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29.6.09

लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूरों का संघर्ष रंग लाया

19 मई को लुधियाना की अमित टैक्सटाइल फैक्टरी में कारीगरों ने एक दिन और रात के लिए काम बन्द कर दिया। मालिक ने मजबूर होकर 50 पैसे प्रति पीस शाल का रेट बढ़ा दिया। पहले 6.50 रुपये मिलता था, वह अब 7 रुपये हो गया। पिछले दो वर्ष से रेट नहीं बढ़ा था और महँगाई बढ़ने से कारीगरों को अपना गुज़ारा चलाना मुश्किल हो रहा था। इस बारे में पहले भी मालिक के ध्‍यान में ला दिया गया था, पर कोई भी सुनवाई न होती देख इस बार कारीगरों ने काम बन्द कर दिया।

अमित टैक्सटाइल नाम से कुल पाँच फैक्टरियाँ हैं जिनके मालिक तीन भाई हैं। जिस फैक्टरी में हड़ताल हुई वह लुधियाना में समराला चौक के पास बेअन्तपुरी मुहल्ले की तीन नम्बर गली में स्थित है। इस फैक्टरी में 22 लूम कारीगर, 7 बाइण्डर, 8 कटाई वाले, 2 नली वैण्डर, 1 ताना मास्टर हैं। 3 मुनीमों और 1 सफाईकर्मी को मिलाकर 43 मज़दूर काम करते हैं। प्रोडक्शन करने वाले मज़दूरों को वेतन पीस रेट के हिसाब से मिलता है। कोई पहचानपत्र, ई.एस.आई. कार्ड, फण्ड-बोनस आदि कुछ नहीं मिलता है। बाकी फैक्टरियों की तरह यहाँ पर भी कोई लेबर कानून लागू नहीं है। शोषण सिर्फ यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता। धागा घटिया चलाया जाता है जो बार-बार टूटता रहता है। बार-बार धागा टूटने से मज़दूर को एक तो नुकसान यह होता है कि शाल के हरेक पीस को तैयार करने में अधिक समय लगता है। दूसरा नुकसान यह कि कई पीसों में बहुत सारी गाँठ पड़ जाती हैं यानी कि पीस ही बेकार हो जाता है। इन बेकार पीसों का बाज़ार मूल्य के बराबर पैसा कारीगरों के वेतन में से काट लिया जाता है। एक कारीगर ने बताया कि पिछले वर्ष मालिक ख़राब पीस का 70 रुपये काटता था, अब 100 रुपये काटता है। कई पुराने कारीगर कहते हैं कि पहले बढ़िया धागा चलता था तो ठीक रहता था। लेकिन अब सस्ता घटिया धागा चलाने से पीस ख़राब होता है, लेकिन ग़लती मज़दूर की ही निकाली जाती है।

जिस इलाके में यह फैक्टरी स्थित है उसमें हर शनिवार को पावरकट रहता है इसलिए मज़दूरों की छुट्टी रहती है। लेकिन मालिक रात को काम चलवाता है। रात की शिफ्ट में खाने का भी पैसा नहीं दिया जाता।

महँगाई से परेशान होकर लगभग 16 लूम कारीगरों ने मालिक से कहा कि पीस रेट 1 रुपया तक बढ़ा दिया जाये। लेकिन मालिक ने मना कर दिया। इसलिए मज़दूरों ने मजबूर होकर 19 मई की रात को काम बन्द कर दिया। यह ऐसा समय था जब मालिक को एक तरफ तो ऑर्डर पूरा करना था तो दूसरी तरफ कारीगरों की भारी कमी आ रही थी। आसानी से समझा जा सकता है कि मज़दूरों का पलड़ा भारी था। मालिक ने थोड़ी होशियारी दिखाने की कोशिश की। उसने कहा कि गोदाम भरा हुआ है और उसे हड़ताल से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन मज़दूर सारे हालात समझते थे। वे लड़ाई जारी रखने की ठाने हुए थे। जिसका नतीजा यह हुआ कि मालिक को मजबूर होकर समझौते के लिए तैयार होना पड़ा। 20 मई की शाम को समझौता हुआ। प्रति पीस 50 पैसे की बढ़ोतरी करवाकर हड़ताली मज़दूरों ने आंशिक सफलता हासिल की।

हड़ताल करने से पहले ही मज़दूरों ने समझदारी दिखाते हुए पिछला वेतन ले लिया था और तभी जाकर मालिक से पीस रेट बढ़ाने की बात की। बात करने के लिए भी किसी एक व्यक्ति को न भेजकर 4-5 मज़दूरों को भेजा गया। बात किसी एक व्यक्ति पर न छोड़ना सही कदम था।

स्पष्ट देखा जा सकता है कि यह हड़ताल कोई लम्बी-चौड़ी योजनाबन्दी का हिस्सा नहीं थी। अपनी माँगें मनवाने के लिए इसे फैक्टरी के मज़दूरों की बिलकुल शुरुआती और अल्पकालिक एकता कहा जा सकता है। इस फैक्टरी के समझदार मज़दूर साथियों से आशा की जानी चाहिए कि वे अपनी इस अल्पकालिक एकता से आगे बढ़कर बाकायदा सांगठनिक एकता कायम करने के लिए कोशिश करेंगे। एक माँगपत्र के इर्दगिर्द मज़दूरों को एकता कायम करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। ख़राब पीस के पैसे काटना बन्द किया जाये (क्योंकि पीस सस्ते वाला घटिया धागा चलाने के कारण ख़राब होता है), पहचान पत्र और इ.एस.आई. कार्ड बने, प्रॉविडेण्ट फण्ड की सुविधा हासिल हो आदि माँगें इस माँगपत्र में शामिल की जा सकती हैं। हमारी यह ज़ोरदार गुजारिश है कि मज़दूरों को पीस रेट सिस्टम का विरोध करना चाहिए क्योंकि मालिक वेतन सिस्टम के मुकाबले पीस रेट सिस्टम के ज़रिये मज़दूरों का अधिक शोषण करने में कामयाब होता है। इसलिए पीस रेट सिस्टम का विरोध करते हुए आठ घण्टे का दिहाड़ी कानून लागू करवाने और आठ घण्टे के पर्याप्त वेतन के लिए माँगें भी माँगपत्र में शामिल होनी चाहिए और इनके लिए ज़ोरदार संघर्ष करना चाहिए। इसके अलावा सुरक्षा इन्तज़ामों के लिए माँग उठानी चाहिए जोकि बहुत ही महत्‍वपूर्ण माँग बनती है। साफ-सफाई से सम्बन्धित माँग भी शामिल की जानी चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि सभी माँगें एक बार में ही पूरी हो जायेंगी। मज़दूरों में एकता और लड़ने की भावना का स्तर, माल की माँग में तेज़ी या मन्दी आदि परिस्थितियों के हिसाब से कम से कम कुछ माँगें मनवाकर बाकी के लिए लड़ाई जारी रखनी चाहिए।

मज़दूरों को तैयार करने के लिए जागरूक मज़दूर साथियों को लगातार कोशिश तो करनी ही होगी। एकता को परखने व मज़बूत करने और मज़दूरों को संघर्ष के शुरुआती तजुर्बे से गुज़ारने के लिए गेट मीटिंगों से लेकर कुछेक घण्टों की हड़ताल जैसे तरीके अपनाये जा सकते हैं।

इसके साथ ही साथ बिल्कुल शुरू से ही जागरूक मज़दूर साथियों को दूसरे कारख़ानों के मज़दूरों से तालमेल बिठाने की कोशिशें करनी होंगी। दूसरे कारख़ानों के मज़दूरों के साथ मिलकर ही मालिकों द्वारा मज़दूरों के शोषण को रोकने के लिए कई महत्‍वपूर्ण कदम उठाये जा सकते हैं और कामयाबी हासिल की जा सकती है। मालिकों के भी संगठन बने हुए हैं। वे प्रशासन-सरकार के समर्थन के साथ योजनाबद्ध ढंग से मज़दूरों का शोषण करते हैं। मज़दूर अगर अपने हक प्राप्ति के संघर्ष को अपने-अपने कारख़ानों की चारदीवारी से बाहर नहीं लायेंगे तो वे मालिकों से लडने के लिए पर्याप्त ताकत हासिल नहीं कर पायेंगे।

- राजविन्दर

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28.6.09

बादली औद्योगिक क्षेत्र की हत्यारी फैक्टरियाँ

बिगुल संवाददाता


पिछले महीने 2 मई को
बादली औद्योगिक क्षेत्र के फेस 1 की एस-59 स्थित फैक्‍टरी में पत्‍ती लगने से मुकेश नामक एक मज़दूर की दर्दनाक मौत हो गयी। फैक्टरी के मालिक ने पुलिस-प्रशासन से मिलीभगत करके मामले की लीपापोती कर दी। जब 'नौजवान भारत सभा' तथा 'बिगुल मज़दूर दस्ता' के कार्यकर्ताओं ने इस घटना के ख़िलाफ पर्चा निकालकर मज़दूरों के बीच प्रचार किया तो स्थानीय विधायक देवेन्द्र यादव के कार्यालय से धमकी भरे फोन आने लगे।

28 मई को भी न्यू लाइन बिल्डकप प्राइवेट लिमिटेड, एस-99, फेस 1, बादली औद्योगिक क्षेत्र में बिजली लगने से रामप्रसाद सिंह नामक मज़दूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गयी तथा तीन अन्य मज़दूर झुलस गये। इस घटना में भी वही कहानी दुहरायी गयी, पुलिस-प्रशासन की मदद से मामले की लीपापोती कर दी गयी। इस घटना के ख़िलाफ भी जब 'नौजवान भारत सभा' तथा 'बिगुल मज़दूर दस्ता' के कार्यकर्ता पर्चा वितरण कर मज़दूरों के बीच प्रचार कर रहे थे तो स्थानीय थाना समयपुर बादली का एक इंस्पेक्टर कार्यकर्ताओं को प्रचार करने से मना कर रहा था तथा 'कानून' समझा रहा था। जब उक्त संगठन के कार्यकर्ताओं ने पुलिस-प्रशासन के ख़िलाफ नारेबाज़ी शुरू कर दी तो पुलिसवाले ने तुरन्त गिरगिट की तरह रंग बदल लिया और कहने लगा कि वह तो सुरक्षा को ध्‍यान में रखकर यह बात कर रहा था।

बादली औद्योगिक क्षेत्र के ज्यादातर कारख़ानों में लोहे/स्टील से सम्बन्धित फैक्टरियाँ हैं। ज्यादातर फैक्टरियों में पुरानी मशीनों की मदद से मज़दूरों को जान हथेली पर रखकर काम करना होता है। सुरक्षा प्रबन्ध के नाम पर इन कारख़ानों में सिर्फ ख़ानापूर्ति के लिए कुछ चीज़ें रखी जाती हैं जोकि इतनी अव्यावहारिक होती हैं कि मज़दूर ख़ुद ही उसका इस्तेमाल नहीं करते हैं। इन फैक्टरियों में दुघर्टनाएँ नियमित होती रहती हैं। मज़दूरों के हाथ-पैर कटते रहते हैं, चोटें लगती रहती हैं, मौतें होती रहती हैं। दुर्घटना होने पर मुआवज़ा तो दूर, घायल मज़दूर का ठीक से इलाज भी नहीं कराया जाता।

फैक्टरी मालिक-पुलिस प्रशासन-विधायक/पार्षदों की मिलीभगत से यह सबकुछ चल रहा है। छोटे-छोटे नर्सिंग होमों में मज़दूरों का जैसे-तैसे इलाज करवाकर मामला निपटा दिया जाता है। किसी भी फैक्टरी में किसी भी श्रम कानून का कोई पालन नहीं होता है।

एस-59 के कुछ मज़दूरों का कहना था कि यह इस फैक्टरी में दुघर्टना से पाँचवीं मौत है। स्थानीय विधायक तथा फैक्टरी मालिक की काफी नज़दीकी है, जिसका सबूत विधायक के यहाँ से धमकी भरे फोन का आना है।

अब सवाल यह है कि किया क्या जाये? क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कोई रास्ता निकल सकता है। यहाँ राजा विहार, सूरज पार्क-जे.जे.कोलोनी, समयपुर, संजय कालोनी में मज़दूरों की एक बहुत बड़ी आबादी रहती है। ज्यादातर मज़दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के रहने वाले हैं। पुराने मज़दूरों की आबादी ठीक-ठाक है तथा नये मज़दूर भी आ रहे हैं। इस इलाके में मज़दूरों के बीच सीपीएम की यूनियन सीटू के लोग अपनी दुकानदारी चलाते हैं तथा कुछ छोटे-छोटे दलाल 'मालिक सताये तो हमें बतायें' का बोर्ड लगाकर बैठे हुए हैं, जिनकी गिद्ध दृष्टि मज़दूरों पर लगी रहती है। जैसे ही कोई परेशान मज़दूर उनके पास पहुँचता है ये गिद्ध उस पर टूट पड़ते हैं तथा उसकी बची-खुची बोटी नोचकर अपना पेट भरते हैं। इस इलाके में मज़दूरों को जागृत, गोलबन्द तथा संगठित करने का काम चुनौतियों से भरा हुआ है। लगातार प्रचार के माध्‍यम से मज़दूरों की चेतना को जागृत करते हुए उन्हें मज़दूरों के जुझारू इतिहास से परिचित कराना होगा, उन्हें उनके हक के बारे में लगातार बताते रहना होगा तथा उनके बीच के अगुआ लोगों को लेकर ऐसी एक-एक घटना के ख़िलाफ लगातार प्रचार करके पुलिस-प्रशासन-नेताशाही पर दबाव बनाना होगा, तभी जाकर इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने पर फैक्टरी मालिकों को मजबूर किया जा सकता है। इसी प्रक्रिया में मज़दूरों को लगातार बताना होगा कि यह पूरी व्यवस्था मालिकों की हिफाज़त के लिए है तथा बिना इस पूरी व्यवस्था को जड़ से बदले मज़दूरों का इन्सानों की ज़िन्दगी जी पाना असम्भव है।

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27.6.09

एक स्त्री मज़दूर संगठनकर्ता की संक्षिप्त जीवनी (छठी किश्त)

बोल्शेविक - नताशा
- एल. काताशेवा

रूस की अक्टूबर क्रान्ति के लिए मज़दूरों को संगठित, शिक्षित और प्रशिक्षित करने के लिए हज़ारों बोल्शेविक कार्यकर्ताओं ने बरसों तक बेहद कठिन हालात में, ज़बरदस्त कुर्बानियों से भरा जीवन जीते हुए काम किया। उनमें बहुत बड़ी संख्या में महिला बोल्शेविक कार्यकर्ता भी थीं। ऐसी ही एक बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता थीं नताशा समोइलोवा जो आखि़री साँस तक मज़दूरों के बीच काम करती रहीं। हम ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए उनकी एक संक्षिप्त जीवनी का धारावाहिक प्रकाशन कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि आम मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं को इससे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। - सम्पादक


