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30.10.09

थैली की ताकत से सच्चाई को ढँकने की नाकाम कोशिश

बौखलाये पूँजीपतियों का प्रचार युद्ध : गोयबेल्स अभी ज़िन्दा है!

थैली की ताकत से सच्चाई को ढँकने की नाकाम कोशिश
औद्योगिक अशान्ति के लिए ज़िम्मेदार कौन?

हक और इंसाफ का झण्डा ऊपर उठा रहेगा!

मेहनतकश का बढ़ा कदम अब पीछे नहीं हटेगा!!

इंसाफपसन्द नागरिक भाइयो-बहनो और मेहनतकश साथियो,

पिछले कई महीनों से आप हम मजलूम मेहनतकशों की हक और इंसाफ की लड़ाई के गवाह रहे हैं और दिल से हमारा साथ दिया है। हमें डराने-धमकाने, दबाने-कुचलने के लिए फैक्ट्री मालिकों ने क्या कुछ नहीं किया! ज़मीन-आसमान एक कर दिया उन्होंने। मज़दूरों पर और उनके अगुआ नेताओं पर अपने गुण्डों से हमले करवाये। प्रशासन के मुँह और जेबों में नोट ठूँसकर जबरन वसूली, डकैती आदि के कई मुकदमे लगवाये। स्वयं ए.डी.एम.(सिटी) और सिटी मजिस्ट्रेट ने अपने दफ्तर में बुलवाकर हमारे नेताओं की जानलेवा पिटाई की। इसके पहले हमारे नेताओं में से कुछ को ज़िलाबदर और कुछ के एनकाउण्टर की साज़िश भी रची गयी थी, लेकिन कुछ भलेमानसों के चलते हमें इस साज़िश की भनक लग गयी और मज़दूरों की चौकसी ने इस साज़िश को नाकाम कर दिया। आप सभी ने इसी दौरान उन चुनावी नेताओं का ''चाल-चेहरा-चरित्र'' और ''ईमान-धरम'' भी देखा, जो पूँजीपतियों के सुर में सुर मिलाते हुए अख़बारी बयानों में ये दावे करते रहे कि गोरखपुर के फैक्ट्री मालिकों से अच्छी तनख्वाह और सुविधाएँ पाने के बावजूद, मज़दूर ''बाहरी तत्‍वों'', ''माओवादियों-नक्सलवादियों'' के बहकावे में आकर आन्दोलन कर रहे हैं! ध्‍यान रहे कि इसी प्रकार के बयान कई बार 'चैम्बर ऑफ कॉमर्स' नामधारी थैलीशाहों के जमावड़े ने भी दिये और ज़िला प्रशासन के अधिकारियों ने भी। हमने हर बार इन झूठे एवं फरेबी प्रचारों का नपा-तुला, मुख्तसर-सा जवाब दिया और बार-बार यह साफ करने की कोशिश की कि हमारी माँगें क्या हैं!

बहरहाल, तमाम दमन-उत्पीड़न और झूठे प्रचारों के बावजूद, यह हक और इंसाफ के पक्ष में उठने वाली व्यापक आम आबादी की संगठित आवाज़ थी, जिसके चलते शासन-प्रशासन को और मालिकान को पीछे कदम खींचने को मजबूर होना पड़ा। हमारे पक्ष में शहर के नागरिकों-बुद्धिजीवियों ने तो आवाज़ उठायी ही, पूरे देश के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार कर्मियों और मज़दूर भाइयों ने भी जमकर हमारा साथ दिया। हमारे समर्थन में एक नागरिक मोर्चा बना, जिसने यहाँ आकर नागरिक सत्याग्रह किया, दिल्ली-लखनऊ में प्रदर्शन हुए और पूरे देश से हज़ारों विरोध-पत्र मायावती सरकार को भेजे गये। गोरखपुर का मज़दूर आन्दोलन एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया और लोगों को लग गया कि आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पूर्वांचल की धरती उदारीकरण-निजीकरण की जनविरोधी-श्रमिक विरोधी नीतियों के ख़िलाफ लड़ने के लिए एक बार फिर जाग रही है।

