनी इस बात को साफ-साफ बता रहे हैं। मज़दूर पूँजीपतियों की तरह अपनी असली नीयत और कारगुज़ारी पर तरह-तरह का पर्दा नहीं डालते।

सातवाँ झूठ - महाझूठ : अपने विज्ञापन में एक बार फिर पवन बथवाल ने हमारे आन्दोलन पर कुछ ''बाहरी तत्‍वों'' की घुसपैठ का, तथा उनके द्वारा प्रतिमाह प्रति मज़दूर 100 रुपये वसूलकर महीने में दो लाख रुपये तक कमा लेने का आरोप लगाया है। इस आरोप पर इस झूठासुर शिरोमणि की नाक अदालत में भी रगड़ी जा सकती है, लेकिन पहले जनता की अदालत है। हम पहले भी ऐसे आरोपों के जवाब दे चुके हैं। हम मज़दूर आन्दोलन के लक्ष्य को आगे बढ़ाने और रोज़मर्रा की कार्रवाइयों के लिए बेशक आपस में चन्दा करते हैं, जो पूर्णत: स्वैच्छिक होता है और जिसका हिसाब-किताब दिन के उजाले की तरह साफ होता है। हमारे कोष का कोई व्यक्तिगत लाभ उठा ही नहीं सकता। हमारे जिन नेताओं को (प्रशान्त, प्रमोद और अन्य युवा कार्यकर्ताओं को) ''बाहरी तत्‍व'' और ''नक्सलवादी-माओवादी'' कहा जाता रहा है, उन साथियों को छात्र-युवा कार्यकर्ता के रूप में इस शहर के लोग बरसों से जानते हैं और इसके पहले भी वे सफाई-कर्मचारियों और अन्य मज़दूरों के हकों की लड़ाई में अहम भूमिका निभा चुके हैं। तीसरे साथी (तपीश मैन्दोला) श्रम मामलों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ पत्रकार होने के साथ ही वर्षों से नोएडा-ग़ाज़ियाबाद में असंगठित मज़दूरों के बीच काम करते रहे हैं और इन दिनों उ.प्र. के तीन ज़िलों में नरेगा मज़दूरों को संगठित कर रहे हैं। जहाँ तक इनके ''बाहरी-भीतरी'' का सवाल है, तो चम्पारण के किसानों के लिए गाँधीजी भी बाहरी थे। मज़दूर आन्दोलन को संगठित करने की शुरुआत हमारे देश में और पूरी दुनिया में उन तथाकथित बाहरी लोगों ने ही की थी जो मज़दूर हितों के लिए समर्पित थे।

पवन बथवाल द्वारा प्रकाशित विज्ञापन कहता है कि गोरखपुर के उद्योगों में सफलता पाने के बाद, ''श्रमिक आन्दोलन के नाम पर काम कर रहा समूह'' अपनी इस सफलता को ब्राण्ड बनाकर चारों तरफ अशान्ति फैलायेगा। बथवाल जी, सच को देखने का आपका नज़रिया और कोण अलग है, पर आप जो कह रहे हैं, उसमें सत्यांश है। आप जिसे ''अशान्ति'' कह रहे हैं, हम उसे 'हक और इंसाफ की लड़ाई' मानते हैं। हम ख़ुद ही आपको बता दें कि हम तो ज्यादा से ज्यादा कारख़ानों और इलाकों के मज़दूर भाइयों को साथ लेकर यह लड़ाई लड़ना चाहते हैं। हम यह भी बता दें कि गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन की आवाज़ पूरे उत्तर प्रदेश के मज़दूरों तक पहुँच चुकी है। पूर्वांचल जाग रहा है। कालान्तर में उदारीकरण-निजीकरण की घोर मज़दूर विरोधी नीतियों के ख़िलाफ पूरे देश के मज़दूरों में आन्दोलन की जो लहर जंगल की आग के समान फैलने वाली है, उसमें उत्तर प्रदेश के मज़दूर भी शामिल होंगे। आपको धन्यवाद, आपके सहयोगी नेताओं-अफसरों को धन्यवाद, कि उन्होंने इस आग में घी डालने का काम किया है।

आठवाँ झूठ - हास्यास्पद झूठ : पवन बथवाल द्वारा प्रायोजित विज्ञापन दावा करता है कि श्रमिक कानूनों की आड़ में पैदा हुए ग़ैरश्रमिक नेताओं के कारण ही गोरखपुर खाद कारख़ाना, सभी चीनी मिलें, कताई मिलें बन्द हो गयीं। यह या तो कोई मूर्ख कह सकता है, या कोई झुट्ठा! इस पर अर्थशास्त्रियों के दर्जनों शोध-अध्‍ययन प्रकाशित हो चुके हैं कि पुरानी तकनोलॉजी और नौकरशाहाना भ्रष्टाचार की तरह किस तरह एफ.सी.आई. के खाद कारख़ानों जैसे पब्लिक सेक्टर के तमाम उद्यम या तो तबाह हो गये, या फिर निजीकरण की राह खोलने के लिए जानबूझकर सरकार ने उन्हें घाटे के दुष्चक्र में धकेल दिया। भारत के चीनी उद्योग और कताई मिलों का संकट भी पुरानी तकनोलॉजी और बड़ी पूँजी के सामने छोटी पूँजी के न टिक पाने की स्वाभाविक पूँजीवादी गति से पैदा हुआ संकट है। इनमें मज़दूर आन्दोलन की कोई भूमिका नहीं रही है। साथ ही, पूँजीपतियों को जब भी कम लाभकारी सेक्टर से पूँजी निकालकर अधिक लाभकारी सेक्टर में लगाना होता है, तो वे कारख़ानों की बन्दी का दोष मज़दूर आन्दोलन पर मढ़कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।

इस प्रश्न पर, और न केवल इसी प्रश्न पर, बल्कि सारे मुद्दों पर हम पवन बथवाल की 'उद्योग बचाओ समिति' को किसी सार्वजनिक स्थल पर जनसभा आयोजित करके खुली बहस की चुनौती देते हैं।

भाइयो, बहनो, साथियो,

हम अपने न्याय-युद्ध में दिलोजान से साथ देने के लिए इस शहर की आम जनता को दिल से धन्यवाद देते हैं, उसका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। पवन बथवाल ने जब श्रम कानूनों को लागू नहीं ही किया (पूरे प्रशासन को उसने ख़रीद लिया है) तो हमने भी उसके कारख़ानों में न जाने का निश्चय किया। हम मेहनतकश हैं। कहीं भी जाकर मेहनत की रोटी खा लेंगे। पर अब हम जहाँ भी जायेंगे, हक और इंसाफ के लिए अपने भाइयों को संगठित करेंगे। आगे पवन बथवाल अपनी फैक्ट्रियों में हमारे ही जैसे जिन मज़दूरों को लगायेंगे, वे भी अब गुलामों की ज़िन्दगी नहीं बितायेंगे, बल्कि अपने हक के लिए लड़ेंगे। हम भी देखेंगे कि फैक्ट्री मालिक थैली के ज़ोर से, चन्दा चाटू नेताओं और घूसखाऊ अफसरों को ख़रीदकर मेहनतकशों की आवाज़ को कब तक दबाते हैं और कैसे दबाते हैं।

मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद!

सर्दियाँ उनकी हैं, बसन्त हमारा होगा!!

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा

उद्योगपति पवन बथवाल की ओर से गोरखपुर के अखबारों में प्रकाशित विज्ञापन


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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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