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14.11.09

एक युद्ध जनता के विरुद्ध : पूरे देश में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून लागू करने की तैयारी

दबे पाँव दहलीज़ तक आ पहुँचा है अघोषित आपातकाल!

उसकी आहट पहचानो, ख़ूनी पंजों के निशानों की शिनाख्त करो!


सम्पादक मण्डल

अभी 'बिगुल' के पिछले ही अंक में प्रकाशित अग्रलेख में हमने यह चेतावनी दी थी कि ''वामपन्थी'' उग्रवाद से निपटने के नाम पर भारतीय शासक वर्ग और उसकी राज्यसत्ता आम जनता के ख़िलाफ एक खूनी युद्ध की तैयारी में लग चुकी है। हाल की घटनाओं ने इस तथ्य की पूरी तरह से पुष्टि कर दी है।

15 अक्टूबर 2009 के 'हिन्दू' अखबार में श्रीनगर से प्रकाशित शुजात बुखारी की रिपोर्ट के मुताबिक, सामाजिक और अवरचनागत मामलों पर वहाँ आयोजित अखिल भारतीय सम्पादक सम्मेलन में गृहमन्त्री चिदम्बरम ने कहा कि सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून में संशोधन का प्रस्ताव जल्दी ही मन्त्रिमण्डल के सामने रखा जायेगा। उन्होंने बताया कि ये संशोधन केवल जम्मू-कश्मीर में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में लागू होंगे।

इन प्रस्तावित संशोधनों के दो पहलू हैं। पहला यह कि आज़ाद भारत के सर्वाधिक निरंकुश दमनकारी इस काले-कानून को अमल में लाते हुए सेना ने कश्मीर घाटी और पूर्वोत्तर भारत में फासिस्ट दमन का जो बर्बर नंगनाच किया है, उसके ख़िलाफ वहाँ सड़कों पर उमड़ते जन-प्रतिरोध का ज्वार लाख कोशिशों के बावजूद दबाया नहीं जा सका है। इसलिए इस दानवी कानून को कुछ ''मानवी'' शक्ल देने की ज़रूरत हुकूमती हलकों में शिद्दत के साथ महसूस की जा रही थी। इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि अर्द्धसैनिक माओवादी सशस्त्र प्रतिरोध को कुचलने में नाकाम रहते हैं, तो पूरे देश के प्रभावित हिस्सों में सेना के इस्तेमाल को जायज़ ठहराने की कानूनी तैयारी समय रहते कर ली जाये। इसलिए शस्त्रागार में पहले से मौजूद इस शस्त्र को अब पूरे देश में जनता के विरुद्ध सम्भावित युद्ध की दृष्टि से सुधारना-सँवारना ज़रूरी है।

किन क्षेत्रों में अब तक लागू हुआ है 'सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून' और क्या सामने आये हैं उसके नतीजे?

दिलचस्प बात यह है कि यह काला कानून भी हमारे शासक वर्ग को बर्तानवी हुकूमत से विरासत में मिला है। 1942 के जनउभार को कुचलने के लिए अंग्रेज़ों ने 'सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अध्‍यादेश - 1942' जारी किया था और फिर इसका जमकर इस्तेमाल भी किया गया था। हूबहू इसी के साँचे में ढालकर 1958 में भारतीय संसद में एक विधेयक तत्कालीन गृहमन्त्री गोविन्द वल्लभ पन्त द्वारा प्रस्तुत किया गया, जो पारित होने के बाद 'सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून - 1958' (ए.एफ.एस.पी.ए.) बन गया।

1958 में यह कानून असम और मणिपुर के पूर्वोत्तर राज्यों के लिए बना था। 1972 में इसे संशोधित करके पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों - असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैण्ड में लागू करने की घोषणा की गयी। फिर 1990 में एक संशोधन के बाद इसे जम्मू-कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। इन क्षेत्रों के बारे में विस्तार में चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है। संक्षेप में, इन सभी राष्ट्रीयताओं के लोग 1947 से ही अपने को दबाया और ठगा हुआ महसूस करते रहे हैं और दिल्ली की सत्ता को बलात थोपी गयी औपनिवेशिक सत्ता से अधिक कुछ नहीं मानते। जहाँ तक पूर्वोत्तर के भूराजनीतिक इतिहास का सवाल है, भारतीय उपमहाद्वीप के साम्राज्यों के उतार-चढ़ाव प्रभाव से 19वीं शताब्दी तक यह क्षेत्र कमोबेश अछूता था। इसकी राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाएँ दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ी रही थीं। पहली बार बर्मी विस्तार को रोकने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने आज के मणिपुर और असम में प्रवेश किया। मणिपुर के राजा के साथ 1828 में हुई यान्दाबो सन्धि के अनुसार, असम ब्रिटिश भारत का अंग हो गया, लेकिन मणिपुर में वहाँ के राजा के ज़रिये ही ब्रिटिश भारत का परोक्ष प्रभाव बना रहा। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पूर्वोत्तर के इसी सँकरे गलियारे से होकर जापानियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया। इस घटना ने भारत के तत्कालीन और भावी शासकों को इस इलाके के रणनीतिक महत्व का अहसास कराया।

1947 में ब्रिटिश शासकों के भारत छोड़ने के बाद, इस इलाके में एक राजनीतिक शून्य-सा पैदा हो गया। यहाँ की जनता की नियति का निर्णय उसकी राय लिये बिना दूरस्थ राजधानियों में हुआ और इस पूरे इलाके के अलग-अलग भाग भारत, बर्मा, पूर्वी पाकिस्तान और चीन में शामिल कर लिये गये। 1947 में मणिपुर संविधान कानून के अनुसार, मणिपुर में संवैधानिक राजतन्त्र की स्थापना हुई और विधायिका के चुनाव हुए। 1949 में भारत सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी वी.पी. मेनन ने राजा को कानून-व्यवस्था पर विचार-विमर्श के लिए शिलांग बुलाया और फिर वहाँ बलात विलय समझौते पर हस्ताक्षर करा लिये गये। इस समझौते को मणिपुर असेम्बली से पारित कराने के बजाय असेम्बली को ही भंग करके मणिपुर को एक चीफ कमिश्नर के शासनाधीन रख दिया गया। तब से मणिपुर में बहुत सारे बदलाव हुए, लेकिन जनता 1949 की घटनाओं को विश्वासघात मानती रही और प्रतिरोध संघर्ष लगातार जारी रहा। सेना और ए.एफ.एस.पी.ए. जैसे काले कानूनों के बल पर उसे जितना दबाया गया, अलगाव और प्रतिरोध की भावना उतनी ही बढ़ती चली गयी।