आपको पता ही है कि व्यापक जनता के 'करो या मरो' के संग्रामी संकल्प के आगे घुटने टेककर पिछले दिनों प्रशासन ने मज़दूर नेताओं को बिना शर्त रिहा कर दिया, कुछ मुकदमे हटा लिये और कुछ को जल्दी ही हटाने का आश्वासन दिया तथा कारख़ानों में श्रम कानूनों पर अमल और मज़दूरों की कानूनसम्मत माँगों को मनवाने का भरोसा दिया। लेकिन अगले दिन से ही फिर धोखाधड़ी का खेल शुरू हो गया। मालिक पवन बथवाल-किशन बथवाल ने फिर सभी मज़दूरों को काम पर लेने और न्यूनतम मज़दूरी जैसी माँगों को मानने में हीला-हवाली शुरू कर दी। फिर मज़दूरों ने तय किया कि बहुत हो चुका, अब उन्हें बथवाल भाइयों के कसाईख़ाने में अपना ख़ून निचोड़वाना ही नहीं है। लेकिन अब ये नये ज़माने के ड्रैकुला (इंसानों का ख़ून पीने वाला शैतान) मज़दूरों की बकाया मज़दूरी का हिसाब-किताब भी नहीं कर रहे हैं। बहरहाल, हम बथवाल बन्‍धुओं से बस इतना ही निवेदन करना चाहते हैं कि हम तो अपने ख़ून-पसीने की कमाई खाने वाले मेहनतकश हैं, पूँजीपतियों को हमारी ज़रूरत है और जब दिहाड़ी ही करनी है तो हम कहीं न कहीं काम पा ही लेंगे। ख़ास बात यह है कि हम अब अपने वाजिब हकों के लिए लड़ना सीख गये हैं। हम जहाँ भी जायेंगे, वहाँ गुलामों की तरह खटने के बजाय संगठित होने का काम जारी रखेंगे। हम अपने भाइयों के बीच एक नये न्याय-युद्ध का सन्देश लेकर जायेंगे। लेकिन बथवाल बन्‍धु, जब भी आप अपने कारख़ाने चलायेंगे और उनमें हमारे ही जैसे मज़दूर भरती होंगे तो गुलामों की तरह चुपचाप खटने के बजाय वे भी हक और इंसाफ की आवाज़ उठायेंगे। बथवाल भाइयों और सभी फैक्ट्री मालिकों से तथा उनके खूँटे से बँधी, घूस का चारा और कमीशन की खली-चूनी खाने वाली नेताशाही-नौकरशाही से हमारा वायदा है -

हर दिल में बग़ावत के शोलों को जला देंगे
हम जंगे-अवामी से कोहराम मचा देंगे।

हम यह घोषणा करते हैं :

मज़दूर हर जुलम का अब तुमसे हिसाब माँगेगा

शोषण का सच जानेगा, हक लेकर ही मानेगा।

झूठ-फरेब, अफवाहबाज़ी, कुत्सा-प्रचार की नयी मुहिम

आने वाले दिनों की सच्चाई को बथवाल बन्धु और उन्हीं की प्रजाति के अन्य जीव-जन्तु भली-भाँति जानते हैं। इसलिए एक बार फिर, खिसियानी बिल्ली उछल-उछलकर खम्भा नोच रही है। तथाकथित 'उद्योग बचाओ समिति' के स्वयंभू संयोजक पवन बथवाल ने थैली के ज़ोर से हमारे खिलाफ एक नया प्रचार-युद्ध छेड़ दिया है - झूठ-फरेब, अफवाहबाज़ी, और कुत्सा-प्रचार की नयी गालबजाऊ मुहिम शुरू हुई है। इसकी शुरुआत स्थानीय अख़बारों में छपे एक विज्ञापन से हुई है, जिसमें हमारे ऊपर कुछ नयी और कुछ पुरानी, तरह-तरह की तोहमतें लगाई गयी हैं। इनमें से कुछ घिनौने आरोपों के लिए हम पवन बथवाल को अदालत में भी घसीट सकते हैं, लेकिन उसके पहले हम इस फरेबी प्रचार की असलियत का खुलासा अवाम की अदालत में करना चाहते हैं।