नताशा, स्त्री मज़दूर और अक्टूबर क्रान्ति।

''हमे यूरोप की मौजूदा शमशान-जैसी नीरवता के धोखे में नहीं आना चाहिए'', लेनिन ने कहा। ''यूरोप क्रान्तिकारी भावना से आवेशित है। साम्राज्यवादी युद्ध की राक्षसी भयावहता, महँगाई से पैदा हुई बदहाली, हर जगह क्रान्तिकारी भावना को जन्म दे रही है। और सत्ताधारी वर्ग, अपने चाकरों के साथ बुर्जुआ वर्ग, सरकारें अधिकाधिक एक अन्‍धी गली की तरफ बढ़ रही हैं, जहाँ से ज़बरदस्त उथल-पुथल के बिना वे कभी भी बाहर नहीं निकल सकतीं।

''ठीक वैसा ही जैसाकि 1905 में रूस में एक जनवादी गणराज्य की स्थापना के लक्ष्य के साथ सर्वहारा के नेतृत्व में ज़ारशाही शासन के ख़िलाफ एक आम बग़ावत हुई थी, आने वाले वर्षों में, यूरोप में भी, इसी परभक्षी युद्ध की वजह से सर्वहारा के नेतृत्व में वित्तीय पूँजी की शक्ति के ख़िलाफ, बड़े बैंकों के ख़िलाफ, पूँजीपतियों के ख़िलाफ आम बग़ावतें होंगी और समाजवाद की विजय के बिना, बुर्जुआ वर्ग के स्वामित्वहरण के बिना इन विप्लवों का अन्त नहीं होगा।'' (1905 की क्रान्ति पर लेनिन का भाषण, लेनिन, संकलित रचनाएँ, खण्ड 19)

लेनिन ने ये बातें 1917 की जनवरी में कही थीं। उसी साल 23 फरवरी को मेहनतकश जनता का एक आन्दोलन शुरू हुआ। एक ऐसा आन्दोलन जिसे 1914 में अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद ने बाधित कर दिया था। युद्ध ने मामले को सिर्फ टाल दिया था, और इस देरी से बेड़ियाँ और भी कस गयीं। आन्दोलन की शुरुआत एक उच्चतर धरातल, एक व्यापक आधार पर हुई। 12 मार्च को जब लेनिन अभी जेनेवा में ही थे, आगामी घटनाक्रमों के बारे में उनका निम्न आकलन था :

''उन समाजवादियों की भविष्यवाणी सच साबित हुई जो युद्ध की नृशंस और पाशविक भावना से अप्रभावित रहकर समाजवाद के प्रति वफादार बने रहे। विभिन्न देशों के पूँजीपतियों के बीच छिड़ गये विश्वव्यापी परभक्षी युद्ध के चलते पहली क्रान्ति फूट पड़ी। साम्राज्यवादी युद्ध, यानी पूँजीपतियों द्वारा लूट के माल के बँटवारे के लिए, कमज़ोर जनता को कुचलने के लिए छिड़ा युद्ध, गृहयुद्ध में, अर्थात एक ऐसे युद्ध में तब्दील होने लगा जो पूँजीपतियों के ख़िलाफ मज़दूरों का, ज़ारों और राजाओं, ज़मींदारों और पूँजीपतियों के ख़िलाफ मेहनतकशों और उत्पीड़ितों का युद्ध था, युद्धों से मानवता की, ग़रीबी से जनता की और इन्सान के हाथों इन्सान के शोषण से सम्पूर्ण मुक्ति का युद्ध था।

''क्रान्ति का, यानी अकेला विधिसंगत, न्यायोचित और महान युद्ध का, उत्पीड़कों के ख़िलाफ उत्पीड़ितों के युद्ध का, प्रणेता होने का गौरव और सौभाग्य रूसी मज़दूरों को मिला है।

''पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने ज़ारशाही राज को उखाड़ फेंका है। पुलिस और ज़ार की सेनाओं के ख़िलाफ अपने साहसिक युद्ध में, मशीनगनों के सामने निहत्थे मज़दूरों ने बग़ावत की शुरुआत कर पेत्रोग्राद की दुर्ग सेना के अधिकांश सिपाहियों को अपनी तरफ कर लिया। मास्को और दूसरे शहरों में भी यही हुआ। अपनी सेनाओं द्वारा ठुकराये गये ज़ार को आत्मसमर्पण करना पड़ा उसने अपने और अपने बेटे के राजगद्दी छोड़ने के काग़ज़ पर हस्ताक्षर किये। उसने प्रस्ताव रखा कि राजगद्दी उसके भाई माइकेल के हवाले कर दी जाये।


''विद्रोह की अत्यन्त द्रुतगति के चलते, अंग्रेज़-फ्रांसीसी पूँजीपतियों की सीधी मदद के चलते, पेत्रोग्राद के मज़दूरों, जनता के बीच पर्याप्त वर्गीय चेतना के अभाव के चलते, तथा रूसी ज़मींदारों और पूँजीपतियों के संगठन और तैयारी के चलते पूँजीपति राजसत्ता पर कब्ज़ा करने में कामयाब रहे।'' (लेनिन, रूस में क्रान्ति और सभी देशों के मज़दूरों के कार्य, संकलित रचनाएँ, खण्ड 20, पृष्ठ 64)

1917 में ज़ारशाही का तख्ता पलटे जाने के बाद बनी केरेंस्की की अन्तरिम सरकार को लेनिन ने इसी तरह परिभाषित किया था।

दरअसल, मज़दूर इस तरह की सरकार पर विश्वास नहीं कर सके। मज़दूरों ने रोटी, अमन और आज़ादी की ख़ातिर लड़ते हुए राजतन्त्र को उखाड़ फेंका था। पेत्रोग्राद के मज़दूरों ने ज़ारशाही को पराजित करने के फौरन बाद, स्वयं अपना संगठन मज़दूर प्रतिनिधियों की सोवियतें बनाया और उसे तत्काल संगठित व विस्तारित करना तथा सैनिकों और किसानों के प्रतिनिधियों की स्वतन्त्र सोवियतों का गठन करना शुरू कर दिया।

इत्तेफाक से फरवरी क्रान्ति का पहला दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का दिन भी था। युद्ध ने स्त्री मज़दूरों और किसानों की भारी आबादी को रूसी जीवन की वास्तविकता के रू-ब-रू कर दिया था। रूसी स्त्रियों का घरेलू जीवन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया था और उन्हें देश के आर्थिक जीवन के भँवर में घसीट लिया गया था। मज़दूर औरतें युद्ध में गये अपने पतियों की जगह मशीनों पर काम कर रही थीं। जबकि किसान औरतें खेत में हल चला रही थीं (युद्ध के लिए उनके पति और घोड़े अक्सर बलात् भरती कर लिये जाते थे)।

1916-17 की सर्दियों के दिन बहुत विकट थे। खाद्य पदार्थों के दाम तेज़ी के साथ आसमान छूने लगे। खाने-पीने की चीज़ों की किल्लत थी और दूकानों पर लम्बी कतारें लगी रहतीं।

फरवरी 1917 के अन्त में ''युद्ध मुर्दाबाद'', ''राजशाही मुर्दाबाद'' के नारे के साथ पेत्रोग्राद और मास्को की तमाम बड़ी फैक्टरियों में एक के बाद एक हड़तालें होती गयीं। इस आन्दोलन का मार्गदर्शन बोल्शेविक कर रहे थे। स्त्री मज़दूरों ने, जिनकी तादाद फैक्टरियों में काफी बढ़ गयी थी और जिनके कन्‍धों पर अपने परिवारों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी आ पड़ी थी, इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभायी। स्त्रियों का आन्दोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से शुरू हो गया। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस ने उन्हें संगठन के कुछ बुनियादी तत्वों से परिचित करा दिया था और वे स्त्रियाँ ''रोटी और अमन'', तथा ''हमारे पतियों को मोर्चे से वापस लाओ'' के नारे के साथ सड़कों पर उतर पड़ीं।

फरवरी क्रान्ति के पहले दिन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का संयोगवश होना कोई बड़ी घटना नहीं थी। युद्ध के पहले ही इस दिन की सांगठनिक और शैक्षणिक अहमियत स्पष्ट हो चुकी थी। युद्ध के भी पहले स्त्री मज़दूर यह समझने लगी थीं कि वे समग्रता में मेहनतकश वर्ग के आन्दोलन में भाग लेकर ही मुक्ति पा सकती हैं। युद्ध के दौरान देश के आर्थिक जीवन में औरतों की भूमिका बढ़ जाने के साथ महिला आन्दोलन उच्चतर मंज़िल में पहुँच गया।

23 फरवरी को पेत्रोग्राद में पुरानी सरकार ने औरतों को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने से रोकने की कोशिश की। इससे पुतिलोव कारख़ाने में विवाद खड़ा हो गया जो बढ़कर विरोध प्रदर्शन और क्रान्ति में तब्दील हो गया। इस प्रकार जीवन की भीषण परिस्थितियों से जन्मे एक स्वत:स्फूर्त आन्दोलन ने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस में अपना सांगठनिक आधार हासिल किया जो बोल्शेविकों के पार्टीकार्य की शृंखला की एक कड़ी था।

लेनिन अप्रैल में आये और बोल्शेविक शक्तियों को एकजुट करने, संगठित करने, उन्हें कार्य बाँटने, तथा आने वाली लड़ाइयों के लिए उन्हें प्रशिक्षित करने के काम ने लम्बे डग भरे। समोइलोवा जो उन दिनों पेत्रोग्राद में थीं, लेनिनवादी बोल्शेविक कतारों के साथ अपनी समस्त स्वाभाविक ऊर्जा और उत्साह से काम करने लगीं। वह महिला कार्यकर्ताओं के बीच चल रहे आन्दोलन का वर्णन इन शब्दों में करती हैं : ''शुरू में हमारे पास अगुवा स्त्री मज़दूरों का एक छोटा-सा समूह था जो 1913-14 में 'वूमन वर्कर' के पहले प्रकाशन के समय से ही उसके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गया था।''

उसके बाद वह स्त्री मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा के लिए युद्ध के क्रान्तिकारी प्रभाव के बारे में प्रचार करती हैं। यह 23 फरवरी, 1917 की एक ऐसी स्वत:स्फूर्त कार्रवाई थी, जिसने सैनिकों के दिलों में घर कर लिया और उन्होंने लोगों पर, जो बग़ावत करने के लिए उठ खड़े हुए थे, गोलियाँ चलाने की जगह अपनी संगीनों का मुँह ज़ारशाही राजतन्त्र की ओर मोड़ दिया और तीन दिनों के भीतर ज़ारशाही के सड़े-गले तख्तेताज को नेस्तनाबूद कर दिया। फरवरी क्रान्ति ने स्त्री मज़दूरों के मन में संगठन के प्रति गहरी दिलचस्पी जगायी। वे पार्टी का सदस्य बनने के लिए लालायित हो पार्टी में आने लगीं और उसमें से कई ट्रेड यूनियनों में शामिल हो गयीं।

लेनिन ने जब 21 अप्रैल, 1917 की कार्रवाई को ''दुश्मन की स्थिति की टोह लेने'' के रूप में निरूपित किया तब उनका यह मानना था कि क्रान्ति के पहले चरण से दूसरे चरण में संक्रमण के दौरान कार्रवाई के लिए उपयुक्त नारा ''क्रान्ति के दूसरे चरण में जीत के लिए तैयार रहो'' ही होगा।

और अचानक आज़ाद देश धोबिनों की आर्थिक हड़ताल से भौंचक्का रह गया। यह स्त्री मज़दूरों की कतार में भी सबसे पिछड़ा तबका था। लेकिन यह हैरत तब और बढ गयी जब पता चला कि उन्होंने जो माँगें रखी हैं उनमें लॉण्ड्रियों के राष्ट्रीयकरण और उनको स्थानीय दुमा (नगरपालिकाओं) के हवाले करने की माँग पहली माँग है। यह माँग पूँजीवादी सरकार में मज़दूर वर्ग के हितों के ''प्रतिनिधि'' श्रम मन्त्री सामाजिक-जनवादी ग्वोज्देव के सामने तौरिदा पैलेस (अन्तरिम सरकार के मुख्यालय) में रखी गयी।

लेकिन मज़दूर वर्ग के हितों के ''संरक्षक'' ने इन माँगों को ''अपरिपक्व'' बताया।

पेत्रोग्राद की स्त्री मज़दूरों में, जो ''तौरिदा पैलेस पर बारीकी से नज़र रख रही थीं'' और जो वहाँ बैठे अपने ''संरक्षकों'' की राय से सहमत नहीं थीं, क्रान्तिकारी भावना के बढ़ने से लॉण्ड्री हड़ताल को समर्थन मिला। मज़दूर औरतों ने लिखा कि ''अप्रैल 21 का अन्त असन्तोषजनक रहा'' लेकिन इसने हमारी ऑंखें खोल दीं। पूँजीपतियों के ख़िलाफ भरी नफरत और बढ़ गयी और मेंशेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों से भरोसा उठ गया।

स्त्री मज़दूरों में बढ़ती क्रान्तिकारी भावना उर्जस्वी अक्टूबर क्रान्ति के महान संगठनकर्ता की नज़रों से छिपी नहीं रही, बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी के फैसले के अनुरूप 'वूमन वर्कर' का पुनर्प्रकाशन (10 मई) शुरू किया गया और इस पत्रिका ने पेत्रोग्राद की स्त्री मज़दूरों के बेहतरीन तत्वों को अपने इर्दगिर्द फौरन एकजुट कर लिया।

सम्पादकीय मण्डल में क्रुप्सकाया, इनेस्सां अरमां, स्ताल, कोल्लोन्ताई, एलिज़ारोवा, कुदेली, समोइलोवा, निकोलेयेवा और पेत्रोग्राद की बहुत-सी मज़दूर स्त्रियाँ शामिल थीं।

'वूमन वर्कर' के सम्पादकों ने अपने इर्दगिर्द स्त्री मज़दूरों को एकजुट किया, सभाओं के ज़रिये व्यापक आन्दोलनात्मक काम किये, युद्ध के ख़िलाफ, बढ़ी कीमतों के ख़िलाफ परचे बाँटे।

चिनीजेली सर्कस में जून में आयोजित सभा ने विशेष रूप से युद्ध के ख़िलाफ एक बड़ी भूमिका निभायी। जिस समय मोर्चे पर युद्ध अपने चरम पर था, जंग के ख़िलाफ यह अन्तरराष्ट्रीय सभा थी, जिसके विरोध में केरेंस्की और समूचे पूँजीवादी प्रेस ने ज़बरदस्त मुहिम चला रखी थी। सभा में इतनी बड़ी तादाद में मज़दूर शामिल हुए कि वहाँ पहुँचने वाले सभी स्त्री-पुरुष इमारत में समा न सके। यह तख्ता पलटने के लिए की गयी सभा थी, जिसमें समोइलोवा ने भाषण दिया। इस सभा ने पूँजीवादी अख़बारों को बहुत क्षुब्ध किया।

