मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के उपाध्यक्ष को ठेकेदार ने नंगा करके बेरहमी से पिटवाया
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भारत एक ऐसा देश है, जहाँ अनेक राष्ट्रीयताओं, जातियों और धर्मों के लोग रहते हैं। भारतीय जनता की यह राष्ट्रीयता, जाति और धार्मिक विभिन्नता इस देश के लुटेरे हुक्मरानों द्वारा, यहाँ की जनता की एकता तोड़ने के लिए एक हथियार की तरह हमेशा इस्तेमाल की जाती रही है। हमारे हुक्मरानों ने यह ख़ूबी, फिरंगियों से विरासत में हासिल की है, जिन्होंने 'बाँटो और राज करो' की रणनीति के तहत लगभग 100 वर्ष से भी अधिक समय तक देश को ग़ुलाम बनाये रखा। 1947 में देश की राज्यसत्ता पर काबिज हुए नये हुक्मरानों ने भी भारतीय जनता को राष्ट्रीयता, जाति, धर्म के आधार पर आपस में लड़ाने में महारत हासिल की है और इस मामले में वे फिरंगियों के योग्य वारिस साबित हुए हैं। जनता की राष्ट्रीय, जातीय और धार्मिक भावनाओं को भड़काने, जगह-जगह दंगे-फसाद करवाने और लोगों की लाशों पर पैर रखकर राजसिंहासन तक पहुँचने का धन्धा किसी न किसी रूप में सभी पूँजीवादी संसदीय पार्टियाँ करती रहती हैं। लेकिन इनमें से संघ परिवार का अंग भारतीय जनता पार्टी सबसे आगे है। संघ परिवार का हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद पिछले ढाई-तीन दशकों से भारत के मेहनतकश लोगों, धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बड़ा खतरा बनकर उभरा है। कम्युनिस्ट, मुस्लिम, और ईसाई इस संघी फासीवाद के मुख्य निशाने पर हैं।
धार्मिक अल्पसंख्यकों को भले ही आजाद भारत में हमेशा डरे-सहमे माहौल में रहना पड़ा है, लेकिन संघ परिवार के उभार ने भारत में अल्पसंख्यकों का जीना और भी मुश्किल कर दिया है।
संघ परिवार के काले कारनामों की सूची बहुत लम्बी है। 2002 में गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम और पिछले वर्ष उड़ीसा में ईसाइयों के कत्लेआम के तो अभी जख्म भी हरे हैं। लेकिन 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के गिराये जाने का स्थान संघ परिवार के काले कारनामों में सबसे ऊपर है। 6 दिसम्बर 1992 का दिन भारतीय इतिहास का काला दिन है।
देश में पूँजीवादी राजनीतिज्ञों की ओर से घपलों-घोटालों के जरिये जनता की ख़ून-पसीने की कमाई हड़प ली जाती है, धर्म-जाति-राष्ट्रीयता के नाम पर दंगे-फसाद करवाये जाते हैं, बेगुनाह लोगों का ख़ून पानी की तरह बहाया जाता है, फिर सरकार इसकी जाँच के लिए एक कमीशन बैठाती है। कमीशन अपनी रिपोर्ट देता है और संसदीय सुअरबाड़े में इस पर कुछ दिन शोर-शराबा होता है। इसके बाद इस रिपोर्ट को चूहों के कुतरने के लिए छोड़ दिया जाता है।
हर बार ऐसा ही होता है। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ। बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद सरकार ने इस घटना की जाँच के लिए जस्टिस एम.एस. लिब्रहान के नेतृत्व में 16 दिसम्बर 1992 को एक जाँच कमीशन कायम किया। इस कमीशन को तीन महीने के भीतर अपनी जाँच रिपोर्ट सरकार को सौंपनी थी। लेकिन हद दर्जे की बेशर्मी दिखाते हुए इस कमीशन ने 17 वर्ष में अपनी 'जाँच' मुकम्मल की। इन 17 वर्षों में इस कमीशन ने 48 बार अपने कार्यकाल का समय बढ़वाया और 8 करोड़ से ऊपर रुपये खर्च किये।
आइये देखें कि लिब्रहान कमीशन ने करोड़ों रुपये खर्च करके 17 वर्षों में क्या खोजा। लिब्रहान कमीशन की जाँच रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई दशक पहले ही बाबरी मस्जिद गिराने की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं और अपनी इन कोशिशों को यह संगठन तब ही ठोस रूप दे सका, जब उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसका मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह था। 1992 की शुरुआत से ही आर.एस.एस. और बीजेपी ने अयोध्या और फैजाबाद में अपने आदमियों की तैनाती शुरू कर दी। इन शहरों में कई अफसरों को हटाया गया और संघ के पसन्दीदा अफसरों को तैनात किया गया। इस हालत में 'कानून' लागू करने वाला कोई नहीं रहा और पुलिस को भी वर्दीधारी कारसेवकों में बदल दिया गया। पुलिस के हथियार ले लिये गये और उन्हें डण्डे पकड़ा दिये गये। सरकार की तरफ से सख्त हिदायतें दी गयीं कि कारसेवकों के विरुध्द कोई कार्रवाई न की जाये। 6 दिसम्बर 1992 की कई दिन पहले से ही तैयारियाँ शुरू की दी गयीं। संघ ने 5 लाख कारसेवकों को अयोध्या पहुँचाया। उनकी रिहायश, भोजन, पानी आदि का इन्तजाम किया गया। यह सब राज्य सरकार की सक्रिय भागीदारी के बिना सम्भव नहीं था। मुख्यमन्त्री कल्याण सिंह इन तैयारियों का जायजा लेने के लिए बार-बार अयोध्या के चक्कर काटता रहा।