पहला झूठ - कपटी झूठ : 'उद्योग बचाओ समिति' के स्वयंभू संयोजक ने एक स्थानीय अख़बार में प्रकाशित विज्ञापन में छाती पीट-पीटकर यह दुखड़ा रोया है कि पूर्वांचल के तमाम लघु उद्योगों को बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियों से प्रतिस्पर्द्धा और मन्दी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में मज़दूर आन्दोलन ने उनके सामने गम्भीर संकट पैदा कर दिया है। उनके मुताबिक, जब कारख़ाने रहेंगे, तभी श्रमिक और श्रमिक कानून रहेंगे।

इसके जवाब में हम पवन बथवाल और अन्य फैक्ट्री मालिकों से निवेदन करना चाहते हैं कि इन हालात में, बड़े उद्योगों का मुकाबला करने के लिए उन लोगों को भी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों का संगठित होकर विरोध करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं के चलते बड़े देशी-विदेशी उद्योगों को विशेष छूट मिली है और मन्दी लाने में भी इन नीतियों का विशेष योग है! लेकिन नहीं, ऐसा करने के बजाय आप लोग तो मज़दूरों का ही पेट काटकर मुनाफाखोरी की प्रतिस्पर्द्धा में बड़ी पूँजी का मुकाबला करना चाहते हैं क्योंकि यही छोटे पूँजीपति की फितरत होती है। पूँजी और तकनोलॉजी में पिछड़ जाने के बाद वह मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर बाज़ार में टिके रहना चाहता है। लेकिन एक मुनाफाखोर के रूप में आपको बचाने के लिए हम मज़दूर अपने बाल-बच्चों का पेट क्यों काटें? इससे क्या आप अपनी अकूत सम्पत्ति में से हमें भी कुछ दे देंगे? महोदय, पूँजी के इस खेल में बड़ी मछली छोटी मछली को खाती रहती है और इसमें आप हमसे पूछकर नहीं शामिल हुए हैं। मुनाफाखोरी की होड़ में आपके टिके रहने के लिए हम अपनी बलि क्यों दें? आपका संकट अपना मुनाफा बनाये रखने का है और हमारा संकट जीने का है। हमसे हमारा श्रम मुफ्त माँगने से तो अच्छा है कि आप गोरखनाथ मन्दिर के बाहर बैठकर भीख माँगिये। जिस दिन आप उजड़कर आम आदमी बन जायेंगे, तब हमारा और आपका हित एक होगा और हम उसके लिए लड़ेंगे। लेकिन असल बात यह है कि आप उजड़ने कतई नहीं जा रहे हैं। आपके पास उद्योगों, होटल, ज़मीन आदि के रूप में देश के विभिन्न शहरों में जो चल-अचल सम्पत्ति है और उसमें (आपके मेयर बनने के पहले से लेकर अब तक) लगातार जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसका हमें भी अन्दाज़ा है और इस शहर की जनता को भी। फिर आप अपने विलाप से किसे प्रभावित करना चाह रहे हैं?

