125वें मई दिवस पर एक नया संकल्प -- एक नयी पहल, एक नयी शुरुआत, एक नयी मुहिम
मजदूर माँगपत्रक आन्दोलन को एक तूफानी जनान्दोलन बनाओ!
एकजुट होकर आगे बढ़ो! 1 मई 2011 से एक नयी शुरुआत करो!
सत्ताधारियों से अपने हक माँगने के लिए एकजुट होकर करनी होगी
फिर से राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत!
गुज़रे कई दशकों का समय पूरी दुनिया के मेहनतकशों के संघर्षों के पीछे हटने का समय रहा है। वक्ती तौर पर इतिहास की गति रुकी हुई-सी रही है, और कभी-कभी तो पीछे मुड़ती हुई-सी भी लगती रही है। उलटाव-बिखराव के इस अन्धकारमय दौर में पूँजीवादी और साम्राज्यवादी ज़ोरो-जुल्म अपनी सारी हदों को पार कर चुके हैं। मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने के लिए और कच्चे माल की लूट के लिए देशी पूँजीपतियों ने विदेशी कम्पनियों को भी खुला न्यौता दे दिया है। कागज़ पर जो श्रम कानून मौजूद थे, वे पहले भी मज़दूरों को अतिसीमित हक और इंसाफ देते थे, पर अब तो उनका कोई मतलब ही नहीं रह गया है। पूँजीवादी जनतन्त्र एकदम नंगा हो चुका है। सरकारें और अदालतें पूँजीपतियों की खुली तरफदारी कर रही हैं। देश की जिस तरक्फी का चैतरफा डंका बज रहा है, उसका सारा फल सिर्फ ऊपर की दस-पन्द्रह फीसदी आबादी तक ही पहुँचता है। मेहनतकशों की जि़न्दगी के अँधेरे रसातल तक उसका एक कतरा भी रिसकर नहीं पहुँचता। उन्हें बस जि़न्दा रहकर हाड़ गलाने भर के लिए मेहनत-मजूरी मिल जाती है।
बर्दाश्त की हदें जब पार होने लगती हैं तो यहाँ-वहाँ, मज़दूर बीच-बीच में आन्दोलन की राह पर उतरते रहते हैं। ये बिखरी हुई लड़ाइयाँ पूँजी की संगठित ताकत, व़फानून और सरकारी मशीनरी की ताकत के बूते या तो दबा दी जाती हैं, या लम्बे इंतज़ार से थके-पस्त मज़दूरों के आगे कभी रियायतों के कुछ टुकड़े फेंक दिये जाते हैं। कुछ कारखानों या किसी एक सेक्टर के मज़दूर जब हड़ताल पर होते हैं तो उनसे बेख़बर या अलग रहते हुए आसपास के कारख़ानों तक के उनके भाई-चाकरी बजाते रहते हैं। और जब उनकी बारी आती है तो दूसरे कारख़ानों के मज़दूर उनके साथ नहीं आते। पूँजीवाद के तौर-तरीकों में पिछली आधी सदी के दौरान काफी बदलाव आये हैं और मज़दूरों द्वारा पूँजी के हमलों के विरुद्ध बचाव और हमलों के तौर-तरीकों में भी निश्चय ही बदलाव लाने होंगे। पर एक बात जितनी सौ-डेढ़ सौ साल पहले सही थी, उतनी ही आज भी सही है। वह यह कि मज़दूर वर्ग जबतक कारख़ानों और पेशों (सेक्टरों) की चैहद्दियों में बँट-बिखर कर लड़ता रहेगा तब तक, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ आर्थिक रियायतों और कुछ सहूलियतों के टुकड़े ही हासिल कर पायेगा। यदि पूँजी की ताकतों को पीछे धकेलकर कुछ राजनीतिक अधिकार हासिल करने हैं और उनके अमल की सीमित गारण्टी भी हासिल करनी है, तो मज़दूर वर्ग को इस या उस कुछ मालिकों के बजाय समूचे मालिक वर्ग के विरुद्ध (जिसकी नुमाइंदगी पूँजीवादी राज्यसत्ता करती है) संघर्ष करना होगा। राजनीतिक माँगों पर संघर्ष का यही महत्व है।