कमीशन का कहना है कि भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बाबरी मस्जिद गिराये जाने के लिए माहौल बनाया। रिपोर्ट में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, बजरंग दल के मुखी विनय कटियार सहित आर.एस.एस., विश्व हिन्दू परिषद के कुछ नेताओं को बाबरी मस्जिद गिराये जाने का दोषी ठहराया गया है। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि केन्द्र में पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व वाली सरकार ने भी इस घटना को रोकने के लिए पर्याप्त इन्तजाम नहीं किये।
ये हैं लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट के कुछ अहम खुलासे, जिनमें कुछ भी नया नहीं है। संघियों ने राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मीडिया के सामने सरेआम बाबरी मस्जिद गिरायी थी। सारी दुनिया में करोड़ों लोगों ने टेलीविजन पर इसका सीधा प्रसारण भी देखा था। करोड़ों लोगों ने वे वहशी चेहरे देखे थे, जो बाबरी मस्जिद गिरा रहे थे।
बाबरी मस्जिद को गिराये जाने की जाँच बहुत पहले ही सी.बी.आई. भी कर चुकी है। बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद अयोध्या के एक थाने में जाँच के लिए दो एफ.आई.आर. दर्ज की गयी थीं : पहली (केस नम्बर 197) लाखों अज्ञात कारसेवकों के खिलाफ, जबकि दूसरी (केस नम्बर 198) आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सहित आठ व्यक्तियों के खिलाफ थी, जिन पर भड़काऊ भाषण देने के आरोप थे। बाद में ये केस सी.बी.आई. को सौंप दिये गये थे। सी.बी.आई. ने 5 अक्टूबर 1993 को दायर की गयी चार्जशीट में न सिर्फ अडवाणी और अन्य को दोषी माना था, बल्कि इसमें 5 दिसम्बर 1992 को बजरंग दल के अध्यक्ष विनय कटियार की रिहायश पर हुई गुप्त मीटिंग का भी जिक्र था, जिसमें बाबरी मस्जिद गिराये जाने का अन्तिम फैसला लिया गया था।
तो फिर लिब्रहान कमीशन ने 17 वर्षों में जनता के करोड़ों रुपये खर्च करके नया क्या ढूँढ़ा? कुछ भी नहीं। सभी जानते हैं कि बाबरी मस्जिद गिराने वाले कौन हैं। सभी जानते हैं कि 2002 में गुजरात में हजारों मुसलमानों और पिछले वर्ष उड़ीसा में हजारों इसाइयों पर जुल्म करने वाले कौन हैं। यह जनता भी जानती है और हुक्मरान भी। यह सब जानने के लिए जाँच कमीशनों की जरूरत नहीं होती। यह जाँच कमीशन तो सिर्फ जनता की ऑंखों में धूल डालने का साधन ही हैं।
1984 में दिल्ली में हुए सिक्खों के कत्लेआम के दोषियों को सभी जानते हैं, लेकिन आज तक दिल्ली दंगों के किसी भी दोषी का बाल तक बाँका नहीं हुआ। गुजरात 2008 में कन्धमाल में ईसाइयों के कातिलों का भी कुछ नहीं बिगड़ने वाला। लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पर भी कुछ दिन संसद में बहसबाजी का नाटक खेला जायेगा। उसके बाद इसे भी कहीं गहरा दफना दिया जायेगा। हुक्मरानों के सभी हिस्से इस हमाम में नंगे हैं। कौन किसे सजा देगा? हुक्मरान वर्ग के सभी हिस्से जनता को बाँटने, लड़वाने, मरवाने, लूटने और पीटने में एक-दूसरे से आगे हैं। इनसे इंसाफ की उम्मीद करना सबसे बड़ी मूर्खता है। इंसाफ तो एक दिन देश की मेहनतकश जनता करेगी। जब एकजुट होकर मेहनतकश जनता उठेगी तो जनता के इन कातिलों के मुकदमों की सुनवाई होगी।
जिलाधिकारी कार्यालय की ओर बढ़ता मज़दूरों का जुलूस इसके बाद 25 जुलाई की वार्ता से पहले 24 जुलाई की रात को मजदूरों ने पूरे बरगदवा क्षेत्र में सभाएँ कीं, पर्चे बाँटे और विशाल मशाल जुलूस निकाला। साथ ही आन्दोलन के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए शहर के नागरिकों और दूसरे मजदूरों-कर्मचारियों से भी सम्पर्क करना शुरू कर दिया। इससे प्रशासन पर समझौता कराने का दबाव बढ़ गया। आखिरकार 29 जून को हुई वार्ता में दोनों कारखानों के मैनेजमेण्ट मजदूरों की सभी प्रमुख माँगें मानने पर तैयार हो गया। बहरहाल, ऐसी किसी भी कोशिश से मजदूर न डरे, न हताश हुए बल्कि उनकी एकजुटता और ठोस हो गयी। मजदूरों ने कमिश्नर और डीआईजी से मिलकर अजितसरिया की गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। लेकिन कमिश्नर द्वारा जिलाधिकारी को निर्देश देने के बावजूद उसे गिरफ्तार नहीं किया गया, क्योंकि गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ सहित स्थानीय नेताओं का उस पर वरदहस्त था। इस बीच मजदूर नेताओं पर हमले के विरोधा में गोरखपुर शहर के कई संगठनों और बुद्धिजीवियों ने बयान दिये तथा अधिकारियों को फोन करके भी आक्रोश जताया। दिल्ली से मेट्रो कामगार संघर्ष समिति, बादाम मजदूर यूनियन, जागरूक नागरिक मंच, बिगुल मजदूर दस्ता आदि संगठनों ने हमले के विरोध में उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री तथा जिला प्रशासन के अधिकारियों को फैक्स भेजकर मिलमालिक को तत्काल गिरफ्तार करने की माँग की। जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना दे रहे मज़दूर पिछले कई वर्षों से गोरखपुर ही नहीं, नोएडा और दिल्ली सहित देश भर में मजदूर अधिकांश लड़ाइयाँ हारते रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है उनका बिखराव। जो पुरानी यूनियनें हैं वे ज्यादातर बड़े कारखानों के सफेदपोश मजदूरों तक सिमट चुकी हैं। लाखों छोटे-छोटे कारखानों में बेहद कम मजदूरी पर खट रहे नियमित, दिहाड़ी, ठेका, तरह-तरह के टेम्परेरी और कैजुअल मजदूरों के हितों की ये नुमाइन्दगी ही नहीं करतीं - जबकि ये मजदूर देश की कुल मजदूर आबादी के 95 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं। सबसे बर्बर शोषण और उत्पीड़न के शिकार इन करोड़ों मजदूरों को किस्म-किस्म के दल्ले, भ्रष्ट यूनियन नेता और चुनावी पार्टियों के स्थानीय नेता भरमाते-बरगलाते रहते हैं। सरकारी नीतियाँ मिल-मालिकों को लूट की खुली छूट देती हैं। लेबर कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट तक में ज्यादातर फैसले मालिकों के पक्ष में और मजदूरों के खिलाफ होते हैं। पुलिस-प्रशासन, नेता-अफसर सब मालिकों के पक्ष में एक हो जाते हैं। अखबार और टीवी भी उन्हीं की भाषा बोलते हैं।'बिगुल' से जुड़े मज़दूर कार्यकर्ताओं पर कातिलाना हमला मालिकान को महँगा पड़ा
गोरखपुर के तीन कारखानों के मज़दूरों ने अपने एकजुट संघर्ष से मालिकों को झुकाकर अपनी सभी प्रमुख माँगें मनवाकर एक शानदार जीत हासिल की है। अंकुर उद्योग लि. की धागा मिल, वी.एन. डायर्स एण्ड प्रोसेसर्स की धागा मिल और इसी की कपड़ा मिल के करीब बारह सौ मजदूरों की इस जीत का महत्व इसलिए और भी ज्यादा है क्योंकि यह ऐसे समय में हासिल हुई है, जब मजदूरों को लगातार पीछे धकेला जा रहा है और ज्यादातर जगहों पर उन्हें हार का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक बेहद पिछड़े इलाके में मजदूरों के इस सफल संघर्ष ने यह दिखा दिया है कि अगर मजदूर एकजुट रहें, भ्रष्ट, धन्धेबाज ट्रेड यूनियन नेताओं के बहकावे में न आयें और मालिक-पुलिस-प्रशासन-नेताशाही की धमकियों और झाँसों के असर में आये बिना अपनी लड़ाई को सुनियोजित ढंग से लड़ें तो अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई में ऐसी जीतें हासिल कर सकते हैं।
आन्दोलन की शुरुआत मुख्य शहर से करीब 10 किलोमीटर दूर बरगदवा इलाके में फाइबर का धागा बनाने वाली मिल अंकुर उद्योग लि. से हुई जिसमें करीब 600 मजदूर काम करते हैं। काम के घण्टे कम करने, न्यूनतम मजदूरी और साप्ताहिक छुट्टी देने, पी.एफ., ई.एस.आई. जैसी बुनियादी माँगों को लेकर मजदूरों ने 15 जून से आन्दोलन शुरू किया और उसी दिन उन्होंने आन्दोलन में सहयोग के लिए 'नौजवान भारत सभा' और 'बिगुल' से जुड़े कार्यकर्ताओं से सम्पर्क किया। 16 जून से 'नौभास' और 'बिगुल' के साथियों के शामिल होने के बाद आन्दोलन सुनियोजित ढंग से आगे बढ़ा। जल्दी ही, बरगदवा में ही स्थित एक और धागा मिल वी.एन. डायर्स एण्ड प्रोसेसर्स के करीब 300 मजदूर भी आन्दोलन में शामिल हो गये। मालिकों की तमाम कोशिशों के बावजूद दोनों मिलों में काम पूरी तरह ठप हो गया। लगातार जुझारू ढंग से धरना-प्रदर्शन और कई दौर की वार्ताओं के बाद 29 जून को दोनों कारखानों के मालिकान ने मजदूरों की सभी मुख्य माँगों को मानने के लिए लिखित समझौता किया। इस बीच मालिकों ने मजदूरों को बाँटने-बरगलाने, डराने-धमकाने के लिए हर किस्म की तिकड़म का इस्तेमाल किया, श्रम विभाग के अधिकारी नंगई से मालिकों की पैरोकारी करते रहे, स्थानीय नेताओं और गुण्डों तक ने आन्दोलन तोड़ने के लिए पूरा जोर लगा लिया लेकिन किसी की एक न चली।