दूसरा झूठ - बेशर्म झूठ : पवन बथवाल का दावा है कि गोरखपुर का कोई भी उद्यमी श्रमिकों से ज़बरदस्ती काम नहीं कराता या आपसी समझौते से कम पैसा नहीं देता। पहली बात तो यह कि यह एक ऐसा सफेद झूठ है जिस पर हिटलर का प्रचार मन्त्री गोयबेल्स भी शरमा जाता। श्रमिकों से यहाँ के सभी पूँजीपति सरकार द्वारा तय न्यूनतम मज़दूरी से भी काफी कम पर, उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर काम कराते हैं और मजबूरी का लाभ उठाने से बड़ी ज़बरदस्ती और कोई नहीं होती। जहाँ तक आपसी समझौते की बात है, अब तक मज़दूरों के बिखराव का लाभ उठाकर पूँजीपति उन पर अपनी मनमानी शर्तें थोपते रहे हैं। मज़दूरों ने जैसे ही एकजुट होकर पगार सम्बन्धी समझौते की शर्तें रखीं, वैसे ही मालिकान की असलियत सामने आ गयी। वे गुण्डागर्दी, षड्यन्त्र और अफसरों को नोट खिलाकर मज़दूरों का दमन करवाने लगे और बार-बार समझौता करने और मुकरने का खेल खेलने लगे। बथवाल महोदय, यह तमाशा तो कई महीनों से इस शहर की जनता देख रही है, आप किसकी ऑंखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहे हैं? दूसरी अहम बात यह है कि मालिक और मज़दूर के बीच मज़दूरी सम्बन्धी कोई समझौता यदि हो भी जाये और वह श्रम कानूनों द्वारा बतायी गयी न्यूनतम मज़दूरी और अन्य शर्तों के अनुसार न हो, तो वह ग़ैर कानूनी है, जिस पर मज़दूर ही नहीं, कोई तीसरा पक्ष - कोई नागरिक भी सवाल उठा सकता है तथा जनहित याचिका भी दाख़िल कर सकता है। मज़दूर अब तक मालिकों की मनमानी शर्तों को इसलिए मानकर बेबस गुलामों का जीवन जीते रहे हैं, क्योंकि वे संगठित नहीं रहे हैं। अब वे एक साथ एक स्वर में, श्रम कानूनों को लागू करते हुए वेतन और सेवा शर्तों के सवाल पर नया समझौता चाह रहे हैं, तो मालिक गुण्डागर्दी और अंधेरगर्दी पर आमादा हैं। मज़दूर संगठित होकर समझौते की शर्तों पर कोई मोलतोल न कर सकें, इसीलिए गोरखपुर के फैक्ट्री मालिक हर कीमत पर अभी भी उन्हें यूनियन बनाने से रोक रहे हैं और इसके लिए सालाना श्रम विभाग के अफसरों को ऊपर से नीचे तक घूस खिलाने में एक-एक पूँजीपति लाखों-लाख रुपये खर्च करता है।

तीसरा झूठ - झूठ ही झूठ : ''सत्यवादी'' पवन बथवाल ने अपने विज्ञापन में दावा किया है कि आठ घण्टे के अतिरिक्त मज़दूर जो भी ओवरटाइम करता है, उसका उसे अतिरिक्त पैसा मिलता है जिससे उसकी अच्छी-ख़ासी अतिरिक्त आय होती है। अरे भूतपूर्व मेयर साहब, झूठ और छल-प्रपंच की भी कोई हद होती है! पहली बात यह कि आपके कारख़ाने में आठ घण्टे के कार्यदिवस की मज़दूरी भी न्यूनतम मज़दूरी की निर्धारित दर से नहीं मिलती। दूसरी बात यह कि कानूनन ओवरटाइम की दर सामान्य काम के घण्टों से दूनी होनी चाहिए, लेकिन आपके वहाँ सिंगल रेट पर ही ओवरटाइम होता है। अन्य कारख़ानों में भी यही होता है। दूसरे, यह सच्चाई भी तो आपको जनता को बतानी चाहिए कि एक-एक मज़दूर से आप कितने लूम एक साथ चलवाते हैं, और प्रोडक्शन का ऊँचा टारगेट मनमाने ढंग से तय करके किस तरह उनका नस-नस निचोड़ लेते हैं। आपको यह सच्चाई भी बतानी चाहिए कि किस तरह 55 और 60 डिग्री तापमान पर मज़दूर भयंकर हानिकारक गैसीय प्रदूषण के बीच बिना किसी सुरक्षा उपकरण और बिना एक्जास्ट आदि सुविधा के काम करते हैं। आपको यह भी बताना चाहिए कि आप मज़दूरों को जॉब कार्ड आदि नहीं देते, निर्धारित दर से बोनस नहीं देते, ई.एस.आई., पी.एफ. आदि से सम्बन्धित श्रम कानून के किसी प्रावधान को लागू नहीं करते। मज़दूरों का हक मारकर यह सारा बचाया गया पैसा आपकी अंटी में ही जाता है। यह मुनाफा कमाना नहीं है, बल्कि एक साथ लूट-डकैती, ठगी और जेबकतरी सब है। यही नहीं, वास्तविक उत्पादन को छिपाकर बड़े पैमाने पर यहाँ के सभी फैक्ट्री मालिक राजस्व की चोरी करते हैं।

