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21.6.09

फासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें

- अभिनव

जनवादियों और यहाँ तक कि क्रान्तिकारियों का एक हिस्सा इस बात को लेकर बेहद ख़ुश है कि भारतीय जनता पार्टी के रूप में साम्प्रदायिक फासीवाद की पराजय हुई है और फासीवादी ख़तरा टल गया है। चुनावों के ठीक पहले कई सर्वेक्षण इस बात की ओर इशारा कर रहे थे कि चुनावी नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं और आडवाणी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्‍धन को भी विजय हासिल हो सकती है, या कम-से-कम उसे संयुक्त प्रगतिशील गठबन्‍धन के बराबर या उन्नीस-बीस के फर्क से थोड़ी ज्यादा या थोड़ी कम सीटें मिल सकती हैं। चुनाव के नतीजों ने इस बात को ग़लत साबित किया और कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्‍धन को विजय प्राप्त हुई। चुनावी नतीजों के हिसाब से चला जाये तो भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और पराजय के बाद भाजपा में टूट-फूट, बिखराव और आन्तरिक कलह का एक दौर शुरू हो गया है। भाजपा के शीर्ष विचारकों में से एक सुधीन्द्र कुलकर्णी ने हार का ठीकरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति पर फोड़ते हुए काफी हंगामा खड़ा कर दिया। जसवन्त सिंह ने कहा है कि चुनाव में पराजय के कारणों पर भाजपा में खुली बहस होनी चाहिए। भाजपा नेताओं का एक बड़ा हिस्सा भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह को काफी खरी-खोटी सुना रहा है और राजनाथ सिंह की स्थिति काफी दयनीय हो गयी है।

इस सारे घटनाक्रम को देखकर निश्चित तौर पर सन्तोष और ख़ुशी का अनुभव होता है। लेकिन क्या इन चुनावी नतीजों और उसके बाद भाजपा में मची उठा-पटक को देखकर यह कहना उचित है कि फासीवाद भारत में उतार पर है? क्या यह नतीजा निकालना सही है कि भाजपा की पराजय भारत में फासीवाद की पराजय है? इस प्रश्न का जवाब देने के लिए हमें यह समझना होगा कि फासीवाद आख़िर है क्या? इसका इतिहास क्या है? यह कैसे पैदा हुआ? विभिन्न देशों में इसने क्या-क्या रूप ग्रहण किये? इन प्रश्नों के जवाब देने के बाद ही हम यह तय करने की स्थिति में होंगे कि भारत में फासीवाद की ''नियति'' क्या है।

इससे पहले कि हम फासीवाद के इतिहास और उसके अर्थ पर जायें, कुछ और मुद्दों पर एक शुरुआती चर्चा करना ज़रूरी है। इस चर्चा के बाद हम फासीवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए एक बेहतर स्थिति में होंगे। यह चर्चा पूँजीवाद की प्रकृति, उसके स्वाभाविक संकट और उसकी सम्भावित परिणतियों पर है।

पूँजीवाद की स्वाभाविक परिणतियाँ पूँजीवादी-व्यवस्था किस प्रकार अपनी स्वाभाविक गति से संकट की ओर जाती है

हम एक पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में जी रहे हैं। इसकी चारित्रिक विशेषताएँ क्या हैं? यह निजी मालिकाने पर आधारित एक व्यवस्था है जिसके केन्द्र में निजी मालिक का मुनाफा है। निजी मालिकों का पूरा वर्ग आपस में प्रतिस्पर्द्धा करता है और इस प्रतिस्पर्द्धा का मैदान होता है पूँजीवादी बाज़ार। समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं का कोई विस्तृत मूल्यांकन और अनुमान नहीं लगाया जाता है। बाज़ार में माँग के परिमाण के एक मोटा-मोटी मूल्यांकन के आधार पर पूँजीपति यह तय करता है कि उसे क्या पैदा करना है और कितना पैदा करना है। लेकिन यह मूल्यांकन पूरा पूँजीपति वर्ग मिलकर नहीं करता है बल्कि अलग-अलग निजी पूँजीपति करते हैं और इसके आधार पर वे प्रतिस्पर्द्धा करने बाज़ार में उतरते हैं। इसलिए पूरे समाज में होने वाला उत्पादन योजनाबद्ध तरीके से नहीं होता है बल्कि अराजक तरीके से होता है। बाज़ार द्वारा बतायी जाने वाली माँग और आपूर्ति की स्थितियों के अनुसार हर पूँजीपति उत्पादन-सम्बन्‍धी निर्णय लेता है। बाज़ार में कई सेक्टर मौजूद होते हैं। इन सभी सेक्टरों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन और उत्पादन के साधनों का उत्पादन। उपभोग की वस्तुओं में आदमी की रोज़मर्रा की जीवन आवश्यकताओं की विभिन्न वस्तुएँ होती हैं, मिसाल के तौर पर, खाने-पहनने के सामान, फ्रिज-टी.वी.-वाहनों आदि जैसी उपभोक्ता सामग्रियाँ, मनोरंजन के सामान, आदि। हालाँकि, उपभोक्ता सामग्रियों को भी दो हिस्सों (टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियाँ और ग़ैर-टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियाँ) में बाँटा जाता है, लेकिन अभी इस विभाजन के विश्लेषण में जाने की हमें कोई आवश्यकता नहीं होती है। एक-एक उपभोक्ता सामग्री के उत्पादन में कई-कई पूँजीपति लगे होते हैं और अपने माल को बेचने के लिए प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। इसके लिए वे अख़बारों, टी.वी., रेडियो, बिजली के खम्भों, होर्डिंगों, बस स्टापों और रेलवे स्टेशनों पर मौजूद प्रचार पट्टियों पर प्रचार करते हैं और अपने माल को सबसे अच्छा बताते हैं।