इसी बीच वी.एन. डायर्स एण्ड प्रोसेसर्स की कपड़ा मिल में भी उन्हीं माँगों को लेकर आन्दोलन शुरू हो गया। यहाँ भी लगभग 300 मजदूर काम करते हैं। एक ओर धागा मिलों के मजदूरों की जीत से उत्साहित मजदूर पूरे जोश में थे, दूसरी ओर मालिक अपनी हार से बौखलाया हुआ था और बार-बार वार्ताओं में मामले को लटका रहा था। इसी दौरान 8 जुलाई की सुबह फैक्टरी गेट पर मीटिंग करने के बाद जब मजदूर लौट रहे थे तो अचानक मालिक नारायण अजितसरिया, उसके बेटे और कुछ गुण्डों ने पीछे से मजदूरों पर हमला किया। ख़ुद मालिक ने 'नौजवान भारत सभा' के कार्यकर्ता उदयभान के सिर पर पिस्तौल के कुन्दे से कई वार किये जिससे उनका सिर बुरी तरह फट गया। 'नौजवान भारत सभा' की गोरखपुर इकाई के संयोजक प्रमोद को मालिक और उसके गुण्डे घसीटकर फैक्टरी के अन्दर ले गये और गेट बन्द कर लिया। भीतर प्रमोद के हाथ-पैर बाँधकर लाठी और लोहे के सरियों से बुरी तरह पीटा गया। एक बार तो उन्हें डराने के लिए ब्वायलर में झोंकने की भी कोशिश की गयी। इस बीच बाहर मजदूरों ने सड़क पर चक्का जाम कर दिया, तब जाकर पुलिस पहुँची, लेकिन थानेदार गेट के भीतर गया तो काफी देर तक लौटा ही नहीं। आखिर मजदूर जबरन फाटक खुलवाकर फैक्टरी के भीतर घुसे और प्रमोद को लेकर बाहर आये। हमले में कई मजदूरों को भी चोटें लगीं।
इस हमले से डरने के बजाय मजदूर और भी मजबूती से एकजुट हो गये। दोनों धागा मिलों के मजदूर भी अपने भाइयों के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए साथ आ गये। अगले दिन तीनों कारखानों के मजदूरों ने मिलकर विशाल जुलूस निकाला और जिलाधिकारी कार्यालय पर प्रदर्शन करके मालिक और उसके गुण्डों को फौरन गिरफ्तार करने की माँग की। प्रशासन के दबाव में 9 जुलाई से मालिक को फिर वार्ता शुरू करनी पड़ी और तमाम दाँव-पेंच के बावजूद आखिरकार 13 जुलाई को लगभग आठ घण्टे चली वार्ता के बाद उसे मजदूरों की सारी माँगें मानने के लिए बाध्य होना पड़ा।
तीनों कारखानों के मजदूरों ने अपनी एकजुटता से काम के घण्टे आठ करने, न्यूनतम मजदूरी, साप्ताहिक व अर्जित अवकाश देने, 24 घण्टे पहले वेतन-स्लिप देने, जरूरी सुरक्षा उपकरण देने, तथा नियमानुसार महँगाई भत्ता और बोनस देने जैसी माँगें मनवाने के लिए मालिकान को बाध्य कर दिया। यह जीत पूरे गोरखपुर क्षेत्र के मजदूरों के लिए उम्मीद की किरण की तरह आयी है, जो बरसों से अपनी हड्डियाँ निचुड़वाते हुए जुल्म और शोषण के अंधेरे रसातल में जी रहे हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में दो औद्योगिक इलाके हैं। शहर की दक्षिणी सीमा पर स्थित बरगदवा तथा पूरब में शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर सहजनवा का गीडा औद्योगिक क्षेत्र। बरगदवा में इस समय करीब 20 कारखाने हैं जिनमें तीन धागा मिलें, एक कपड़ा मिल, एक सरिया मिल, साइकिल के रिम, बर्तन, प्लास्टिक के बोरे, मुर्गी का चारा, आइसक्रीम, बिस्कुट आदि के कारखाने शामिल हैं। इनमें 80-100 से लेकर 1000 तक मजदूर काम करते हैं। किसी भी मिल में कोई श्रम कानून लागू नहीं होता। मजदूरों को मुश्किल से जीने लायक वेतन देकर 12-12, 14-14 घण्टे काम कराया जाता है। अक्सर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। मजदूरों को किसी तरह की कोई सुविधा नहीं मिलती। बात-बात पर गालियाँ और मार-पीट तक सहनी पड़ती है। विरोध करने पर काम से निकाल दिया जाता है। किसी भी कारखाने में यूनियन नहीं है जिससे मालिकों को मनमानी करने की खुली छूट मिली हुई है। यहाँ काम करने वाले करीब आधे मजदूर आसपास के इलाके से हैं तो करीब आधे बिहार से आकर यहाँ काम कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश बरगदवा के आसपास ही कमरे किराये पर लेकर रहते हैं।
आन्दोलन की शुरुआत जिस अंकुर उद्योग लि. नाम की धागा मिल से हुई थी। वह 1998 में जब लगी तो वहाँ एक प्लाण्ट था, मजदूरों को निचोड़कर की गयी कमाई से आज उसमें तीन प्लाण्ट लग चुके हैं। इसका काफी माल विदेशी खरीदारों को भी सप्लाई होता है। यहाँ मजदूरों से 12 घण्टे काम लिया जाता था पर उन्हें न्यूनतम मजदूरी, ओवरटाइम, पी.एफ., ई.एस.आई., साप्ताहिक छुट्टी जैसे बुनियादी अधिकार भी नहीं दिये जाते थे। फैक्टरी के अन्दर का तापमान 90 से 100 डिग्री सेण्टीग्रेड तक पहुँच जाता था लेकिन बिजली बचाने के लिए एसी तो दूर पंखे तक नहीं चलाये जाते थे। मालिक और सुपरवाइजरों की गाली-गलौच और पैसे काट लेना रोज की बात थी।