चौथा झूठ - सन्त होने का दिखावा करने वाले लुटेरे का झूठ : पवन बथवाल द्वारा प्रकाशित विज्ञापन, इतनी अंधेरगर्दी के बावजूद यह दावा करता है कि वे मज़दूरों की भलाई की सोचते हैं और औद्योगिक प्रबन्धन उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाता है। आपके ''मानवीय दृष्टिकोण'' की असलियत मज़दूर तो हमेशा से जानते थे, अब शहर के नागरिक भी आन्दोलन के दौरान आपकी ''मानवीयता'' देख चुके हैं। आपका कहना है कि ओवरटाइम से हमारे समय का रचनात्मक उपयोग कारख़ाने के लिए भी होता है और हमारे लिए भी। हम अपने समय का रचनात्मक उपयोग अपने और अपने परिवार के लिए कैसे करेंगे, यह आप हमारे ऊपर छोड़ दीजिए। आप तो सिर्फ यह चाहते हैं कि हम अपने समय का ''रचनात्मक उपयोग'' करके (सिंगल रेट पर ओवरटाइम करते हुए) आपका मुनाफा कैसे बढ़ाएँ!

बथवाल जी, आप जैसे धन्ना सेठ फैक्ट्री में नौकरी देकर मज़दूरों पर कोई अहसान नहीं करते। उनके बिना आप मुनाफा भला कैसे कमा पायेंगे? कारख़ाने में आपने जो पूँजी-निवेश किया है, वह पूँजी हमारे जैसे मज़दूरों को निचोड़कर ही आयी है। यह मज़दूर हैं, जो कारख़ानों में श्रमशक्ति लगाकर उत्पादन करते हैं। आपका अस्तित्व हमारे ऊपर निर्भर है, हमारा आप पर नहीं। हम समाज के लिए उपयोगी चीज़ें पैदा करते हैं। आप अपने लिए मुनाफा निचोड़ते हैं। हमारे ऊपर दया का अश्लील दिखावा कृपया न करें।

पाँचवाँ झूठ - ''लोक कल्याणकारी'' प्रपंची झूठ : आपका विज्ञापन यह भी दावा करता है कि सरकार को गोरखपुर के उद्योगों से एक हज़ार करोड़ रुपये राजस्व के रूप में प्राप्त होता है, जो लोक कल्याणकारी कार्यों पर ख़र्च होता है। यहाँ भी थोड़ा छल-प्रपंच है। पहली बात यह कि लोक कल्याणकारी कार्यों पर जो सरकारी धन ख़र्च होता है, उसका नब्बे प्रतिशत हिस्सा उन परोक्ष (इनडाइरेक्ट) करों से आता है जो आम लोग सीधे सरकार को देते हैं। दूसरी बात यह कि, पूँजीपति सरकार को जो टैक्स देते हैं, वह मज़दूरों से निचोड़े गये मुनाफे का एक अत्यन्त छोटा हिस्सा होता है। तीसरी बात यह कि, वास्तविक देय राजस्व का 50 से 70 फीसदी हिस्सा पूँजीपति चुरा लेते हैं। इस चोरी के लिए वे अफसरों-नेताओं को जो घूस देते हैं, वह सरकारी कोष में दिये जाने वाले राजस्व से अधिक होता है। इस तरह फैक्ट्री मालिक अपना मुनाफा बढ़ाने के अतिरिक्त जो ''योगदान'' करते हैं, वह समाज में भ्रष्टाचार बढ़ाने का ''योगदान'' है तथा काले धन की समान्तर अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने का ''योगदान'' है। यानी ख़ुद लूटो और ठगों-बटमारों' को भी हिस्सा दो! है न ''लोक कल्याणकारी'' काम!