एक बात और है जो पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में नहीं बदली है। जो ट्रेड यूनियनवादी और अर्थवादी हैं वे कुल मिलाकर आर्थिक संघर्षों की चौहद्दी में ही मज़दूर चेतना और मज़दूर संघर्षों को कैद रखना चाहते हैं। पूँजी और श्रम के सतत् संघर्षरत शिविरों के बीच सुलह-सफाई उनका काम होता है। वे सौदेबाज़ी करके मज़दूरों को रियायतें दिलवाते रहते हैं और अतिरिक्त श्रम शक्ति निचोड़ने वाली पूँजीवादी मशीनरी की ‘आयलिंग-ग्रीजिंग-ओवरहालिंग’ करते रहते हैं। वे चोला-पगड़ी तो मज़दूरों के प्रतिनिधि का पहने रहते हैं, लेकिन सेवा पूँजीपति वर्ग की करते हैं। लड़ाइयों को कमज़ोर बनाने और हार के गड्ढे में ढकेलने में भितरघातियों-घुसपैठियों की भूमिका हरदम ही अहम होती है। अर्थवादी-ट्रेडयूनियनवादी पहले हमेशा इसी भूमिका में थे और आज भी हैं। जो संसदमार्गी वामपंथी (संशोधनवादी पार्टियाँ हैं, उनकी भी यही भूमिका है। एक ओर तो उनकी ट्रेड यूनियन दुकानें महज दुअन्नी-चवन्नी की रियायतों-सुविधाओं की रस्मी लड़ाइयाँ लड़ती रहती हैं और सौदेबाज़ी में मशगूल रहती हैं, दूसरी ओर समूचे मज़दूर वर्ग के हितों-अधिकारों को लेकर लड़ी जाने वाली राजनीतिक लड़ाइयों को ये पार्टियाँ या तो संसदीय बहसबाज़ी के अड्डे की नौटंकियों तक सीमित कर देती हैं या फिर (ये पार्टियाँ और इनकी यूनियनें) बीच-बीच में कुछ रस्मी प्रदर्शनों और एक दिन के प्रतीकात्मक बन्द या हड़तालों के द्वारा यह दिखलाने की कोशिश करती हैं कि मज़दूर वर्ग का राजनीतिक संघर्ष भी उनके एजेण्डे पर अभी मौजूद है।
जो बिखरी हुई क्रान्तिकारी वाम ताकतें हैं, वे अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद और संसदवाद की लगातार भर्त्सना का जुबानी जमाखर्च करती हुई मज़दूर वर्ग के बीच या तो मौजूद ही नहीं हैं, या फिर अर्थवाद या अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की किसी न किसी किस्म की बानगी ही यहाँ-वहाँ पेश कर रही हैं। एक बड़ा हिस्सा (हालाँकि औद्योगिक मज़दूरों में भी यह कुछ रस्मी कवायदें करता रहता है) ''वामपन्थीय् दुस्साहसवाद या आतंकवाद के रास्ते पर दूर जा चुका है। जाहिर है कि आज की ऐतिहासिक परिस्थितियों को सैद्धान्तिक स्तर पर समझे बिना और अमली स्तर पर जाँचे-परखे बिना न तो मज़दूर आन्दोलन की व्यापक एकता व़फायम की जा सकती है, न ही मज़दूर क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली एक क्रान्तिकारी पार्टी का नवनिर्माण किया जा सकता है।
इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम के बीच का संघर्ष एक नयी ज़मीन पर गति पकड़ने वाला है। आज की दुनिया एक सदी या आधी सदी पहले की दुनिया से काफी हद तक भिन्न है। उपनिवेशवाद इतिहास के रंगमंच से विदा हो चुका है और सामंतवाद के अवशेष यदि कहीं हैं भी तो सुदूर कोने-अँतरों और हाशिए पर बिखरे पड़े हैं। पूँजी और श्रम की शक्तियाँ एकदम आमने-सामने खड़ी हैं और अतीत के छूटे हुए कार्यभारों और मिलावटों से मुक्त होकर भावी मज़दूर क्रान्तियों का पूँजी-विरोधी चरित्र एकदम साफ उभर रहा है। पर पुरानी जटिलताओं का स्थान नयी जटिलताओं ने ले लिया है। ‘औपनिवेशिक साम्राज्य-विहीन साम्राज्यवाद’ या भूमण्डलीकरण के इस दौर में, वित्तीय पूँजी के निर्बाध्, तीव्र आवागमन के लिए राष्ट्र राज्यों की सीमाएँ काफी कमज़ोर हो गयी हैं, लेकिन श्रम के वैश्विक आवागमन पर बंदिशें यथावत् हैं। पूँजी के शासन को बनाये रखने का सबसे प्रभावी औजार आज भी राष्ट्र राज्य ही हैं, साथ ही पूँजी के वर्चस्व के नये उपकरण, नये सामाजिक अवलम्ब और पूँजीवादी व्यवस्था की नयी सुरक्षा पंक्तियाँ (सिविल सोसायटी) अस्मितावादी राजनीति और एन.