भारत-बर्मा सीमा क्षेत्र में फैली नगा पहाड़ियों के निवासी बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही नगा राष्ट्रीय परिषद (एन.एन.सी.) के बैनर तले एक साझा मातृभूमि और स्वशासन की माँग को लेकर लड़ते रहे हैं। 1929 में उन्होंने अपनी यह माँग साइमन कमीशन के सामने रखी थी। गाँधीजी ने भी उनकी आज़ादी की माँग का समर्थन किया था। ब्रिटिश प्रशासन और एन.एन.सी. के बीच हुए हैदरी समझौते के मुताबिक नगालैण्ड को दस वर्ष के लिए संरक्षित दर्जा प्रदान किया गया था, लेकिन इसी बीच भारत स्वतन्त्र हुआ और नगा क्षेत्र को नये गणराज्य का हिस्सा बना लिया गया। एन.एन.सी. 1975 तक नगालैण्ड की आज़ादी के लिए लड़ता रहा। 1975 में उसने जब शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर किये, तो उसे ग़द्दार मानते हुए अन्य नगा नेताओं ने 'नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैण्ड (एन.एस.सी.एन.) के बैनर तले संघर्ष जारी रखा। इन दिनों एन.एस.सी.एन. के दो गुट हैं जिनके साथ फिलहाल भारत सरकार ने युद्ध विराम सन्धि कर रखी है।

1960 के दशक में असम की लुशाई पहाड़ियों में भीषण अकाल पड़ा था। वहाँ गठित एक राहत टीम द्वारा बार-बार अपील के बावजूद केन्द्र से राहत के नाम पर बस कुछ भीख के दाने ही मिले। इसी राहत टीम ने स्वयं को 'मिज़ो राष्ट्रीय मोर्चा' (एम.एन.एफ.) घोषित कर दिया और मिज़ोरम की मुक्ति के लिए सशस्त्र संघर्ष की घोषणा कर दी। फरवरी 1966 में एम.एन.एफ. ने आइज़ोल शहर पर कब्ज़ा कर लिया था। तब पहली बार भारतीय सेना ने अपने ही नागरिकों पर बमबारी की थी और हफ्ते भर की लड़ाई के बाद आइज़ोल को फिर से कब्जे में लिया जा सका था। भारतीय सेनाओं ने जनविद्रोह को काबू में रखने के लिए पूरी आबादी को उजाड़कर सड़कों के किनारे अलग गाँव बसाये। इससे मिज़ो समाज का ढाँचा हमेशा के लिए तबाह हो गया। 1986 में एम.एन.एफ. ने भारत सरकार के साथ समझौता करके भारतीय संविधान के दायरे के भीतर काम करना स्वीकार कर लिया, लेकिन मिज़ो जनता के भीतर अलगाव, दिल्ली की सत्ता से घृणा और प्रतिरोध की भावना आज भी बरकरार है।

आज भी पूर्वोत्तर की व्यापक आबादी भारतीय समाज के पूँजीवादी विकास की मुख्य धारा से अपने को उपेक्षित, अलग-थलग और उत्पीड़ित महसूस करती है। इसका एक ऐतिहासिक कारण भारतीय संघ में उनका बलात मिलाया जाना था, जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है। लेकिन इसका एक अहम कारण पूँजीवादी राज्य और समाज से जुड़ा संरचनागत कारण है। पूँजीवादी विकास की यह प्रकृति है कि वह क्षेत्रीय असमानता पैदा करती है। इसी की एक अभिव्यक्ति कुछ उपेक्षित राष्ट्रीयताओं के आर्थिक रूप से पीछे छूटते जाने तथा राजनीतिक-सामाजिक रूप से दोयम दर्जे पर बने रहने के रूप में सामने आती है। केन्द्रीय सत्ता या वर्चस्वशाली राष्ट्रीयता प्राय: उनकी आकांक्षाओं को कुचलने का काम करती है और इस तरह प्राय: बहुराष्ट्रीय पूँजीवादी देश कुछ राष्ट्रीयताओं के लिए जेलख़ाने बनकर रह जाते हैं।

पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता के साथ ऐसा ही हुआ। समृद्ध खनिज सम्पदा (असम कुल देश के एक चौथाई तेल का उत्पादन करता है) और वन उपज के बावजूद इस क्षेत्र के विकास पर बहुत कम ध्‍यान दिया गया। पर्याप्त सम्भावना होते हुए भी, न औद्योगिक विकास हुआ, न कृषि का और न ही अवरचनागत ढाँचे का विकास हुआ। सिर्फ कच्चे माल का दोहन होता रहा। सांस्कृतिक अलगाव और उत्पीड़न का भी पहलू महत्वपूर्ण था। कालान्तर में इस क्षेत्र में एक बेहद भ्रष्ट मध्‍यवर्ग पैदा हुआ जो शासन-प्रशासन के कार्यों से जुड़ा था। बाद में केन्द्र की सत्ता ने विकास कार्यों के लिए कुछ पैसे लगाकर जन-तुष्टीकरण की यदि कुछ कोशिशें भी कीं, तो वह पैसा सत्ता से नाभिनालबद्ध भ्रष्ट स्थानीय मध्‍यवर्ग की जेबों में ही अटककर रह जाता था (आज भी यही स्थिति है)। पूँजीवादी विकास के साथ देशव्यापी स्तर पर होने वाले आबादी के 'माइग्रेशन' (प्रवासन) ने भी समस्या बढ़ायी। असम में युवाओं में भारी बेरोज़गारी थी, पर वहाँ बिहार-उ.प्र. और बांग्लादेश से आये ग़रीब लोग सस्ती मज़दूरी करते हुए उनके सामने उपस्थित समस्या को और गम्भीर बना रहे थे। असम आन्दोलन इसी ज़मीन पर पैदा हुआ था। बाद में असम गण परिषद जब भ्रष्ट चुनावी राजनीति के रंग में रंग गया, तो 'उल्फा' ने उग्र असन्तोष को अलगाव के लिए सशस्त्र संघर्ष का रूप दे दिया। बेरोज़गारी, प्रवासन और क्षेत्रीय असमानता का मूल कारण पूँजीवादी सत्ता और उसकी नीतियाँ होती हैं, लेकिन 'उल्फा' ने इसके बजाय अन्य इलाकों से आकर मेहनत-मज़दूरी करने वाले आम लोगों को ही निशाना बनाना शुरू कर दिया और लक्ष्यच्युत होकर एक आतंकवादी संगठन बन गया। कालान्तर में पूर्वोत्तर की नगा, कुकी, मैती आदि विभिन्न राष्ट्रीयताओं-उपराष्ट्रीयताओं के आपसी अन्तरविरोध भी उग्र हो गये। जब मूल समस्या का समाधान नहीं होता है, तो लाज़िमी तौर पर तमाम गौण अन्तरविरोध भी उग्र हो जाते हैं। केन्द्रीय सत्ता ने भी इन अन्तरविरोधों को उग्र बनाने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन इन सबके बीच, सर्वप्रमुख बात यह है कि पूर्वोत्तर की जनता का अलगाव आज भी कायम है। भारतीय शासक वर्ग के उत्पीड़क रवैये ने आज़ादी और आत्मनिर्णय की उनकी आकांक्षा को लगातार ज़िन्दा रखा है। आज की दुनिया में, एक शक्तिशाली पूँजीवादी केन्द्र से यदि वे मुक्त न हो सकें, तो भी उनका संघर्ष जारी रहेगा। उसे कुचलना सम्भव नहीं।

