कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तीसरी किस्त)
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और कांग्रेस के बीच युध्दोत्तरकालीन समझौतों-सौदेबाजियों की पृष्ठभूमि विश्वयुध्द के अन्तिम वर्ष के दौरान ही तैयार हो चुकी थी। मई, 1944 में गाँधी की रिहाई के बाद नये वायसराय वेवेल की मध्यस्थता में, पाकिस्तान के प्रश्न पर गाँधी और जिन्ना के बीच कई असफल वार्ताएँ हुईं। ब्रिटिश सत्ता ने दोनों पक्षों के बीच के मतभेदों को उग्र बनाने में अहम भूमिका निभायी। वेवेल केन्द्र में कांग्रेस और लीग की जो मिली-जुली अस्थायी सरकार का प्रस्ताव रख रहा था, उसका स्वरूप सारत: क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव जैसा ही था। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया।
अगस्त 1942 के बाद कांग्रेस पर सरकारी दमन का मुस्लिम लीग ने भरपूर लाभ उठाया था। ब्रिटिश हुकूमत ने भी उसे भरपूर बढ़ावा दिया। असम, सिन्ध, बंगाल और पश्चिमोत्तर प्रान्त में लीग के मन्त्रिमण्डल सत्तारूढ़ हो चुके थे। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के नेता सिकन्दर हयात की मृत्यु के बाद जिन्ना के लिए वहाँ अपना प्रभाव बढ़ाना सुगम हो गया। पंजाब और बंगाल के मुसलमान किसानों से लीग वायदा कर रही थी कि पृथक पाकिस्तान में हिन्दू जमींदारों और बनियों का शोषण समाप्त हो जायेगा। लीग यह भी कहती थी कि हिन्दू व्यापारियों-उद्योगपतियों की प्रतिस्पध्र्दा से मुक्त होने के चलते पाकिस्तान में छोटे मुसलमान व्यावसायियों-उद्यमियों को तरक्की के मौके मिलेंगे और उदीयमान मुसलमान बुध्दिजीवियों को नौकरियों के बेहतर मौके मिलेंगे। इन वायदों ने संयुक्त प्रान्त और बम्बई प्रान्त के मुसलमान व्यावसायिक समूहों, राजनीतिज्ञों, बुध्दिजीवियों को विशेष रूप से आकर्षित किया। लीग को अब केवल मुसलमान जमींदारों-ताल्लुकदारों से ही नहीं बल्कि इस्पहानी और आदमजी व्यापारिक घरानों से भी मदद मिल रही थी। अप्रैल 1945 में 'फेडरेशन ऑफ मुस्लिम चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री' की भी स्थापना हो चुकी थी। मुसलमानों में बड़े पूँजीपति नगण्य थे। और जो हिन्दू पूँजीपति और व्यापारी थे, उनमें से कुछ उदार हिन्दू (नरम साम्प्रदायिक) थे तो कुछ कट्टर पुनरुत्थानवादी और हिन्दूमहासभाई भी थे। इस स्थिति ने भी मुस्लिम अलगाववाद को बढ़ावा देने में एक भूमिका निभायी। इस तरह ब्रिटिश साम्राज्यवादी कुचक्र और जनान्दोलनों से भयाकुल होने के चलते, हमेशा बातचीत और समझौते की नीति अपनाने के कांग्रेसी रवैये के चलते तथा भारतीय बुर्जुआ वर्ग और उसकी प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के भीतर जुझारू जनवादी मूल्यों और वास्तविक धर्मनिरपेक्षता के अभाव के कारण बीसवीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता की जो राजनीति विकसित हुई, उसने 1945 तक आते-आते विभाजन की जमीन लगभग पूरी तरह से तैयार कर दी थी। मुस्लिम लीग की राजनीति को यहाँ तक पहुँचाने में निस्सन्देह हिन्दू महासभा, आर.एस.एस. जैसे कट्टरपन्थी हिन्दूवादी संगठनों ने भी अहम भूमिका निभायी थी। पाकिस्तान की माँग अब महज मोल-तोल का औजार नहीं थी। अब वह एक वास्तविक माँग बन चुकी थी। हालाँकि तब भी यह कतई नहीं कहा जा सकता था कि आम मुसलमानों की बहुसंख्यक आबादी विभाजन की पक्षधर थी। गौरतलब है कि मुसलमानों का अच्छा-खासा हिस्सा कांग्रेस के भी साथ था और गरीब कामकाजी मुसलमानों के बीच कम्युनिस्टों का भी अच्छा-खासा आधार था। आगे हम देखेंगे कि 1946 के चुनावों में अधिकांश आरक्षित मुस्लिम सीटें जीतकर मुस्लिम लीग ने मुसलमानों का एकमात्र प्रतिनिधि होने का दावा मजबूती के साथ रखा और पाकिस्तान की माँग दृढ़ता के साथ पेश की। लेकिन याद रखें कि सार्विक मताधिकार पर आधारित नहीं होने के कारण आम मुसलमान आबादी का अत्यन्त छोटा हिस्सा ही उन चुनावों में वोट दे सका था। दूसरे, पाकिस्तान या अपनी किसी भी माँग को लेकर लीग कभी भी कोई व्यापक जनान्दोलन खड़ा नहीं कर सकी थी।