'वूमन वर्कर' के सम्पादकों ने कारख़ानों में भी काफी सांगठनिक काम किये। समोइलोवा और निकोलेयेवा इस काम में विशेष रूप से महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थीं। हर फैक्टरी ने 'वूमन वर्कर' के सम्पादकीय मण्डल में अपने प्रतिनिधि नियुक्त कर रखे थे। हर सप्ताह यह अकेली ''सोवियत'' एकत्र होती थी और विभिन्न इलाकों की रिपोर्टों पर चर्चा करती थी। इस तरह सम्पादक मण्डल फैक्टरियों में चल रही हर चीज़ के बारे में जानता था और पेत्रोग्राद के सर्वहारा के बीच उठ रही क्रान्तिकारी लहर को पहचान सकता था।

क्रान्ति अपने क्रान्तिकारी रूप ख़ुद पैदा करती है और कारख़ानों की ये महिला प्रतिनिधि भावी महिला संगठनकर्ताओं का आदि रूप थीं, जिन्हें मज़दूर स्त्रियों के बीच काम करने के लिए कारख़ाना सेल द्वारा नियुक्त किया गया।

1917 के ''जुलाई दिनों'' में, जब 'प्रावदा' के कार्यालयों को ध्‍वस्त कर दिया गया था, 'वूमन वर्कर' ने अपने जुलाई अंक में बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी के सदस्यों के लेख प्रकाशित किये। इन लेखों में मज़दूरों को ''जुलाई दिनों'' का आशय समझाया गया था और उस रास्ते के बारे में इंगित किया गया था जिसे भविष्य में अपनाया जाना था। उसके बाद सरकार ने 'वूमन वर्कर' पर भी दमन का पाटा चलाने का फैसला किया। अंक निकलने के दूसरे दिन जब केरेंस्की की पुलिस सम्पादकीय कार्यालय पर पहुँची तो वहाँ कोई भी नहीं था। मज़दूर औरतें रात ही में अख़बार की प्रतियाँ फैक्टरियों में उठा ले गयी थीं।

यह सच है कि बोल्शेविक प्रेस के दमन के बाद बोल्शेविकों के ख़िलाफ जो उन्मादी अभियान चलाया गया उसने स्त्री मज़दूरों के आन्दोलन में कुछ दुविधा पैदा कर दी। उनमें से कुछ तो बोल्शेविक विरोधी अख़बारों के उस कुत्सा प्रचार से भी प्रभावित होती जान पड़ीं जिसमें लेनिन पर जर्मन जासूस होने का आरोप लगाया गया था।

अपने एक परचे में समोइलोवा ने कटुता से (और साथ ही साथ इस बात पर ज़ोर देते हुए कि हमें आलोचनाओं और ग़लतियों के सामने आने से नहीं डरना चाहिए) कहा कि ''जुलाई दिनों'' के बाद कुछ स्त्री मज़दूर जो बोल्शेविक पार्टी में पहले ही शामिल हो चुकी थीं, डाँवाडोल होने लगीं। उनमें से एक-दो ने 'वूमन वर्कर' के कार्यालय में आकर यह कहते हुए अपने पार्टी कार्ड फेंक दिये कि ''वे जर्मन जासूसों की पार्टी में नहीं बने रहना चाहतीं।''

लेकिन इन उतारों-चढ़ावों ने समोइलोवा और निकोलेयेवा को अपने सांगठनिक, आन्दोलनात्मक और प्रचारात्मक कार्यों को और तेज़ करने की प्रेरणा दी। (अगले अंकों में जारी)

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26.6.09

बोलते ऑंकड़े चीख़ती सच्चाइयाँ


  • पूरी दुनिया में कम से कम 12.3 मिलियन लोगों से बँधुआ मज़दूरी करायी जाती है।
  • हर साल पूरी दुनिया में 20 लाख लोग काम के दौरान दुर्घटनाओं या पेशागत रोगों के कारण मारे जाते हैं।
  • दुनिया की केवल 20 प्रतिशत आबादी को उचित सामाजिक सुरक्षा प्राप्त है और आधी से अधिक आबादी को कोई सुरक्षा नहीं है।
  • मौजूदा समय में पूरी दुनिया में 20 करोड़ से अधिक बच्चे बाल मज़दूरी कर रहे हैं, जो उनके मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास को नुकसान पहुँचा रहा है।
  • 18 वर्षों के नवउदारवादी दौर के बाद, इक्कीसवीं सदी के भारत की ख़ासियत यह है कि यह अरबपतियों की कुल दौलत के लिहाज़ से अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, लेकिन बेघरों, कुपोषितों, भूखों और अनपढ़ों की तादाद के लिहाज़ से भी दुनिया में पहले नम्बर पर है। ऐश्वर्य-समृद्धि की चकाचौंध भरी दुनिया का दूसरा अन्‍धकारमय पहलू यह है कि (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार) देश की 18 करोड़ आबादी झुग्गियों में रहती है और 18 करोड़ आबादी फुटपाथों पर सोती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ही अनुसार, ग्रामीण भारत में प्रतिदिन औसत उपभोग मात्र 19 रुपये और शहरी भारत में 30 रुपये है। गाँवों की दस प्रतिशत आबादी 9 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करती है। 'नेशनल कमीशन फॉर इण्टर- प्राइजेज़ इन द अनऑर्गेनाइज्ड़ सेक्टर' की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2004-05 में करीब 84 करोड़ लोग (यानी आबादी का 77 फीसदी हिस्सा) रोज़ाना 20 रुपये से भी कम पर गुज़र कर रहे थे । इनमें से 22 फीसदी लोग रोज़ाना 11.60 रुपये की आमदनी पर (यानी सरकारी 'ग़रीब रेखा' के नीचे), 19 फीसदी लोग रोज़ाना 11.60 रुपये से 15 रुपये के बीच की आमदनी पर और 36 फीसदी लोग रोज़ाना 15 से 20 रुपये के बीच की आमदनी पर गुज़ारा कर रहे थे।
  • भारत में औसत आयु चीन के मुकाबले 7 वर्ष और श्रीलंका के मुकाबले 11 वर्ष कम है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर चीन के मुकाबले तीन गुना, श्रीलंका के मुकाबले लगभग 6 गुना और यहाँ तक कि बांग्लादेश और नेपाल से भी ज्यादा है। भारतीय बच्चों में से तकरीबन आधों का वज़न ज़रूरत से कम है और वे कुपोषण से ग्रस्त हैं। करीब 60 फीसदी बच्चे ख़ून की कमी से ग्रस्त हैं और 74 फीसदी नवजातों में ख़ून की कमी होती है। प्रतिदिन लगभग 9 हज़ार भारतीय बच्चे भूख, कुपोषण और कुपोषणजनित बीमारियों से मरते हैं। 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के 50 फीसदी मामलों का कारण कुपोषण होता है। 5 वर्ष से कम आयु के 5 करोड़ भारतीय बच्चे गम्भीर कुपोषण के शिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, 63 फीसदी भारतीय बच्चे प्राय: भूखे सोते हैं और 60 फीसदी कुपोषणग्रस्त होते हैं। 23 फीसदी बच्चे जन्म से कमज़ोर और बीमार होते हैं। एक हज़ार नवजात शिशुओं में से 60 एक वर्ष के भीतर मर जाते हैं। लगभग दस करोड़ बच्चे होटलों में प्लेटें धोने, मूँगफली बेचने आदि का काम करते हैं।
  • 2001-2002 में भारत की केन्द्र और राज्य सरकारें सकल घरेलू उत्पाद का 2.98 ही शिक्षा पर ख़र्च कर रही थीं, जो 2007-2008 तक घटकर 2.91 रह गया।
  • भारत की वित्तीय राजधानी मुम्बई में, 60 प्रतिशत से अधिक आबादी झुग्गी-झोंपड़ियों में रहती है। जहाँ वे अमानवीय स्थितियों में रहती हैं और स्वास्थ्य की स्थिति ग्रामीण क्षत्रों के जैसी है।
  • मुम्बई के 40 प्रतिशत बच्चों का वज़न सामान्य से कम है, यानी उन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिलता।
  • 2007 में स्तर 4 के कुपोषण के कारण भारी संख्या में मुम्बई की अनेक झुग्गी-बस्तियों के बच्चों को अस्पताल में भरती कराना पड़ा था।
  • वर्ष 2009 में प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन 2 यूएस डॉलर से कम पर गुज़ारा करने वालों की संख्या बढ़कर एक अरब से अधिक, या दुनिया में रोज़गार प्राप्त लोगों की संख्या का 45 प्रतिशत हो जायेगी। 2005 में आबादी का 42 प्रतिशत हिस्सा 1.25 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन की अन्तरराष्ट्रीय ग़रीबी रेखा से नीचे रह रहा था।
  • अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार वर्ष 2009 में 210 मिलियन से 239 मिलियन तक की संख्या में बेरोज़गार होंगे।
  • 2007 से लेकर अब तक बेरोज़गारों में 39 और 59 मिलियन लोगों की बढ़ोत्तरी हुई है।
  • इराक में अमेरिकी और मित्र देशों की सेना के हमले और कब्ज़े से लेकर अभी तक 1,331,578 यानी लगभग सवा करोड़ इराकियों की मौत हो चुकी है।
  • अमेरिकी युद्ध और इराक पर कब्ज़े के बाद से अब तक अमेरिका 676,922,100,934 डॉलर की राशि ख़र्च कर चुका है।
  • दुनिया की 5.5 अरब की जनसंख्या में से 3 अरब ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। यह संख्या पूरी दुनिया की जनसंख्या की लगभग आधी है।
  • 1997 से 2006 तक भारत सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 4 प्रतिशत ख़र्च किया।
  • वर्ष 2008 में विश्वभर में मज़दूरों की माँगों के लिए लड़नेवाले 78 ट्रेडयूनियन नेताओं की हत्या हुई।
  • जहाँ विकसित देशों के लोग औसतन अपनी कुल आमदनी का 10 से 20 फीसदी भोजन पर ख़र्च करते हैं, वहीं भारत के लोग अपनी कुल कमाई का औसतन करीब 55 फीसदी हिस्सा भोजन पर ख़र्च करते हैं। लेकिन कम आय वर्ग के भारतीय नागरिक अपनी आमदनी का 70 प्रतिशत भाग भोजन पर ख़र्च करते हैं, और फिर भी उसे दो जून न तो भरपेट भोजन मिलता है, न ही पोषणयुक्त भोजन। औसतन एक आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल चाहिए, लेकिन भारत की नीचे की 30 फीसदी आबादी को औसतन 13 ग्राम ही नसीब हो पाता है।
  • देश के दस सर्वोच्च खरबपति हर मिनट दो करोड़ रुपये बनाते हैं। अकेले मुकेश अम्बानी हर मिनट 40 लाख रुपये बनाते हैं। दुनिया के शीर्षस्थ 5 महाधनिकों में से दो भारतीय हैं। 'फोर्ब्स' पत्रिका द्वारा तैयार दुनिया के अरबपतियों की सूची में 2004 में 9 भारतीय शामिल थे। यह संख्या 2007 तक बढ़कर 40 हो गयी। भारत से बहुत अधिक धनी देश जापान में अरबपतियों की तादाद 2007 में महज़ 24, फ्रांस में 14 और इटली में भी 14 थी। चीन में तेज़ आर्थिक विकास और तेज़ी से बढ़ती ग़ैरबराबरी के बावजूद 2007 में वहाँ कुल 17 अरबपति ही थे। भारत के अरबपतियों की दौलत महज़ एक साल में, 2006-07 के दौरान 106 अरब डॉलर से बढ़कर 170 अरब डॉलर हो गयी। अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी (फिलहाल, अगस्त-सितम्बर 2008) के अनुसार, अरबपतियों की दौलत में 60 फीसदी बढ़ोत्तरी इसलिए मुमकिन हुई कि राज्य और केन्द्र सरकारों ने खनन, उद्योगीकरण और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए ''सार्वजनिक उद्देश्य'' के नाम पर बड़े पैमाने पर ज़मीन निजी कारपोरेशनों को सौंप दी। कारपोरेट मुनाफे के ऑंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000-01 के बाद से अब तक सकल घरेलू उत्पाद में हर अतिरिक्त 1 फीसदी की बढ़ोत्तरी से कारपोरेट मुनाफों में 2.5 फीसदी की बढ़त हुई है। आज़ादी के बाद के छ: दशकों का बैलेंसशीट यह है कि ऊपर के 22 एकाधिकारी पूँजीपति घरानों की परिसम्पत्ति में 500 गुने से भी अधिक का इज़ाफा हुआ है। इन घरानों में वे बहुराष्ट्रीय निगम शामिल नहीं हैं जिनके शुद्ध मुनाफे में दोगुना-चौगुना नहीं बल्कि औसतन सैकड़ों गुना की वृद्धि हुई है।
  • विगत कुछ वर्षों के दौरान भारत करोड़पतियों की संख्या में वृद्धि दर की दृष्टि से पूरी दुनिया में वियतनाम के बाद दूसरे स्थान पर रहा है। दिसम्बर 2007 में भारत में 1 लाख 23 हज़ार करोड़पति थे, जो एक वर्ष पूर्व के मुकाबले 23 प्रतिशत अधिक था। करोड़पति वृद्धिद्दर के मामले में तीसरे स्थान पर चीन आता है। ज्ञातव्य है कि बाज़ार समाजवाद के नाम पर चीन और वियतनाम में भी नवउदारवाद का घटाटोप छाया है, जिसके चलते वहाँ भी सामाजिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज़ गति से जारी है।

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25.6.09

पूँजीपति वर्ग के पास आर्थिक संकट को रोकने का एक ही तरीका है

और भी व्यापक और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त करना और इन संकटों को रोकने के साधनों को घटाते जाना !