छठा झूठ - भेड़ों की रखवाली करने वाले भेड़िये का झूठ : पवन बथवाल अपने विज्ञापन में गुहार लगाते हैं कि श्रमिक अशान्ति के चलते पूर्वांचल के उद्योग ठप्प हो जायेंगे और पूर्वांचल का विकास रुक जायेगा। इन जैसे लोग ही यदि पूर्वांचल के विकास के ठेकेदार हैं, तो यह बात कुछ वैसी ही है जैसे भेड़िये ने भेड़ों की रखवाली का ज़िम्मा सम्हाल लिया हो। इलाके का विकास व्यापक मेहनतकश जनता की ख़ुशहाली से होगा, थोड़े से मुनाफाखोरों का मुनाफा बढ़ने तथा भ्रष्ट नेताओं-अफसरों की सम्पत्ति बढ़ने से नहीं। पवन बथवाल जैसे लोग मज़दूरों को निचोड़ते हुए श्रम कानूनों तक का पालन न करें और अपने मुनाफे से ज्यादा से ज्यादा कारख़ाने खोलकर ज्यादा से ज्यादा मज़दूरों को निचोड़ते रहें, तो इससे इलाके का भला क्या भला होगा? इलाके का भला जनता की भलाई से होगा। यह तब होगा जब सरकार सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं का ढाँचा खड़ा करने में सार्वजनिक धन लगाये और इन कार्यों में व्यापक आबादी को रोज़गार मिले। इलाके की भलाई की चिन्ता है तो पूँजीपतियों को कम से कम सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी, ओवरटाइम की मज़दूरी, बोनस, पी.एफ. आदि देना चाहिए ताकि मज़दूर अपने परिवार का पेट भर सकें, दवा-इलाज करा सकें, बच्चों को पढ़ा-लिखा सकें। पवन बथवाल जैसे पूँजीपति यदि मज़दूरों को वाजिब मज़दूरी देंगे तो उजड़ नहीं जायेंगे। मुनाफा तो तब भी होगा, बस अतिलाभ नहीं निचोड़ सकेंगे। बथवाल जैसों को चिन्ता अपनी तिजोरी की है, पर इसे वे इलाके की चिन्ता के रूप में पेश कर रहे हैं। पूँजीपतियों के शब्दकोश में इलाके का एक अर्थ शायद तिजोरी होता हो।

लेकिन, पवन बथवाल सच में उतने समझदार पूँजीपति नहीं हैं, अन्यथा उनके मुँह से सच्चाई ख़ुद ब ख़ुद नहीं निकल पड़ती। अपने विज्ञापन में वह आख़िरी बिन्दु तक आते-आते धीरज खो बैठते हैं और श्रम कानून को ही दुष्चक्र बताने लगते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत के श्रम कानून मज़दूरों को बहुत ही कम अधिकार देते हैं और उदारीकरण-निजीकरण के वर्तमान दौर में उनका अमली तौर पर कोई विशेष मतलब नहीं रह गया है। लेकिन पवन बथवाल और उनके संगी-साथी तो इन रहे-सहे श्रम कानूनों को भी दुष्चक्र मानते हैं। ज़ाहिर है कि वे इस दुष्चक्र से दूर ही रहते हैं। यानी प्रकारान्तर से वे स्वीकार करते हैं कि वे श्रम कानूनों का पालन करने को तैयार नहीं हैं। उनका मानना है कि श्रम कानूनों के दुष्चक्र के कारण ही ठेकेदारी प्रथा बढ़ रही है। लेकिन जनाब, ठेका मज़दूरों के लिए भी न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे आदि के जो कानूनी प्रावधान हैं, आप तो उन्हें भी नहीं मानते। कहने को तो वे यह भी कहते हैं कि विकास के रास्ते में सिर्फ कायदे-कानून की बात करना नकारात्मक होता है। यानी ''विकास'' के लिए उनकी आत्मा इतनी बेकल है कि गैरकानूनी काम करने को भी तैयार हैं। बथवाल जी दरअसल अपनी पूँजी के विकास की बात कर रहे हैं। यही सच है। पूँजीवादी हुकूमत पूँजीवाद को कायम रखने के लिए लूटपाट-शोषण की अनियन्त्रित होड़ और रफ्तार पर कुछ कानूनी नियन्त्रण कायम रखना चाहती है ताकि जनता का लोकतान्त्रिक भरम बना रहे। लेकिन पूँजीपति अपना-अपना मुनाफा बढ़ाने की होड़ में उन कानूनों के भी खुले-छिपे उल्लंघन की कोशिश करते रहते हैं। हम मज़दूर आज तो महज़ मौजूद श्रम-कानूनों पर अमल की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन आगे हम इन श्रम कानूनों के दायरे को भी बढ़ाने की लड़ाई लड़ेंगे। यही नहीं, हमारी अन्तिम लड़ाई तो पूँजीवादी व्यवस्था के ही ख़िलाफ है। पवन बथवाल जी, हम अपनी इस बात को साफ-साफ बता रहे हैं। मज़दूर पूँजीपतियों की तरह अपनी असली नीयत और कारगुज़ारी पर तरह-तरह का पर्दा नहीं डालते।