यही हाल, उत्पादन के साधनों के उत्पादन के सेक्टर में भी होता है, लेकिन थोड़ा भिन्न रूप में। इस सेक्टर में मशीनों, उपकरणों और औज़ारों और साथ ही कई प्रकार के माध्‍यमिक कच्चे माल का उत्पादन किया जाता है। यहाँ पर उत्पादित सामग्री का उपभोक्ता आम आदमी नहीं होता, बल्कि पूँजीपति वर्ग होता है जो अपने उत्पादन के लिए उत्पादन के साधनों को पूँजीपति वर्ग के उस हिस्से से ख़रीदता है जो उत्पादन के साधनों का उत्पादन करता है। आजकल यह विभाजन बहुत क्षीण हो गया है क्योंकि एक ही पूँजीपति ने उपभोक्ता सामग्रियों के उत्पादन में भी निवेश कर रखा है और उत्पादन के साधनों के उत्पादन में भी। लेकिन इससे विश्लेषण में कोई फर्क नहीं पड़ता है। उत्पादन के दोनों सेक्टरों में उत्पादन और श्रम की स्थितियों का विश्लेषण किया जा सकता है। लेकिन अभी हमारा उद्देश्य यह नहीं है। उत्पादन के साधन के उत्पादन के क्षेत्र में भी एक-एक मशीन या उपकरण के उत्पादन में कई-कई पूँजीपति लगे होते हैं और उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करने वाले पूँजीपति वर्ग को अपना उत्पाद बेचने के लिए लुभाने में लगे होते हैं।

विभिन्न वस्तुओं या उत्पादन के साधनों (मशीन, उपकरण आदि) के उत्पादन में अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं। कभी किसी वस्तु का उत्पादन अधिक लाभदायी होता है तो कभी किसी और वस्तु का। मिसाल के तौर पर, अभी कुछ वर्षों पहले तक विश्व बाज़ार में सूरजमुखी और मेंथा की ज़बरदस्त माँग के कारण भारत में तमाम धनी किसानों और कुलकों ने इनकी खेती शुरू की। कृषि के क्षेत्र में सक्रिय पूँजीपतियों ने बाज़ार में माँग और आपूर्ति की स्थितियों को देखते हुए सूरजमुखी और मेंथा की खेती में पैसा लगाना शुरू किया। लेकिन इन स्थितियों का मूल्यांकन सभी कृषक पूँजीपतियों ने मिलकर संगठित रूप से नहीं किया, बल्कि अलग-अलग किया। जो-जो सूरजमुखी और मेंथा की खेती में आवश्यक भारी पूँजी निवेश और कुशल श्रम की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम था, उसने इसमें पूँजी लगायी। नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही मालों का अति-उत्पादन हुआ और उनके उत्पाद को ख़रीदने के लिए बाज़ार में पर्याप्त ख़रीदार नहीं रहे। बाज़ार में माँग और आपूर्ति की स्थितियाँ बदल गयीं। अब सूरजमुखी और मेंथा का बाज़ार उतना गर्म नहीं रहा। इस प्रक्रिया में तमाम धनी किसान तबाह हो गये, जिन्होंने भारी पैमाने पर निवेश के लिए बड़े-बड़े ऋण लिये थे। भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या का एक बड़ा कारण यह भी रहा है। उनके तबाह होने के साथ खेती में लगी मज़दूर आबादी भी बड़े पैमाने पर बेरोज़गार हुई और छोटे किसान सर्वहाराओं की कतार में शामिल हुए। अब बाज़ार में दूसरे माल ज्यादा फायदेमन्द बन गये हैं, जो शायद पहले उतने फायदेमन्द नहीं थे। पहले उनमें पर्याप्त पूँजी लगी हुई थी और उनका उत्पादन माँग से ज्यादा हो रहा था। इसी कारण उनमें से पूँजी निकलकर उन फसलों के उत्पादन में लगी जिनकी माँग अधिक थी, लेकिन पूँजी निवेश कम था। इसी तरह से पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजी अधिक मुनाफे वाली वस्तुओं के उत्पादन के क्षेत्र की ओर स्वाभाविक गति करती रहती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये क्षेत्र बदलते रहते हैं और पूँजी अराजक तरीके से कभी इस तो कभी उस क्षेत्र की ओर भागती रहती है। यह प्रक्रिया पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में एक सन्तुलनकारी प्रक्रिया होती है जिसे काग़ज़ पर देखा जाये तो बहुत सामान्य लगती है, लेकिन वास्तव में घटित होते हुए देखा जाये तो समझ में आता है कि यह कितनी तबाही लाने वाली प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में लाखों-लाख मज़दूर तबाह होते रहते हैं, अपनी नौकरियों से हाथ धोते रहते हैं और नर्क जैसे जीवन की ओर धकेले जाते रहते हैं। यही पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता का मूल है। एक निजी मालिकाने पर आधारित व्यवस्था जिसमें समाज की आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन नहीं किया जाता, बल्कि हर पूँजीपति अपने मुनाफे की ख़ातिर बाज़ार में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा के लिए उतरता है। इस पूरी प्रक्रिया में पूँजीपतियों का एक हिस्सा तबाह होकर मध्‍यम वर्ग, निम्न मध्‍यम वर्ग और सर्वहारा वर्ग की कतार में शामिल होता रहता है और लाखों-करोड़ों की संख्या में मज़दूर अपना काम खोते हैं और बेरोज़गारों की कतार में शामिल होते रहते हैं। अपनी अराजक गति से पूँजीवाद मज़दूरों को बरबाद करता रहता है और उन्हें बेरोज़गारों की फौज में धकेलता रहता है। यह एक मानव-केन्द्रित नहीं बल्कि मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था होती है।

