मई दिवस अनुष्ठान नहीं, संकल्पों को फौलादी बनाने का दिन है!
एक बार फिर मुक्ति का परचम उठाओ! पूँजी की बर्बर सत्ता के ख़िलाफ फैसलाकुन लड़ाई की तैयारी में जुट जाओ!!
इक्कीसवीं सदी को मज़दूर क्रान्ति की मुकम्मल जीत की सदी बनाओ!!!
मई 1886 के ऐतिहासिक संघर्ष के लगभग सवा सौ साल बाद आज मज़दूर वर्ग एक अभूतपूर्व परिस्थिति में खड़ा है। एक ओर दशकों के संघर्षों और अनगिनत मज़दूर योद्धाओं की कुर्बानी से हासिल उसके ज़्यादातर राजनीतिक अधिकार छीन लिये गये हैं और व्यापक मज़दूर आबादी पूँजी की बर्बर निरंकुश सत्ता के क्रूर शोषण के आगे मानो निहत्थी छोड़ दी गयी है। मज़दूर आन्दोलन के बिखराव ने पूँजीपतियों को यह खुली छूट दे दी है कि वे मनमानी शर्तों पर मज़दूरों को लूट-खसोट सकते हैं। अपने अस्तित्व के लिए जूझते मज़दूरों की भारी आबादी से तो मज़दूरों का अपना राज कायम करने का सपना ही छीन लिया गया है।
दूसरी ओर, आज पूँजीवाद 1930 के बाद की सबसे घातक मन्दी की मार से चरमरा रहा है। अमेरिका से शुरू हुई मन्दी अब न केवल विश्वव्यापी होकर 1930 के दशक की महामन्दी और महाध्वंस के बाद के सबसे बड़े आर्थिक संकट का रूप ले चुकी है, बल्कि अर्थव्यवस्था के कारगर पुनर्गठन का कोई विकल्प भी सामने मौजूद नहीं दीख रहा है। जो लोग पूँजीवाद के अमरत्व के दावे करते हुए समाजवाद को भंगुर और अव्यावहारिक बता रहे थे, वे पूँजीवाद को दुश्चक्र से निकलने की कोई राह नहीं सुझा पा रहे हैं। एक बार फिर यह सिद्ध हो गया है कि साम्राज्यवाद के आगे पूँजीवाद की कोई और अवस्था नहीं है और ऐतिहासिक कारणों से साम्राज्यवाद की आयु भले ही कुछ लम्बी हो गयी हो, लेकिन अब एक सामाजिक-आर्थिक संरचना और विश्व-व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद के दीर्घजीवी होने की सम्भावना निश्शेष हो चुकी है।
वर्तमान परिस्थिति एक बार फिर बड़ी शिद्दत के साथ मज़दूर आन्दोलन को तमाम भ्रामक और फरेबी विचारों के घेरे से बाहर निकालकर सच्ची क्रान्तिकारी राह पर आगे बढ़ाने की फौरी ज़रूरत का अहसास करा रही है। ऐसे में हम बिगुल के मई, 2003 के अंक का सम्पादकीय अग्रलेख एक बार फिर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसमें प्रस्तुत विचार आज भी उतने ही, बल्कि पहले से ज़्यादा प्रासंगिक और विचारोत्तेजक हैं। - सम्पादक मण्डल
दूसरी ओर, आज पूँजीवाद 1930 के बाद की सबसे घातक मन्दी की मार से चरमरा रहा है। अमेरिका से शुरू हुई मन्दी अब न केवल विश्वव्यापी होकर 1930 के दशक की महामन्दी और महाध्वंस के बाद के सबसे बड़े आर्थिक संकट का रूप ले चुकी है, बल्कि अर्थव्यवस्था के कारगर पुनर्गठन का कोई विकल्प भी सामने मौजूद नहीं दीख रहा है। जो लोग पूँजीवाद के अमरत्व के दावे करते हुए समाजवाद को भंगुर और अव्यावहारिक बता रहे थे, वे पूँजीवाद को दुश्चक्र से निकलने की कोई राह नहीं सुझा पा रहे हैं। एक बार फिर यह सिद्ध हो गया है कि साम्राज्यवाद के आगे पूँजीवाद की कोई और अवस्था नहीं है और ऐतिहासिक कारणों से साम्राज्यवाद की आयु भले ही कुछ लम्बी हो गयी हो, लेकिन अब एक सामाजिक-आर्थिक संरचना और विश्व-व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद के दीर्घजीवी होने की सम्भावना निश्शेष हो चुकी है।