जम्मू-कश्मीर में ए.एफ.एस.पी.ए. 1990 में लागू हुआ। यहाँ संक्षेप में वहाँ की स्थिति को भी जानना ज़रूरी है। औपनिवेशिक काल के दौरान कश्मीर डोगरा वंश के शासन के अधीन एक रियासत थी। शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कान्फ्रेंस ने वहाँ औपनिवेशिक सरपरस्ती वाले डोगरा शासन के विरुद्ध और भूमि सुधारों के लिए रैडिकल किसान संघर्ष और जनान्दोलन संगठित किया था। सेक्युलर विचारों वाली नेशनल कान्फ्रेंस तब मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति की विरोधी थी और इस नाते वह पाकिस्तान में कश्मीर के शामिल होने की विरोधी थी। डोगरा राजा हरिसिंह तब दोहरी चाल चल रहा था और एक आज़ाद रियासत का राजा बनना चाहता था। नेशनल कान्फ्रेंस का झुकाव भारतीय संघ में शामिल होने की ओर था, पर वह कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार की पक्षधर थी और कश्मीर के भीतर स्वशासन का विशेष अधिकार चाहती थी। अक्टूबर '47 में पाकिस्तानी कबायली घुसपैठ के विरुद्ध राजा हरिसिंह ने भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउण्टबेटन से मदद की अपील की। बदले में, 26 अक्टूबर '47 को उसने भारत के साथ विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किये। लेकिन कश्मीर को एक विशेष दर्जा दिया गया। उसका अलग संविधान था, जिसके तहत 30 अक्टूबर '48 को गठित आपातकालीन सरकार में वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमन्त्री) शेख अब्दुल्ला को बनाया गया और राजा को सद्र-ए-रियासत का पद दिया गया। भारत सरकार ने न केवल कश्मीर के विशेष दर्जे को स्वीकार किया था बल्कि स्थिति सामान्य होने पर जनमतसंग्रह के ज़रिए कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को लागू करने की भी बात की थी। शेख़ अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर में सर्वाधिक आमूलगामी ढंग से भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करके काफी लोकप्रियता हासिल की थी। लेकिन स्वायत्तता के प्रश्न पर अविचल स्टैण्ड के कारण 1953 में उनकी सरकार को बर्ख़ास्त करके ग्यारह साल के लिए उन्हें जेल में डाल दिया गया। 1957 में एकदम एकतरफा ढंग से कश्मीर के भारत में औपचारिक विलय की घोषणा कर दी गयी। अप्रैल '64 में नेहरू से बातचीत के बाद गतिरोध तोड़ने के लिए एक बार फिर कोशिश हुई और शेख़ अब्दुल्ला की रिहाई हुई। लेकिन 1965 में फिर उन्हें नज़रबन्द कर दिया गया, जो 1968 तक जारी रहा। 1971 में जनमतसंग्रह मोर्चा को प्रतिबन्धित कर दिया गया और 18 माह के लिए शेख़ अब्दुल्ला को कश्मीर से निर्वासित कर दिया। 1974 में इन्दिरा गाँधी के साथ समझौते के बाद शेख़ अब्दुल्ला अपनी सभी माँगों से पीछे हट गये। वे तब से लेकर 1982 में अपनी मृत्यु तक कश्मीर के मुख्यमन्त्री रहे।

कश्मीर की जनता ने 1948 से लेकर 1957 में कश्मीर के एकतरफ़ा विलय की घोषणा और 1953 से लेकर 1971 तक शेख़ अब्दुल्ला के साथ हुए व्यवहार को अपने साथ विश्वासघात के रूप में देखा। 1974 के समझौते को भी आबादी के बड़े हिस्से ने शेख़ अब्दुल्ला के घुटने टेकने के रूप में देखा। 1982 के बाद कश्मीरी जनता का पहले से ही कायम अलगाव और तेज़ी से बढ़ा और 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में जे.के.एल.एफ. के नेतृत्व में कश्मीर की आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष फूट पड़ा। जे.के.एल.एफ. भारतीय भाग के अतिरिक्त पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भी सक्रिय व्यापक जनाधार और सेक्युलर विचारों वाला संगठन था, जिसे दोनों ही देशों में दमन का सामना करना पड़ा। घाटी में सशस्त्र संघर्ष के साथ ही व्यापक जनान्दोलन की स्थिति थी, जिसे भारतीय शासक वर्ग ने बल के व्यापक और बर्बर इस्तेमाल के द्वारा कुचलने की कोशिश की। 1990 में वहाँ ए.एफ.एस.पी.ए. लागू होने के बाद सेना को दमन के अपरिमित अधिकार मिल गये। ऐसी स्थिति में कश्मीरी जनता में अलगाव की भावना ज्यादा से ज्यादा मज़बूत होती चली गयी। जे.के.एल.एफ. और जनान्दोलन के सैनिक दमन से पैदा हुई निराशा-निरुपायता की ज़मीन पर उन धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवादी संगठनों को भी जड़ें जमाने का मौका मिला, जिन्हें पाकिस्तानी शासक वर्ग अपने निहित स्वार्थों से समर्थन-प्रोत्साहन दे रहा था। ये ग्रुप धार्मिक आधार पर कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की बात करते हैं। कश्मीर में साम्प्रदायिक राजनीति का ऐतिहासिक तौर पर कोई आधार नहीं रहा है। भारतीय सेना के दमन से पैदा हुए नैराश्यपूर्ण अलगाव ने वहाँ धार्मिक कट्टरपन्थ के लिए ज़मीन तैयार की है।

भारत में इन राष्ट्रीयताओं के संघर्ष की समस्या एक जटिल समस्या है। एक पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर इसका समाधान मुश्किल है। राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार की यह लड़ाई सैन्य दमन से समाप्त नहीं हो सकती। पूर्वोत्तर भारत में 51 वर्षों से और जम्मू-कश्मीर में 19 वर्षों से ए.एफ.सी.पी.ए. के अन्तर्गत वस्तुत: सेना का शासन जारी है, लेकिन इससे समस्या हल होने के बजाय और अधिक गम्भीर ही हुई है। और अब यदि शासक वर्ग किसी भी रूप में इस कानून को पूरे देश में लागू करना चाहता है, तो जाहिर है कि व्यवस्था का संकट काफी गम्भीर शक्ल अख्तियार कर चुका है।

ए.एफ.सी.पी.ए. : नग्न-निरंकुश दमनतन्त्र का सबसे प्रभावी हथियार!

सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून के मुताबिक, जब कोई क्षेत्र अशान्त (डिस्‍टर्ब्‍ड) घोषित कर दिया जाता है, तो वहाँ एकदम निर्बाध कार्रवाई चलाने के लिए सभी सुरक्षा बलों को (जिनमें सेना की भूमिका सर्वप्रमुख होती है), बेहिसाब अधिकार हासिल हो जाते हैं। इसके अनुसार, सेना के एक नॉन-कमीशण्ड ऑफिसर को भी यह अधिकार होता है कि वह ''कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए'' महज़ सन्देह के आधार पर किसी को गोली मार देने का निर्देश दे दे। ए.एफ.सी.पी.ए. ''नागरिक शासन की सहायता'' के नाम पर सशस्त्र बलों को बिना किसी वारण्ट के तलाशी, पूछताछ, गिरफ्तारी और गोली मार देने तक के व्यापक अधिकार देता है।

इस कानून के अनुच्छेद-5 के अनुसार, सेना यदि अशान्त क्षेत्र में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है तो उसे ''यथाशीघ्र'' नज़दीक के पुलिस स्टेशन को सौंप देगी। लेकिन इस ''यथाशीघ्र'' को अस्पष्ट और अपरिभाषित रहने दिया गया है।

कानून के अनुच्छेद-6 के अनुसार, ए.एफ.सी.पी.ए. के अन्तर्गत काम कर रही सेना के किसी भी व्यक्ति पर केन्द्र सरकार की अनुमति के बग़ैर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती। यानी वह कानून किसी भी प्रभावित व्यक्ति को कानूनी राहत का कोई विकल्प नहीं देता।

1991 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कमेटी के सदस्यों ने जब ए.एफ.सी.पी.ए. की वैधता पर सवाल उठाये तो भारत के महाधिवक्ता का एकमात्र तर्क यह था कि पूर्वोत्तर के राज्यों के अलग होने को रोकने लिए यह कानून लागू करना ज़रूरी था, क्योंकि भारतीय संविधान की धारा-355 राज्यों को आन्तरिक अशान्ति से बचाने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार को सौंपती है। इस तर्क की पहली विसंगति यह है कि यदि किसी राज्य की बहुसंख्यक आबादी आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए आन्दोलन करती है तो क्या इसे आन्तरिक अशान्ति कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को बुर्जुआ जनवाद के आम उसूल और भारतीय संविधान भी किसी नागरिक के मूलभूत अधिकारों के ऊपर नहीं रखते। राज्य के हित में केन्द्र सरकार को कोई ऐसा कानून बनाने का कत्तई अधिकार नहीं है, जो नागरिक के जीने का अधिकार भी छीन ले।

ए.एफ.सी.पी.ए. भारतीय संविधान की धारा-21 का खुला उल्लंघन है जो बताता है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार या व्यक्तिगत आज़ादी से वंचित नहीं किया जा सकता और ऐसा केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है। साथ ही यह कानून गिरफ्तारी और हिरासत के विरुद्ध नागरिक को कानूनी सुरक्षा का अधिकार देने वाली संविधान की धारा-22 का भी खुला उल्लंघन करता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि ए.एफ.सी.पी.ए. को असंवैधानिक घोषित करने का काम केवल उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है और उसके सामने इससे सम्बन्धित कई मामले बरसों से लम्बित पड़े हैं, लेकिन उन पर कोई निर्णय नहीं हो रहा है।

और अब यदि सरकार इस काले कानून को पूरे देश में लागू करने के लिए हर तरह की प्रक्रियागत तैयारी कर लेना चाहती है तो इसका मतलब यह है कि शासक वर्ग आने वाले दिनों में व्यवस्था के लिए गम्भीर संकट देख रहा है और उससे निपटने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है। वह लोकतन्त्र का लबादा उतारकर तानाशाही का जिरहबख्तर पहनने के लिए भी तैयार है और समूची जनता के ख़िलाफ़ एक ख़ूनी युद्ध छेड़ देने के लिए भी तैयार है। वैसे आज की ही स्थिति यह है कि देश के कुल सशस्त्र बलों का पचास प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा ''आन्तरिक सुरक्षा'' के कामों में देश के भीतर ही लगा हुआ है। यानी शासक वर्ग को ख़तरा सीमा पार से नहीं, बल्कि देश के भीतर से है, अपनी जनता से है, उस जनता से, जो साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट से तबाह है, महंगाई-बेरोज़गारी ने जिसका जीना मुहाल कर रखा है, नेताशाही-नौकरशाही के भ्रष्टाचार से जो आजिज आ चुकी है, जिसे कहीं से भी न्याय नहीं मिल रहा है और इंसाफ और हक के लिए आवाज़ उठाने पर जिसे बस लाठी-गोली-जेल ही मिलती है।

वैसे देखा जाये तो यह शासक वर्गों की भयातुरता ही है कि वे ज़रूरत पड़ने पर पूरे देश में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून लागू करने का विकल्प पहले से ही आरक्षित कर लेना चाहते हैं, हालाँकि यह कानून देश के जिन क्षेत्रों में लागू है वहाँ के उल्टे नतीजे उनके सामने हैं। शासक वर्गों के पास आन्तरिक आपातकाल लागू करने का संवैधानिक प्रावधान भी मौजूद है। लेकिन सच पूछा जाये तो इसकी भी कोई ज़रूरत नहीं है। सरकारें पहले भी समय-समय पर रासुका, टाडा, पोटा जैसे काले कानून बनाती रही हैं, जिनके अमल में आने का मतलब ही होता है नागरिकों के सभी जनवादी अधिकारों का पूर्ण अपहरण। इनके अतिरिक्त 'डिस्‍टर्ब्‍ड एरियाज़ (स्पेशल कोट्स) एक्ट, 1976 आदि, और राज्यों के स्तर पर 'छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम' और 'मकोका' आदि जैसे बहुतेरे निरंकुश काले कानून पहले से ही मौजूद हैं।

इससे भी अहम बात यह है कि जनान्दोलनों के दमन के लिए सशस्त्र बलों को वैसे भी किसी कानून की ज़रूरत नहीं पड़ती रही है। हिरासत में यन्त्रणा और हत्या तथा फर्ज़ी मुठभेड़ों के दोषी पुलिस अधिकारियों को अपवादस्वरूप ही कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ता है। लाठीचार्ज से लेकर गोलीकाण्ड तक के दोषी अधिकारियों को कभी कोई सज़ा नहीं होती। जिला से लेकर थाने के स्तर तक पुलिस और अन्य अधिकारियों के लिए कानून का कोई मतलब नहीं होता।

दरअसल, देश के किसी भी हिस्से में सेना को विशेष अधिकार सौंपना सत्ताधिकारियों के भय और बौखलाहट का सूचक है, अन्यथा जनसंघर्षों और सशस्त्र विद्रोहों तक का सामना करने के लिए बी.एस.एफ., सी.आर.पी.एफ., आई.टी.बी.पी., एस.पी.जी., एन.एस.जी., और राज्यों के सशस्त्र पुलिस बलों की विशेष प्रशिक्षित बटालियनें पूरी तरह से तैयार हैं। कोबरा बटालियन की तरह कई राज्यों ने और आई.टी.बी.पी. आदि ने छापामार युद्ध विरोधी और सशस्त्र विद्रोह विरोधी प्रशिक्षण देकर जो विशेष दस्ते तैयार किये हैं उनके प्रशिक्षण और आधुनिक हथियारों का स्तर सेना के समकक्ष है।

जनता के विरुद्ध शासक वर्ग ख़ूनी युद्ध की शुरुआत कर चुका है!