जुलाई 1945 में इंग्लैण्ड में हुए आम चुनावों में लेबर पार्टी की विजय हुई। लेबर पार्टी के नेता भी किन्हीं अर्थों में टोरियों से कम साम्राज्यवादी नहीं थे। भारत छोड़ने का विचार उनके लिए भी दुखद था लेकिन वे इस बात को टोरियों से बेहतर समझते थे कि तत्कालीन अन्तरराष्ट्रीय और भारतीय राजनीतिक परिस्थितियों में उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
पहले अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों को लें। नाजी जर्मनी के धवंस और जापान के समर्पण के बाद पूरे पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्टों के नेतृत्व या कम्युनिस्टों की भागीदारी वाली आमूल परिवर्तनवादी सत्ताएँ उभर रही थीं। ऐसी ताकतें इटली और प्रफ़ांस में भी मजबूत थीं। चीन और कोरिया में कम्युनिस्ट नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियाँ तेजी से जीत के निकट पहुँच रही थीं। वियतनाम और इण्डोनेशिया में प्रफ़ांसीसी और डच औपनिवेशिक सत्ताओं की पुनर्स्थापना के विरुध्द उग्र जन प्रतिरोध जारी था। वियतनाम में भी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व कम्युनिस्ट कर रहे थे और इण्डोनेशिया में वे दूसरी सबसे बड़ी ताकत थे। यह पूरी स्थिति सिर्फ अंग्रेजों को ही नहीं बल्कि भारतीय पूँजीपति वर्ग और कांग्रेसी नेतृत्व को भी चिन्तित और भयभीत कर रही थी। अन्तरराष्ट्रीय पटल पर दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हो रहा था कि साम्राज्यवादियों के चौधरी का स्थान अमेरिका लेने जा रहा था जिसने युध्द में नगण्य नुकसान उठाया था और बहुत अधिक लाभ कमाया था। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। ब्रिटिश सेना और जनता युध्द से थक चुकी थी। उपनिवेशों में उठते जनज्वार को बल-प्रयोग से रोक पाने की स्थिति में अब ब्रिटिश उपनिवेशवादी नहीं रह गये थे। अत: पीछे हटने का दबाव उन पर देश के भीतर से भी था और अमेरिका की ओर से भी।
अब भारत की राजनीतिक परिस्थितियों पर दृष्टि डालें। 1942 के जनविद्रोह, उसके बाद लगातार जारी प्रतिरोध संघर्षों (1943-45 के दौरान मजदूरों-किसानों के जनसंघर्षों) तथा मध्यवर्ग, विशेषकर छात्रों-युवाओं-बुध्दिजीवियों के बीच बढ़ते जुझारू राष्ट्रवादी और वामपन्थी विचारों के प्रभाव के कारण यह स्पष्ट लग रहा था कि औपनिवेशिक शासन के दिन अब गिने-चुने ही रह गये हैं। अपनी अतीत की गलतियों के कारण कम्युनिस्ट राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करने की स्थिति में तो नहीं थे, पर चीन, वियतनाम, कोरिया, इण्डोनेशिया की स्थिति को देखते हुए यह भय बना हुआ था कि यदि कांग्रेस के साथ सत्ता-हस्तान्तरण के लिए वार्ताओं को आगे नहीं बढ़ाया गया तो जनता कांग्रेसी नेतृत्व के नियन्त्रण में नहीं रह जायेगी। वह क्रान्तिकारी ढंग से उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने की दिशा में आगे बढ़ सकती है और इस प्रक्रिया में पहलवफदमी कम्युनिस्टों के हाथ में आ सकती है। इसी परिप्रेक्ष्य में ब्रिटेन में सत्तासीन हुई एटली की लेबर सरकार ने कांग्रेस के साथ बातचीत आगे बढ़ाने के लिए वायसराय वेवेल को निर्देश दिया। पर लेबर सरकार ने भी वार्ताओं की प्रक्रिया को धीमी गति से और काफी सौदेबाजी करते हुए आगे बढ़ाया। इस धीमी प्रक्रिया के