वर्तमान परिस्थिति एक बार फिर बड़ी शिद्दत के साथ मज़दूर आन्दोलन को तमाम भ्रामक और फरेबी विचारों के घेरे से बाहर निकालकर सच्ची क्रान्तिकारी राह पर आगे बढ़ाने की फौरी ज़रूरत का अहसास करा रही है। ऐसे में हम बिगुल के मई, 2003 के अंक का सम्पादकीय अग्रलेख एक बार फिर यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि इसमें प्रस्तुत विचार आज भी उतने ही, बल्कि पहले से ज़्यादा प्रासंगिक और विचारोत्तेजक हैं। - सम्पादक मण्डल
मई दिवस के शहीदों की कुर्बानी बेकार नहीं गयी। जल्दी ही काम के घण्टों पर संघर्ष की लहर अमेरिका से यूरोप तक और फिर पूरी दुनिया में फैल गयी। पूँजीपति वर्ग की सरकारें विकसित पूँजीवादी देशों से लेकर उपनिवेशों तक में आठ घण्टे के कार्यदिवस का कानून बनाने के लिए बाध्य हो गयीं। यही नहीं, मज़दूरों की जुझारू वर्ग चेतना से आतंकित दुनिया के अधिकांश देशों की पूँजीवादी सत्ताएँ श्रम कानून बनाकर किसी न किसी हद तक मज़दूरों को चिकित्सा, आवास आदि बुनियादी सुविधाएँ, तथा यूनियन बनाने का अधिकार देने, न्यूनतम मज़दूरी तय करने और जब मर्ज़ी रोज़गार छीन लेने जैसी मालिकों की निरंकुश हरकतों पर बन्दिशें लगाने के लिए मजबूर हो गयीं। इसीलिए यह कहा जाता है कि मई दिवस दुनिया के मेहनतकशों के राजनीतिक चेतना के युग में प्रवेश करने का प्रतीक दिवस है। मई, 1886 ने यह संकेत दे दिया था कि बीसवीं सदी में श्रम की ताकत संगठित होकर पूँजी की सत्ता को झकझोर देने वाले विकट, भूकम्पकारी तूफानों को जन्म देने वाली है।
यदि इस बुनियादी बात को ही भुला दिया जाये तो फिर मई दिवस मनाने का भला क्या मतलब रह जाता है? लेकिन सच तो यही है कि आज इस बुनियादी बात को ही भुला दिया गया है। चुनावी पार्टियों के पिछलग्गू वे तमाम ट्रेडयूनियनबाज़ घाघ मई दिवस का परचम लहरा रहे हैं जिनका काम ही मज़दूरों को महज़ दुअन्नी-चवन्नी की लड़ाई में उलझाये रखकर अपना उल्लू सीधा करना है, अपने आकाओं की चुनावी गोट लाल करना है और एक धोखे की टट्टी के रूप में इस व्यवस्था की हिफाज़त करना है। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी (सरकार) में मज़दूरों का महकमा देखने वाला मुलाजिम (श्रम मन्त्री) लगातार मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़ने और उजरती ग़ुलामी की डण्डा-बेड़ियों को मज़बूत करने के कानूनी बन्दोबस्त करता रहता है और मई दिवस के दिन देश के मज़दूरों के नाम सन्देश जारी करता है। और हद तो तब हो जाती है जब पता चलता है कि कई एक कारख़ानों के मालिकान भी मई दिवस के दिन मज़दूरों को लड्डू बँटवाते हैं या यूनियन-मैनेजमेण्ट मिलकर प्रीतिभोज का आयोजन करते हैं। मई दिवस के शहीदों का भला इससे बढ़कर भी कोई अपमान हो सकता है?