जी.ओ. आदि) भी पैदा हुई हैं। उत्पादन और संचय में हुई अकूत वृद्धि के बाद शेयर बाज़ार और मनोरंजन, मीडिया आदि अनुत्पादक क्षेत्रों में पूँजी निवेश तो बेहिसाब रफ्ऱतार बढ़ा ही है, उत्पादक श्रम शक्ति के दो तिहाई हिस्से तक को दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ सेवा क्षेत्र में झोंक चुकी हैं और उनके सकल घरेलू उत्पाद का दो तिहाई भी इस कथित सेवा क्षेत्र से ही आता है।
बर्दाश्त की हदें जब पार होने लगती हैं तो यहाँ-वहाँ, मज़दूर बीच-बीच में आन्दोलन की राह पर उतरते रहते हैं। ये बिखरी हुई लड़ाइयाँ पूँजी की संगठित ताकत, व़फानून और सरकारी मशीनरी की ताकत के बूते या तो दबा दी जाती हैं, या लम्बे इंतज़ार से थके-पस्त मज़दूरों के आगे कभी रियायतों के कुछ टुकड़े फेंक दिये जाते हैं। कुछ कारखानों या किसी एक सेक्टर के मज़दूर जब हड़ताल पर होते हैं तो उनसे बेख़बर या अलग रहते हुए आसपास के कारख़ानों तक के उनके भाई-चाकरी बजाते रहते हैं। और जब उनकी बारी आती है तो दूसरे कारख़ानों के मज़दूर उनके साथ नहीं आते। पूँजीवाद के तौर-तरीकों में पिछली आधी सदी के दौरान काफी बदलाव आये हैं और मज़दूरों द्वारा पूँजी के हमलों के विरुद्ध बचाव और हमलों के तौर-तरीकों में भी निश्चय ही बदलाव लाने होंगे। पर एक बात जितनी सौ-डेढ़ सौ साल पहले सही थी, उतनी ही आज भी सही है। वह यह कि मज़दूर वर्ग जबतक कारख़ानों और पेशों (सेक्टरों) की चैहद्दियों में बँट-बिखर कर लड़ता रहेगा तब तक, ज़्यादा से ज़्यादा कुछ आर्थिक रियायतों और कुछ सहूलियतों के टुकड़े ही हासिल कर पायेगा। यदि पूँजी की ताकतों को पीछे धकेलकर कुछ राजनीतिक अधिकार हासिल करने हैं और उनके अमल की सीमित गारण्टी भी हासिल करनी है, तो मज़दूर वर्ग को इस या उस कुछ मालिकों के बजाय समूचे मालिक वर्ग के विरुद्ध (जिसकी नुमाइंदगी पूँजीवादी राज्यसत्ता करती है) संघर्ष करना होगा। राजनीतिक माँगों पर संघर्ष का यही महत्व है।
एक बात और है जो पिछले सौ-डेढ़ सौ सालों में नहीं बदली है। जो ट्रेड यूनियनवादी और अर्थवादी हैं वे कुल मिलाकर आर्थिक संघर्षों की चौहद्दी में ही मज़दूर चेतना और मज़दूर संघर्षों को कैद रखना चाहते हैं। पूँजी और श्रम के सतत् संघर्षरत शिविरों के बीच सुलह-सफाई उनका काम होता है। वे सौदेबाज़ी करके मज़दूरों को रियायतें दिलवाते रहते हैं और अतिरिक्त श्रम शक्ति निचोड़ने वाली पूँजीवादी मशीनरी की ‘आयलिंग-ग्रीजिंग-ओवरहालिंग’ करते रहते हैं। वे चोला-पगड़ी तो मज़दूरों के प्रतिनिधि का पहने रहते हैं, लेकिन सेवा पूँजीपति वर्ग की करते हैं। लड़ाइयों को कमज़ोर बनाने और हार के गड्ढे में ढकेलने में भितरघातियों-घुसपैठियों की भूमिका हरदम ही अहम होती है। अर्थवादी-ट्रेडयूनियनवादी पहले हमेशा इसी भूमिका में थे और आज भी हैं। जो संसदमार्गी वामपंथी (संशोधनवादी पार्टियाँ हैं, उनकी भी यही भूमिका है। एक ओर तो उनकी ट्रेड