ऐसा नहीं था कि मजदूर इस जुल्म को 11 वर्ष से चुपचाप सहन कर रहे थे। उन्होंने कई बार इसके खिलाफ आवाज उठायी, लेकिन हर बार उन्हें दबा दिया गया। पिछले साल मजदूरों ने हड़ताल कर दी और यूनियन बनाने की प्रक्रिया भी शुरू की। लेकिन मालिक ने कुछ मजदूर नेताओं को खरीदकर हड़ताल तुड़वा दी। अपने ही साथियों की गद्दारी से मजदूरों में गहरी निराशा और आक्रोश था। पिछले वर्ष दीवाली के समय मजदूरों का ग़ुस्सा फिर फूट पड़ा। बोनस के नाम पर इस कम्पनी में मजदूरों को आधा किलो लड्डू और एक पतला-सा कम्बल पकड़ा दिया जाता है। इस बार मजदूर लड्डू का डिब्बा लेकर मिल गेट से बाहर आते गये और एक-एक करके सारे लड्डू अन्दर फेंकते गये। उसी समय से मजदूरों ने गद्दार नेताओं को किनारे लगाकर फिर से आपसी एकता बनाना शुरू कर दिया। अन्दर-अन्दर आग सुलगती रही। फिर 15 जून को सभी मजदूरों ने बुनियादी सुविधाएँ दिये जाने की माँग करते हुए काम बन्द कर दिया। इसी दौरान कुछ मजदूरों ने एक जुझारू नेतृत्व की तलाश करते हुए 'नौजवान भारत सभा' और 'बिगुल' से जुड़े साथियों से सम्पर्क किया। 'नौजवान भारत सभा' और 'बिगुल' के साथियों ने फौरन उनके इस जुझारू संघर्ष का स्वागत किया और उनके कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने के लिए उनके साथ खड़े हो गये। 15 जून को ही मजदूरों का 17 सूत्री माँगपत्र तैयार करके उसे सभी सम्बन्धित अधिकारियों तक पहुँचा दिया गया। 16 जून को 500 से ज्यादा की संख्या में मजदूरों का जुलूस बरगदवा से 10-11 किमी. की दूरी तय करके शहर में पहुँचा और उपश्रमायुक्त कार्यालय पर जोरदार प्रदर्शन किया।
डी.एल.सी. महोदय सूचना होते हुए भी उस समय दफ्तर से ग़ायब थे। फिर मजदूरों का जुलूस जिलाधिकारी कार्यालय पर पहुँचा लेकिन उनके नारे सुनकर प्रशासनिक अधिकारी पिछले दरवाजे से खिसक लिये। अगले दिन मजदूरों ने फिर बरगदवा से चलकर कमिश्नर कार्यालय पर प्रदर्शन किया। कमिश्नर के निर्देश पर मिल प्रबन्धन, मजदूर प्रतिनिधि तथा जिला प्रशासन के बीच 19 जून को वार्ता तय हुई। 19 जून को फिर सैकड़ों मजदूर नारे लगाते हुए कलक्ट्रेट पहुँचे। इस बीच 16 से 19 जून के दरम्यान मजदूरों ने शहर में जमकर पर्चे बाँटे और पोस्टर लगाये। तीन दिनों तक रोज शहर में गगनभेदी नारों के साथ सैकड़ों मजदूरों के जुलूस की ख़बरों को दबा पाना मीडिया के लिए भी नामुमकिन था। 19 जून की वार्ता में डी.एल.सी. आया ही नहीं। ये वही डी.एल.सी. है जिसने कुछ महीने पहले अपनी रिपोर्ट में मालिक को क्लीनचिट देते हुए कहा था कि फैक्टरी में श्रम कानूनों का कोई उल्लंघन नहीं हो रहा है। वार्ता में मैनेजमेण्ट मुख्य माँगों को मानने पर तैयार तो हुआ लेकिन आन्दोलन के अगुआ मजदूरों को निकालने पर अड़ गया जिससे वार्ता अधूरी रह गयी। शुरू में उसने 'नौभास' और 'बिगुल' के प्रतिनिधियों के वार्ता में शामिल होने पर भी आपत्ति उठायी लेकिन मजदूर प्रतिनिधि उनके बिना वार्ता करने को तैयार ही नहीं हुए। आखिर उसे 'नौभास' के प्रमोद व प्रशान्त और श्रम मामलों के वकील सुरेन्द्रपति त्रिपाठी को वार्ता में शामिल करने पर राजी होना पड़ा।
अंकुर उद्योग लि. के ही बगल में वी.एन. डायर्स एण्ड प्रोसेसर्स की धागा मिल है जो 2000 में स्थापित हुई है। यहाँ भी 300 मजदूर उन्हीं हालात में काम करते रहे हैं। यहाँ अंकुर उद्योग से थोड़ी बेहतर मजदूरी मिलती थी लेकिन काम की परिस्थितियाँ उससे भी खराब थीं। मशीनों की रफ्तार तेज करके मजदूरों से इस कदर काम लिया जाता था कि 12 घण्टे की डयूटी के बाद वे बिल्कुल बेदम हो जाते थे। इस कारखाने के मालिक दो अजितसरिया बन्धु हैं जिनके नाम तो हैं विष्णु और नारायण लेकिन मजदूर उन्हें राक्षस कहते हैं।
अंकुर उद्योग लि. के मजदूरों के साथ 23 जून की वार्ता के ठीक पहले वी.एन. डायर्स के मजदूर भी ''मजदूर-मजदूर भाई-भाई, लड़कर लेंगे पाई-पाई!'' का नारा लगाते हुए आन्दोलन में शामिल हो गये। 23 जून को एक बार फिर जिलाधिकारी कार्यालय सैकड़ों मजदूरों के नारों से गूँज उठा। उस दिन हुई वार्ता में मालिकान ने झुकते हुए कहा कि अगुआ मजदूरों को बर्खास्त नहीं करेंगे, सिर्फ निलम्बित करेंगे, फिर वापस ले लेंगे। लेकिन यही बात लिखकर देने को तैयार नहीं हुआ तो दिनभर चली वार्ता फिर टूट गयी। दरअसल मालिक की चाल यह थी कि आन्दोलन की अगली कतार के मजदूरों को बाहर करके बाकी माँगें मान लेगा तो कारखाना खुल जायेगा और जब मजदूर नेतृत्वविहीन हो जायेंगे तो वह फिर से पुराने ढर्रे पर लौट जायेगा। लेकिन मजदूरों ने आपस में फूट डालने की किसी कोशिश को कामयाब नहीं होने दिया। वे अपने एक भी साथी के खिलाफ कार्रवाई के लिए तैयार नहीं थे।