इससे अधिक अफसोस की बात क्या हो सकती है कि इतिहास के जिस दौर में, विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय के दौरान मज़दूर वर्ग की राजनीतिक लड़ाई सबसे अधिक कमज़ोर अवस्था में दिख रही है, ऐन उसी दौर में उस महान मई दिवस के अर्थ और महत्त्व को सबसे अधिक विकृत-विघटित कर दिया गया है। मज़दूर वर्ग को अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद और संसदवाद की चौहद्दी से बाहर निकालकर, व्यापक मज़दूर एकता की ज़मीन पर राजनीतिक संघर्षों को संगठित करने की शुरुआत करके ही आज हम मई दिवस की गरिमा वास्तव में बहाल कर सकते हैं और सही मायने में मई दिवस के महान शहीदों की शानदार परम्परा के सच्चे वारिस बन सकते हैं।
आर्थिक संघर्ष मज़दूर वर्ग का बुनियादी संघर्ष है। इसके ज़रिये वह लड़ना और संगठित होना सीखता है। मुख्यतः ट्रेडयूनियनें इस संघर्ष के उपकरण की भूमिका निभाती हैं और इस रूप में वर्ग-संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला की भूमिका निभाती हैं। लेकिन आर्थिक संघर्ष मज़दूर वर्ग को सिर्फ कुछ राहत, कुछ रियायतें और कुछ बेहतर जीवनस्थितियाँ ही दे सकते हैं। वे पेशागत संकुचित मनोवृत्ति को तोड़कर मज़दूरों को उनकी व्यापक वर्गीय एकजुटता की ताकत का अहसास नहीं करा सकते। न ही वे उन्हें अपनी मुक्ति की सम्भाव्यता और पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष की आवश्यकता का अहसास करा सकते हैं। ऐसा केवल राजनीतिक माँगों पर संघर्ष के द्वारा ही सम्भव है।
मज़दूर आन्दोलनों का इतिहास और मज़दूर क्रान्ति का विज्ञान हमें बताता है कि आर्थिक संघर्ष कभी भी अपनेआप, स्वयंस्फूर्त ढंग से राजनीतिक संघर्ष में रूपान्तरित नहीं हो जाते। आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ शुरू से ही मज़दूर वर्ग राजनीतिक संघर्षों को भी चलाये, तभी मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध अपने संघर्ष को आगे बढ़ा सकता है। राजनीतिक संघर्ष तब तक रोज़मर्रा के संघर्षों के अंग के तौर पर प्रारम्भिक अवस्था में होते हैं तभी तक ट्रेडयूनियनों के माध्यम से उनका संचालन सम्भव होता है। एक मंज़िल आती है जब राजनीतिक संघर्ष के लिए सर्वहारा वर्ग के किसी ऐसे संगठन की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है जो सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान की सुसंगत समझदारी से लैस हो। यह संगठन पूँजीवाद के आर्थिक ताने-बाने, राजनीतिक तन्त्रा और पूरी सामाजिक संरचना को भलीभाँति समझने के बाद उसके विकल्प का ख़ाका पेश करता है; पूँजीवादी राज्यसत्ता को ध्वस्त करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना करने तथा समाजवाद का निर्माण करने के कार्यक्रम और रास्ते से सर्वहारा वर्ग को शिक्षित करता है और उस रास्ते पर आगे बढ़ने में सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व देता है। विश्व मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में सर्वहारा वर्ग के हरावल के रूप में ऐसी सर्वहारा पार्टी की धारणा के मूर्त रूप लेते ही ट्रेडयूनियन ऐतिहासिक रूप से ''पिछड़े'' वर्ग-संगठन की स्थिति में पहुँच गयी। वर्ग-संघर्ष की प्राथमिक पाठशाला वह आज भी है, लेकिन वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के मार्गदर्शन में संगठित पार्टी ही पूँजीवादी व्यवस्था का नाश करके सर्वहारा वर्ग की आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक मुक्ति के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचा सकती है, यही सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान की - मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षा है और बीसवीं सदी के दौरान इतिहास इसे सत्यापित भी कर चुका है।