पूँजीवाद में विभिन्न सेक्टरों में मन्दी की स्थिति तो आती-जाती रहती ही है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में निश्चित अन्तरालों पर आम संकट की स्थिति पैदा होती रहती है, जब अधिकांश सेक्टरों में अति-उत्पादन हो जाता है और मन्दी पैदा होती है। यह कैसे होता है इसे समझ लेना भी यहाँ उपयोगी होगा।

प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए हर पूँजीपति अपने उत्पादन की लागत को घटाता है। लागत का अर्थ है उत्पादन में लगने वाली कुल पूँजी। इस पूँजी के दो हिस्से होते हैं पहला, स्थिर पूँजी जो मशीनों, इमारत, बिजली, पानी व कच्चे माल पर लगती है और दूसरा, परिवर्तनशील पूँजी जो पूँजीपति मज़दूरी के रूप में मज़दूरों को देता है। स्थिर पूँजी को स्थिर पूँजी इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान परिवर्तित नहीं होती है। उसका मूल्य सीधे-सीधे, बिना बढ़े हुए उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो जाता है। इसमें से कुछ का मूल्य एक बार में भी माल में स्थानान्तरित हो जाता है, जैसे कच्चा माल, बिजली, आदि, और कुछ का मूल्य एक लम्बी प्रक्रिया में माल में स्थानान्तरित होता है, जैसे मशीनें और उपकरण आदि। इनका मूल्य तब तक माल में स्थानान्तरित होता रहता है जब तक कि वे घिसकर बेकार न हो जायें और उनकी उम्र पूरी न हो जाये। एक बार के उत्पादन में उसके कुल मूल्य का एक हिस्सा उत्पाद में जाता है। इसे घिसाई मूल्य (डेप्रिसियेशन वैल्यू) कहा जाता है। लेकिन यह मूल्य भी उत्पादन के दौरान बढ़ता-घटता नहीं है। यह ज्यों का त्यों उत्पाद में चला जाता है। इसीलिए मशीनों और कच्चे माल पर लगने वाली पूँजी को स्थिर पूँजी कहा जाता है। मज़दूरी के रूप में लगने वाली पूँजी को परिवर्तनशील पूँजी कहा जाता है, क्योंकि मज़दूर का श्रम ही वह चीज़ है जो वस्तुओं के एक अनुपयोगी समूह को मशीनों, उपकरणों आदि के इस्तेमाल से एक उपयोगी माल का रूप देता है। श्रम ही उत्पादन का वह कारक है जो किसी उत्पाद में उपयोग मूल्य पैदा करता है, यानी, उसे उपयोगी बनाता है। कोई कारख़ाना या मशीन अपने से कच्चे मालों को एक उपयोगी माल का रूप नहीं दे सकते। जब तक कच्चे मालों पर मानसिक और शारीरिक मानवीय श्रम नहीं लगता, वे मूल्यहीन बेकार वस्तुएँ होती हैं। जैसे ही उस मज़दूर की मेहनत लगती है वे आकार ग्रहण करने लगते हैं और मिलकर एक उपयोगी वस्तु बन जाते हैं। जब कोई वस्तु उपयोगी होगी तभी उसे बाज़ार में कोई ख़रीदेगा। वस्तु में उपयोग मूल्य मज़दूर की मेहनत पैदा करती है। एक पूँजीवादी समाज में मज़दूर की श्रम-शक्ति भी एक माल होती है और वह भी बाज़ार में बिकती है। इसकी कीमत भी बाज़ार में श्रम-शक्ति की माँग और आपूर्ति से तय होती है। उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम-शक्ति ही वह कारक होती है जिसका मूल्य संवर्धित होकर, यानी बढ़कर माल में स्थानान्तरित होता है। इसीलिए श्रम-शक्ति को ख़रीदने के लिए पूँजीपति द्वारा लगायी गयी पूँजी को परिवर्तनशील पूँजी कहते हैं क्योंकि उत्पादन से पहले और उत्पादन के बाद इसका परिमाण बढ़ चुका होता है। यह बढ़ी हुई मात्रा अर्थशास्त्र की भाषा में अतिरिक्त मूल्य कहलाती है। यही अतिरिक्त मूल्य एक पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग के मुनाफे का मूल होता है। यह पैदा मज़दूर के श्रम द्वारा होता है, लेकिन इसे पूँजीपति द्वारा हड़प लिया जाता है।

चूँकि अतिरिक्त मूल्य ही पूँजीपति के मुनाफे का मूल होता है, इसलिए वह उसे हर कीमत पर बढ़ाने का प्रयास करता है। इससे पूँजीपति वर्ग दो तरह से बढ़ाता है। एक, मज़दूर के काम के घण्टे को बढ़ाकर और उसकी मेहनत की सघनता को बढ़ाकर; और दूसरा, और अधिक उन्नत मशीनें लगाकर। पहले तरीके को समझना आसान है। अगर मज़दूर उसी मज़दूरी पर या थोड़ी-सी बढ़ी मज़दूरी पर अधिक देर तक काम करेगा तो अधिक अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगा। यह एकदम सीधा मामला है। दूसरा तरीका थोड़ा जटिल है। आइये इसे भी समझ लें। अगर उन्नत मशीनें लगेंगी तो मज़दूर का श्रम अधिक उत्पादक हो जायेगा और वह अधिक दर से अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगा। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिये कि एक सिलाई कारख़ाना है जहाँ मज़दूर पैर से चलने वाली सिलाई मशीन पर काम करते हैं। अभी एक मज़दूर 12 घण्टे में 10 कमीज़ें तैयार करता है। कारख़ाने का मालिक पैर से चलने वाली सिलाई मशीन को हटाकर बिजली से चलने वाली सिलाई मशीनें लगवा देता है। अब वही मज़दूर 12 घण्टे में 18 कमीज़ें बना लेता है। यानी मज़दूर के उत्पादन करने की गति को बढ़ा दिया गया। अब उत्पादन सीधे 1.8 गुना बढ़ गया। इसके लिए पूँजीपति को एक बार थोड़ा निवेश करना पड़ता है, लेकिन बदले में लम्बे समय तक वह बढ़ी हुई उत्पादकता पर काम करवा सकता है। इसके बदले में पूँजीपति मज़दूर को या तो कुछ नहीं देता और या फिर उनकी मज़दूरी को नाममात्र के लिए बढ़ा देता है। मज़दूर यह समझ भी नहीं पाता कि उसका शोषण बढ़ गया है और वह स्वयं कुछ पाये बिना पूँजीपति के मुनाफे को कहीं तेज़ गति से बढ़ा रहा है।