इस बीच वी.एन. डायर्स की कपड़ा मिल में भी मजदूरों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। 27 जून को मिल मालिक ने कपड़ा मिल के मजदूरों की मीटिंग बुलाकर कहा कि दोनों मिलें उसकी दो ऑंखों की तरह हैं - धागा मिल के मजदूरों के साथ जो भी समझौता होगा, उसे यहाँ भी लागू किया जायेगा। लेकिन मजदूरों ने समझ लिया था कि अगर वे एक होकर नहीं लड़ेंगे तो दोनों मिलों के मजदूरों को कुछ नहीं मिलेगा। इसलिए 28 जून को कपड़ा मिल मजदूरों ने भी काम ठप कर दिया। 29 जून की वार्ता में मालिक ने धागा मिल मजदूरों की माँगें तो मान लीं लेकिन कपड़ा मिल मजदूरों को लटका दिया। उसने माँगें मानने के लिए यह शर्त लगा दी कि मजदूरों को उत्पादन बढ़ाने के उसके प्रस्ताव को मानना पड़ेगा। टालमटोल करने के बाद 4 जुलाई को फैक्टरी के अन्दर वार्ता हुई जिसमें शहर के कुछ छुटभैया गुण्डे किस्म के नेता भी मौजूद थे। मजदूरों ने उसके कार्य प्रस्ताव के जवाब में लिखकर दे दिया कि वह 18 घण्टे के काम को 8 घण्टे में कराना चाहता है जो असम्भव है। 5 जुलाई की शाम को बरसात में भीगते हुए तीनों कारखानों के मजदूरों ने पूरे बरगदवा इलाके में जबरदस्त एकता जुलूस निकाला। 6 जुलाई को डीएलसी कार्यालय में तय वार्ता में मालिक नहीं आया। फिर 9 जुलाई को वार्ता तय हुई लेकिन इसी बीच 8 जुलाई को बौखलाये मालिक ने मजदूर नेताओं पर कातिलाना हमला कर दिया। इस घटना ने मजदूरों के सामने एक बार फिर साफ कर दिया कि पुलिस-प्रशासन, सब किस तरह से उनके खिलाफ पैसेवालों का साथ देते हैं। मजदूरों पर जानलेवा हमला करने वाले मालिक के खिलाफ एफआईआर को कमजोर बनाने के लिए चिलुआताल थाने की पुलिस ने 307 (हत्या का प्रयास) की धारा ही हटा दी जबकि मालिक की ओर से 8 मजदूरों के खिलाफ धारा 307 के तहत फर्जी मुकदमा दर्ज कर लिया। बुरी तरह घायल मजदूरों का मेडिकल करते समय जिला अस्पताल का डॉक्टर बार-बार कह रहा था कि तुम लोग नाटक कर रहे हो, जबकि मालिक के आदमियों को चोट का फर्जी सर्टिफिकेट बना दिया गया।
आखिरकार 13 जून को काफी हीलाहवाली के बाद मालिक वार्ता में आया और काम के घण्टे आठ करने, सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी देने, वेतन सहित साप्ताहिक और अर्जित अवकाश देने, 24 घण्टे पहले वेतन-स्लिप देने, जरूरी सुरक्षा उपकरण मुहैया कराने तथा महँगाई भत्ता व बोनस का नियम से भुगतान करने पर राजी हुआ।
ऐसे में ज्यादातर मजदूर भी मान बैठे हैं कि हमें तो इन्हीं हालात में नर्क के ग़ुलामों की जिन्दगी बसर करते हुए अपनी हड्डियाँ निचोड़कर मालिक की तिजोरी भरते रहना है। सच तो यह है कि कुछ महीने पहले तक इन तीन कारखानों के मजदूर भी बहुत पस्ती के शिकार थे - लेकिन मालिकान ने पीछे धकेलते-धकेलते उन्हें इस कदर कोने में पहुँचा दिया कि अब और पीछे नहीं हटा जा सकता था। तब उन्होंने संगठित होकर लड़ने का फैसला किया। उनके पास संगठित संघर्ष का ज्यादा अनुभव भी नहीं था लेकिन वे अपनी एकजुटता की ताकत के बूते पर लड़े और जीते।
अब मजदूरों को अपने संगठित होने के इस सिलसिले को अगली मंजिल में ले जाना होगा। वे यहीं पर रुक नहीं सकते। बरगदवा से लेकर गीडा, सहजनवा ही नहीं पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश के मेहनतकशों को अपने-अपने कारखानों-इलाकों में एकजुट और संगठित होने की प्रक्रिया शुरू करनी होगी। दलाल, मक्कार, नकली, भूजाछोर मजदूर नेताओं को किनारे लगाकर अपने जुझारू संगठन बनाने होंगे और एकजुट होकर आगे बढ़ना होगा। अगर मजदूर एक रहेंगे तो मालिक-मैनेजमेंट और उनके पिट्ठू अफसरान उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकेंगे। अपने हक की लड़ाई वे शानदार तरीके से जीतेंगे। गोरखपुर के इस सफल मजदूर संघर्ष का यही सबसे बड़ा सबक है।
बिगुल टीम के बहुत ही मजबूत और अनुभवी साथी कॉमरेड अरविंद की पहली बरसी पर 24 जुलाई को दिल्ली में प्रथम अरविंद स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का विषय था —‘भूमंडलीकरण के दौर में श्रम कानून और मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप। अरविंद मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। संगोष्ठी का आयोजन राहुल फाउण्डेशन की ओर से किया गया था लेकिन बिगुल से जुड़े साथियों ने भी इसके आयोजन में भाग लिया। इस संगोष्ठी की एक संक्षिप्त रिपोर्ट यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। इसकी विस्तृत रिपोर्ट बिगुल के अगस्त अंक में प्रकाशित होगी।
'भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम कानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप' विषय पर यहां आयोजित संगोष्ठी में विभिन्न क्षेत्रों से आए वक्ताओं ने परंपरागत ट्रेड यूनियन नेतृत्व को मजदूर आंदोलन के बिखराव और कमजोरी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए नई क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें बनाने तथा बहुसंख्यक असंगठित मजदूर आबादी को संगठित करने की जरूरत पर जोर दिया।
'दायित्वबोध' पत्रिका के संपादक अरविन्द सिंह की पहली पुण्यतिथि के मौके पर आयोजित प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में ट्रेड यूनियन संगठनकर्ताओं, बुध्दिजीवियों तथा राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि एक और नव-उदारवादी नीतियों के प्रभाव से मजदूर वर्ग के आर्थिक-राजनीतिक तथा जनवादी अधिकारों में लगातार कटौती हो रही है दूसरी ओर मजदूर वर्ग अपने तात्कालिक एवं आंशिक हितों की लड़ाई को, आर्थिक माँगों एवं सीमित जनवादी अधिकारों की लड़ाई को भी प्रभावी ढंग से संगठित नहीं कर पा रहा है।
'आह्वान' पत्रिका के संपादक और मज़दूर संगठनकर्ता अभिनव सिन्हा ने अपने आधार वक्तव्य में कहा कि इक्कीसवीं सदी में पूँजी की कार्यप्रणाली में कई बुनियादी ढाँचागत बदलाव भी आये हैं। ऐसे में मजदूर आंदोलन को भी प्रतिरोध के तौर-तरीकों और रणनीति में कुछ बुनियादी बदलाव लाने होंगे। स्वचालन और अन्य नयी तकनीकों के सहारे पूँजी ने अतिलाभ निचोड़ने के नये तौर-तरीके विकसित कर लिये हैं। बड़े-बड़े कारख़ानों में मज़दूरों की भारी आबादी के स्थान पर कई छोटे-छोटे कारख़ानों में मज़दूरों की छोटी-छोटी आबादियों को बिखरा देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे कारख़ानों में अधिकांश मज़दूर ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल होते हैं या पीसरेट पर काम करते हैं। कम मज़दूरी देकर स्त्रियों और बच्चों से काम कराया जाता है। उन्होंने कहा कि देश की कुल मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत मज़दूर अनौपचारिक क्षेत्र के हैं जो किसी भी ट्रेड यूनियन में संगठित नहीं हैं। इस आबादी को संगठित करना आज के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। इस आबादी को संगठित करने के लिए कारखानों में ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में जाकर भी काम करना होगा। वेतन और भत्तों को बढ़ाने के अतिरिक्त राजनीतिक माँगों के लिए भी इन मज़दूरों के आंदोलन संगठित करने होंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय के डा. प्रभु महापात्र ने मज़दूर वर्ग के बिखराव की चर्चा करते हुए कहा कि आज उन्हें संगठित करने के नये तरीके तलाशने होंगे। उन्होंने श्रम कानून बनाए जाने के इतिहास की चर्चा करते हुए कहा कि इन कानूनों में राज्य अपने आपको मज़दूर और पूँजीपति के बीच में स्वयं को एक निष्पक्ष मध्यस्थ दिखलाता है लेकिन वास्तव में उसकी पक्षधरता पूँजी के साथ होती है। डा. महापात्र ने कहा कि असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को संगठित करने के साथ-साथ संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच भी काम करना होगा।
सीपीआई-एमएल (न्यू प्रोलेतारियन) के प्रो. शिवमंगल सिध्दान्तकर ने कहा कि मज़दूर वर्ग आज पस्तहिम्मत है। लेकिन वह फिर से लड़ने की शुरुआत कर रहा है। ज़रूरत इस बात की है कि देश के पैमाने पर बिखरी हुई क्रान्तिकारी ताकतें एक मंच पर आएं और मज़दूरों की लड़ाई को नेतृत्व दें जिससे कि मज़दूर आबादी में फैली हार की मानसिकता को दूर किया जा सके।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता शेख अंसार ने कहा कि यह बात बिल्कुल सही है कि आज मज़दूरों के रिहायशी इलाकों में काम करना और उनके पेशागत संगठन और ट्रेड यूनियन बनाने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने यही काम आज से दो दशक पहले शुरू कर दिया था और आज वहाँ तीन ऐसी बस्तियाँ हैं जो स्वयं मज़दूरों ने बसाई हैं, उनके अपने अस्पताल और अपनी एंबुलेंस और स्कूल तक हैं। इस प्रकार से अपनी संस्थाएँ और समानान्तर शक्ति तैयार करके ही आज मज़दूर वर्ग लड़ सकता है। उन्होंने कहा कि शहीद शंकर गुहा नियोगी ने अपने अंतिम संदेश में कहा था कि किसी देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी के बिना मजदूरों का संघर्ष एक मंज़िल से आगे नहीं बढ़ सकता है।