'बिगुल' के पिछले अंक में हमने यह लिखा था कि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, प. बंगाल, झारखण्ड और बिहार की परस्पर लगी सीमाओं से जुड़े एक विस्तृत क्षेत्र में भा.क.पा. (माओवादी) की सशस्त्र कार्रवाइयों को कुचलने के लिए विशेष प्रशिक्षित सशस्त्र बलों की उतनी बड़ी लामबन्दी हो चुकी है, जैसी, पूर्वोत्तर भारत और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर, शेष भारत में पिछले साठ वर्षों में कभी नहीं हुई थी। एक ख़ूनी अभियान शुरू करने से पहले सरकार हरियाणा, महाराष्ट्र, अरुणाचल के विधानसभा चुनावों के निपटने का इन्तज़ार कर रही थी।

चुनाव अब समाप्त हो चुके हैं और 'ऑपरेशन रेड ब्लड' नाम से अभियान की शुरुआत हो चुकी है। मध्‍य भारत के उपरोक्त राज्यों के ''नक्सल-प्रभावित'' क्षेत्रों में, पहले से मौजूद अर्द्धसैनिक बलों और सशस्त्र पुलिस के अतिरिक्त भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आई.टी.बी.पी.), सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.), केन्द्रीय आरक्षित पुलिस बल (सी.आर.पी.एफ.) आदि के एक लाख विशेष प्रशिक्षित जवानों को इस मुहिम में लगाया गया है। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत से अर्द्धसैनिक बलों को हटाकर इन क्षेत्रों में लाया जा रहा है। जल्दी ही 'राष्ट्रीय राइफल्स' की टुकड़ियों को भी इस अभियान में शामिल किया जायेगा, जिन्हें सेना की देखरेख में 'काउण्टर इन्सर्जेंसी' की ट्रेनिंग दी गयी है। इस अभियान के लिए अतिउन्नत हथियारों, बख्तरबन्द गाड़ियों आदि की बड़े पैमाने पर ख़रीदारी हुई है।

'ऑपरेशन रेड ब्लड' को कई चरणों में बाँटा गया है। पहले चरण की शुरुआत महाराष्ट्र के गढ़चिरौली क्षेत्र से हुई है। अगले चरण छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड और फिर पश्चिम बंगाल, आन्‍ध्रप्रदेश पर केन्द्रित होंगे। वायुसेना के 17 ए.आई. हेलीकॉप्टर पहले चरण में ज़मीनी अभियान की मदद करेंगे। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इसके पहले महीनों से किस तरह ''माओवादी ख़तरे के चलते आन्तरिक सुरक्षा माहौल के बिगड़ने'' और ''आन्तरिक सुरक्षा के लिए माओवाद सबसे बड़ा ख़तरा'' होने का उन्मादी प्रचार किया गया। मनमोहन सिंह और चिदम्बरम ने दर्जनों ऐसे बयान दिये। टी.वी. चैनलों और अख़बारों ने माओवादियों की ''ख़ूनी आतंकवादी'' हरकतों के बारे में लगातार विशेष रिपोर्टें प्रसारित कीं और छापीं। स्वयंभू रक्षा-विशेषज्ञों ने साक्षात्कार दिये और बहसों में भाग लिया। और ''उचित निर्णायक कार्रवाई'' के लिए जनमत की सहमति ''निर्मित'' कर ली गयी। लेकिन फिर भी यह प्रश्न हर विवेकशील नागरिक के दिलो-दिमाग़ को मथता है कि आखिर यह स्थिति क्यों पैदा हुई कि राज्यसत्ता को अपने ही देश की सर्वाधिक ग़रीब, पिछड़ी और उत्पीड़ित आबादी के विरुद्ध, एक युद्ध छेड़ना पड़ रहा है?

भा.क.पा. (माओवादी) के सघन प्रभाव का इलाका देश का सबसे पिछड़ा और ग़रीब इलाका है, जहाँ मुख्यत: आदिवासी आबादी रहती है। आबादी के इस सबसे पिछड़े और उत्पीड़ित-वंचित हिस्से में भा.क.पा. (माओवादी) के सशस्त्र विद्रोह की लाइन के व्यापक प्रभाव का सर्वोपरि कारण यह रहा है कि स्वतन्त्र भारत में पूँजीवादी विकास की लहर से ये इलाके पूर्वोत्तर भारत की राष्ट्रीयताओं के इलाकों के मुकाबले भी अधिक अछूते रहे हैं। नागरिक प्रशासन और सार्वजनिक सुविधाएँ यहाँ बरायनाम ही रही हैं। ठेकेदारों, भूस्वामियों और अफसरों का उत्पीड़न यहाँ वैसा ही रहा है, जैसा अंग्रेजों के ज़माने में था। मध्‍य और पूर्वी भारत का यह इलाका खनिज सम्पदा की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध है। गत शताब्दी के साठ और सत्तर के दशक में इस सम्पदा का दोहन करने के लिए इन क्षेत्रों में पब्लिक सेक्टर के कुछ कारख़ाने लगे। इससे यहाँ के मूल निवासियों का एक हिस्सा विस्थापित हुआ। साथ ही, नये बसे औद्योगिक नगरों के जीवन और आधुनिक सार्वजनिक सुविधाओं से वंचित रहने का असन्तोष और अलगाव की भावना उनके भीतर गहराती गयी। विगत लगभग दो दशकों के दौरान स्थिति में कुछ और व्यापक और बुनियादी बदलाव आये हैं। इस इलाके की अकूत अनछुई खनिज सम्पदा की ओर, देशी और विदेशी पूँजी का ध्‍यान तेजी से आकृष्ट हुआ है। पास्को, टाटा, जिन्दल, मित्तल सभी टूट पड़े हैं। समय उदारीकरण-निजीकरण का है। सरकार भी यह सारी सम्पदा लूटने के लिए खदानें और कारख़ाने लगाने के लिए ज़मीन उन्हें देने के लिए तैयार बैठी है। समस्या केवल एक है और वह यह है कि इसके लिए करोड़ों आदिवासी जन समुदाय को उनकी जगह-जमीन से उजाड़ना होगा।