स्पष्ट है कि कुल निवेश में पूँजीपति लागत के अनुपात को घटाने के लिए अतिरिक्त मूल्य को विभिन्न तरीकों से बढ़ाता है। यह काम वह तभी कर सकता है जब वह उत्पादन को बड़े से बड़े पैमाने पर करे। उत्पादन जितने बड़े पैमाने पर होता है, लागत का अनुपात कुल निवेश में उतना कम होता जाता है। अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने के लिए पूँजीपति जिन तरीकों का उपयोग करता है, उससे उत्पादन स्वत: ही बड़े पैमाने पर होता जाता है। यानी, पूँजीपति लगातार इस होड़ में रहता है कि उत्पादन को अधिकतम सम्भव बड़े पैमाने पर किया जाये ताकि अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाया जा सके और लागत के अनुपात को कुल पूँजी निवेश में घटाया जा सके। लेकिन इस उत्पादन को बढ़ाने की अन्‍धी हवस में वह यह भूल जाता है कि उत्पाद को ख़रीदने के लिए बाज़ार में उतने ही ख़रीदार भी होने चाहिए। ऐसा किसी एक पूँजीपति के साथ नहीं बल्कि समूचे पूँजीपति वर्ग के साथ होता है। आपसी प्रतिस्पर्द्धा और एक-दूसरे को लील जाने की हवस में हर पूँजीपति हर वस्तु के उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादन को लाभदायक होने की हदों से आगे बढ़ाता जाता है और उस पूरे सेक्टर में ही अति-उत्पादन हो जाता है। यही प्रक्रिया सभी क्षेत्रों में घटित होती रहती है। और निश्चित अन्तरालों पर ऐसा होता है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्र अति-उत्पादन का शिकार हो जाते हैं और पूरी अर्थव्यवस्था मन्दी का शिकार हो जाती है। यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि पूँजीवादी उत्पादन की गति ही ऐसी होती है जो समाज में ख़रीदने की क्षमता से लैस लोगों की संख्या घटाती जाती है। पूँजीपति मज़दूर को लगातार लूटकर ही अपने मुनाफे को बढ़ाता है। जब वह उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत मशीनों को लगाता है तो मज़दूरों के एक हिस्से को वह निकाल बाहर करता है, क्योंकि अब कम मज़दूर ही उन्नत मशीनों पर उत्पादन को पहले के स्तर से आगे बढ़ा सकते हैं। इस प्रक्रिया में समाज में बेरोज़गारों की फौज बढ़ती जाती है और बहुसंख्यक आबादी अपनी ख़रीदने की क्षमता से वंचित होती जाती है। इस तरह एक तरफ तो उत्पादन बढ़ता जाता है, बाज़ार सामानों से पटता जाता है और दूसरी तरफ उन्हें ख़रीदने वालों की संख्या लगातार घटती जाती है। यही है पूँजीवाद का संकट जो उसे निश्चित अन्तरालों पर, पहले से भी भयावह रूप में आकर सताता रहता है और उसे लगातार उसकी कब्र की ओर धकेलता रहता है। यह एक ऐसा संकट है जिससे पूँजीवादी व्यवस्था लाख चाहने पर भी निजात नहीं पा सकती है, क्योंकि एक योजनाबद्ध मानव-केन्द्रित व्यवस्था में ही इससे निजात मिल सकती है, जो उत्पादन के साधनों और समाज के पूरे ढाँचे पर मज़दूरों के साझे मालिकाने के ज़रिये ही सम्भव है। पूँजीवाद अगर ऐसा हो जायेगा तो वह पूँजीवाद रह ही नहीं जायेगा और इस व्यवस्था को चलाने वाला पूँजीपति वर्ग कभी भी अपने निजी मुनाफे को छोड़ नहीं सकता। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था को सिर्फ तबाह किया जा सकता है, इसे सुधारा नहीं जा सकता क्योंकि यह परस्पर प्रतिस्पर्द्धा, निजी मालिकाने और निजी मुनाफे पर टिकी हुई व्यवस्था है।

साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीवाद


पूँजीवाद के इसी संकट ने मानवता को दो विश्वयुद्धों की ओर धकेला। 1870 के दशक के बाद से यूरोपीय देशों में पूँजीवाद भयंकर रूप से इस अति-उत्पादन के संकट का शिकार हो गया था। ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, पुर्तगाल, स्पेन जैसे कुछ देशों के पास 18वीं शताब्दी के समय से ही स्थापित उपनिवेश थे जिनके कारण वे मालों के अति-उत्पादन को अपने देश के बाहर अपने उपनिवेशों में भी बेच पा रहे थे। साथ ही, मालों के अतिरिक्त अब लागत को और घटाने के लिए सस्ते श्रम को निचोड़ने के लिए पूँजी को भी इन उपनिवेशों में निर्यात कर रहे थे, यानी, वहीं पर कारख़ाने लगाकर गुलाम देशों के सस्ते श्रम को निचोड़ रहे थे। जल्दी ही, यह सम्भावना भी निश्शेष हो गयी और 1910 का दशक आते-आते विश्व पूँजीवाद फिर से अति-उत्पादन और मन्दी के संकट का शिकार हो गया। साथ ही, कई ऐसे यूरोपीय पूँजीवादी देशों की शक्ति का उदय हुआ जिनके पास उपनिवेश नहीं थे। ऐसे देशों में अगुआ था जर्मनी। इन देशों में पूँजीवाद के संकट के पैदा होने के साथ और इनकी आर्थिक और सैन्य ताकत के पैदा होने के साथ विश्व पैमाने पर ग़रीब देशों की पूँजीवादी लूट के फिर से बँटवारे का सवाल पैदा हो गया। इसी सवाल को हल करने के लिए पूँजीवादी देशों के शासक वर्ग ने पूरी दुनिया को पहले साम्राज्यवादी महायुद्ध में धकेल दिया। इसमें जर्मनी और उसके मित्र देशों को पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन इस युद्ध ने रूस की महान क्रान्ति के लिए भी उपजाऊ ज़मीन तैयार की। दरअसल, यही ज़मीन जर्मनी में भी तैयार हुई थी, लेकिन वहाँ के सामाजिक जनवाद की ऐतिहासिक ग़द्दारी और काउत्स्की के नेतृत्व में पूरी सामाजिक जनवादी पार्टी के साम्राज्यवादी पूँजीवाद की गोद में बैठ जाने के कारण वहाँ क्रान्ति नहीं हो सकी, हालाँकि जर्मनी का मज़दूर आन्दोलन रूस के मज़दूर आन्दोलन से अधिक शक्तिशाली और पुराना था। विश्वयुद्ध में जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी की पराजय के बाद के दौर में रूस में समाजवाद के तहत वहाँ के मज़दूर वर्ग ने अभूतपूर्व तरक्की करके पूरी दुनिया के सामने एक अद्वितीय मॉडल खड़ा कर दिया। दूसरी ओर, पहले विश्वयुद्ध में हथियार बेचकर और ऋण देकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने ज़बरदस्त मुनाफा कमाया। लेकिन एक दशक बीतते-बीतते संयुक्त राज्य अमेरिका में ही पूँजीवाद के अब तक के सबसे बड़े संकट का उदय हुआ जिसे महान मन्दी के नाम से जाना जाता है। यह 1929 से लेकर 1931 तक चली। इस मन्दी ने रूस को छोड़कर दुनिया के सभी देशों को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। विशेष रूप से, अमेरिका और यूरोपीय देशों को। इस मन्दी के बाद ही जर्मनी और इटली में फासीवाद ने मज़बूती से पैर जमा लिये। महामन्दी ने जर्मनी और इटली में फासीवाद को कैसे पैदा और मज़बूत किया, अन्य देशों में फासीवाद पाँव क्यों नहीं जमा पाया, इन सवालों पर हम आगे विचार करेंगे। पहले, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संकट के इतिहास पर, कुछ शब्द और।

द्वितीय विश्वयुद्ध में सबसे कम नुकसान संयुक्त राज्य अमेरिका को हुआ और सबसे अधिक नुकसान सोवियत रूस को। पूरा यूरोप भी खण्डहर में तब्दील हो चुका था। अमेरिका ने यूरोप और जापान के पुनर्निर्माण के ज़रिये निवेश की सम्भावनाओं का उपयोग किया और अपनी मन्दी को कम-से-कम तीस वर्षों के लिए टाल दिया। 1950 से लेकर 1970 तक अमेरिकी पूँजीवाद ने ख़ूब मुनाफा पीटा। 1960 के दशक को तो अमेरिका में 'स्वर्ण युग' के नाम से जाना जाता है। अति-उत्पादन के संकट को दूर करने के लिए पूँजीवाद के दायरे के भीतर एक ही विकल्प होता है उत्पादक शक्तियों का बड़े पैमाने पर विनाश ताकि उनके पुनर्निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर सम्भावनाएँ पैदा की जा सकें। यह विनाश समय-समय पर साम्राज्यवादी युद्धों के ज़रिये किया जाता है। 1970 का दशक आते-आते विश्व पूँजीवाद एक बार फिर संकट का शिकार हुआ। इसके बाद वह उबरा ही था कि 1980 के दशक के मध्‍य में फिर से मन्दी ने उसे ग्रस लिया। इसके बाद भूमण्डलीकरण की नीतियों की शुरुआत के साथ विश्व साम्राज्यवाद ने एक नये चरण में प्रवेश किया। भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीवाद ने मन्दी को दूर करने के लिए एक नयी रणनीति का उपयोग किया। वित्तीय पूँजी के प्रभुत्व के इस दौर में पूँजी की प्रचुरता और मन्दी के दोमुँहे संकट को दूर करने के लिए बैंकों के ज़रिये उपभोक्ताओं को ऋण देने की शुरुआत की गयी। मध्‍यम वर्ग तक के लोगों को माल ख़रीदने के लिए ऋण देने की प्रथा को विश्वभर में बड़े पैमाने पर शुरू किया गया। यानी पहले लोगों को ख़रीदने की ताकत से वंचित करके बाज़ार को मालों से पाट दिया गया और फिर जब ख़रीदार नहीं बचे तो ख़ुद ही सूद पर लोगों को पैसा देकर वह माल ख़रीदवाया गया, ताकि मन्दी को कुछ समय के लिए टाला जा सके। लेकिन जल्दी ही मध्‍यवर्ग के भीतर ऋण देकर माल ख़रीदवाने की सम्भावनाएँ समाप्त हो गयीं। इसके बाद, तमाम ऐसे लोगों को भी ऋण देने की शुरुआत की गयी जो उसका सूद चुकाने की क्षमता भी नहीं रखते थे, ताकि अस्थायी रूप से मन्दी का संकट दूर हो सके। जल्दी ही यह सम्भावना भी ख़त्म हो गयी और अब 2006 में शुरू हुई मन्दी के रूप में पूँजीवाद के सामने महामन्दी के बाद का सबसे बड़ा संकट खड़ा है, जिससे निपटने के लिए विश्व भर के पूँजीवादी महाप्रभु द्रविड़ प्राणायाम करने में लगे हुए हैं।