मज़दूर क्रान्ति की विचारधारा मज़दूर आन्दोलन में अपनेआप नहीं पैदा हो जाती। उसे उसमें बाहर से डालना पड़ता है। यह काम मज़दूर वर्ग के हरावल दस्ते के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी के संगठनकर्ता-कार्यकर्ता अंजाम देते हैं। वे मज़दूरों की रोज़मर्रा की लड़ाइयाँ संगठित करते हुए, पहली ही मंज़िल से उनके बीच लगातार राजनीतिक प्रचार एवं शिक्षा का काम चलाते हैं, आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ राजनीतिक संघर्ष भी संगठित करते हैं, उन्हें क्रमशः उन्नत और व्यापक बनाते हैं, इस प्रक्रिया के दौरान मज़दूरों के सर्वाधिक उन्नत तत्त्वों को विचारधारा से लैस करके हरावल दस्ते (पार्टी) में भर्ती करते हैं तथा उनके माध्यम से ट्रेडयूनियनों व अन्य जनसंगठनों-मोर्चों में पार्टी के विचारधारात्मक मार्गदर्शन एवं राजनीति का वर्चस्व (हेजेमनी) स्थापित करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं।
अर्थवादी मज़दूर वर्ग को तरह-तरह से आर्थिक संघर्षों तक ही सीमित रखने की कोशिश करते हैं, वे मज़दूर वर्ग को राजनीतिक संघर्षों से दूर रखने की या फिर इनके मामले में संयम बरतने की सीख देते हैं। वे यह भी दलील देते हैं कि मज़दूर वर्ग की विचारधारा मज़दूर आन्दोलन के भीतर से स्वयंस्फूर्त ढंग से पैदा हो जाती है। इस तरह वे मज़दूर वर्ग के बीच उसके हरावल दस्तों (पार्टी तत्त्वों) द्वारा सचेतन तौर पर संगठित की जाने वाली राजनीतिक प्रचार एवं आन्दोलन की कार्रवाई को अनुपयोगी बताने की कोशिश करते हैं। वे ट्रेडयूनियनवादी भी इन्हीं के सगे-सहोदर होते हैं (प्रायः ये दोनों एक ही होते हैं) जो अपनी सारी कवायद ट्रेडयूनियन की चैहद्दी तक ही सीमित रखते हैं और इस चौहद्दी के बाहर मज़दूर चेतना के विकास को हर चन्द कोशिश करके रोकते हैं, क्योंकि तब उनका सारा धन्धा ही चौपट हो जाने का ख़तरा रहता है। जो संसदीय वामपन्थी क्रान्ति के बजाय बुर्जुआ संसद और चुनावों के ही ज़रिये समाजवाद ला देने का धोखा भरा प्रचार करते हैं, उनकी राजनीति अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद से ही नाभिनालबद्ध होती है। अपने मूल रूप से ये सभी सुधारवाद की ही विविध अभिव्यक्तियाँ हैं जो मज़दूर वर्ग को यह धोखा भरी नसीहत देती हैं कि क्रान्ति के बजाय इसी व्यवस्था में सुधारों का पैबन्द लगाकर काम चलाया जा सकता है। संसदीय वामपन्थ और अर्थवाद की राजनीति चूँकि मार्क्सवाद के सारतत्त्व (वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व) में 'संशोधन' (यानी वास्तव में तोड़-मरोड़) करने की कोशिश करती है, अतः उसे संशोधनवाद भी कहा जाता है। संशोधनवाद, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद जैसी धाराएँ मज़दूर वर्ग को सर्वहारा क्रान्ति के मूल विचार से भटकाकर, पूँजीवादी व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा पंक्ति का काम करती हैं। इतिहास बताता है कि मज़दूर आन्दोलन के इन विभीषणों, जयचन्दों, मीरज़ाफरों ने पूँजीवाद की इतनी सेवा की है और इतने नाजुक मौकों पर उसकी मदद की है कि उसे याद करके पूँजीपति वर्ग की आँखें भर आयें। यहाँ तक कि जिस समाजवाद का विश्व-पूँजीवाद के बाहरी हमले कुछ न बिगाड़ सके, उसे भी ध्वस्त करने में इन भितरघातियों की ही भूमिका केन्द्रीय रही।