पूँजीवादी विकास वाली खेती के इलाकों से, पूँजी की मार से उजड़ने वाले किसान जितनी आसानी से शहरों में आकर औद्योगिक सर्वहारा बन जाते हैं, आदिवासी आबादी के लिए यह इतना सुगम नहीं होता। वे अपनी जगहों से विस्थापित भी होते हैं तो भवन-निर्माण, ईंट-भट्ठे जैसे कामों में निकृष्टतम कोटि के उजरती गुलाम ही बन पाते हैं। सांस्कृतिक-सामाजिक ढाँचे की दृष्टि से भी, अचानक अपनी जड़ों से विस्थापित होकर नये परिवेश में व्यवस्थित होने के लिए उनकी चेतना तैयार नहीं होती। इसलिए, यह आबादी साझा सामाजिक सम्पदा, जंगल, चरागाहों, जलस्रोतों और खेतीबाड़ी से बलात विच्छिन्न किये जाने की कोशिशों का जीजान से विरोध कर रही है। अभी एक महीने पहले ही अर्द्धसैनिक बलों, पुलिस बलों और गुप्तचर एजेंसियों के शीर्ष अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था कि आदिवासी आबादी के इलाकों में व्यापक प्रतिरोध के कारण खनिज सम्पदा का दोहन नहीं हो पा रहा है और विदेशी निवेश पर गम्भीर असर पड़ रहा है।

संविधान की पाँचवीं अनुसूची आदिवासियों को उनकी परम्परागत ज़मीन और जंगलों पर पूरे अधिकार की गारण्टी देती है और निजी कम्पनियों को उनकी ज़मीन पर खदानें खोदने से रोकती है। अब मनमोहन सरकार ने इसका आसान रास्ता निकाल लिया है। माओवादियों से लड़ने के नाम पर, वह पूरे इलाके की आदिवासी आबादी को ही उजाड़कर राहत शिविरों में बसा देना चाहती है, ताकि उनके जंगल और ज़मीन को देशी बड़े पूँजीपति घरानों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सुपुर्द किया जा सके। नियमगिरि में बहुराष्ट्रीय कम्पनी वेदान्त को, जगसिंहपुरा में पास्को को और कलिंगनगर में टाटा को खदान और कारख़ाने के लिए ज़मीन देने के लिए यही किया गया। लाखों आदिवासी परिवारों को उजाड़ दिया गया और उन्हें जीने का कोई विकल्प नहीं दिया गया। प्रश्न यहाँ माओवादियों या आदिवासियों के सशस्त्र प्रतिरोध को कुचलने मात्र का ही नहीं है। देश में जहाँ भी किसी सेज़ या औद्योगिक पार्क की स्थापना के लिए या किसी एक्सप्रेस हाईवे के निर्माण के लिए लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़ा गया, वहाँ विस्थापितों के शान्तिपूर्ण आन्दोलनों-संघर्षों को भी सत्ता ने उतनी ही बेरहमी से बलपूर्वक कुचला है।

प्रश्न यहाँ निरपेक्ष रूप से औद्योगिक विकास का विरोध करने का नहीं है। लेकिन कारख़ाना लगने से विस्थापित लोगों को जीने के वैकल्पिक साधन और आत्मिक विकास का सामाजिक परिवेश मुहैया कराना सत्ता की ज़िम्मेदारी है। दूसरी बात, पर्यावरण-सन्तुलन को दरकिनार करके औद्योगिक विकास की बात सोचना वस्तुत: विनाशकारी होगा। लेकिन उत्पादन जब तक मुनाफे के लिए होगा, तब तक ऐसा ही होता रहेगा। इसलिए मौजूदा जन-प्रतिरोध भी व्यापक अर्थों में पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी संघर्ष ही है, विकास के वैकल्पिक मार्ग - समाजवादी मार्ग के लिए ही संघर्ष है, भले ही इसकी दिशा स्पष्ट न हो।

सिर चढ़कर बोल पड़ा सच्चाई का भूत!

यह सच है कि सच्चाई का भूत कभी-कभी हुकूमती जमातों के सिर पर भी चढ़कर बोलने लगता है। 31 अक्टूबर '09 के हिन्दुस्तान टाइम्स (दिल्ली संस्करण, पृ. 10) में कोने में प्रकाशित एक छोटे से समाचार के अनुसार, भूमि सुधार विषयक एक पन्द्रह सदस्यीय सरकारी कमेटी (कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एण्ड अनफिनिश्ड टास्क ऑफ लैण्ड रिफॉर्म) ने छत्तीसगढ़ के लौह अयस्क समृद्ध जिलों - बस्तर, दन्तेवाड़ा और बीजापुर में औद्योगीकरण अभियान को कोलम्बस के बाद मूल निवासियों की ज़मीन हड़पने की सबसे बड़ी घटना की संज्ञा दी है।

कमेटी के अनुसार, ''20,000 करोड़ रुपये के कुल निवेश से इस्पात और बिजली के कारख़ाने लगाने के लिए अब तक 3,50,000 आदिवासियों को उजाड़ा जा चुका है। जमीन हड़प का यह महाअभियान एक खुले घोषित युद्ध के समान था। इस नाटक की स्क्रिप्ट टाटा और एस्सार ग्रुप ने लिखी थी, जो उन सात गाँवों और निकटवर्ती क्षेत्रों को खाली कराना चाहते थे, जो भारत में उपलब्ध लौह अयस्क की खुदाई की दृष्टि से शायद सबसे अधिक समृद्ध हैं।''

इस कमेटी का गठन जनवरी 2008 में हुआ था और इसने अपनी रिपोर्ट हाल ही में ग्रामीण विकास मन्त्री सी.पी. जोशी को सौंपी है, जिन्होंने इसे प्रधानमन्त्री की अध्‍यक्षता वाली राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद को भेज दिया है। सलवा जुडुम के बारे में अब तक कई जनवादी अधिकार संगठनों की रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं। सभी रिपोर्टों में यह कहा गया है कि सलवा जुडुम आदिवासियों का माओवाद-विरोधी स्वत:स्फूर्त जनान्दोलन नहीं है, बल्कि राज्य-प्रायोजित एक आतंकवादी मुहिम है जिसके निशाने पर माओवादियों से अधिक वह आम आदिवासी है, जिसे बलात राहत शिविरों में बाड़ेबन्दी करके रखा गया है। अब इस सरकारी कमेटी ने सच्चाई के एक और पहलू को उद्धाटित किया है। इस कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, सलवा जुडुम से सबसे अधिक लाभ टाटा और एस्सार जैसे घरानों को है और वही उसे सर्वाधिक प्रोत्साहन दे रहे हैं। इन घरानों ने सलवा जुडुम की जमकर आर्थिक मदद भी की है। दूसरे नम्बर पर, सलवा जुडुम के साथ उन ठेकेदारों, व्यापारियों, छोटे उद्योगपतियों के हित जुड़े हैं, जिनका धन्धा उद्योगों के लगने के बाद चमक जायेगा। वे भी इस पर दाँव लगाये हुए हैं और इसकी सफलता का इन्तज़ार कर रहे हैं। कमेटी ने स्वीकार किया है कि इन ज़िलों में आज गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है।