संक्षेप में, पूँजीवाद अपने स्वभाव से ही संकट को समय-समय पर जन्म देता रहता है। संकट से निपटने के लिए युद्ध पैदा किये जाते हैं। लेकिन यह एक अस्थायी समाधान होता है और बेताल फिर से आकर पुरानी डाल पर ही लटक जाता है। साम्राज्यवाद के दौर में विश्व पूँजीवाद ने अपनी कार्यप्रणाली को बदला लेकिन सवा सौ साल बीतते-बीतते उसकी हवा निकल गयी और वह फिर से उसी असमाधेय संकट के सामने खड़ा है।

पूँजीवादी संकट की सम्भावित प्रतिक्रियाएँ

संकट के दौर में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ती है। संकट के दौर में अति-उत्पादन होने और उत्पादित सामग्री के बाज़ारों में बेकार पड़े रहने के कारण पूँजीपति का मुनाफा वापस नहीं आ पाता है और माल के रूप में बाज़ार में अटका रह जाता है। नतीजतन, पूँजीपति अधिक उत्पादन नहीं करना चाहता है और उत्पादन में कटौती करता है। इसके कारण वह उत्पादन में निवेश को घटाता है, कारख़ाने बन्द करता है, मज़दूरों को निकालता है। 2006 में शुरू हुई मन्दी के कारण अकेले अमेरिका में करीब 85 लाख लोग जून 2009 तक बेरोज़गार हो चुके हैं। भारत में मन्दी की शुरुआत के बाद करीब 1 करोड़ लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं। बेरोज़गारों की संख्या में पूरे विश्व में करोड़ों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण न सिर्फ तीसरी दुनिया के ग़रीब पिछड़े पूँजीवादी देशों में बल्कि यूरोप के देशों में भी दंगे हो रहे हैं। यूनान, फ्रांस, इंग्लैण्ड, आइसलैण्ड, आदि देशों में पिछले दिनों हुए दंगे और आन्दोलन इसी मन्दी का असर हैं। इस मन्दी के कारण पैदा हुए जन-असन्तोष का पूरे विश्व के पूँजीवादी देशों में शासक वर्ग का जो जवाब सामने आया है उसमें कुछ भी नया नहीं है। यह जवाब है कल्याणकारी राज्य का कीन्सियाई नुस्खा। यह ''कल्याणकारी'' राज्य क्या करता है, इसे भी समझना ज़रूरी है।

मन्दी के कारण जो वर्ग सबसे पहले तबाह होते हैं, वे हैं मज़दूर वर्ग, ग़रीब और निम्न मध्‍यम किसान, खेतिहर मज़दूर वर्ग, शहरी निम्न मध्‍यम वर्ग और आम मध्‍यम वर्ग। यह कुल जनता का करीब 90 प्रतिशत होते हैं। इसके अतिरिक्त, छोटे व्यापारियों और दलालों का भी एक वर्ग इसमें तबाह होता है। इसके कारण पूरे समाज में ही 90 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी के लिए एक भयंकर आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का माहौल पैदा होता है। इसके कारण भारी पैमाने पर व्यापक और सघन जन-असन्तोष पैदा होता है जो पूरी व्यवस्था के लिए ही एक ख़तरा साबित हो सकता है। इस ख़तरे से निपटने के लिए 1930 के दशक में पूँजीवाद के एक कुशल हकीम जॉन मेनॉर्ड कीन्स ने बताया कि अराजकतापूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था को थोड़ा-थोड़ा व्यवस्थित करने की आवश्यकता होती है। अगर निजी प्रतिस्पर्द्धा वाले पूँजीवाद और इजारेदारियों को मुक्त बाज़ार में खुल्ला छोड़ दिया जायेगा तो पूँजी की अराजक गति आत्मघाती रूप से ऐसे हालात पैदा कर देगी जो पूँजीवाद को ही निगल जायेंगे। इसलिए थोड़ा संयम बरतने की ज़रूरत है। इस व्यवस्थापन के काम को पूँजीवाद राज्य को अंजाम देना होगा। इसे कुछ ऐसी नीतियों में निवेश करना होगा जो लोगों को थोड़ा सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का आभास कराये। मिसाल के तौर पर, सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर) को खड़ा करके उसमें रोज़गार देना होगा; बीमा योजनाएँ लागू करनी होंगी; कुछ अवसंरचनागत क्षेत्र जैसे परिवहन, संचार, आदि को सरकार को अपने हाथ में रखना होगा; निजी क्षेत्र पर कुछ लगाम रखनी होगी; लोगों को आवास आदि की कुछ योजनाएँ देनी होंगी; मज़दूरों की मज़दूरी को थोड़ा बढ़ाना होगा, आदि। यानी कुछ सुधार के कदम जो कुछ समय के लिए लोगों के असन्तोष पर ठण्डे पानी का छिड़काव कर सकें। ऐसे काम करने वाले राज्य को ही ''कल्याणकारी'' राज्य कहा जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह कल्याणकारी राज्य पूँजीवाद के दूरगामी कल्याण के लिए और जनता के मन में फौरी कल्याण का एक झूठा अहसास पैदा करने के लिए खड़ा किया जाता है।