राहुल फाउण्डेशन के सत्यम ने कहा कि भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी की आवाजाही के लिए राष्ट्र राज्यों की सीमाएँ ज्यादा से ज्यादा खुल गयी हैं जबकि श्रम की आवाजाही की बन्दिशें और शर्तें बढ़ गयी हैं। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सबकुछ को उत्पाद का दर्जा देकर बाज़ार के हवाले कर दिया गया है, लेकिन श्रम को नियन्त्रित करने के मामले में सरकार, नौकरशाही और न्यायपालिका ज्यादा सक्रिय भूमिका निभाने लगी हैं। विश्वव्यापी मन्दी के वर्तमान दौर ने पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट को उजागर दिया है।
लुधियाना से आए पंजाबी पत्रिका 'प्रतिबध्द' के संपादक सुखविंदर ने कहा कि आज कई तरीकों से मज़दूरों की संगठित शक्ति और चेतना को विखण्डित करने के साथ ही कई स्तरों पर उन्हें आपस में ही बाँट दिया गया है और एक-दूसरे के ख़िलाफ खड़ा कर दिया गया है। संगठित बड़ी ट्रेड यूनियनें ज्यादातर बेहतर वेतन और जीवनस्थितियों वाले नियमित मज़दूरों और कुलीन मज़दूरों की अत्यन्त छोटी सी आबादी के आर्थिक हितों का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। आज श्रम कानूनों और श्रम न्यायालयों का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। लम्बे संघर्षों के बाद रोज़गार-सुरक्षा, काम के घण्टों, न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम, आवास आदि से जुड़े जो अधिकार मज़दूर वर्ग ने हासिल किये थे वे उसके हाथ से छिन चुके हैं और इन मुद्दों पर आन्दोलन संगठित करने की परिस्थितियाँ पहले से कठिन हो गई हैं।
'हमारी सोच' पत्रिका के संपादक सुभाष शर्मा ने कहा कि मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों के बारे में क्रान्तिकारी नेतृत्व पहले से नहीं सोच सकता। ये नये रूप आन्दोलन के दौरान स्वयं उभरेंगे। उन्होंने कहा कि बड़े कारखानों में काम करने वाले संगठित मजदूरों के बीच भी परिवर्तनकारी शक्तियों को काम करना चाहिए क्योंकि असंगठित क्षेत्र का मज़दूर लड़ाई की मुख्य ताक़त बन सकता है उसे नेतृत्व नहीं दे सकता।
इंकलाबी मजदूर केंद्र फरीदाबाद के नागेंद्र, पटना से आये नरेंद्र कुमार, 'शहीद भगतसिंह विचार मंच' सिरसा के कश्मीर सिंह, 'हरियाणा जन संघर्ष मंच' के सोमदत्त गौतम, जनचेतना मंच गोहाना के संयोजक डा. सी.डी. शर्मा और क्रांतिकारी युवा संगठन के आलोक ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संगोष्ठी में जापान से आई 'सेंटर फॉर डेवेलपमेण्ट इकोनॉमिक्स' की अध्येता सुश्री मायूमी मुरोयामा ने भी शिरकत की। दो सत्रों में चली चर्चा का संचालन राहुल फाउण्डेशन के सचिव सत्यम ने किया।
संगोष्ठी की शुरुआत में दिवंगत साथी अरविन्द की तस्वीर पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रध्दांजलि अर्पित की गई। 'विहान' सांस्कृतिक टोली के छात्रों ने शहीदों की याद में एक गीत'कारवां चलता रहेगा' प्रस्तुत किया। राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष और प्रसिध्द कवयित्री कात्यायनी ने कहा कि गत वर्ष इसी दिन अरविंद का असामयिक निधन हो गया था। वे मज़दूर अखबार 'बिगुल' और वाम बौध्दिक पत्रिका 'दायित्वबोध' से जुड़े थे। छात्र-युवा आन्दोलन में लगभग डेढ़ दशक की सक्रियता के बाद वे मज़दूरों को संगठित करने के काम में लगभग एक दशक से लगे हुए थे। दिल्ली और नोएडा से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक कई मज़दूर संघर्षों में वे अग्रणी भूमिका निभा चुके थे। अपने अन्तिम समय में भी वे गोरखपुर में सफाईकर्मियों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। उनका छोटा किन्तु सघन जीवन राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत है। अरविन्द को समर्पित एक क्रान्तिकारी गीत के साथ कार्यक्रम का समापन किया गया।
2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त
3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की
4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग
6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल
7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी
10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट
11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए
12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा
13. चोर, भ्रष्ट और विलासी नेताशाही
14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां
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