आश्चर्य नहीं कि अपनी अमेरिका-यात्रा से लौटने के बाद गृहमन्त्री चिदम्बरम ने अपने एक बयान में कहा था कि आदिवासी क्षेत्रों में सैनिक कार्रवाई का उद्देश्य है, ''जीतना, कब्ज़ा बनाये रखना और विकास करना।'' यह जुमला उन्होंने अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी जनरल के वक्तव्य से सीधे उधार ले लिया था। अमेरिकी जनरल ने यह बात अफगानिस्तान के बारे में कही थी। चिदम्बरम यह बात अपने ही देश के नागरिकों के बारे में कह रहे हैं और बिल्कुल सच्ची-सच्ची बोल रहे हैं। तेल के लिए अमेरिका ने इराक में महाविनाश रचा। तेल की वैश्विक राजनीति के चलते ही वह अफगानिस्तान को अपना सामरिक चेकपोस्ट बनाये रखना चाहता है। भारत का पूँजीपति वर्ग अपने और साम्राज्यवादियों की हितपूर्ति के लिए, आज देश के भीतर इराक और अफगानिस्तान जैसा महाविनाश रचने के लिए कमर कस चुका है। खनिज सम्पदा के दोहन के लिए उसने वस्तुत: देश की जनता के ख़िलाफ युद्ध छेड़ दिया है। लेकिन उसे एक बात नहीं भूलनी चाहिए। अमेरिका इराक में वैसे ही फँस चुका है जैसे दलदल में बूढ़ा हाथी। और अफगानिस्तान के बारे में अमेरिका और नाटो के शीर्ष सैन्य अधिकारियों का मानना है कि यह युद्ध जीतना नामुमकिन है। अपने देश की जनता के ख़िलाफ छेड़े गये युद्ध में भारतीय शासक वर्ग की भी यही स्थिति हो सकती है। चिदम्बरम ने अफगानिस्तान से जो रूपक लिया है, वह अपनी परिणति तक भी लागू हो सकता है।

माओवाद बहाना है, जनता ही निशाना है

इसी वजह से हम पहले से ही, और बार-बार इस बात पर बल देते रहे हैं कि ''माओवाद तो बहाना है जनता ही निशाना है।'' वैसे भी सेना या अर्द्धसैनिक बलों के पास ऐसा कोई भी उपाय नहीं है कि वे स्थानीय जनता को हमले का निशाना बनाये बग़ैर माओवादियों से निपट सकें। पूर्वोत्तर भारत और कश्मीर में सशस्त्र ग्रुपों से निपटने के दौरान सेना का मुख्य कहर जनता पर ही बरपा होता रहा है। सशस्त्र ग्रुप छापामार कार्रवाई के बाद दुर्गम जंगल-पर्वतों में और जनता के बीच बिखर जाते हैं। बौखलायी सेना फिर जनता को ही निशाना बनाती है और ज्यादा से ज्यादा अलग-थलग पड़ती जाती है। अन्तरराष्ट्रीय अनुभव भी यही बताते हैं।

पूरे देश में सर्वहारा क्रान्ति की दृष्टि से भा.क.पा. (माओवादी) की ''वाम'' दुस्साहसवादी रणनीति का जनदिशा का हामी कोई मार्क्‍सवादी- लेनिनवादी निश्चय ही समर्थन नहीं कर सकता। देश की व्यापक मेहनतकश आबादी - उद्योगों के उन्नत चेतना वाले सर्वहाराओं और विकसित खेती वाले इलाकों के ग्रामीण सर्वहाराओं, शहरी-ग्रामीण अर्द्धसर्वहाराओं और मध्‍यवर्ग को जागृत और संगठित किये बिना, कुछ पिछड़े इलाकों की पिछड़ी चेतना वाली आबादी को उसके अस्तित्व के सवाल पर जीवन-मृत्यु के संघर्ष के लिए संगठित किया जा सकता है, पर इससे देशव्यापी क्रान्ति तक पहुँचना सम्भव नहीं हो सकता। मात्र कुछ पिछड़े इलाकों में संघर्ष को छापामार युद्ध की मंज़िल तक पहुँचा देना भी ''वामपन्थी'' उग्रवाद का ही एक रूप है (साथ ही, भारत जैसे पूँजीवादी देश में जनवादी क्रान्ति की सोच भी ग़लत है)। हम राजनीतिक हत्याओं और आम लोगों को प्रभावित करने वाली आतंकी कार्रवाइयों का भी कतई समर्थन नहीं कर सकते। लेकिन इस सच्चाई से भी कोई इन्कार नहीं कर सकता कि छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड से लेकर प. बंगाल के जंगलमहल इलाके तक माओवादी कैडरों ने न केवल वहाँ की उत्पीड़ित-वंचित आबादी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी है और उनकी आकांक्षाओं को स्वर दिया है, बल्कि आधी सदी से भी अधिक समय से उपेक्षित इस इलाके में जनशक्ति को लामबन्द करके महत्वपूर्ण रचनात्मक काम भी किये हैं। उन्होंने स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र, सड़क, पुल और बाँध तक बनाये हैं। जहाँ 62 साल में सरकारी अमले कभी नहीं पहुँचे, वहाँ तक उन्होंने पहुँच बनायी है। अत्याचारी ठेकेदारों, भूस्वामियों को इन इलाकों से भागना पड़ा है। इसके चलते स्थानीय आम जनता में भा.क.पा. (माओवादी) का ज़बर्दस्त समर्थन आधार तैयार हुआ है। उस आधार को सैनिक कार्रवाई के द्वारा तोड़ा नहीं जा सकता। उल्टे जितना दमन होगा, प्रतिरोध उतना ही मज़बूत होगा।

और फिर सबसे बुनियादी बात वह है, जिसकी ओर लेखिका अरुन्धति राय ने भी अपने एक साक्षात्कार में इंगित किया था। उन्होंने कहा था कि जब प्रतिरोध के सारे लोकतान्त्रिक विकल्पों को सत्ता छीन लेगी तो लोगों के सामने हथियार उठाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता। एक हद तक यह बात छत्तीसगढ़, झारखण्ड, जंगलमहल आदि के संघर्षों पर भी लागू होती है। सलवा जुडुम के बाद अब जिस पैमाने पर सैनिक कार्रवाई की योजना बनायी जा रही है, वह लोगों को विवश कर देगी कि वे हथियार उठाने का विकल्प चुनें। दूसरी बात जो अरुन्धति राय ने कही, वह भी उचित है। उन्होंने कहा कि उस आदमी के बारे में सोचिये, जिसकी बहन या पत्नी के साथ बलात्कार हुआ हो, बच्चे को मार दिया गया हो, परिवार को उजाड़ दिया गया हो। वह व्यावहारिकता के प्रश्न पर बिना अधिक सोचे हथियार उठाने को तैयार हो जायेगा।

