यूपीए सरकार का नया एजेण्डा : अब बेरोकटोक लागू होंगी पूँजीवादी विकास की नीतियाँ
जनता के गुस्से की ऑंच पर पानी के छींटे डालते हुए देशी-विदेशी पूँजीपतियों की लूट को और मुकम्मल बनाने की तैयारी
संपादक मंडल
कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबन्धन की जीत से देश के सारे पूँजीपति खुशी से फूले नहीं समा रहे हैं। शेयर बाज़ार का पारा चढ़ता जा रहा है। देश-विदेश का पूँजीवादी मीडिया बधाइयाँ गाते थक नहीं रहा है। उनके खुश होने की वजह ज़ाहिर है। आख़िर कांग्रेस भारतीय पूँजीपति वर्ग की सबसे पुरानी भरोसेमन्द पार्टी है। आज के दौर में बुर्जुआ वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का काम इससे अच्छी तरह कौन-सी पार्टी कर सकती है! देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सभी प्रवक्ता लगातार कह रहे हैं कि अब नयी सरकार को आर्थिक ''सुधारों'' की गति को ज्यादा तेज़ी से आगे बढ़ाना चाहिए।
सत्ता में आने के साथ ही कांग्रेस ने बता दिया है कि पूँजीवादी आर्थिक विकास की दीर्घकालिक नीतियों को वह अब ज्यादा सधो कदमों से लागू करेगी। संसदीय वामपंथियों की बैसाखी की अब उसे ज़रूरत नहीं है। ये संसदीय बातबहादुर पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हित में सरकारी नीतियों में सन्तुलन बनाने के लिए जो कुछ किया करते थे उसके लिए भी अब उनकी ज़रूरत नहीं रह गयी है। अब यह सरकार खुद ही तथाकथित सामाजिक कल्याणकारी नुस्खों को लागू करने जा रही है। राष्ट्रपति के अभिभाषण में नरेगा को मज़बूत करने, शहरों से पाँच साल में झुग्गियाँ ख़त्म करने, ग़रीबों को तीन रुपये किलो चावल देने से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर कई योजनाओं की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन ये लोकलुभावन योजनाएँ तो मुखौटा हैं। इस सरकार का असली एजेण्डा है देशी-विदेशी पूँजीपतियों को जनता को लूटने की खुली छूट देना। राष्ट्रपति के इसी अभिभाषण में सरकारी कम्पनियों के विनिवेश से लेकर वित्तीय क्षेत्र के सुधरों के नाम पर उसे विदेशी बड़ी पूँजी के लिए खोलने से लेकर कई घोषणाएँ की गयी हैं। जुलाई में पेश किये जाने वाले बजट में पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने वाले आर्थिक ''सुधारों'' की ठोस योजनाएँ पेश करने की तैयारी चल रही है। सुधारों की कड़वी घुट्टी जनता के गले के नीचे उतारने के लिए भी ज़रूरी है कि उसे ढेरों लोकलुभावन योजनाओं की चाशनी में लपेटकर पेश किया जाये।
नयी सरकार के गठन को देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि नयी नीतियों की दिशा क्या होगी। देशी पूँजीपतियों के ही नहीं साम्राज्यवादी सरकारों और विश्व बैंक-आईएमएफ जैसी संस्थाओं के वफादार सेवक मनमोहन सिंह से लेकर मोंटेक सिंह अहलूवालिया, चिदम्बरम, प्रणव मुखर्जी आदि पूरी टीम देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सबसे विश्वस्त सेवकों की टीम है। साम्राज्यवाद के एक पुराने टहलुए शशि थरूर का वाशिंगटन से आकर सीधो सरकार में मंत्री बनना भी यही संकेत दे रहा है।
