बादली औद्योगिक क्षेत्र की हत्यारी फैक्टरियाँ
बिगुल संवाददाता
पिछले महीने 2 मई को बादली औद्योगिक क्षेत्र के फेस 1 की एस-59 स्थित फैक्टरी में पत्ती लगने से मुकेश नामक एक मज़दूर की दर्दनाक मौत हो गयी। फैक्टरी के मालिक ने पुलिस-प्रशासन से मिलीभगत करके मामले की लीपापोती कर दी। जब 'नौजवान भारत सभा' तथा 'बिगुल मज़दूर दस्ता' के कार्यकर्ताओं ने इस घटना के ख़िलाफ पर्चा निकालकर मज़दूरों के बीच प्रचार किया तो स्थानीय विधायक देवेन्द्र यादव के कार्यालय से धमकी भरे फोन आने लगे।
28 मई को भी न्यू लाइन बिल्डकप प्राइवेट लिमिटेड, एस-99, फेस 1, बादली औद्योगिक क्षेत्र में बिजली लगने से रामप्रसाद सिंह नामक मज़दूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी तथा तीन अन्य मज़दूर झुलस गये। इस घटना में भी वही कहानी दुहरायी गयी, पुलिस-प्रशासन की मदद से मामले की लीपापोती कर दी गयी। इस घटना के ख़िलाफ भी जब 'नौजवान भारत सभा' तथा 'बिगुल मज़दूर दस्ता' के कार्यकर्ता पर्चा वितरण कर मज़दूरों के बीच प्रचार कर रहे थे तो स्थानीय थाना समयपुर बादली का एक इंस्पेक्टर कार्यकर्ताओं को प्रचार करने से मना कर रहा था तथा 'कानून' समझा रहा था। जब उक्त संगठन के कार्यकर्ताओं ने पुलिस-प्रशासन के ख़िलाफ नारेबाज़ी शुरू कर दी तो पुलिसवाले ने तुरन्त गिरगिट की तरह रंग बदल लिया और कहने लगा कि वह तो सुरक्षा को ध्यान में रखकर यह बात कर रहा था।
बादली औद्योगिक क्षेत्र के ज्यादातर कारख़ानों में लोहे/स्टील से सम्बन्धित फैक्टरियाँ हैं। ज्यादातर फैक्टरियों में पुरानी मशीनों की मदद से मज़दूरों को जान हथेली पर रखकर काम करना होता है। सुरक्षा प्रबन्ध के नाम पर इन कारख़ानों में सिर्फ ख़ानापूर्ति के लिए कुछ चीज़ें रखी जाती हैं जोकि इतनी अव्यावहारिक होती हैं कि मज़दूर ख़ुद ही उसका इस्तेमाल नहीं करते हैं। इन फैक्टरियों में दुघर्टनाएँ नियमित होती रहती हैं। मज़दूरों के हाथ-पैर कटते रहते हैं, चोटें लगती रहती हैं, मौतें होती रहती हैं। दुर्घटना होने पर मुआवज़ा तो दूर, घायल मज़दूर का ठीक से इलाज भी नहीं कराया जाता।
फैक्टरी मालिक-पुलिस प्रशासन-विधायक/पार्षदों की मिलीभगत से यह सबकुछ चल रहा है। छोटे-छोटे नर्सिंग होमों में मज़दूरों का जैसे-तैसे इलाज करवाकर मामला निपटा दिया जाता है। किसी भी फैक्टरी में किसी भी श्रम कानून का कोई पालन नहीं होता है।
एस-59 के कुछ मज़दूरों का कहना था कि यह इस फैक्टरी में दुघर्टना से पाँचवीं मौत है। स्थानीय विधायक तथा फैक्टरी मालिक की काफी नज़दीकी है, जिसका सबूत विधायक के यहाँ से धमकी भरे फोन का आना है।