लेकिन इस कल्याणकारी राज्य के साथ दिक्कत यह होती है कि इसके अपने ख़र्चे बहुत होते हैं। तमाम कल्याणकारी नीतियों को लागू करने के लिए सरकार को पूँजीपतियों के मुनाफे पर थोड़ी लगाम कसनी पड़ती है और मज़दूरों को थोड़ी रियायतें और छूट देनी पड़ती है। जिन देशों में पूँजीवाद सामन्तवाद विरोधी क्रान्तियों के ज़रिये आया और जहाँ पूँजीवाद विकास की एक गहरे तक पैठी हुई लम्बी प्रक्रिया सामने आयी, वहाँ पर पूँजीपति वर्ग आर्थिक रूप से इस हालत में था कि कल्याणकारी राज्य के ''ख़र्चे उठा सके'' और राजनीतिक रूप से भी इतना चेतना-सम्पन्न था कि कल्याणकारी राज्य को कुछ समय तक चलने दे और कुछ इन्तज़ार के बाद, दोबारा ''छुट्टा साँड ब्राण्ड'' पूँजीवाद की शुरुआत करे। जिन देशों में पूँजीवाद किसी क्रान्तिकारी बदलाव के ज़रिये नहीं, बल्कि एक क्रमश: प्रक्रिया में आया वहाँ कल्याणकारी राज्य के कुछ और ही नतीजे सामने आये। इन देशों में जर्मनी और इटली अग्रणी थे। जर्मनी का पूँजीवाद में संक्रमण किसी पूँजीवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं हुआ। वहाँ पर क्रान्तिकारी भूमि सुधार नहीं लागू हुए, बल्कि सामन्ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी भूस्वामी में तब्दील हो जाने का मौका दिया गया। औद्योगिक पूँजीपति वर्ग राज्य द्वारा दी गयी सहायता के बूते खड़ा हुआ, न कि एक लम्बे पूँजीवादी विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया से, जैसाकि इंग्लैण्ड और फ्रांस में हुआ था। यहाँ के पूँजीपति वर्ग, कुलकों और धनी किसानों की कल्याणकारी राज्य के नतीजों पर इंग्लैण्ड, अमेरिका, और फ्रांस के पूँजीपति वर्ग से बिल्कुल भिन्न प्रतिक्रिया रही। इन शासक वर्गों की अलग किस्म की प्रतिक्रिया ने जर्मनी और इटली में फासीवाद के उदय की ज़मीन तैयार की। इसके अतिरिक्त, एक और कारक था जिसने फासीवाद के उभार में बहुत बड़ी भूमिका निभायी। यह कारक था जर्मनी और इटली के सामाजिक जनवादी आन्दोलन की ग़द्दारी और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का पूँजीवाद की चौहद्दियों के भीतर ही घूमते रह जाना। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी के नेतृत्व में जर्मनी में एक बहुत शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन था जिसने 1919 से लेकर 1931 तक राज्य से मज़दूरों के लिए बहुत से अधिकार हासिल किये। जर्मनी में मज़दूरों की मज़दूरी किसी भी यूरोपीय देश से अधिक थी। कुल राष्ट्रीय उत्पाद में मज़दूर वर्ग का हिस्सा यूरोप के किसी भी देश के मज़दूर वर्ग के हिस्से से अधिक था। लेकिन इससे आगे सामाजिक जनवाद और कोई बात नहीं करता था। वह इसी यथास्थिति को बरकरार रखना चाहता था और इसलिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को सुधारवादी संसदवाद और अर्थवाद की अन्‍धी चक्करदार गलियों में घुमाता रहा। लेकिन दूसरी तरफ जर्मनी का पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग को मिली इन रियायतों और सुविधाओं को बर्दाश्त करने की ताकत खोता जा रहा था, क्योंकि इसके कारण पूँजी संचय की उसकी रफ्तार बेहद कम हो गयी थी, यहाँ तक कि ठहर गयी थी। इसके कारण विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा में उसका टिक पाना बेहद मुश्किल हो गया था। 1928 आते-आते जर्मनी संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद सबसे अधिक औद्योगिक उत्पादन वाला देश बन चुका था और उत्पादकता की रफ्तार भी अमेरिका के बाद सबसे अधिक थी। इसके साथ ही जर्मनी की विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा भी अधिक से अधिक तीखी होती जा रही थी। लेकिन घरेलू पैमाने पर मज़दूर वर्ग के शक्तिशाली सुधारवादी आन्दोलन के कारण उसके मुनाफे की दर लगातार कम होती जा रही थी, जिसे इतिहासकारों ने लाभ संकुचन (''प्रॉफिट स्क्वीज़'') का नाम दिया है। ठीक इसी समय, विश्वव्यापी महामन्दी का प्रभाव जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। लाभ संकुचन की मार से बिलबिलाये हुए जर्मन पूँजीपति वर्ग के लिए यह बहुत त्रासद था! इसके कारण सबसे पहले छोटा पूँजीपति वर्ग तबाह होना शुरू हुआ। बड़े पूँजीपति वर्ग को भी भारी हानि उठानी पड़ी। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ी। शहरी वेतनभोगी निम्न मध्‍यम वर्ग में भी बेकारी द्रुत गति से बढ़ने लगी। जो काम कर भी रहे थे उनके सिर पर हर समय छँटनी की तलवार लटक रही थी। इस पूरे असुरक्षा के माहौल ने निम्न पूँजीपति वर्ग, सरकारी वेतनभोगी मध्‍यवर्ग, दुकानदारों, शहरी बेरोज़गारों के एक हिस्से के भीतर प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार की। यही वह ज़मीन थी जिसे भुनाकर राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन मज़दूर पार्टी (हिटलर की नात्सी पार्टी) ने एक प्रतिक्रियावादी जन आन्दोलन खड़ा किया जिसकी अग्रिम कतारों में निम्न पूँजीपति वर्ग, वेतनभोगी मध्‍यम वर्ग, शहरी पढ़ा-लिखा मध्‍यम वर्ग, लम्पट सर्वहारा और यहाँ तक कि सर्वहारा वर्ग का भी एक हिस्सा खड़ा था।