दरअसल ''आम आदमी'' के लिए की गयी तमाम घोषणाओं का मकसद यही है कि नवउदारवादी पूँजीवादी नीतियों के आगे बढ़ने से पैदा होने वाले सामाजिक असन्तोष को कम किया जाये। साथ ही, इन कीन्सियाई नुस्खों को फिर से लागू करना भारत सहित विश्व पूँजी की ज़रूरत भी है। पूरी दुनिया में छायी आर्थिक मन्दी से सबक लेकर चीन, जापान और ब्राज़ील सहित कई देशों की सरकारों ने ऐसे नुस्खे आज़माये हैं। सरकार और पूँजीपति वर्ग के विचारक अच्छी तरह समझ रहे हैं कि अगर नवउदारवादी नीतियों को बेरोकटोक लागू होने दिया गया तो इनके कारण पैदा होने वाली मेहनतकशों की तबाही-बदहाली से जो आक्रोश पैदा होगा वह इस व्यवस्था को ही मुसीबत में डाल सकता है। ये विचारक पूँजीपतियों को लगातार सलाह दे रहे हैं कि मेहनतकशों को इस कदर न निचोड़ो कि उनके पास लूटने के लिए कुछ रह ही नहीं जाये। जब समाज की भारी आबादी ग़रीबी में डूब जाती है और उनके पास बाज़ार से ख़रीदने की कुव्वत ही नहीं रह जाती है तो पूँजीवादी व्यवस्था संकटग्रस्त हो जाती है। इस स्थिति से सबक लेते हुए सरकार ने ऐसी नीतियाँ लागू करने का फैसला किया है जिनसे ग़रीबों की क्रयशक्ति थोड़ी बढ़े और साथ ही उनके असन्तोष की ऑंच पर पानी के छींटे भी डाले जा सकें। जैसाकि हम 'बिगुल' के पिछले अंकों में लिखते रहे हैं, नरेगा लागू करने के पीछे एक अहम मकसद यह है कि रोज़ी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर भाग रही ग्रामीण आबादी को औद्योगिक बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल होने और शहर में दबाव बढ़ाने से रोका जा सके। मज़दूरी की दर कम बनाये रखने के लिए पूंजीपतियों को जिस हद तक बेरोज़गारों की फौज चाहिए, वह तो शहरों में पहले से मौजूद है। इससे ज्यादा भीड़ बढ़ेगी तो सामाजिक असन्तोष भड़कने का ख़तरा पैदा हो जायेगा। जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनरुध्दार मिशन से लेकर निर्माण मज़दूरों और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा देने की विभिन्न घोषणाओं के पीछे यही इरादा है।
पहले यह काम सामाजिक जनवादी यानी नकली वामपंथी और एनजीओ किया करते थे लेकिन इन चुनावों में संसदीय वामपंथियों की सीटें घटकर लगभग एक तिहाई रह गयीं। संसदीय वामपंथ के नये सौदागर भाकपा (माले) की हालत तो चौराहे के भिखारी जैसी हो गयी है। अब सरकार देशी-विदेशी थिंकटैंकों की मदद से यह काम खुद ही करने जा रही है।
लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के विचारकों और सरकार की मंशा हकीकत में कितनी लागू हो पायेगी यह सब जानते हैं। ऊपर से नीचे तक जड़ जमाये हुए नौकरशाही और भ्रष्टाचार के कारण इन योजनाओं से होने वाले लाभ का बहुत छोटा-सा हिस्सा ही वास्तव में ग़रीबों को मिल सकेगा। आजकल मीडिया के नये दुलारे राहुल गाँधी के पिता राजीव गाँधी ने कहा था कि सरकार अगर एक रुपया देती है तो ग़रीबों को महज़ 15 पैसे ही नसीब होते हैं। अब राहुल गाँधी ने स्वीकार किया है कि वास्तव में नीचे तक पहँचने वाली रकम मुश्किल से 10 पैसा ही होती है। ऐसे में इन योजनाओं का मुलम्मा उतरते ज्यादा देर नहीं लगेगी।
इससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि आज का पूँजीवाद इन कीन्सियाई नुस्खों को एक हद से ज्यादा लागू ही नहीं कर सकता। पूँजीवाद के टिके रहने की शर्त ही यह है कि वह मेहनतकशों को ज्यादा से ज्यादा निचोड़ता जाये। पूँजीवाद के विचारकों के चाहने के बावजूद पूँजीवादी उत्पादन का तर्क तो अपनी ही गति से चलेगा और पूँजीपति मज़दूरों की हड्डियाँ तक चूसने से बाज़ नहीं आयेंगे। आज उनकी खुशी का राज़ भी यही है वे जानते हैं कि जनता को लुभाने वाली तमाम घोषणाओं की