यूनियन दुकानें महज दुअन्नी-चवन्नी की रियायतों-सुविधाओं की रस्मी लड़ाइयाँ लड़ती रहती हैं और सौदेबाज़ी में मशगूल रहती हैं, दूसरी ओर समूचे मज़दूर वर्ग के हितों-अधिकारों को लेकर लड़ी जाने वाली राजनीतिक लड़ाइयों को ये पार्टियाँ या तो संसदीय बहसबाज़ी के अड्डे की नौटंकियों तक सीमित कर देती हैं या फिर (ये पार्टियाँ और इनकी यूनियनें) बीच-बीच में कुछ रस्मी प्रदर्शनों और एक दिन के प्रतीकात्मक बन्द या हड़तालों के द्वारा यह दिखलाने की कोशिश करती हैं कि मज़दूर वर्ग का राजनीतिक संघर्ष भी उनके एजेण्डे पर अभी मौजूद है।
जो बिखरी हुई क्रान्तिकारी वाम ताकतें हैं, वे अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद और संसदवाद की लगातार भर्त्सना का जुबानी जमाखर्च करती हुई मज़दूर वर्ग के बीच या तो मौजूद ही नहीं हैं, या फिर अर्थवाद या अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की किसी न किसी किस्म की बानगी ही यहाँ-वहाँ पेश कर रही हैं। एक बड़ा हिस्सा (हालाँकि औद्योगिक मज़दूरों में भी यह कुछ रस्मी कवायदें करता रहता है) ''वामपन्थीय् दुस्साहसवाद या आतंकवाद के रास्ते पर दूर जा चुका है। जाहिर है कि आज की ऐतिहासिक परिस्थितियों को सैद्धान्तिक स्तर पर समझे बिना और अमली स्तर पर जाँचे-परखे बिना न तो मज़दूर आन्दोलन की व्यापक एकता व़फायम की जा सकती है, न ही मज़दूर क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली एक क्रान्तिकारी पार्टी का नवनिर्माण किया जा सकता है।
इक्कीसवीं सदी में पूँजी और श्रम के बीच का संघर्ष एक नयी ज़मीन पर गति पकड़ने वाला है। आज की दुनिया एक सदी या आधी सदी पहले की दुनिया से काफी हद तक भिन्न है। उपनिवेशवाद इतिहास के रंगमंच से विदा हो चुका है और सामंतवाद के अवशेष यदि कहीं हैं भी तो सुदूर कोने-अँतरों और हाशिए पर बिखरे पड़े हैं। पूँजी और श्रम की शक्तियाँ एकदम आमने-सामने खड़ी हैं और अतीत के छूटे हुए कार्यभारों और मिलावटों से मुक्त होकर भावी मज़दूर क्रान्तियों का पूँजी-विरोधी चरित्र एकदम साफ उभर रहा है। पर पुरानी जटिलताओं का स्थान नयी जटिलताओं ने ले लिया है। ‘औपनिवेशिक साम्राज्य-विहीन साम्राज्यवाद’ या भूमण्डलीकरण के इस दौर में, वित्तीय पूँजी के निर्बाध्, तीव्र आवागमन के लिए राष्ट्र राज्यों की सीमाएँ काफी कमज़ोर हो गयी हैं, लेकिन श्रम के वैश्विक आवागमन पर बंदिशें यथावत् हैं। पूँजी के शासन को बनाये रखने का सबसे प्रभावी औजार आज भी राष्ट्र राज्य ही हैं, साथ ही पूँजी के वर्चस्व के नये उपकरण, नये सामाजिक अवलम्ब और पूँजीवादी व्यवस्था की नयी सुरक्षा पंक्तियाँ (सिविल सोसायटी) अस्मितावादी राजनीति और एन.जी.ओ. आदि) भी पैदा हुई हैं। उत्पादन और संचय में हुई अकूत वृद्धि के बाद शेयर बाज़ार और मनोरंजन, मीडिया आदि अनुत्पादक क्षेत्रों में पूँजी निवेश तो बेहिसाब रफ्ऱतार बढ़ा ही है, उत्पादक श्रम शक्ति के दो तिहाई हिस्से तक को दुनिया की पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाएँ सेवा क्षेत्र में झोंक चुकी हैं और उनके सकल घरेलू उत्पाद का दो तिहाई भी इस कथित सेवा क्षेत्र से ही आता है।
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