कार्ल मार्क्‍स और फ्रेडरिक एंगेल्‍स

उत्पादन, विनिमय और सम्पत्ति के अपने सम्बन्‍धों के साथ आधुनिक बुर्जुआ समाज, वह समाज, जिसने जैसे तिलिस्म से ऐसे विराट उत्पादन तथा विनिमय साधनों की रचना कर दी है, ऐसे जादूगर की तरह है, जिसने अपने जादू से पाताल लोक की शक्तियों को बुला तो लिया है, पर अब उन्हें वश में रखने में असमर्थ है। पिछले कई दशकों से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास सिर्फ आधुनिक उत्पादक शक्तियों की आधुनिक उत्पादन अवस्थाओं के ख़िलाफ, उन सम्पत्ति सम्बन्‍धों के ख़िलाफ विद्रोह का ही इतिहास है, जो बुर्जुआ वर्ग और उसके शासन के अस्तित्व की शर्तें हैं। यहाँ पर वाणिज्यिक संकटों का उल्लेख काफी है, जो अपने नियतकालिक आवर्तन द्वारा समस्त बुर्जुआ समाज के अस्तित्व की हर बार अधिकाधिक सख्त परीक्षा लेते हैं। इन संकटों में न केवल विद्यमान उत्पादों का ही, बल्कि पूर्वसर्जित उत्पादक शक्तियों का भी एक बड़ा भाग समय-समय पर नष्ट हो जाता है। इन संकटों के समय एक महामारी फूट पड़ती है, जो सभी पूर्ववर्ती युगों में एक असंगति प्रतीत होती अर्थात अति-उत्पादन की महामारी। समाज अचानक अपने आपको क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है; लगता है, जैसे किसी अकाल या सर्वनाशी विश्वयुद्ध ने उसके सभी निर्वाह साधनों की पूर्ति को एकबारगी ख़त्म कर दिया हो; उद्योग और वाणिज्य नष्ट हो गये प्रतीत होते हैं; क्यों? इसलिए कि समाज में सभ्यता का, निर्वाह साधनों का, उद्योग और वाणिज्य का अतिशय हो गया है। समाज को उपलब्ध उत्पादक शक्तियाँ बुर्जुआ सम्पत्ति की अवस्थाओं के विकास का अब संवर्धन नहीं करतीं; इसके विपरीत, वे इन अवस्थाओं के लिए, जिन्होंने उन्हें बाँध रखा है, अत्यधिक प्रबल हो गयी हैं, और जैसे ही वे इन बन्‍धनों पर पार पाने लगती हैं कि वे सारे ही बुर्जुआ समाज में अव्यवस्था उत्पन्न कर देती हैं, बुर्जुआ सम्पत्ति के अस्तित्व को ख़तरे में डाल देती हैं। बुर्जुआ समाज की अवस्थाएँ उनके द्वारा उत्पादित सम्पत्ति को समाविष्ट करने के लिए बहुत संकुचित हो जाती हैं। और भला बुर्जुआ वर्ग इन संकटों पर किस प्रकार पार पाता है? एक ओर, उत्पादक शक्तियों की पूरी-पूरी संहति के बलात् विनाश द्वारा और दूसरी ओर, नये-नये बाज़ारों पर कब्ज़े द्वारा और साथ ही पुराने बाज़ारों के और भी पूर्णतर दोहन द्वारा। कहने का मतलब यह कि और भी व्यापक और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त करके और इन संकटों को रोकने के साधनों को घटाकर।

जिन हथियारों से बुर्जुआ वर्ग ने सामन्तवाद को पराजित किया था, वे अब स्वयं बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध ही तन जाते हैं।

किन्तु बुर्जुआ वर्ग ने केवल ऐसे हथियार ही नहीं गढ़े हैं, जो उसकी मृत्यु लाते हैं, बल्कि उसने उन लोगों को भी पैदा किया है, जिन्हें इन हथियारों को इस्तेमाल करना है आज के मज़दूर, सर्वहारा वर्ग।

जिस अनुपात में बुर्जुआ वर्ग, अर्थात पूँजी का विकास होता है, उसी अनुपात में सर्वहारा, आधुनिक मज़दूरों के वर्ग का भी विकास होता है, जो तभी तक ज़िन्दा रह सकते हैं, जब तक उन्हें काम मिलता है, और उन्हें काम तभी तक मिलता है, जब तक उनका श्रम पूँजी को बढ़ाता है। ये मज़दूर, जिन्हें अपने आपको अलग-अलग बेचना होता है, किसी भी अन्य वाणिज्यिक वस्तु की तरह ख़ुद भी जिन्स हैं, और इसलिए वे होड़ के हर उतार-चढ़ाव तथा बाज़ार की हर तेज़ी-मन्दी के शिकार होते हैं।

....

...अभी तक, जैसाकि हम पहले ही देख चुके हैं, समाज का हर रूप उत्पीड़क और उत्पीड़ित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है। लेकिन किसी भी वर्ग का उत्पीड़न करने के लिए कुछेक अवस्थाएँ सुनिश्चित करना आवश्यक है, जिनमें वह कम से कम अपने दासवत अस्तित्व को बनाये रख सके। भूदासता के युग में भूदास ने अपने को कम्यून के सदस्य की स्थिति तक उठा लिया, ठीक जैसे निम्न बुर्जुआ सामन्ती निरंकुशता के जुए के नीचे बुर्जुआ में विकसित होने में कामयाब हो गया था। इसके विपरीत, आधुनिक मज़दूर उद्योग की प्रगति के साथ ऊपर उठने के बजाय स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के अधिकाधिक नीचे ही गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और कंगाली आबादी और दौलत से भी ज्यादा तेज़ी से बढ़ती है। और यहाँ यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज में शासक वर्ग होने और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को एक अभिभावी नियम के रूप में लादने के अयोग्य है। वह शासन करने के अयोग्य है, क्योंकि वह अपने दास का अपनी दासता में अस्तित्व सुनिश्चित करने में अक्षम है, क्योंकि वह उसका ऐसी स्थिति में गिरना नहीं रोक सकता जब उसे दास का पेट भरना पड़ता है, बजाय इसके कि दास उसका पेट भरे। समाज इस बुर्जुआ वर्ग के अधीन अब और नहीं रह सकता, दूसरे शब्दों में उसका अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता।

बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाज़िमी शर्त पूँजी का निर्माण और वृद्धि है; और पूँजी की शर्त है उजरती श्रम। उजरती श्रम पूर्णतया मज़दूरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पर निर्भर है। उद्योग की उन्नति, बुर्जुआ वर्ग जिसका अनभिप्रेत संवर्धक है, प्रतिस्पर्द्धा से जनित मज़दूरों के अलगाव की संसर्ग से जनित उनकी क्रान्तिकारी एकजुटता से प्रतिस्थापना कर देती है। इस तरह, आधुनिक उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग के पैरों के तले उस बुनियाद को ही खिसका देता है, जिस पर वह उत्पादों को उत्पादित और हस्तगत करता है। अत:, बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को ही पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा की विजय, दोनों समान रूप से अवश्यम्भावी हैं।

('कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' से)

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24.6.09

चीन के नये पूँजीवादी शासकों के ख़िलाफ 4 जून, 1989 को त्येनआनमेन पर हुए जनविद्रोह के बर्बर दमन की 20वीं बरसी पर

कभी चैन की नींद नहीं सो सकेंगे पूँजीवादी पथगामी...

- संदीप
सन 1989 के जून महीने की 4 तारीख़ को पूरी दुनिया चीन के बीजिंग शहर में सड़कों पर उतरी आम मेहनतकश जनता और छात्रों के आन्दोलन को संशोधनवादी सेना द्वारा कुचले जाने की गवाह बनी थी। बीजिंग के त्येनआनमेन चौक पर हुए उस बर्बर दमन को पश्चिमी पूँजीवादी मीडिया ने कम्युनिस्टों द्वारा लोकतन्त्र समर्थकों के दमन के रूप में प्रचारित किया और अब तक यही करता रहा है, जबकि वह एक जनविद्रोह था। उसमें माओ की शिक्षाओं को मानने वाले क्रान्तिकारियों के साथ ही वे मज़दूर भी शामिल थे, जो राज्य और पार्टी पर काबिज़ पूँजीवादी पथगामियों की नीतियों के ख़िलाफ सड़कों पर उतरे थे। उनके हाथों में माओ की तस्वीरों वाली तख्तियाँ रहती थीं और ज़बान पर माओ के समर्थन में नारे। इस दमन का शिकार होने वाले हज़ारों लोगों में से अधिकांश वे मज़दूर और छात्र थे, जो माओ के समर्थक और देङपन्थियों के विरोधी थे।

हालाँकि, इस आन्दोलन की शुरुआत उन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों और शहरी मध्यवर्ग ने की थी, जो माओ की मौत के बाद सत्ता पर काबिज़ हुए संशोधनवादियों से सत्ता की बन्दरबाँट के लिए अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे। लेकिन इस आन्दोलन में क्रान्तिकारियों और मज़दूरों के शामिल होने से केवल चीन के नकली कम्युनिस्ट ही नहीं, बल्कि ख़ुद वे बुद्धिजीवी भी घबरा गये थे, क्योंकि वास्तव में वे भी उतने ही मज़दूर विरोधी थे जितने कि संशोधनवादी। संशोधनवादियों ने सेना का प्रयोग करके इस आन्दोलन को बुरी तरह कुचल दिया था। लोकतन्त्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी आदि का हल्ला मचाते हुए राजकीय पूँजीपतियों से सत्ता में हिस्सा माँगने वाले अनेक बुर्जुआ छात्र-बुद्धिजीवी दमन से पहले ही देश छोड़कर भाग गये थे और जो उस समय नहीं भाग सके थे वे बाद में रफूचक्कर हो गये। आज इस घटना के बीस वर्षों के बाद भी चीन में जारी वर्ग संघर्ष और जगह-जगह होने वाले प्रदर्शनों-आन्दोलनों से माओ का यह कहना सच साबित होता है कि ''चीन में यदि पूँजीवादी पथगामी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना में सफल हो भी गये तो भी वे कभी चैन की नींद नहीं सो सकेंगे और उनका शासन सम्भवत: थोड़े समय तक ही टिक पायेगा, क्योंकि यह उन क्रान्तिकारियों द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जा सकेगा, जो पूरी आबादी के 90 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।''

सत्ता की बन्दरबाँट के लिए शुरू हुआ था आन्दोलन

माओ की मौत के बाद सत्ता पर काबिज़ हुए संशोधनवादियों ने सत्ता पर मज़बूत पकड़ बनाते ही 1980 में तथाकथित सुधारों की शुरुआत कर दी थी, जो राज्य और पार्टी में बैठे नकली कम्युनिस्टों द्वारा पूँजीवादी नीतियों की राह अपनाने के सिवाय कुछ नहीं था। और पूँजीवाद समर्थक बुद्धिजीवी इन नीतियों के ज़रिये अपना स्वर्ग बनाने की आस लगाये बैठे थे। चीन में उस समय यूनिवर्सिटी के टीचरों, इंजीनियरों, लेखकों, कलाकारों और शहरी मध्यवर्ग के रूप में उभरने वाले यूनिवर्सिटी के छात्रों सहित हर उस व्यक्ति को बुद्धिजीवी कहा जाता था जो उच्च शिक्षा प्राप्त था। 1949 की चीनी क्रान्ति के बाद अनेक बुद्धिजीवियों ने सर्वहारा वर्ग का पक्ष चुना था, पारम्परिक रूप से सुविधाभोगी सम्पन्न सामाजिक तबके से सम्बन् रखने वाले अनेक बुद्धिजीवी क्रान्ति (विशेष तौर पर सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति) से नफरत करते थे और मज़दूरों तथा किसानों के प्रति अपनी नफरत ज़ाहिर करते रहते थे। दरअसल, चीन की नयी जनवादी क्रान्ति से लेकर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति तक ऐसे बुद्धिजीवियों की सुविधाओं में कटौती हो गयी थी और 1980 के दौर के अधिकांश चीनी बुद्धिजीवी क्रान्ति पूर्व के पूँजीपति वर्ग या ज़मींदार वर्ग से आये थे।

ये बुर्जुआ बुद्धिजीवी पूँजीवादी नीतियों के समर्थक थे और उम्मीद करते थे कि सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ने पर उनकी भौतिक सुविधाओं में भी बढ़ोत्तरी होगी। उन्हें आशा थी कि विश्व पूँजीवादी बाज़ार में प्रवेश से उन्हें पूँजीवादी देशों में जाने या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करके ऊँची आय कमाने के अधिक अवसर प्राप्त होंगे, जिससे वे पूँजीवादी देशों के बुद्धिजीवियों की बराबरी कर सकेंगे। 1980 के अन्त तक वे खुले आम पूरी तरह निजीकरण करने और मुक्त बाज़ार की पूँजीवादी व्यवस्था कायम करने की वकालत करने लगे।

हालाँकि, पूँजीवादी नीतियों को लेकर संशोधनवादियों और इन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों में कोई मतभेद नहीं था, लेकिन उनके बीच इस बारे में कोई सहमति नहीं बन पायी कि समाजवादी उपलब्धियों के पूँजीवादी रूपान्तरण से मिलने वाली राजनीतिक ताकत और आर्थिक लाभ को आपस में कैसे बाँटा जाये। बुर्जुआ बुद्धिजीवी इस बात से असन्तुष्ट थे कि तथाकथित सुधारों के बाद पैदा हुआ धन राजकीय पूँजीपतियों और निजी उद्यमियों के पास इकट्ठा हो रहा था, लेकिन उन्हें हाल ही में पैदा हुई इस पूँजीवादी लूट में बराबर का भागीदार नहीं बनाया जा रहा था।

यही थी इन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों द्वारा ''स्वतन्त्रता और जनवाद'' की माँग की बुनियाद। वास्तव में चीन का शहरी मध्यवर्ग देश के पूँजीवादी राह पर बढ़ने के साथ ही शक्ति और धन में अधिक साझेदारी की माँग कर रहा था। कुछ बुर्जुआ बुद्धिजीवियों ने जापान, ताइवान, सिंगापुर जैसे पूँजीवादी मॉडल की मुखर माँग की, जो मज़दूर वर्ग के लिए तो दमनकारी हो, लेकिन पूँजीपतियों के लिए ''सम्पत्ति के अधिकार'' और इन बुद्धिजीवियों के लिए ''नागरिक स्वतन्त्रता'' की गारण्टी देता हो।

इधर विश्व पूँजीवादी तन्त्र में टिके रहने और स्थिति मज़बूत करने के लिए ज़रूरी था कि संशोधनवादी मज़दूरों को प्राप्त रहे-सहे अधिकार भी छीन लें और बेरोज़गारों की फौज तैयार करें, जिसे निचोड़कर पूँजी संचय की रफ्तार तेज़ की जा सके। और 80 के मध् तक आते-आते तथाकथित सुधारों की रफ्तार तेज़ कर दी गयी। अब मज़दूरों को बाज़ार समाजवाद के नाम पर शुरू की गयी नीतियों की असलियत पता चलने लगी थी और उनकी स्थिति बदतर होती जा रही थी, साथ ही उनके सारे अधिकारों को एक-एक करके छीना जा रहा था। समाजवादी दौर में वे जिन फैक्टरियों के मालिक हुआ करते थे, वहाँ अब वे केवल मज़दूरी करके अपना पेट पाल सकते थे। सामूहिक खेती, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा आदि की सुविधाएँ एक-एक करके ध्वस्त की जा रही थीं। इन सब वजहों से उनमें रोष था और वे धीरे-धीरे कम्युनिस्ट नामधारी पार्टी तथा राज्य पर काबिज़ संशोधनवादियों से नफरत करने लगे थे।