सातवाँ झूठ - महाझूठ : अपने विज्ञापन में एक बार फिर पवन बथवाल ने हमारे आन्दोलन पर कुछ ''बाहरी तत्‍वों'' की घुसपैठ का, तथा उनके द्वारा प्रतिमाह प्रति मज़दूर 100 रुपये वसूलकर महीने में दो लाख रुपये तक कमा लेने का आरोप लगाया है। इस आरोप पर इस झूठासुर शिरोमणि की नाक अदालत में भी रगड़ी जा सकती है, लेकिन पहले जनता की अदालत है। हम पहले भी ऐसे आरोपों के जवाब दे चुके हैं। हम मज़दूर आन्दोलन के लक्ष्य को आगे बढ़ाने और रोज़मर्रा की कार्रवाइयों के लिए बेशक आपस में चन्दा करते हैं, जो पूर्णत: स्वैच्छिक होता है और जिसका हिसाब-किताब दिन के उजाले की तरह साफ होता है। हमारे कोष का कोई व्यक्तिगत लाभ उठा ही नहीं सकता। हमारे जिन नेताओं को (प्रशान्त, प्रमोद और अन्य युवा कार्यकर्ताओं को) ''बाहरी तत्‍व'' और ''नक्सलवादी-माओवादी'' कहा जाता रहा है, उन साथियों को छात्र-युवा कार्यकर्ता के रूप में इस शहर के लोग बरसों से जानते हैं और इसके पहले भी वे सफाई-कर्मचारियों और अन्य मज़दूरों के हकों की लड़ाई में अहम भूमिका निभा चुके हैं। तीसरे साथी (तपीश मैन्दोला) श्रम मामलों के प्रसिद्ध विशेषज्ञ पत्रकार होने के साथ ही वर्षों से नोएडा-ग़ाज़ियाबाद में असंगठित मज़दूरों के बीच काम करते रहे हैं और इन दिनों उ.प्र. के तीन ज़िलों में नरेगा मज़दूरों को संगठित कर रहे हैं। जहाँ तक इनके ''बाहरी-भीतरी'' का सवाल है, तो चम्पारण के किसानों के लिए गाँधीजी भी बाहरी थे। मज़दूर आन्दोलन को संगठित करने की शुरुआत हमारे देश में और पूरी दुनिया में उन तथाकथित बाहरी लोगों ने ही की थी जो मज़दूर हितों के लिए समर्पित थे।

पवन बथवाल द्वारा प्रकाशित विज्ञापन कहता है कि गोरखपुर के उद्योगों में सफलता पाने के बाद, ''श्रमिक आन्दोलन के नाम पर काम कर रहा समूह'' अपनी इस सफलता को ब्राण्ड बनाकर चारों तरफ अशान्ति फैलायेगा। बथवाल जी, सच को देखने का आपका नज़रिया और कोण अलग है, पर आप जो कह रहे हैं, उसमें सत्यांश है। आप जिसे ''अशान्ति'' कह रहे हैं, हम उसे 'हक और इंसाफ की लड़ाई' मानते हैं। हम ख़ुद ही आपको बता दें कि हम तो ज्यादा से ज्यादा कारख़ानों और इलाकों के मज़दूर भाइयों को साथ लेकर यह लड़ाई लड़ना चाहते हैं। हम यह भी बता दें कि गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन की आवाज़ पूरे उत्तर प्रदेश के मज़दूरों तक पहुँच चुकी है। पूर्वांचल जाग रहा है। कालान्तर में उदारीकरण-निजीकरण की घोर मज़दूर विरोधी नीतियों के ख़िलाफ पूरे देश के मज़दूरों में आन्दोलन की जो लहर जंगल की आग के समान फैलने वाली है, उसमें उत्तर प्रदेश के मज़दूर भी शामिल होंगे। आपको धन्यवाद, आपके सहयोगी नेताओं-अफसरों को धन्यवाद, कि उन्होंने इस आग में घी डालने का काम किया है।