बेशक हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब विश्वस्तर पर क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है। सर्वहारा क्रान्तियों के जो प्रथम संस्करण बीसवीं सदी में निर्मित हुए थे, वे भविष्य के लिए कीमती सबक देने के बाद, टूट-बिखर चुके हैं। श्रम और पूँजी के बीच ऐतिहासिक युद्ध का पहला चक्र श्रम-पक्ष की पराजय के साथ पूरा हुआ है। लेकिन यह इतिहास का अन्त नहीं है। पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है। इतिहास का तर्क उसके भीतर समाजवाद के और अधिक शक्तिशाली बीजों को विकसित कर रहा है। श्रम और पूँजी के बीच के विश्व ऐतिहासिक महायुद्ध का दूसरा और निर्णायक चक्र इक्कीसवीं सदी में लड़ा जायेगा। इतिहास का यही तर्क है। मानव समाज का गति-विज्ञान यही बताता है।
लेकिन साथ ही, आज की इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पूरी दुनिया में और भारत में, मज़दूर वर्ग की संगठित राजनीतिक लड़ाई आज एकदम कमज़ोर पड़ गयी है और एक तरह से पाश्र्वभूमि में ढकेल दी गयी है। यदि राजनीतिक संघर्ष कहीं चल भी रहे हैं तो छिटपुट और स्वयंस्फूर्त रूप में और प्रायः उनका अन्त विघटन और पराजय के रूप में हो रहा है। लेकिन ग़ौर से देखें तो उम्मीद की किरणें हमें इसी अँधेरे के भीतर से फूटती दिखती हैं। विश्वस्तर पर जारी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने आज एक के बाद एक करके मज़दूरों के उन सभी राजनीतिक अधिकारों को छीनकर उसे एकदम कोने में धकेल दिया है, जो उन्होंने एक शताब्दी से भी अधिक लम्बी अवधि के दौरान कठिन संघर्ष और अकूत कुर्बानियों के ज़रिये हासिल किये थे। तरह-तरह की कानूनी बन्दिशों से ये राजनीतिक अधिकार इस हद तक छीन लिये गये हैं कि आर्थिक एवं कानूनी लड़ाइयों का मैदान भी सिकुड़कर एकदम छोटा हो गया है। श्रम कानूनों और श्रम न्यायालयों आदि का कोई मतलब नहीं रह गया है। आर्थिक संघर्षों की सीमाएँ जितनी संकुचित हुई हैं, उसी अनुपात में अर्थवादियों और संसदमार्गी वामपन्थियों का चरित्रा भी साफ हुआ है। क्रान्ति की उम्मीद मेहनतकश जनता भला उनसे क्या पालेगी, जब वे स्वयं ही क्रान्ति की बातें करना बन्द कर चुके हैं। विश्व पूँजी अपने ढाँचागत संकटों के दबाव से संचालित होकर, अपने सर्वाधिक संगठित सिरे से फासिज़्म की शक्तियों को संगठित कर रही है और उसके आगे संसदीय वामपन्थी एकदम काग़ज़ी और दन्तनखहीन साबित हो रहे हैं।
यानी कुल मिलाकर, यदि वस्तुगत परिस्थितियों की बात की जाये तो कहा जा सकता है कि क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार एवं आन्दोलन के लिए वे अत्यधिक अनुकूल हैं। अर्थवादी और संसदवादी विभ्रम-मोहभ्रम पैदा कर पाने की गुंजाइशें अत्यधिक कम हो गयी हैं। व्यवस्था स्वयं अपनी चौहद्दियों को लोगों की नज़रों के सामने ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट करती जा रही है। सारी समस्या क्रान्ति के सचेतन कारक तत्त्व के - सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्ते के फिर से संगठित होने के मुद्दे पर केन्द्रित है।