इन स्थितियों में बुद्धिजीवियों ने ''स्वतन्त्रता और जनवाद'' की माँग को लेकर छात्रों को एकजुट करना शुरू कर दिया, ताकि अपने साथ छात्रों की ताकत दिखाकर वे लूट में हिस्सा देने के लिए संशोधनवादियों को बाध् कर सकें।

पूँजीवादी नीतियों से तबाह मज़दूर भी शामिल हुए

1989 से पहले भी उन्होंने छात्रों के आन्दोलन के ज़रिये शक्ति प्रदर्शन का प्रयास किया जिसे पश्चिम पूँजीवादी मीडिया ने हाथों-हाथ लिया और प्रचारित किया कि चीन के छात्र और आम जनता कम्युनिस्टों के ख़िलाफ एकजुट हो रहे हैं। लेकिन आम जनता का समर्थन हासिल होने के कारण इन आन्दोलनों का व्यापक असर नहीं हुआ। फिर 1989 के अप्रैल महीने के मध् में बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के आह्नान पर बीजिंग के छात्र सड़कों पर उतर आये। शुरुआत में इन आन्दोलकारियों की संख्या कुछ हज़ार थी। लेकिन धीरे-धीरे कारख़ानों के मज़दूर और आम जनता भी स्वत:स्फूर्त ढंग से इसमें शामिल होने लगे। ये आन्दोलनकारी जहाँ से गुज़रते वहाँ के कारख़ानों के मज़दूर इनके साथ हो लेते। दिन बीतने के साथ-साथ और मज़दूरों के शामिल होने के कारण आन्दोलनकारियों की संख्या बढ़कर कई लाख हो गयी। अब जुलूसों में माओ के उद्धरणों की किताब और माओ की तस्वीरों वाली तख्तियाँ भी दिखने लगीं, जिनकी संख्या दिन--दिन बढ़ती जा रही थी। तियेनआनमेन चौक इन प्रदर्शनों का केन्द्र बन चुका था जहाँ लाखों प्रदर्शनकारी डटे रहते थे।

उधर, इस आन्दोलन में मज़दूरों और आम जनता की भागीदारी से लूट के माल में भागीदारी के इच्छुक घबराने लगे थे, क्योंकि वे मज़दूरों और किसानों से उतनी ही नफरत करते थे जितनी नफरत संशोधनवादी और मालिकों की अन्य जमातें करती थीं। वे डरे हुए थे, क्योंकि महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान मेहनतकशों की एकजुटता ने उन्हें पीछे हटने को मजबूर किया था और उनके विशेषाधिकार छीन लिये थे। 17 मई से पहले तक जब मज़दूर बड़ी संख्या में इस आन्दोलन में शामिल नहीं हुए थे, बुर्जुआ बुद्धिजीवी और छात्र केवल सरकार से बातचीत के लिए आगे आने की माँग कर रहे थे। लेकिन छात्रों के समर्थन में मज़दूर भी सड़कों पर उतरने लगे तो वे कहने लगे कि संगठित हुए बिना भी हम ''शान्तिपूर्ण और तार्किक'' तरीकों से इन आन्दोलनों के लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं, वे कहने लगे कि सफलता मिले या मिले हमें इन ''शान्तिपूर्ण और तार्किक'' तरीकों को नहीं छोड़ना चाहिए।

जैसे-जैसे आन्दोलन आगे बढ़ने लगा ये बुर्जुआ बुद्धिजीवी पीछे हटने लगे, इनके इशारों पर नाचने वाले छात्र आन्दोलन को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास करने लगे। लेकिन असन्तोष बढ़ता गया और अन्तत: मज़दूरों और आम जनता से घबराकर संशोधनवादियों ने सेना को यह आन्दोलन कुचलने के आदेश दे दिये। फिर भी, पहली बार, व्यापक आबादी के सड़कों पर उतर आने के कारण सेना बीजिंग शहर में नहीं घुस सकी। मज़दूरों और आम जनता तथा क्रान्तिकारी छात्रों ने शहर में घुसने के सारे रास्ते जाम कर दिये। वे लोग टैंकों के आगे खड़े हो गये। मजबूरन सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बावजूद, यह नहीं कहा जा सकता कि आम आबादी और मज़दूर उस समय संगठित थे और क्रान्तिकारी ताकतें उनका नेतृत्व कर रही थीं। यह सब स्वत:स्फूर्त ढंग से हो रहा था। 3 जून को जब दोबारा सेना के आने की ख़बर मिली तो प्रदर्शनकारियों ने शहर में प्रवेश के चारों प्रमुख रास्ते जाम कर दिये। जगह-जगह बैरीकेड लगा दिये गये और बसें जलाकर रास्ते में खड़ी कर दी गयीं। लेकिन ज़बरदस्त प्रतिरोध के बावजूद वे सेना को नहीं रोक सके और वह सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारते हुए रात तक प्रदर्शन और आन्दोलन के केन्द्र त्येनआनमेन चौक तक पहुँच गयी।
4 जून की सुबह सेना ने त्येनआनमेन चौक पर जमा लाखों प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चला दीं और तोप से हमला किया। हज़ारों मज़दूर और छात्र मारे गये, जबकि कई बुर्जुआ बुद्धिजीवी और उनके समर्थक छात्र वहाँ से निकल भागे। सेना ने चौक को ख़ाली कराकर उस पर कब्ज़ा कर लिया था। अगली सुबह जब कुछ प्रदर्शनकारियों ने चौक में प्रवेश करने का प्रयास किया तो सैनिकों की तोपें और बन्दूकें फिर गरज उठीं। आन्दोलन को कुचल दिया गया था। दसियों हज़ार की संख्या में आम मेहनतकश आबादी मारी गयी थी और त्येनआनमेन चौक ख़ून से रँग गया था।

संशोधनवादियों की बर्बरता का कम्युनिस्टों के कारनामों के रूप में प्रचार

इस घटना के तुरन्त बाद दुनियाभर के पूँजीवादी देशों और मीडिया ने प्रचारित करना शुरू किया कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने लोकतन्त्र समर्थक आन्दोलन का बर्बर दमन किया। पूँजीवादी मीडिया ने यह नहीं बताया कि इस बर्बर दमन में हज़ारों की संख्या में मज़दूरों और छात्रों की मौत हुई लेकिन पश्चिमी मीडिया मज़दूरों की भागीदारी तथा संशोधनवादी सरकार के प्रति उनके असन्तोष को दबा गया और इसे मात्र लोकतन्त्र के समर्थन में चलने वाले आन्दोलन को कम्युनिस्टों द्वारा कुचले जाने के रूप में प्रचारित किया। यह चीज़ जानबूझकर छिपायी गयी कि उस आन्दोलन में भारी संख्या आम मेहनतकश आबादी और क्रान्तिकारी छात्रों की थी, जिनके हाथ में माओ की तस्वीरों वाली तख्तियाँ थीं। वे कम्युनिस्ट होने का ढोंग करने वाली संशोधनवादी पार्टी का विरोध कर रहे थे। यदि वे नहीं होते तो यह आन्दोलन इतना फैलता ही नहीं।

आने वाले समय में ऐसे अनेक विद्रोहों के संकेत

मौजूदा दौर में चीन से जो छिटपुट ख़बरें रही हैं, उनसे पता चलता है माओ ने जो कहा था वह सच साबित हो रहा है। जनता अब बाज़ार समाजवाद की असलियत जान चुकी है। वहाँ लगातार असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी बढ़ रही है, किसी समय चीनी समाज के निर्माता कहे जाने वाले मज़दूरों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उन्हें बुनियादी सुविधाएँ तक प्राप्त नहीं हैं। सामूहिक खेती और स्वास्थ्य की व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चीन के मज़दूर वर्ग में व्याप्त असन्तोष और आक्रोश के समय-समय पर और जगह-जगह फूट पड़ने वाले लावे को व्यवस्था परिवर्तन की दिशा देने के लिए आज फिर माओ की शिक्षाओं को याद किया जा रहा है। पूरे चीन के पैमाने पर क्रान्तिकारी गतिविधियों के संकेत समय-समय पर मिलते रहते हैं। लगभग दो वर्ष पहले ही माओ के विचारों के समर्थन में पर्चे बाँटने के कारण चार मज़दूर कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था, जिसके विरोध में चीन के अनेक माओ समर्थक बुद्धिजीवियों ने भी आवाज़ बुलन्द की थी। इसके अलावा भी क्रान्तिकारी विचारों को मानने वाले कई संगठन पूरे चीन में मज़दूरों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने और माओ की शिक्षाएँ उन तक पहुँचाने का लगातार प्रयास कर रहे हैं। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाला समय चीन में तूफानी उथल-पुथल का दौर होगा और पूँजीवादी पथगामी वाकई चैन से नहीं बैठ सकेंगे।

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23.6.09

20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करने वाले 84 करोड़ लोगों के देश में 300 सांसद करोड़पति

पूँजीवादी समाज में जनतन्त्र का सिर्फ ढोंग ही होता है। यहाँ जनतन्त्र अमीरों के लिए होता है न कि ग़रीब मेहनतकश जनता के लिए। इतिहास बार-बार इस बात की पुष्टि करता रहा है। हमारे देश की 15वीं लोकसभा के नतीजों से इस बार यह बात और भी ज़ोरदार ढंग से उभरकर सामने आयी है। कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए गठबन्‍धन ने भले ही आसानी से सरकार बना ली होगी, लेकिन कोई भी गठबन्‍धन या पार्टी स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाया था। लेकिन संसद में अब करोड़पतियों को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ है। जी हाँ, संसद में इस बार 542 में से 300 करोड़पति सांसद हैं। जिस देश की 84 करोड़ जनता का गुज़ारा रोज़ाना महज़ 20 रुपये प्रति व्यक्ति से भी कम पर होता है, जहाँ लोग भूख-प्यास से मर रहे हों, बीमारियों में जकड़े बिना इलाज के तड़प रहे हों, बच्चे शिक्षा से वंचित हों और उन्हें भी मज़दूरी करके पेट भरना पड़ता हो, मज़दूर बेकारी, तालाबन्दियों-छँटनियों के शिकार हो रहे हों, कर्ज़ में डूबे ग़रीब किसान परिवार समेत आत्महत्याएँ कर रहे हों, जहाँ महिलाएँ गुज़ारे के लिए अपना शरीर तक बेचने को मजबूर हों, उस देश की जनता के साथ इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है कि उनके भविष्य का फैसला करने के लिए करोड़पतियों से लेकर खरबपति सिंहासनों पर विराजमान हों।

जैसाकि हमने कहा कि इस बार 300 करोड़पति सांसद बने हैं। लेकिन यह ऑंकड़ा तो सांसदों द्वारा उनकी सम्पत्ति के बारे में उस जानकारी पर आधारित है जो इन्होंने ख़ुद ही चुनाव से पहले दर्ज करवायी थी। कोई भी समझ सकता है कि उनके द्वारा दर्ज करवायी गयी जानकारी झूठ के पुलिन्दे के सिवा कुछ नहीं होती। इस आधार पर कहा जा सकता है कि बाकी के सांसदों में से भी अधिकतर करोड़पति से कम नहीं होंगे।

आज चाहे कोई भी चुनावी पार्टी हो, हरेक जनता की सच्ची दुश्मन है। किसी भी तरह की पार्टी या गठबन्‍धन की सरकार बने सभी जनविरोधी नीतियाँ ही लागू कर रहे हैं। पूँजीपति वर्ग की सेवा करना ही उनका लक्ष्य है। आज राज्यसत्ता द्वारा देशी-विदेशी पूँजी के हित में कट्टरता से लागू की जा रही वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की घोर जनविरोधी नीतियों से कोई भी चुनावी पार्टी न तो असहमत है, न ही असहमत हो सकती है। कांग्रेस, भाजपा से लेकर तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियाँ और साथ में मज़दूरों-ग़रीबों के लिए नकली ऑंसू बहाने वाली तथाकथित लाल झण्डे वाली चुनावी कम्युनिस्ट पार्टियाँ सभी की सभी इन्हीं नीतियों के पक्ष में खुलकर सामने आ चुकी हैं। इन पार्टियों के पास ऐसा कुछ भी ख़ास नहीं है जिसके ज़रिये वे जनता को लुभा सकें। वे जनता को लुभाने के लिए जो वायदे करते भी हैं, इन सभी पार्टियों को पता है कि जनता अब उनका विश्वास नहीं करती। आज जनता किसी भी चुनावी पार्टी पर विश्वास नहीं करती। धन के खुलकर इस्तेमाल के बिना कोई पार्टी या नेता चुनाव जीत ही नहीं सकता। वोट हासिल करने के लिए नेताओं की हवा बनाने के लिए बड़े स्तर पर प्रचार हो या वोटरों को पैसे देकर ख़रीदना, शराब बाँटना, वोटरों को डराना-धमकाना, बूथों पर कब्ज़े करने हों, लोगों से धर्म-जाति के नाम पर वोट बटोरने हों - इस सबके लिए मोटे धन की ज़रूरत रहती है। पूँजीवादी राजनीति का यह खेल ऐसे ही जीता जाता है। जैसे-जैसे समय गुज़रता जा रहा है वैसे-वैसे यह खेल और भी गन्दा होता जा रहा है। 14वीं लोकसभा के चुनावों में 9 प्रतिशत उम्मीदवार करोड़पति थे जोकि अब की बार 16 प्रतिशत हो गये। यह भी ध्‍यान देने लायक है कि इस बार जब करोड़पति कुल उम्मीदवारों का 16 प्रतिशत थे लेकिन जीत हासिल करने वालों में इनकी गिनती लगभग 55 प्रतिशत है। इस बार विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की औसतन सम्पत्ति इस प्रकार थी : कांग्रेस 5 करोड़, भाजपा 2 से 3 करोड़, बसपा 1.5 से 2.5 करोड। कांग्रेस ने 202 करोड़पतियों को टिकटें दीं, भाजपा ने 129, बसपा ने 95, समाजवादी पार्टी ने 41 करोड़पतियों को लोकसभा के चुनावों में उतारा।