इसीलिए, हमारी यह दृढ़ धारणा है कि राजकीय आतंकवाद ही सबसे बड़ा आतंकवाद होता है और हर प्रकार के आतंकवाद का मूल कारक होता है। आज भारतीय शासकवर्ग के निशाने पर केवल माओवादी कहलाने वाली राजनीतिक धारा ही नहीं है, बल्कि उसके बहाने देश के खनिज-समृद्ध इलाकों की आबादी को उजाड़कर उसके जंगल-ज़मीन को देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सौंपने के लिए उन इलाकों की समूची जनता के ख़िलाफ एक ख़ूनी युद्ध छेड़ा जा रहा है। इस युद्ध में शासक वर्ग कभी नहीं जीत सकता। आतंकवाद-विरोधी विशेषज्ञ माने जाने वाले पूर्व पुलिस अधिकारी के.पी.एस. गिल का भी मानना है कि सैनिक कार्रवाई करने पर सरकार छत्तीसगढ़ या अन्य ऐसे क्षेत्रों में वैसे ही फँस जायेगी जैसे अमेरिकी अफगानिस्तान में फँस गये हैं।

और बात सिर्फ छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पं. बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों की ही नहीं है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ व्यापक मजदूर आबादी को उनके रहे-सहे अधिकारों से भी वंचित करके जिस तरह निचोड़ रही हैं, महँगाई और बेरोज़गारी जिस तरह से आम लोगों का जीना दूभर कर रही है, धनी-ग़रीब की खाई जितने विकराल एवं कुरूप शक्ल में बढ़ रही है और लोकतान्त्रिक दायरे में प्रतिरोध का स्पेस जिस तरह सिकुड़ता जा रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पूरा भारतीय समाज एक ज्वालामुखी के दहाने की ओर सरकता जा रहा है। शासक वर्ग इस स्थिति से चिन्तित और भयभीत है। उसके सामने अन्तत: एक ही विकल्प बचेगा - नग्न-निरंकुश दमनतन्त्र का विकल्प। और वह इस तैयारी में भी लगा है। उसकी समस्या यह है कि देश के एक छोटे-से हिस्से में तो जनता के विरुद्ध ख़ूनी युद्ध चलाया जा सकता है, लेकिन पूरे देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी जब सड़कों पर होगी तो उसके विरुद्ध सेना उतारना आसान विकल्प नहीं होगा। यह भविष्य दूर हो सकता है, लेकिन उसकी कल्पना से भी शासक वर्ग काँप उठता है।

असल बात यह है कि देश की इस दशा-दिशा को सर्वहारा क्रान्तियों की उन हरावल ताकतों को सही ढंग से समझना होगा जो जनदिशा को अमल में लाने की हामी हैं। स्थितियों को, और उनके विकास की दिशा को सही-सटीक तरीके से समझकर ही सामने खड़ी चुनौती का ठीक तरह से सामना किया जा सकता है और ठीक तरीके से भविष्य का रास्ता चुना जा सकता है।

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13.11.09

बिगुल का नया अंक



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2.11.09

गोरखपुर मजदूर आन्दोलन ने नयी राजनीतिक हलचल पैदा की

गोरखपुर श्रमिक अधिकार समर्थक समिति की ओर से ‘श्रमिक अधिकार और नागरिक समाज का दायित्व’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में वक्ताओं ने कहा कि बरगदवां के मजदूर आन्दोलन ने गोरखपुर में काफी समय से व्याप्त अराजनीतिक माहौल को तोड़कर एक नयी राजनीतिक हलचल पैदा की है। वक्ताओं का मानना था कि इस आन्दोलन ने मज़दूरों के मुद्दों को पुरज़ोर ढंग से समाज के सामने रखने का बड़ा काम किया है। अधिकांश वक्ताओं का कहना था कि मुख्यधारा के मीडिया और मध्यवर्गीय शिक्षित आबादी की नज़रों से मज़दूरों के हालात और उनकी समस्याएँ प्रायः छिपी ही रहती हैं। लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान इस आन्दोलन ने लोगों को इन सवालों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। गोष्ठी में शहर के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, ट्रेडयूनियन कर्मियों, वामपन्थी संगठनों और नागरिक अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। वक्ताओं ने एक स्वर से शासन और प्रशासन से श्रम क़ानून लागू कराने की माँग की तथा मजदूर आन्दोलन के खिलाफ उद्योगपतियों की ओर से किये जा रहे दुष्प्रचार की कड़ी निन्दा की।
गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए पीयूसीएल गोरखपुर के संयोजक फतेहबहादुर सिंह ने कहा कि इस आन्दोलन से पैदा हुई राजनीतिक हलचल को आगे बढ़ाना होगा। गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डा. अनन्त मिश्र ने कहा कि मज़दूरों के उत्पीड़न के विरुद्ध समाज के जागरूक नागरिकों को एकजुट होना होगा। राजनीति शास्त्र विभाग के डा. रजनीकान्त पाण्डेय ने कहा कि आज सत्ता खुलकर मज़दूरों और आम आदमी के खिलाफ खड़ी है। इसके विरुद्ध पूरे समाज को खड़ा होना होगा। उन्होंने कहा कि गोरखपुर की जनता का बहुमत मज़दूर आन्दोलन के साथ है।
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डा. अनिल राय ने मज़दूर आन्दोलनों के सम्बन्ध में मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े किये। डा. जर्नादन ने मज़दूरों को उनका हक दिलाने के लिए नागरिक समाज के लोगों से आगे आने की अपील की। डा. असीम सत्यदेव ने कहा कि जब मज़दूर अधिकार सुरक्षित रहेंगे तभी नागरिक अधिकारों की भी रक्षा हो सकेगी।
मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स एसोसिएशन के सचिव राकेश श्रीवास्तव ने कहा कि श्रम क़ानूनों को लागू कराना प्रशासन की जिम्मेदारी है। रेल मज़दूरों के नेता मुक्तेश्वर राय और राम सिंह ने बरगदवां के मज़दूर आन्दोलन के प्रति एकजुटता ज़ाहिर करते हुए कहा कि श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए मिलकर लड़ना होगा। मानवाधिकार कार्यकर्ता मनोज कुमार सिंह ने श्रमिक अधिकारों पर हो रहे हमले को मानवाधिकारों पर हमला बताया। चतुरानन ओझा ने कहा कि जन प्रतिनिधियों का श्रमिक अधिकारों के खिलाफ खड़ा होना गम्भीर मामला है। कथाकार मदनमोहन, चक्रपाणि, भाकपा के ओमप्रकाश चन्द, माकपा के जावेद, भाकपा (माले) के हरिद्वार प्रसाद, अयोध्या साहनी आदि ने भी अपने विचार रखे। विषय प्रवर्तन डा. रामू दुबे ने किया और संचालन श्रमिक अधिकार समर्थक समिति के संयोजक यशवन्त सिंह ने किया।

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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