हमारे देश में इस समस्या का केन्द्रबिन्दु यह है कि ज़्यादातर सर्वहारा क्रान्तिकारी तत्त्व भी इस केन्द्रीय तत्त्व को पकड़ नहीं पा रहे हैं कि नयी सर्वहारा क्रान्ति का हरावल दस्ता अतीत की राजनीतिक संरचनाओं को जोड़-मिलाकर संघटित नहीं किया जा सकता, बल्कि उसका नये सिरे से निर्माण करना होगा। यानी प्रधान पहलू पार्टी-गठन का नहीं, बल्कि पार्टी-निर्माण का है। भारत में अब तक जिसे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर कहा जाता रहा है, वह मूलतः और मुख्यतः विघटित हो चुका है। विभिन्न ग्रुपों के बीच राजनीतिक बहस-मुबाहसा करके एकता बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए सर्वहारा वर्ग की एक सर्वभारतीय पार्टी पुनर्गठित कर पाने की प्रक्रिया विगत तीन दशकों के दौरान कहीं नहीं पहुँच सकी है। इसके बुनियादी कारण इस शिविर की और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के पूरे इतिहास की विचारधारात्मक कमज़ोरी में निहित रहे हैं, जो अलग से विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं। कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन संसदीय मार्ग के राही बनकर ‘भूतपूर्व’ विश्लेषण से लैस हो चुके हैं। कुछ ऐसे हैं जो मुँह से क्रान्ति और वर्ग-संघर्ष की बात करते हुए राजनीतिक-सांगठनिक आचरण में सर्वथा सामाजिक-जनवादी दिख रहे हैं और अर्थवादी दलदल में गोते लगा रहे हैं तथा मेंशेविकों से भी घटिया ढंग से सांगठनिक गुन्ताड़े बिठा रहे हैं। कुछ ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद की राह पर उतना आगे जा चुके हैं कि अब वापसी मुमकिन नहीं और कुछ ''वामपन्थी'' दुस्साहसवाद और जुझारू अर्थवाद की विचित्र, बदबूदार अवसरवादी बिरयानी पका रहे हैं। ज़्यादातर संगठन आज भी भूमि क्रान्ति का रट्टा मारते हुए जूते के हिसाब से पैर काटकर पंगु हो चुके हैं और धनी किसानों के आन्दोलनों के पुछल्ले, नरोदवाद के विकृत भारतीय संस्करण बन चुके हैं। कुछ मुक्त चिन्तकों के जमावड़े बन चुके हैं और कुछ रहस्यमय गुप्त सम्प्रदाय। शेष जो नेकनीयत हैं, उनकी स्थिति आज वामपन्थी बुद्धिजीवी ग्रुपों से अधिक कुछ भी नहीं है।
भारत के अधिकांश कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुपों-संगठनों के कमज़ोर विचारधारात्मक आधार, ग़लत सांगठनिक कार्यशैली और ग़लत कार्यक्रम पर अमल की आधी-अधूरी कोशिशों के लम्बे सिलसिले ने आज उन्हें इस मुकाम पर ला खड़ा किया है कि उनके सामने पार्टी के पुनर्गठन का नहीं, बल्कि नये सिरे से निर्माण का प्रश्न केन्द्रीय हो गया है। चीजें कभी अपनी जगह रुकी नहीं रहतीं। वे अपने विपरीत में बदल जाती हैं आज अव्वल तो विचारधारा और कार्यक्रम के विभिन्न प्रश्नों पर बहस-मुबाहसे से एकता कायम होने की स्थिति ही नहीं दिखती और यदि यह हो भी जाये तो एक सर्वभारतीय क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी नहीं बन सकती क्योंकि कुल मिलाकर, घटक संगठनों-ग्रुपों के बोल्शेविक चरित्र पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ है। आज भी क्रान्तिकारी कतारों का सबसे बड़ा हिस्सा मा-ले ग्रुपों-संगठनों के तहत ही संगठित है। यानी कतारों का कम्पोज़ीशन (संघटन) क्रान्तिकारी है, लेकिन नीतियों का कम्पोज़ीशन (संघटन) शुरू से ही ग़लत रहा है और अब उसमें विचारधारात्मक भटकाव गम्भीर हो चुका है। इन्हीं नीतियों के वाहक नेतृत्व का कम्पोज़ीशन ज़्यादातर संगठनों में आज अवसरवादी हो चुका है। इस नेतृत्व से ‘पालिमिक्स’ के ज़रिये एकता के रास्ते पार्टी-पुनर्गठन की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