इस असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

अगले अंक में हम देखेंगे कि जर्मनी में फासीवाद की विजय किस प्रकार हुई थी। जर्मनी के उदाहरण से हम फासीवाद के उदय के कारणों को और अधिक स्पष्टता से समझ पायेंगे और उसका सामान्यीकरण कर पायेंगे। उस सामान्यीकरण के नतीजों को फिर हम भारत पर लागू करके समझ सकते हैं कि भारत में फासीवाद की ज़मीन किस प्रकार मौजूद है और भारत में मौजूद फासीवादी उभार का मुकाबला यहाँ का क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन किस प्रकार कर सकता है।

(अगले अंक में 'जर्मनी में फासीवाद', 'इटली में फासीवाद' और 'भारत में फासीवाद')

6 कमेंट:

Anonymous,  June 21, 2009 at 1:04 PM  

भट्की हुई विचारधारा पर बैचारिक बकवास। लालगढ को देखो और फासीवाद को समझो।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen June 21, 2009 at 1:15 PM  

यह बिल्कुल ठीक है गरीब किसान और मजदूर ही इस देश की रीढ़ हैं और उन्हीं का सबसे अधिक शोषण किया जा रहा है. कुछ बातें आपकी ठीक हैं, लेकिन सारी नहीं. अगर पूंजी का सिद्धान्त न हो तो फिर प्रगति के लिये कोई जगह ही नहीं बचती. बाकी भारत में मार्क्स और समाज वाद का जितना दुरुपयोग किया गया है और कहीं भी नहीं हुआ. सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या और भ्रष्टाचार तथा मुस्लिम वोटों के लिये कहीं तक गिर जाना है.

देश भक्त मोर्चा, लालगढ़,  June 21, 2009 at 1:56 PM  

तुम पैसों के लिए बिके हुए लोग! भाषण पेलनें के पहले बंगाल सरकार के कुकर्म की अन्तरकथा लिखो। देश और जनता के दुश्मन आस्तीन के साँप।

Anonymous,  June 21, 2009 at 2:13 PM  

चाशनी में दूध डालते ही मैले की तरह फासीवाद बाहर आ रहा है।

संदीप June 22, 2009 at 12:34 AM  

आपको कमेंट मॉडरेशन का इस्‍तेमाल करना चाहिए, नहीं तो ये बेनाम ''देशभक्‍त'' आए दिन यहां आकर उल्‍टी करते रहेंगे।
आपके ब्‍लॉग की ही किसी पोस्‍ट में पश्चिम बंगाल की संशोधनवादी सरकार, चीन के कथित कम्‍युनिस्‍टों के बारे में लेख पढ़े थे, लेकिन इन्‍होंने उनपर टिप्‍पणी नहीं की, क्‍योंकि आपने मार्क्‍सवाद के नाम चादर ओढ़े संशोधनवादियों की अच्‍छी खिंचाई की है उन लेखों में। बस बिना पढ़े-समझे ही लगे गरियाने, क्‍योंकि जिन संगठनों के इशारों पर ये लोग गरियाते घूम रहे हैं, वे फासीवादी संगठन हैं, उनका दंगे करना, गाली-गलौज, मारपीट करना, लोगों को जिंदा जलाना ही आता है और यही सब ये लोग सीखते हैं। यही है इनकी देशभक्ति। आपने फासीवाद के आधार और उसके उभार की चर्चा शुरू की नहीं कि लगे उलटने।
एक बार फिर, कमेंट मॉडरेशन चालू कर लीजिए, नहीं तो ये लोग सार्थक बहस को केवल जूतम-पैजार और गाली-गलौज में बदल देंगे।

Anonymous,  June 25, 2009 at 9:12 PM  

AAP SAMKALIN SANKATON PAR DHANG SE LIKH RAHEN HAIN. BADHAI.
ATI KRANTIKARI KUL MILAKAR VAM TAKATON KO NUKSAN HI PAHUNCHA RAHEN HAIN. EK SANGHIYA VYAVSTHA MEN KAM KARANE VALI SARKARON SE EK SWATANTRA RASTE PAR CHALANE KI UMMID BEMANI HAI. DEKHANA YEH CHAHIYE KI SIMIT SADHNON MEN VE DUSARI SARKARON KI TULANA MEN KITANA BEHTAR KAM KAR RAHEN HAIN.
LALGARH KI HALAT PAR AANSUN BAHANE VOLON KO YEH DEKHANA CHAHIYE KI VIDARBH, KALAHANDI, BASTER AADI KI HALAT KYON NAHIN SUDHARI JA SAKI. BANGAL KE PICHADE ILAKE FIR BHI BAKI JAGAHON SE TULNATMAK DHANG SE THIK HAIN. YAHAN MAOVADI TMC JAISI PARTY KE KAM AA RAHEN HAIN. DUSARI JAGAHON PAR BHI YE DUSARON KE KAM HI AA RAHE HAIN. APANE KAIDARON KO MOUT KE SIVA SAMAJ KO KYA DE PA RAHEN HAIN. RAJNITI KI MUKHYA DHARA MEN SAMIL HO KAR SARKAR MEN AANE OUR APNE SAPANE KA SAMAJ BANA KAR DIKHANE KI PAHAL KYON NAHIN KARANA CHAHTE. UNAKI HARKATON SE TO DAKHINPANTHI TAKATEN HI MAJBUT HOTI HAIN.
VE KAM SE KAM NEPAL SE TO SABAK LEN. APANE AAJAD DESH MEN VIKAS OUR BARABARI KI LADAI LADANI CHAHIYE. ISAKE PAKHCH MEN MAHOUL BANANA CHAHIYE. YEH KAM JANAGLO MEN RAH KAR NAHIN KIYA JA SAKATA.
S.BHARTIYA

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बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

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10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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