आन्‍ध्र प्रदेश से चुने गये कुल 42 लोकसभा मेम्बरों के पास 606 करोड़ की सम्पत्ति है। इस मामले में यह प्रान्त सबसे आगे है। हरियाणा के दस लोकसभा मेम्बर चुने गये हैं जिनकी कुल सम्पत्ति 181 करोड़ है। महाराष्ट्र के सांसदों के पास 500 करोड़, तमिलनाडू के सांसदों के पास 450 करोड़ की सम्पत्ति, उत्तर प्रदेश के सांसदों के पास 400 करोड़ की सम्पत्ति, कर्नाटक के सांसदों के पास 160 करोड़ और पंजाब के सांसदों के पास 150 करोड़ की सम्पत्ति है। राजस्थान, मध्‍य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, दिल्ली, गुजरात, असम, पश्चिम बंगाल, केरल, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, झारखण्ड, उत्तराखण्ड, जम्मूकश्मीर और अरुणाचल प्रदेश का हरेक सांसद 10-10 करोड़ का मालिक है। पाठकों को हम फिर याद दिला दें कि ये ऑंकड़े उस जानकारी पर ही आधारित हैं जो लोकसभा के चुनाव में उतरे उम्मीदवारों ने ख़ुद ही दर्ज करवायी थी। असल में चुनाव लड़ने वाले और जीतने वाले नेताओं की सम्पत्ति दर्ज करवायी गयी सम्पत्ति से कहीं अधिक होगी।

कहने की ज़रूरत नहीं कि इन अमीर नेताओं के पास यह पैसा जनता की भारी लूट के ज़रिये ही जमा हुआ है। ये लुटेरे जनता के अपराधी हैं। लेकिन देश का कानून इन्हें अपराधी नहीं मानता। संसद में जनता के ये अपराधी शान से विराजमान हैं। लेकिन संसद में उनकी भी भारी गिनती है जिनके ऊपर भारतीय संविधान के अन्तर्गत अनेकों आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनकी गिनती 150 है।

यह है हमारे देश के जनतन्त्र की असल तस्वीर और इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है कि भारत को दुनिया का सबसे बड़ा जनतन्त्र कहा जाता है।

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21.6.09

फासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें

- अभिनव

जनवादियों और यहाँ तक कि क्रान्तिकारियों का एक हिस्सा इस बात को लेकर बेहद ख़ुश है कि भारतीय जनता पार्टी के रूप में साम्प्रदायिक फासीवाद की पराजय हुई है और फासीवादी ख़तरा टल गया है। चुनावों के ठीक पहले कई सर्वेक्षण इस बात की ओर इशारा कर रहे थे कि चुनावी नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं और आडवाणी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्‍धन को भी विजय हासिल हो सकती है, या कम-से-कम उसे संयुक्त प्रगतिशील गठबन्‍धन के बराबर या उन्नीस-बीस के फर्क से थोड़ी ज्यादा या थोड़ी कम सीटें मिल सकती हैं। चुनाव के नतीजों ने इस बात को ग़लत साबित किया और कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्‍धन को विजय प्राप्त हुई। चुनावी नतीजों के हिसाब से चला जाये तो भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और पराजय के बाद भाजपा में टूट-फूट, बिखराव और आन्तरिक कलह का एक दौर शुरू हो गया है। भाजपा के शीर्ष विचारकों में से एक सुधीन्द्र कुलकर्णी ने हार का ठीकरा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति पर फोड़ते हुए काफी हंगामा खड़ा कर दिया। जसवन्त सिंह ने कहा है कि चुनाव में पराजय के कारणों पर भाजपा में खुली बहस होनी चाहिए। भाजपा नेताओं का एक बड़ा हिस्सा भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह को काफी खरी-खोटी सुना रहा है और राजनाथ सिंह की स्थिति काफी दयनीय हो गयी है।

इस सारे घटनाक्रम को देखकर निश्चित तौर पर सन्तोष और ख़ुशी का अनुभव होता है। लेकिन क्या इन चुनावी नतीजों और उसके बाद भाजपा में मची उठा-पटक को देखकर यह कहना उचित है कि फासीवाद भारत में उतार पर है? क्या यह नतीजा निकालना सही है कि भाजपा की पराजय भारत में फासीवाद की पराजय है? इस प्रश्न का जवाब देने के लिए हमें यह समझना होगा कि फासीवाद आख़िर है क्या? इसका इतिहास क्या है? यह कैसे पैदा हुआ? विभिन्न देशों में इसने क्या-क्या रूप ग्रहण किये? इन प्रश्नों के जवाब देने के बाद ही हम यह तय करने की स्थिति में होंगे कि भारत में फासीवाद की ''नियति'' क्या है।

इससे पहले कि हम फासीवाद के इतिहास और उसके अर्थ पर जायें, कुछ और मुद्दों पर एक शुरुआती चर्चा करना ज़रूरी है। इस चर्चा के बाद हम फासीवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए एक बेहतर स्थिति में होंगे। यह चर्चा पूँजीवाद की प्रकृति, उसके स्वाभाविक संकट और उसकी सम्भावित परिणतियों पर है।

पूँजीवाद की स्वाभाविक परिणतियाँ पूँजीवादी-व्यवस्था किस प्रकार अपनी स्वाभाविक गति से संकट की ओर जाती है

हम एक पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में जी रहे हैं। इसकी चारित्रिक विशेषताएँ क्या हैं? यह निजी मालिकाने पर आधारित एक व्यवस्था है जिसके केन्द्र में निजी मालिक का मुनाफा है। निजी मालिकों का पूरा वर्ग आपस में प्रतिस्पर्द्धा करता है और इस प्रतिस्पर्द्धा का मैदान होता है पूँजीवादी बाज़ार। समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं का कोई विस्तृत मूल्यांकन और अनुमान नहीं लगाया जाता है। बाज़ार में माँग के परिमाण के एक मोटा-मोटी मूल्यांकन के आधार पर पूँजीपति यह तय करता है कि उसे क्या पैदा करना है और कितना पैदा करना है। लेकिन यह मूल्यांकन पूरा पूँजीपति वर्ग मिलकर नहीं करता है बल्कि अलग-अलग निजी पूँजीपति करते हैं और इसके आधार पर वे प्रतिस्पर्द्धा करने बाज़ार में उतरते हैं। इसलिए पूरे समाज में होने वाला उत्पादन योजनाबद्ध तरीके से नहीं होता है बल्कि अराजक तरीके से होता है। बाज़ार द्वारा बतायी जाने वाली माँग और आपूर्ति की स्थितियों के अनुसार हर पूँजीपति उत्पादन-सम्बन्‍धी निर्णय लेता है। बाज़ार में कई सेक्टर मौजूद होते हैं। इन सभी सेक्टरों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन और उत्पादन के साधनों का उत्पादन। उपभोग की वस्तुओं में आदमी की रोज़मर्रा की जीवन आवश्यकताओं की विभिन्न वस्तुएँ होती हैं, मिसाल के तौर पर, खाने-पहनने के सामान, फ्रिज-टी.वी.-वाहनों आदि जैसी उपभोक्ता सामग्रियाँ, मनोरंजन के सामान, आदि। हालाँकि, उपभोक्ता सामग्रियों को भी दो हिस्सों (टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियाँ और ग़ैर-टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियाँ) में बाँटा जाता है, लेकिन अभी इस विभाजन के विश्लेषण में जाने की हमें कोई आवश्यकता नहीं होती है। एक-एक उपभोक्ता सामग्री के उत्पादन में कई-कई पूँजीपति लगे होते हैं और अपने माल को बेचने के लिए प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। इसके लिए वे अख़बारों, टी.वी., रेडियो, बिजली के खम्भों, होर्डिंगों, बस स्टापों और रेलवे स्टेशनों पर मौजूद प्रचार पट्टियों पर प्रचार करते हैं और अपने माल को सबसे अच्छा बताते हैं।

यही हाल, उत्पादन के साधनों के उत्पादन के सेक्टर में भी होता है, लेकिन थोड़ा भिन्न रूप में। इस सेक्टर में मशीनों, उपकरणों और औज़ारों और साथ ही कई प्रकार के माध्‍यमिक कच्चे माल का उत्पादन किया जाता है। यहाँ पर उत्पादित सामग्री का उपभोक्ता आम आदमी नहीं होता, बल्कि पूँजीपति वर्ग होता है जो अपने उत्पादन के लिए उत्पादन के साधनों को पूँजीपति वर्ग के उस हिस्से से ख़रीदता है जो उत्पादन के साधनों का उत्पादन करता है। आजकल यह विभाजन बहुत क्षीण हो गया है क्योंकि एक ही पूँजीपति ने उपभोक्ता सामग्रियों के उत्पादन में भी निवेश कर रखा है और उत्पादन के साधनों के उत्पादन में भी। लेकिन इससे विश्लेषण में कोई फर्क नहीं पड़ता है। उत्पादन के दोनों सेक्टरों में उत्पादन और श्रम की स्थितियों का विश्लेषण किया जा सकता है। लेकिन अभी हमारा उद्देश्य यह नहीं है। उत्पादन के साधन के उत्पादन के क्षेत्र में भी एक-एक मशीन या उपकरण के उत्पादन में कई-कई पूँजीपति लगे होते हैं और उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करने वाले पूँजीपति वर्ग को अपना उत्पाद बेचने के लिए लुभाने में लगे होते हैं।

विभिन्न वस्तुओं या उत्पादन के साधनों (मशीन, उपकरण आदि) के उत्पादन में अलग-अलग समय पर अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं। कभी किसी वस्तु का उत्पादन अधिक लाभदायी होता है तो कभी किसी और वस्तु का। मिसाल के तौर पर, अभी कुछ वर्षों पहले तक विश्व बाज़ार में सूरजमुखी और मेंथा की ज़बरदस्त माँग के कारण भारत में तमाम धनी किसानों और कुलकों ने इनकी खेती शुरू की। कृषि के क्षेत्र में सक्रिय पूँजीपतियों ने बाज़ार में माँग और आपूर्ति की स्थितियों को देखते हुए सूरजमुखी और मेंथा की खेती में पैसा लगाना शुरू किया। लेकिन इन स्थितियों का मूल्यांकन सभी कृषक पूँजीपतियों ने मिलकर संगठित रूप से नहीं किया, बल्कि अलग-अलग किया। जो-जो सूरजमुखी और मेंथा की खेती में आवश्यक भारी पूँजी निवेश और कुशल श्रम की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम था, उसने इसमें पूँजी लगायी। नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही मालों का अति-उत्पादन हुआ और उनके उत्पाद को ख़रीदने के लिए बाज़ार में पर्याप्त ख़रीदार नहीं रहे। बाज़ार में माँग और आपूर्ति की स्थितियाँ बदल गयीं। अब सूरजमुखी और मेंथा का बाज़ार उतना गर्म नहीं रहा। इस प्रक्रिया में तमाम धनी किसान तबाह हो गये, जिन्होंने भारी पैमाने पर निवेश के लिए बड़े-बड़े ऋण लिये थे। भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या का एक बड़ा कारण यह भी रहा है। उनके तबाह होने के साथ खेती में लगी मज़दूर आबादी भी बड़े पैमाने पर बेरोज़गार हुई और छोटे किसान सर्वहाराओं की कतार में शामिल हुए। अब बाज़ार में दूसरे माल ज्यादा फायदेमन्द बन गये हैं, जो शायद पहले उतने फायदेमन्द नहीं थे। पहले उनमें पर्याप्त पूँजी लगी हुई थी और उनका उत्पादन माँग से ज्यादा हो रहा था। इसी कारण उनमें से पूँजी निकलकर उन फसलों के उत्पादन में लगी जिनकी माँग अधिक थी, लेकिन पूँजी निवेश कम था। इसी तरह से पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पूँजी अधिक मुनाफे वाली वस्तुओं के उत्पादन के क्षेत्र की ओर स्वाभाविक गति करती रहती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये क्षेत्र बदलते रहते हैं और पूँजी अराजक तरीके से कभी इस तो कभी उस क्षेत्र की ओर भागती रहती है। यह प्रक्रिया पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में एक सन्तुलनकारी प्रक्रिया होती है जिसे काग़ज़ पर देखा जाये तो बहुत सामान्य लगती है, लेकिन वास्तव में घटित होते हुए देखा जाये तो समझ में आता है कि यह कितनी तबाही लाने वाली प्रक्रिया होती है। इस प्रक्रिया में लाखों-लाख मज़दूर तबाह होते रहते हैं, अपनी नौकरियों से हाथ धोते रहते हैं और नर्क जैसे जीवन की ओर धकेले जाते रहते हैं। यही पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता का मूल है। एक निजी मालिकाने पर आधारित व्यवस्था जिसमें समाज की आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन नहीं किया जाता, बल्कि हर पूँजीपति अपने मुनाफे की ख़ातिर बाज़ार में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा के लिए उतरता है। इस पूरी प्रक्रिया में पूँजीपतियों का एक हिस्सा तबाह होकर मध्‍यम वर्ग, निम्न मध्‍यम वर्ग और सर्वहारा वर्ग की कतार में शामिल होता रहता है और लाखों-करोड़ों की संख्या में मज़दूर अपना काम खोते हैं और बेरोज़गारों की कतार में शामिल होते रहते हैं। अपनी अराजक गति से पूँजीवाद मज़दूरों को बरबाद करता रहता है और उन्हें बेरोज़गारों की फौज में धकेलता रहता है। यह एक मानव-केन्द्रित नहीं बल्कि मुनाफा-केन्द्रित व्यवस्था होती है।

पूँजीवाद में विभिन्न सेक्टरों में मन्दी की स्थिति तो आती-जाती रहती ही है। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में निश्चित अन्तरालों पर आम संकट की स्थिति पैदा होती रहती है, जब अधिकांश सेक्टरों में अति-उत्पादन हो जाता है और मन्दी पैदा होती है। यह कैसे होता है इसे समझ लेना भी यहाँ उपयोगी होगा।