भारतवर्ष में सर्वहारा क्रान्तिकारी की जो नयी पीढ़ी इस सच्चाई की आँखों में आँखें डालकर खड़ा होने का साहस जुटा सकेगी, वही नयी सर्वहारा क्रान्तियों के वाहक तथा नयी बोल्शेविक पार्टी के घटक बनने वाले क्रान्तिकारी केन्द्रों के निर्माण का काम हाथ में ले सकेगी। वही नया नेतृत्व क्रान्तिकारी कतारों को एक नयी एकीकृत पार्टी के झण्डे तले संगठित करने में सफल हो सकेगा। इतिहास अपने को कभी हूबहू नहीं दुहराता और यह कि, सभी तुलनाएँ लंगड़ी होती हैं - इन सूत्रों को याद रखते हुए हम कहना चाहेंगे कि मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी फिर से खड़ी करने में हमें अपनी पहुँच-पद्धत्ति तय करते हुए रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उस दौर से काफी कुछ सीखना होगा, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में गुज़रा था। बोल्शेविज़्म की स्पिरिट को बहाल करने का सवाल आज का सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल है।सर्वहारा के हरावल दस्ते के पिफर से निर्माण की प्रक्रिया आज प्रारम्भिक अवस्था में है, लेकिन वह आगे डग भर चुकी है। इसी प्रक्रिया में, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी जब मज़दूर वर्ग और अन्य मेहनतकश वर्गों के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार एवं आन्दोलन के कामों को हाथ में लेंगे तो मज़दूर वर्ग भी उस ताकत को हासिल करना शुरू कर देगा कि जिसके बूते एक दिन वह आगे बढ़कर संसदीय वामपन्थी और अर्थवादी भाँड़ों-विदूषकों के हाथों से मई दिवस का परचम छीन लेगा तथा अपनी विरासत अपने कब्ज़े में ले लेगा।
मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी एकता ही आज मई दिवस का सन्देश हो सकता है। इस एकता के बारे में लेनिन के इस उद्धरण पर ग़ौर किया जाना चाहिए :
''मज़दूरों को एकता की ज़रूरत अवश्य है और इस बात को समझना महत्त्वपूर्ण है कि उन्हें छोड़कर और कोई भी उन्हें यह एकता ''प्रदान'' नहीं कर सकता, कोई भी एकता प्राप्त करने में उनकी सहायता नहीं कर सकता। एकता स्थापित करने का फ्वचनय् नहीं दिया जा सकता - यह झूठा दम्भ होगा, आत्मप्रवंचना होगी; एकता बुद्धिजीवी ग्रुपों के बीच 'समझौतों' द्वारा ''पैदा'' नहीं की जा सकती। ऐसा सोचना गहन रूप से दुखद, भोलापन भरा और अज्ञानता भरा भ्रम है।''
''एकता को लड़कर जीतना होगा, और उसे स्वयं मज़दूर ही, वर्गचेतन मज़दूर ही अपने दृढ़, अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त कर सकते हैं।''
''इससे ज़्यादा आसान दूसरी चीज़ नहीं हो सकती है कि ''एकता'' शब्द को गज-गज भर लम्बे अक्षरों में लिखा जाये, उसका वचन दिया जाये और अपने को ''एकता'' का पक्षधर घोषित किया जाये। परन्तु, वास्तव में, एकता आगे बढ़े हुए मज़दूरों के परिश्रम तथा संगठन द्वारा ही आगे बढ़ायी जा सकती है।'' (‘त्रादोवाया प्राव्दा’, अंक-2, 30 मई, 1914)
मई दिवस का आज एकमात्र यही सन्देश हो सकता है कि वर्ग-चेतन मज़दूरों को आगे बढ़कर, लड़कर, अपने परिश्रम से अपनी एकता हासिल करनी होगी और राजनीतिक संघर्षों के नये सिलसिले का सूत्रपात करना होगा। मज़दूर आन्दोलन को एक बार फिर क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना के एक नये युग में प्रवेश करना होगा और इक्कीसवीं सदी की नयी सर्वहारा क्रान्तियों की तैयारी में जुट जाना होगा।
0 कमेंट:
Post a Comment