आठवाँ झूठ - हास्यास्पद झूठ : पवन बथवाल द्वारा प्रायोजित विज्ञापन दावा करता है कि श्रमिक कानूनों की आड़ में पैदा हुए ग़ैरश्रमिक नेताओं के कारण ही गोरखपुर खाद कारख़ाना, सभी चीनी मिलें, कताई मिलें बन्द हो गयीं। यह या तो कोई मूर्ख कह सकता है, या कोई झुट्ठा! इस पर अर्थशास्त्रियों के दर्जनों शोध-अध्‍ययन प्रकाशित हो चुके हैं कि पुरानी तकनोलॉजी और नौकरशाहाना भ्रष्टाचार की तरह किस तरह एफ.सी.आई. के खाद कारख़ानों जैसे पब्लिक सेक्टर के तमाम उद्यम या तो तबाह हो गये, या फिर निजीकरण की राह खोलने के लिए जानबूझकर सरकार ने उन्हें घाटे के दुष्चक्र में धकेल दिया। भारत के चीनी उद्योग और कताई मिलों का संकट भी पुरानी तकनोलॉजी और बड़ी पूँजी के सामने छोटी पूँजी के न टिक पाने की स्वाभाविक पूँजीवादी गति से पैदा हुआ संकट है। इनमें मज़दूर आन्दोलन की कोई भूमिका नहीं रही है। साथ ही, पूँजीपतियों को जब भी कम लाभकारी सेक्टर से पूँजी निकालकर अधिक लाभकारी सेक्टर में लगाना होता है, तो वे कारख़ानों की बन्दी का दोष मज़दूर आन्दोलन पर मढ़कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।

इस प्रश्न पर, और न केवल इसी प्रश्न पर, बल्कि सारे मुद्दों पर हम पवन बथवाल की 'उद्योग बचाओ समिति' को किसी सार्वजनिक स्थल पर जनसभा आयोजित करके खुली बहस की चुनौती देते हैं।

भाइयो, बहनो, साथियो,

हम अपने न्याय-युद्ध में दिलोजान से साथ देने के लिए इस शहर की आम जनता को दिल से धन्यवाद देते हैं, उसका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। पवन बथवाल ने जब श्रम कानूनों को लागू नहीं ही किया (पूरे प्रशासन को उसने ख़रीद लिया है) तो हमने भी उसके कारख़ानों में न जाने का निश्चय किया। हम मेहनतकश हैं। कहीं भी जाकर मेहनत की रोटी खा लेंगे। पर अब हम जहाँ भी जायेंगे, हक और इंसाफ के लिए अपने भाइयों को संगठित करेंगे। आगे पवन बथवाल अपनी फैक्ट्रियों में हमारे ही जैसे जिन मज़दूरों को लगायेंगे, वे भी अब गुलामों की ज़िन्दगी नहीं बितायेंगे, बल्कि अपने हक के लिए लड़ेंगे। हम भी देखेंगे कि फैक्ट्री मालिक थैली के ज़ोर से, चन्दा चाटू नेताओं और घूसखाऊ अफसरों को ख़रीदकर मेहनतकशों की आवाज़ को कब तक दबाते हैं और कैसे दबाते हैं।

मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद!

सर्दियाँ उनकी हैं, बसन्त हमारा होगा!!

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा

उद्योगपति पवन बथवाल की ओर से गोरखपुर के अखबारों में प्रकाशित विज्ञापन


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2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

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13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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