अब सवाल यह है कि किया क्या जाये? क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कोई रास्ता निकल सकता है। यहाँ राजा विहार, सूरज पार्क-जे.जे.कोलोनी, समयपुर, संजय कालोनी में मज़दूरों की एक बहुत बड़ी आबादी रहती है। ज्यादातर मज़दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के रहने वाले हैं। पुराने मज़दूरों की आबादी ठीक-ठाक है तथा नये मज़दूर भी आ रहे हैं। इस इलाके में मज़दूरों के बीच सीपीएम की यूनियन सीटू के लोग अपनी दुकानदारी चलाते हैं तथा कुछ छोटे-छोटे दलाल 'मालिक सताये तो हमें बतायें' का बोर्ड लगाकर बैठे हुए हैं, जिनकी गिद्ध दृष्टि मज़दूरों पर लगी रहती है। जैसे ही कोई परेशान मज़दूर उनके पास पहुँचता है ये गिद्ध उस पर टूट पड़ते हैं तथा उसकी बची-खुची बोटी नोचकर अपना पेट भरते हैं। इस इलाके में मज़दूरों को जागृत, गोलबन्द तथा संगठित करने का काम चुनौतियों से भरा हुआ है। लगातार प्रचार के माध्यम से मज़दूरों की चेतना को जागृत करते हुए उन्हें मज़दूरों के जुझारू इतिहास से परिचित कराना होगा, उन्हें उनके हक के बारे में लगातार बताते रहना होगा तथा उनके बीच के अगुआ लोगों को लेकर ऐसी एक-एक घटना के ख़िलाफ लगातार प्रचार करके पुलिस-प्रशासन-नेताशाही पर दबाव बनाना होगा, तभी जाकर इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने पर फैक्टरी मालिकों को मजबूर किया जा सकता है। इसी प्रक्रिया में मज़दूरों को लगातार बताना होगा कि यह पूरी व्यवस्था मालिकों की हिफाज़त के लिए है तथा बिना इस पूरी व्यवस्था को जड़ से बदले मज़दूरों का इन्सानों की ज़िन्दगी जी पाना असम्भव है।
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सब जगह यही स्थिति है। मजदूरों ने 50 से 80 के बीच के सामूहिक संघर्षों से जो कुछ अर्जित किया था उसे सीपीएम और सीपीआई के दलाल संगठनों सीटू और एटक ने ठिकाने लगा दिया है। अब तो 1923 के कामगार क्षतिपूर्ति कानून की पालना भी नहीं होती। श्रम विभाग के इंस्पेक्टर मालिकों को कानूनों से बचने के तरीके सुझाने की महत्वपूर्ण सेवाएँ दे रहे हैं। अधिकतर कारखानों में पीएफ के कंट्रीब्यूशन से बचने के लिए मजदूरों को कारखाने का कर्मचारी ही नहीं दिखाया जाता है। बेनामी ठेकेदारों के नाम से वेतन दिया जाता है।
अब मजदूरों का संघर्ष अर्थवाद की सीमा से बाहर जा चुका है। मजदूरों को अदालतों के माध्यम से राहत मिलना बंद हो चुकी है। मजदूरों का संघर्ष राजनैतिक संघर्ष के दायरे में आ चुका है। इसलिए राजनैतिक चेतना का प्रसार कर के ही मजदूरों के संगठन खड़े किए जा सकते हैं। संगठनों के मजबूत होने पर ही बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा सकती हैं।
जेके सिंथेटिक्स की इकाईओं जैसे प्रबंधन के खिलाफ कोटा के मजदूरों के केस लड़ते हुए, श्री दिनेशराय द्विवेदी जी ने फैकट्री मालिकों, सरकारी लेबर कमिशनरों, इंस्पेक्टरों, अदालतों सीपीएम और सीपीआई के दलाल संगठनों सीटू और एटक आदि के रोल का बारीकी से अध्ययन किया है. उनका निष्कर्ष कि "मजदूरों का संघर्ष राजनैतिक संघर्ष के दायरे में आ चुका है । इसलिए राजनैतिक चेतना का प्रसार कर के ही मजदूरों के संगठन खड़े किए जा सकते हैं। संगठनों के मजबूत होने पर ही बड़ी लड़ाइयां लड़ी जा सकती हैं।" स्थिति का सही मूल्याँकन करता है और मजदूर वर्ग के हिरावलों को इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है.
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