प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए हर पूँजीपति अपने उत्पादन की लागत को घटाता है। लागत का अर्थ है उत्पादन में लगने वाली कुल पूँजी। इस पूँजी के दो हिस्से होते हैं पहला, स्थिर पूँजी जो मशीनों, इमारत, बिजली, पानी व कच्चे माल पर लगती है और दूसरा, परिवर्तनशील पूँजी जो पूँजीपति मज़दूरी के रूप में मज़दूरों को देता है। स्थिर पूँजी को स्थिर पूँजी इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान परिवर्तित नहीं होती है। उसका मूल्य सीधे-सीधे, बिना बढ़े हुए उत्पादित माल में स्थानान्तरित हो जाता है। इसमें से कुछ का मूल्य एक बार में भी माल में स्थानान्तरित हो जाता है, जैसे कच्चा माल, बिजली, आदि, और कुछ का मूल्य एक लम्बी प्रक्रिया में माल में स्थानान्तरित होता है, जैसे मशीनें और उपकरण आदि। इनका मूल्य तब तक माल में स्थानान्तरित होता रहता है जब तक कि वे घिसकर बेकार न हो जायें और उनकी उम्र पूरी न हो जाये। एक बार के उत्पादन में उसके कुल मूल्य का एक हिस्सा उत्पाद में जाता है। इसे घिसाई मूल्य (डेप्रिसियेशन वैल्यू) कहा जाता है। लेकिन यह मूल्य भी उत्पादन के दौरान बढ़ता-घटता नहीं है। यह ज्यों का त्यों उत्पाद में चला जाता है। इसीलिए मशीनों और कच्चे माल पर लगने वाली पूँजी को स्थिर पूँजी कहा जाता है। मज़दूरी के रूप में लगने वाली पूँजी को परिवर्तनशील पूँजी कहा जाता है, क्योंकि मज़दूर का श्रम ही वह चीज़ है जो वस्तुओं के एक अनुपयोगी समूह को मशीनों, उपकरणों आदि के इस्तेमाल से एक उपयोगी माल का रूप देता है। श्रम ही उत्पादन का वह कारक है जो किसी उत्पाद में उपयोग मूल्य पैदा करता है, यानी, उसे उपयोगी बनाता है। कोई कारख़ाना या मशीन अपने से कच्चे मालों को एक उपयोगी माल का रूप नहीं दे सकते। जब तक कच्चे मालों पर मानसिक और शारीरिक मानवीय श्रम नहीं लगता, वे मूल्यहीन बेकार वस्तुएँ होती हैं। जैसे ही उस मज़दूर की मेहनत लगती है वे आकार ग्रहण करने लगते हैं और मिलकर एक उपयोगी वस्तु बन जाते हैं। जब कोई वस्तु उपयोगी होगी तभी उसे बाज़ार में कोई ख़रीदेगा। वस्तु में उपयोग मूल्य मज़दूर की मेहनत पैदा करती है। एक पूँजीवादी समाज में मज़दूर की श्रम-शक्ति भी एक माल होती है और वह भी बाज़ार में बिकती है। इसकी कीमत भी बाज़ार में श्रम-शक्ति की माँग और आपूर्ति से तय होती है। उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम-शक्ति ही वह कारक होती है जिसका मूल्य संवर्धित होकर, यानी बढ़कर माल में स्थानान्तरित होता है। इसीलिए श्रम-शक्ति को ख़रीदने के लिए पूँजीपति द्वारा लगायी गयी पूँजी को परिवर्तनशील पूँजी कहते हैं क्योंकि उत्पादन से पहले और उत्पादन के बाद इसका परिमाण बढ़ चुका होता है। यह बढ़ी हुई मात्रा अर्थशास्त्र की भाषा में अतिरिक्त मूल्य कहलाती है। यही अतिरिक्त मूल्य एक पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग के मुनाफे का मूल होता है। यह पैदा मज़दूर के श्रम द्वारा होता है, लेकिन इसे पूँजीपति द्वारा हड़प लिया जाता है।

चूँकि अतिरिक्त मूल्य ही पूँजीपति के मुनाफे का मूल होता है, इसलिए वह उसे हर कीमत पर बढ़ाने का प्रयास करता है। इससे पूँजीपति वर्ग दो तरह से बढ़ाता है। एक, मज़दूर के काम के घण्टे को बढ़ाकर और उसकी मेहनत की सघनता को बढ़ाकर; और दूसरा, और अधिक उन्नत मशीनें लगाकर। पहले तरीके को समझना आसान है। अगर मज़दूर उसी मज़दूरी पर या थोड़ी-सी बढ़ी मज़दूरी पर अधिक देर तक काम करेगा तो अधिक अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगा। यह एकदम सीधा मामला है। दूसरा तरीका थोड़ा जटिल है। आइये इसे भी समझ लें। अगर उन्नत मशीनें लगेंगी तो मज़दूर का श्रम अधिक उत्पादक हो जायेगा और वह अधिक दर से अतिरिक्त मूल्य पैदा करेगा। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिये कि एक सिलाई कारख़ाना है जहाँ मज़दूर पैर से चलने वाली सिलाई मशीन पर काम करते हैं। अभी एक मज़दूर 12 घण्टे में 10 कमीज़ें तैयार करता है। कारख़ाने का मालिक पैर से चलने वाली सिलाई मशीन को हटाकर बिजली से चलने वाली सिलाई मशीनें लगवा देता है। अब वही मज़दूर 12 घण्टे में 18 कमीज़ें बना लेता है। यानी मज़दूर के उत्पादन करने की गति को बढ़ा दिया गया। अब उत्पादन सीधे 1.8 गुना बढ़ गया। इसके लिए पूँजीपति को एक बार थोड़ा निवेश करना पड़ता है, लेकिन बदले में लम्बे समय तक वह बढ़ी हुई उत्पादकता पर काम करवा सकता है। इसके बदले में पूँजीपति मज़दूर को या तो कुछ नहीं देता और या फिर उनकी मज़दूरी को नाममात्र के लिए बढ़ा देता है। मज़दूर यह समझ भी नहीं पाता कि उसका शोषण बढ़ गया है और वह स्वयं कुछ पाये बिना पूँजीपति के मुनाफे को कहीं तेज़ गति से बढ़ा रहा है।

स्पष्ट है कि कुल निवेश में पूँजीपति लागत के अनुपात को घटाने के लिए अतिरिक्त मूल्य को विभिन्न तरीकों से बढ़ाता है। यह काम वह तभी कर सकता है जब वह उत्पादन को बड़े से बड़े पैमाने पर करे। उत्पादन जितने बड़े पैमाने पर होता है, लागत का अनुपात कुल निवेश में उतना कम होता जाता है। अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाने के लिए पूँजीपति जिन तरीकों का उपयोग करता है, उससे उत्पादन स्वत: ही बड़े पैमाने पर होता जाता है। यानी, पूँजीपति लगातार इस होड़ में रहता है कि उत्पादन को अधिकतम सम्भव बड़े पैमाने पर किया जाये ताकि अतिरिक्त मूल्य को बढ़ाया जा सके और लागत के अनुपात को कुल पूँजी निवेश में घटाया जा सके। लेकिन इस उत्पादन को बढ़ाने की अन्‍धी हवस में वह यह भूल जाता है कि उत्पाद को ख़रीदने के लिए बाज़ार में उतने ही ख़रीदार भी होने चाहिए। ऐसा किसी एक पूँजीपति के साथ नहीं बल्कि समूचे पूँजीपति वर्ग के साथ होता है। आपसी प्रतिस्पर्द्धा और एक-दूसरे को लील जाने की हवस में हर पूँजीपति हर वस्तु के उत्पादन के क्षेत्र में उत्पादन को लाभदायक होने की हदों से आगे बढ़ाता जाता है और उस पूरे सेक्टर में ही अति-उत्पादन हो जाता है। यही प्रक्रिया सभी क्षेत्रों में घटित होती रहती है। और निश्चित अन्तरालों पर ऐसा होता है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्र अति-उत्पादन का शिकार हो जाते हैं और पूरी अर्थव्यवस्था मन्दी का शिकार हो जाती है। यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि पूँजीवादी उत्पादन की गति ही ऐसी होती है जो समाज में ख़रीदने की क्षमता से लैस लोगों की संख्या घटाती जाती है। पूँजीपति मज़दूर को लगातार लूटकर ही अपने मुनाफे को बढ़ाता है। जब वह उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत मशीनों को लगाता है तो मज़दूरों के एक हिस्से को वह निकाल बाहर करता है, क्योंकि अब कम मज़दूर ही उन्नत मशीनों पर उत्पादन को पहले के स्तर से आगे बढ़ा सकते हैं। इस प्रक्रिया में समाज में बेरोज़गारों की फौज बढ़ती जाती है और बहुसंख्यक आबादी अपनी ख़रीदने की क्षमता से वंचित होती जाती है। इस तरह एक तरफ तो उत्पादन बढ़ता जाता है, बाज़ार सामानों से पटता जाता है और दूसरी तरफ उन्हें ख़रीदने वालों की संख्या लगातार घटती जाती है। यही है पूँजीवाद का संकट जो उसे निश्चित अन्तरालों पर, पहले से भी भयावह रूप में आकर सताता रहता है और उसे लगातार उसकी कब्र की ओर धकेलता रहता है। यह एक ऐसा संकट है जिससे पूँजीवादी व्यवस्था लाख चाहने पर भी निजात नहीं पा सकती है, क्योंकि एक योजनाबद्ध मानव-केन्द्रित व्यवस्था में ही इससे निजात मिल सकती है, जो उत्पादन के साधनों और समाज के पूरे ढाँचे पर मज़दूरों के साझे मालिकाने के ज़रिये ही सम्भव है। पूँजीवाद अगर ऐसा हो जायेगा तो वह पूँजीवाद रह ही नहीं जायेगा और इस व्यवस्था को चलाने वाला पूँजीपति वर्ग कभी भी अपने निजी मुनाफे को छोड़ नहीं सकता। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था को सिर्फ तबाह किया जा सकता है, इसे सुधारा नहीं जा सकता क्योंकि यह परस्पर प्रतिस्पर्द्धा, निजी मालिकाने और निजी मुनाफे पर टिकी हुई व्यवस्था है।

साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीवाद


पूँजीवाद के इसी संकट ने मानवता को दो विश्वयुद्धों की ओर धकेला। 1870 के दशक के बाद से यूरोपीय देशों में पूँजीवाद भयंकर रूप से इस अति-उत्पादन के संकट का शिकार हो गया था। ब्रिटेन, फ्रांस, हॉलैण्ड, पुर्तगाल, स्पेन जैसे कुछ देशों के पास 18वीं शताब्दी के समय से ही स्थापित उपनिवेश थे जिनके कारण वे मालों के अति-उत्पादन को अपने देश के बाहर अपने उपनिवेशों में भी बेच पा रहे थे। साथ ही, मालों के अतिरिक्त अब लागत को और घटाने के लिए सस्ते श्रम को निचोड़ने के लिए पूँजी को भी इन उपनिवेशों में निर्यात कर रहे थे, यानी, वहीं पर कारख़ाने लगाकर गुलाम देशों के सस्ते श्रम को निचोड़ रहे थे। जल्दी ही, यह सम्भावना भी निश्शेष हो गयी और 1910 का दशक आते-आते विश्व पूँजीवाद फिर से अति-उत्पादन और मन्दी के संकट का शिकार हो गया। साथ ही, कई ऐसे यूरोपीय पूँजीवादी देशों की शक्ति का उदय हुआ जिनके पास उपनिवेश नहीं थे। ऐसे देशों में अगुआ था जर्मनी। इन देशों में पूँजीवाद के संकट के पैदा होने के साथ और इनकी आर्थिक और सैन्य ताकत के पैदा होने के साथ विश्व पैमाने पर ग़रीब देशों की पूँजीवादी लूट के फिर से बँटवारे का सवाल पैदा हो गया। इसी सवाल को हल करने के लिए पूँजीवादी देशों के शासक वर्ग ने पूरी दुनिया को पहले साम्राज्यवादी महायुद्ध में धकेल दिया। इसमें जर्मनी और उसके मित्र देशों को पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन इस युद्ध ने रूस की महान क्रान्ति के लिए भी उपजाऊ ज़मीन तैयार की। दरअसल, यही ज़मीन जर्मनी में भी तैयार हुई थी, लेकिन वहाँ के सामाजिक जनवाद की ऐतिहासिक ग़द्दारी और काउत्स्की के नेतृत्व में पूरी सामाजिक जनवादी पार्टी के साम्राज्यवादी पूँजीवाद की गोद में बैठ जाने के कारण वहाँ क्रान्ति नहीं हो सकी, हालाँकि जर्मनी का मज़दूर आन्दोलन रूस के मज़दूर आन्दोलन से अधिक शक्तिशाली और पुराना था। विश्वयुद्ध में जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी की पराजय के बाद के दौर में रूस में समाजवाद के तहत वहाँ के मज़दूर वर्ग ने अभूतपूर्व तरक्की करके पूरी दुनिया के सामने एक अद्वितीय मॉडल खड़ा कर दिया। दूसरी ओर, पहले विश्वयुद्ध में हथियार बेचकर और ऋण देकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने ज़बरदस्त मुनाफा कमाया। लेकिन एक दशक बीतते-बीतते संयुक्त राज्य अमेरिका में ही पूँजीवाद के अब तक के सबसे बड़े संकट का उदय हुआ जिसे महान मन्दी के नाम से जाना जाता है। यह 1929 से लेकर 1931 तक चली। इस मन्दी ने रूस को छोड़कर दुनिया के सभी देशों को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। विशेष रूप से, अमेरिका और यूरोपीय देशों को। इस मन्दी के बाद ही जर्मनी और इटली में फासीवाद ने मज़बूती से पैर जमा लिये। महामन्दी ने जर्मनी और इटली में फासीवाद को कैसे पैदा और मज़बूत किया, अन्य देशों में फासीवाद पाँव क्यों नहीं जमा पाया, इन सवालों पर हम आगे विचार करेंगे। पहले, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संकट के इतिहास पर, कुछ शब्द और।

द्वितीय विश्वयुद्ध में सबसे कम नुकसान संयुक्त राज्य अमेरिका को हुआ और सबसे अधिक नुकसान सोवियत रूस को। पूरा यूरोप भी खण्डहर में तब्दील हो चुका था। अमेरिका ने यूरोप और जापान के पुनर्निर्माण के ज़रिये निवेश की सम्भावनाओं का उपयोग किया और अपनी मन्दी को कम-से-कम तीस वर्षों के लिए टाल दिया। 1950 से लेकर 1970 तक अमेरिकी पूँजीवाद ने ख़ूब मुनाफा पीटा। 1960 के दशक को तो अमेरिका में 'स्वर्ण युग' के नाम से जाना जाता है। अति-उत्पादन के संकट को दूर करने के लिए पूँजीवाद के दायरे के भीतर एक ही विकल्प होता है उत्पादक शक्तियों का बड़े पैमाने पर विनाश ताकि उनके पुनर्निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर सम्भावनाएँ पैदा की जा सकें। यह विनाश समय-समय पर साम्राज्यवादी युद्धों के ज़रिये किया जाता है। 1970 का दशक आते-आते विश्व पूँजीवाद एक बार फिर संकट का शिकार हुआ। इसके बाद वह उबरा ही था कि 1980 के दशक के मध्‍य में फिर से मन्दी ने उसे ग्रस लिया। इसके बाद भूमण्डलीकरण की नीतियों की शुरुआत के साथ विश्व साम्राज्यवाद ने एक नये चरण में प्रवेश किया। भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीवाद ने मन्दी को दूर करने के लिए एक नयी रणनीति का उपयोग किया। वित्तीय पूँजी के प्रभुत्व के इस दौर में पूँजी की प्रचुरता और मन्दी के दोमुँहे संकट को दूर करने के लिए बैंकों के ज़रिये उपभोक्ताओं को ऋण देने की शुरुआत की गयी। मध्‍यम वर्ग तक के लोगों को माल ख़रीदने के लिए ऋण देने की प्रथा को विश्वभर में बड़े पैमाने पर शुरू किया गया। यानी पहले लोगों को ख़रीदने की ताकत से वंचित करके बाज़ार को मालों से पाट दिया गया और फिर जब ख़रीदार नहीं बचे तो ख़ुद ही सूद पर लोगों को पैसा देकर वह माल ख़रीदवाया गया, ताकि मन्दी को कुछ समय के लिए टाला जा सके। लेकिन जल्दी ही मध्‍यवर्ग के भीतर ऋण देकर माल ख़रीदवाने की सम्भावनाएँ समाप्त हो गयीं। इसके बाद, तमाम ऐसे लोगों को भी ऋण देने की शुरुआत की गयी जो उसका सूद चुकाने की क्षमता भी नहीं रखते थे, ताकि अस्थायी रूप से मन्दी का संकट दूर हो सके। जल्दी ही यह सम्भावना भी ख़त्म हो गयी और अब 2006 में शुरू हुई मन्दी के रूप में पूँजीवाद के सामने महामन्दी के बाद का सबसे बड़ा संकट खड़ा है, जिससे निपटने के लिए विश्व भर के पूँजीवादी महाप्रभु द्रविड़ प्राणायाम करने में लगे हुए हैं।