आड़ में असली काम तो उन्हें लूट-खसोट की खुली छूट देने का हो रहा है। ऐसे में यह तय है कि आने वाले समय में जनता की बढ़ी हुई उम्मीदें टूटने के साथ ही लोगों का गुस्सा फूट पड़ेगा। सरकार भी इस बात को समझती है और उसने अभी से इस गुस्से पर काबू पाने के लिए अपने दमनतंत्र को चाक-चौबन्द करने की कवायदें भी शुरू कर दी हैं। पहले दिन से नक्सलवाद को कुचलने के लिए विशेष कदम उठाने की घोषणाएँ की जाने लगी हैं। गृह मंत्रालय में ''वामपंथी उग्रवाद'' के लिए एक गृह राज्यमंत्री को विशेष प्रभार दिया गया है। इनसे निपटने के लिए कई नयी विशेष 'कोबरा' बटालियनों का गठन करने की घोषणा कर दी गयी है। पिछले सालों का इतिहास गवाह है कि इन तमाम हथियारों का इस्तेमाल जनता के आन्दोलनों को कुचलने के लिए किया जाता रहा है और आगे भी किया जायेगा। आतंकवाद के नाम पर बनाये गये काले कानूनों का इस्तेमाल सबसे अधिक उन लोगों के ख़िलाफ किया जाता है जो जनता के हक छीने जाने और मानवाधिकारों के हनन का विरोध करते हैं। ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं से लेकर शहरी ग़रीबों के हक में आन्दोलन करने वालों और गाँवों में भ्रष्टाचार और शोषण के ख़िलाफ आवाज़ उठाने वालों तक को इन काले कानूनों का शिकार बनाया जा चुका है।
इन चुनावों में भाजपा की करारी हार और उसके बाद से संघ परिवार में मची थुक्का-फजीहत से कई लोगों को यह ख़ुशफहमी हो गयी है कि अब फासीवाद का ख़तरा लम्बे समय तक टल गया है। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि नयी सरकार की नीतियों से जो संकट पैदा होगा उनसे निपटने के लिए पूँजीपति वर्ग फिर से फासीवाद का इस्तेमाल करेगा। तीसरी दुनिया के बहुतेरे देशों की तरह भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर भी फासीवाद उस शिकारी कुत्तो की तरह मौजूद है जिसकी ज़ंजीर शासक वर्गों के हाथ में है। पूँजीवादी नीतियों की वजह से जब संकट गम्भीर होने लगे और जनता सड़कों पर उतरने लगे तो फिर से उसके ऊपर इस शिकारी कुत्तो को छोड़ा जा सकता है। हमें इस बात की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि ये फासिस्ट ताकतें बड़े योजनाबद्ध ढंग से गाँवों से लेकर शहरी निम्न मधय वर्ग और मज़दूरों तक के बीच अपना नया सामाजिक आधार बनाने में लगी हुई हैं। इनका मुकाबला करने के लिए क्रान्तिकारियों को भी मेहनतकश आबादी के बीच क्रान्तिकारी प्रचार तेज़ करना होगा और विभिन्न सांस्कृतिक माधयमों से फासीवादी विचारों और संस्कृति का पर्दाफाश करना होगा।
यूपीए सरकार के नये एजेण्डा की कलई खुलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। पूँजीवाद के हितैषी तमाम विचारक चाहकर भी पूँजी की मूल गति को अपना काम करने से रोक नहीं सकेंगे। अतिरिक्त मूल्य निचोड़ते जाने के तर्क से मुट्ठी भर लोगों के पास सम्पत्ति का पहाड़ इकट्ठा होता जायेगा और भारी आबादी ग़रीबी में डूबती जायेगी। ''वामपंथी'' दुस्साहसवाद और संसदवाद के रास्ते से अलग मेहनतकश अवाम को व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए संगठित करने की राह पर चलने वाले सच्चे क्रान्तिकारियों को अभी से इस सच्चाई से जनता को वाकिफ कराते हुए आने वाले समय के संघर्षों की तैयारी में जुट जाना चाहिए।
1 कमेंट:
सियार की जब मौत आती है तो शहर की तरफ भागता है।
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