संक्षेप में, पूँजीवाद अपने स्वभाव से ही संकट को समय-समय पर जन्म देता रहता है। संकट से निपटने के लिए युद्ध पैदा किये जाते हैं। लेकिन यह एक अस्थायी समाधान होता है और बेताल फिर से आकर पुरानी डाल पर ही लटक जाता है। साम्राज्यवाद के दौर में विश्व पूँजीवाद ने अपनी कार्यप्रणाली को बदला लेकिन सवा सौ साल बीतते-बीतते उसकी हवा निकल गयी और वह फिर से उसी असमाधेय संकट के सामने खड़ा है।

पूँजीवादी संकट की सम्भावित प्रतिक्रियाएँ

संकट के दौर में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ती है। संकट के दौर में अति-उत्पादन होने और उत्पादित सामग्री के बाज़ारों में बेकार पड़े रहने के कारण पूँजीपति का मुनाफा वापस नहीं आ पाता है और माल के रूप में बाज़ार में अटका रह जाता है। नतीजतन, पूँजीपति अधिक उत्पादन नहीं करना चाहता है और उत्पादन में कटौती करता है। इसके कारण वह उत्पादन में निवेश को घटाता है, कारख़ाने बन्द करता है, मज़दूरों को निकालता है। 2006 में शुरू हुई मन्दी के कारण अकेले अमेरिका में करीब 85 लाख लोग जून 2009 तक बेरोज़गार हो चुके हैं। भारत में मन्दी की शुरुआत के बाद करीब 1 करोड़ लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं। बेरोज़गारों की संख्या में पूरे विश्व में करोड़ों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके कारण न सिर्फ तीसरी दुनिया के ग़रीब पिछड़े पूँजीवादी देशों में बल्कि यूरोप के देशों में भी दंगे हो रहे हैं। यूनान, फ्रांस, इंग्लैण्ड, आइसलैण्ड, आदि देशों में पिछले दिनों हुए दंगे और आन्दोलन इसी मन्दी का असर हैं। इस मन्दी के कारण पैदा हुए जन-असन्तोष का पूरे विश्व के पूँजीवादी देशों में शासक वर्ग का जो जवाब सामने आया है उसमें कुछ भी नया नहीं है। यह जवाब है कल्याणकारी राज्य का कीन्सियाई नुस्खा। यह ''कल्याणकारी'' राज्य क्या करता है, इसे भी समझना ज़रूरी है।

मन्दी के कारण जो वर्ग सबसे पहले तबाह होते हैं, वे हैं मज़दूर वर्ग, ग़रीब और निम्न मध्‍यम किसान, खेतिहर मज़दूर वर्ग, शहरी निम्न मध्‍यम वर्ग और आम मध्‍यम वर्ग। यह कुल जनता का करीब 90 प्रतिशत होते हैं। इसके अतिरिक्त, छोटे व्यापारियों और दलालों का भी एक वर्ग इसमें तबाह होता है। इसके कारण पूरे समाज में ही 90 प्रतिशत बहुसंख्यक आबादी के लिए एक भयंकर आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा का माहौल पैदा होता है। इसके कारण भारी पैमाने पर व्यापक और सघन जन-असन्तोष पैदा होता है जो पूरी व्यवस्था के लिए ही एक ख़तरा साबित हो सकता है। इस ख़तरे से निपटने के लिए 1930 के दशक में पूँजीवाद के एक कुशल हकीम जॉन मेनॉर्ड कीन्स ने बताया कि अराजकतापूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था को थोड़ा-थोड़ा व्यवस्थित करने की आवश्यकता होती है। अगर निजी प्रतिस्पर्द्धा वाले पूँजीवाद और इजारेदारियों को मुक्त बाज़ार में खुल्ला छोड़ दिया जायेगा तो पूँजी की अराजक गति आत्मघाती रूप से ऐसे हालात पैदा कर देगी जो पूँजीवाद को ही निगल जायेंगे। इसलिए थोड़ा संयम बरतने की ज़रूरत है। इस व्यवस्थापन के काम को पूँजीवाद राज्य को अंजाम देना होगा। इसे कुछ ऐसी नीतियों में निवेश करना होगा जो लोगों को थोड़ा सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का आभास कराये। मिसाल के तौर पर, सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर) को खड़ा करके उसमें रोज़गार देना होगा; बीमा योजनाएँ लागू करनी होंगी; कुछ अवसंरचनागत क्षेत्र जैसे परिवहन, संचार, आदि को सरकार को अपने हाथ में रखना होगा; निजी क्षेत्र पर कुछ लगाम रखनी होगी; लोगों को आवास आदि की कुछ योजनाएँ देनी होंगी; मज़दूरों की मज़दूरी को थोड़ा बढ़ाना होगा, आदि। यानी कुछ सुधार के कदम जो कुछ समय के लिए लोगों के असन्तोष पर ठण्डे पानी का छिड़काव कर सकें। ऐसे काम करने वाले राज्य को ही ''कल्याणकारी'' राज्य कहा जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह कल्याणकारी राज्य पूँजीवाद के दूरगामी कल्याण के लिए और जनता के मन में फौरी कल्याण का एक झूठा अहसास पैदा करने के लिए खड़ा किया जाता है।

लेकिन इस कल्याणकारी राज्य के साथ दिक्कत यह होती है कि इसके अपने ख़र्चे बहुत होते हैं। तमाम कल्याणकारी नीतियों को लागू करने के लिए सरकार को पूँजीपतियों के मुनाफे पर थोड़ी लगाम कसनी पड़ती है और मज़दूरों को थोड़ी रियायतें और छूट देनी पड़ती है। जिन देशों में पूँजीवाद सामन्तवाद विरोधी क्रान्तियों के ज़रिये आया और जहाँ पूँजीवाद विकास की एक गहरे तक पैठी हुई लम्बी प्रक्रिया सामने आयी, वहाँ पर पूँजीपति वर्ग आर्थिक रूप से इस हालत में था कि कल्याणकारी राज्य के ''ख़र्चे उठा सके'' और राजनीतिक रूप से भी इतना चेतना-सम्पन्न था कि कल्याणकारी राज्य को कुछ समय तक चलने दे और कुछ इन्तज़ार के बाद, दोबारा ''छुट्टा साँड ब्राण्ड'' पूँजीवाद की शुरुआत करे। जिन देशों में पूँजीवाद किसी क्रान्तिकारी बदलाव के ज़रिये नहीं, बल्कि एक क्रमश: प्रक्रिया में आया वहाँ कल्याणकारी राज्य के कुछ और ही नतीजे सामने आये। इन देशों में जर्मनी और इटली अग्रणी थे। जर्मनी का पूँजीवाद में संक्रमण किसी पूँजीवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं हुआ। वहाँ पर क्रान्तिकारी भूमि सुधार नहीं लागू हुए, बल्कि सामन्ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी भूस्वामी में तब्दील हो जाने का मौका दिया गया। औद्योगिक पूँजीपति वर्ग राज्य द्वारा दी गयी सहायता के बूते खड़ा हुआ, न कि एक लम्बे पूँजीवादी विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया से, जैसाकि इंग्लैण्ड और फ्रांस में हुआ था। यहाँ के पूँजीपति वर्ग, कुलकों और धनी किसानों की कल्याणकारी राज्य के नतीजों पर इंग्लैण्ड, अमेरिका, और फ्रांस के पूँजीपति वर्ग से बिल्कुल भिन्न प्रतिक्रिया रही। इन शासक वर्गों की अलग किस्म की प्रतिक्रिया ने जर्मनी और इटली में फासीवाद के उदय की ज़मीन तैयार की। इसके अतिरिक्त, एक और कारक था जिसने फासीवाद के उभार में बहुत बड़ी भूमिका निभायी। यह कारक था जर्मनी और इटली के सामाजिक जनवादी आन्दोलन की ग़द्दारी और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का पूँजीवाद की चौहद्दियों के भीतर ही घूमते रह जाना। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी के नेतृत्व में जर्मनी में एक बहुत शक्तिशाली मज़दूर आन्दोलन था जिसने 1919 से लेकर 1931 तक राज्य से मज़दूरों के लिए बहुत से अधिकार हासिल किये। जर्मनी में मज़दूरों की मज़दूरी किसी भी यूरोपीय देश से अधिक थी। कुल राष्ट्रीय उत्पाद में मज़दूर वर्ग का हिस्सा यूरोप के किसी भी देश के मज़दूर वर्ग के हिस्से से अधिक था। लेकिन इससे आगे सामाजिक जनवाद और कोई बात नहीं करता था। वह इसी यथास्थिति को बरकरार रखना चाहता था और इसलिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को सुधारवादी संसदवाद और अर्थवाद की अन्‍धी चक्करदार गलियों में घुमाता रहा। लेकिन दूसरी तरफ जर्मनी का पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग को मिली इन रियायतों और सुविधाओं को बर्दाश्त करने की ताकत खोता जा रहा था, क्योंकि इसके कारण पूँजी संचय की उसकी रफ्तार बेहद कम हो गयी थी, यहाँ तक कि ठहर गयी थी। इसके कारण विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा में उसका टिक पाना बेहद मुश्किल हो गया था। 1928 आते-आते जर्मनी संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद सबसे अधिक औद्योगिक उत्पादन वाला देश बन चुका था और उत्पादकता की रफ्तार भी अमेरिका के बाद सबसे अधिक थी। इसके साथ ही जर्मनी की विश्व स्तर पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा भी अधिक से अधिक तीखी होती जा रही थी। लेकिन घरेलू पैमाने पर मज़दूर वर्ग के शक्तिशाली सुधारवादी आन्दोलन के कारण उसके मुनाफे की दर लगातार कम होती जा रही थी, जिसे इतिहासकारों ने लाभ संकुचन (''प्रॉफिट स्क्वीज़'') का नाम दिया है। ठीक इसी समय, विश्वव्यापी महामन्दी का प्रभाव जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। लाभ संकुचन की मार से बिलबिलाये हुए जर्मन पूँजीपति वर्ग के लिए यह बहुत त्रासद था! इसके कारण सबसे पहले छोटा पूँजीपति वर्ग तबाह होना शुरू हुआ। बड़े पूँजीपति वर्ग को भी भारी हानि उठानी पड़ी। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ी। शहरी वेतनभोगी निम्न मध्‍यम वर्ग में भी बेकारी द्रुत गति से बढ़ने लगी। जो काम कर भी रहे थे उनके सिर पर हर समय छँटनी की तलवार लटक रही थी। इस पूरे असुरक्षा के माहौल ने निम्न पूँजीपति वर्ग, सरकारी वेतनभोगी मध्‍यवर्ग, दुकानदारों, शहरी बेरोज़गारों के एक हिस्से के भीतर प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार की। यही वह ज़मीन थी जिसे भुनाकर राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन मज़दूर पार्टी (हिटलर की नात्सी पार्टी) ने एक प्रतिक्रियावादी जन आन्दोलन खड़ा किया जिसकी अग्रिम कतारों में निम्न पूँजीपति वर्ग, वेतनभोगी मध्‍यम वर्ग, शहरी पढ़ा-लिखा मध्‍यम वर्ग, लम्पट सर्वहारा और यहाँ तक कि सर्वहारा वर्ग का भी एक हिस्सा खड़ा था।

इस असुरक्षा के माहौल के पैदा होने पर एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का काम था पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को बेनकाब करके जनता को यह बताना कि पूँजीवाद जनता को अन्तत: यही दे सकता है गरीबी, बेरोज़गारी, असुरक्षा, भुखमरी! इसका इलाज सुधारवाद के ज़रिये चन्द पैबन्द हासिल करके, अर्थवाद के ज़रिये कुछ भत्ते बढ़वाकर और संसदबाज़ी से नहीं हो सकता। इसका एक ही इलाज है मज़दूर वर्ग की पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूर वर्ग की विचारधारा की रोशनी में, मज़दूर वर्ग की मज़दूर क्रान्ति। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने पूरे मज़दूर वर्ग को गुमराह किये रखा और अन्त तक, हिटलर के सत्ता में आने तक, वह सिर्फ नात्सी-विरोधी संसदीय गठबन्‍धन बनाने में लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि हिटलर पूँजीवाद द्वारा पैदा की गयी असुरक्षा के माहौल में जन्मे प्रतिक्रियावाद की लहर पर सवार होकर सत्ता में आया और उसके बाद मज़दूरों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनवादियों और यहूदियों के कत्ले-आम का जो ताण्डव उसने रचा वह आज भी दिल दहला देता है। सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी के कारण ही जर्मनी में फासीवाद विजयी हो पाया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग को संगठित कर पाने और क्रान्ति में आगे बढ़ा पाने में असफल रही। नतीजा था फासीवादी उभार, जो अप्रतिरोध्‍य न होकर भी अप्रतिरोध्‍य बन गया।

अगले अंक में हम देखेंगे कि जर्मनी में फासीवाद की विजय किस प्रकार हुई थी। जर्मनी के उदाहरण से हम फासीवाद के उदय के कारणों को और अधिक स्पष्टता से समझ पायेंगे और उसका सामान्यीकरण कर पायेंगे। उस सामान्यीकरण के नतीजों को फिर हम भारत पर लागू करके समझ सकते हैं कि भारत में फासीवाद की ज़मीन किस प्रकार मौजूद है और भारत में मौजूद फासीवादी उभार का मुकाबला यहाँ का क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन किस प्रकार कर सकता है।

(अगले अंक में 'जर्मनी में फासीवाद', 'इटली में फासीवाद' और 'भारत में फासीवाद')

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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