दौरान साम्प्रदायिक तनाव और बँटवारे की माँग जोर पकड़ती गयी, जिसकी तार्किक परिणति आगे चलकर साम्प्रदायिक दंगों के भीषण विस्फोट और विभाजन के रूप में सामने आयी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी चाहते भी यही थे। कांग्रेसी नेतृत्व विभाजन नहीं चाहता था, लेकिन जनसंघर्षों के हाथ से निकल जाने के भय से समझौते-सौदेबाजी की लम्बी प्रक्रिया से गुजरना उसके सामने एकमात्र रास्ता था और इस रास्ते से चलते हुए वह उस मुकाम तक पहुँचने को अभिशप्त था, जहाँ विभाजन को स्वीकारने के अतिरिक्त उसके सामने कोई चारा नहीं बचा।
आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से भारतीय पूँजीपति वर्ग युध्दोत्तर काल में इतना मजबूत हो चुका था कि ब्रिटेन पर देश छोड़ने के लिए दबाव बना सके, पर जनसंघर्षों से डरने की अपनी प्रवृत्तिा के चलते उसे समझौते से ही राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करनी थी। ब्रिटिश आर्थिक हितों की सुरक्षा का आश्वासन देना और साम्राज्यवादी विश्व से असमानतापूर्ण शर्तों पर बँधो रहना उसकी वर्ग प्रकृति के सर्वथा अनुकूल था। युध्द के दौरान भारत के औद्योगिक उत्पादन में भारी वृध्दि हुई थी। फौजी आपूर्तियों के लिए प्राप्त भारी ऑर्डरों की बदौलत तथा युध्द के दौरान आयात के अभाव के चलते देशी बाजार की माँग का भरपूर लाभ उठाकर भारतीय उद्योगपतियों ने काफी पूँजी संचित की तथा शेयरों की खरीद के जरिये उन क्षेत्रों में भी प्रवेश किया (जैसे चाय बागान, जूट उद्योग आदि) जो अब तक ब्रिटिश पूँजी के अनन्य क्षेत्र थे। रसायन उद्योग (जैसे टाटा और इम्पीरियल केमिकल्स के बीच) और ऑटोमोबाइल (जैसे बिड़ला और एनफील्ड के बीच) आदि क्षेत्रों में भारतीय शीर्ष उद्योगपति मिश्रित कम्पनियाँ बनाने लगे। टाटा, बिड़ला, डालमिया-जैन आदि भारतीय इजारेदार समूह ब्रिटिश इजारेदार समूहों के छोटे भागीदार बनने लगे। बड़ौदा, ग्वालियर, मैसूर, जयपुर आदि विकसित रियासतों में भारतीय बड़े पूँजीपतियों ने प्रवेश किया और इन इलाकों के शासक उनकी औद्योगिक कम्पनियों में हिस्सेदार बन गये। देश के प्रौद्योगिक पिछड़ेपन के कारण भारतीय पूँजीपति विदेशी बड़े पार्टनरों का मुँह जोहने को मजबूर थे, लेकिन उनके सामने अब कई विकल्प थे और बदली परिस्थितियों में प्रौद्योगिक एवं पूँजीगत सहायता कम कठिन शर्तों पर मिलने की उम्मीद थी। यही स्थिति आजादी के बाद स्पष्ट रूप में विकसित हुई, पर इसकी प्रक्रिया तो 1945 से ही शुरू हो चुकी थी। एक और महत्वपूर्ण बात यह हुई थी कि 1944-45 तक भारत द्वारा किये जाने वाले आयात का सबसे बड़ा स्रोत ब्रिटेन की जगह अमेरिका बन चुका था। भारत द्वारा आपूर्ति की जाने वाली युध्द सामग्री के भुगतान के लिए ब्रिटेन द्वारा भारत के स्टर्लिंग ऋण पत्र लगातार खरीदे जाने के कारण भारत के स्टर्लिंग ऋण समाप्त हो गये। तात्कालिक तौर पर तो ये बड़े पैमाने पर भारतीय संसाधनों के हस्तान्तरण के बदले दिये गये वचन-पत्र मात्र ही थे, लेकिन 1947 के बाद भारत के विदेशी मुद्रा भण्डार को इनसे काफी बल मिला। इस प्रकार ऋण के भुगतान के रूप में 'सम्पत्ति के दोहन' की औपनिवेशिक नीति के एक पारम्परिक घटक का 1944-45 तक ही खात्मा हो चुका था। भारतीय बुर्जुआ वर्ग के युध्दकालीन आर्थिक शक्ति-संचय की चर्चा करते हुए यह बताना जरूरी है कि वास्तव में पूँजी की अधिकांश वृध्दि उत्पादन-क्षेत्र में न होकर लाभांशों में हुई, विशेषकर खाद्यान्नों की कालाबाजारी, सट्टेबाजी और शेयर बाजार की गतिविधियों द्वारा। मेधावी मार्क्सवादी इतिहासकार डी.डी. कोसम्बी ने 1946 में ही अपने एक लेख में ('दि बुर्जुआजी कम्स ऑफ एज इन इण्डिया', 'एक्जास्परेटिंग एस्सेज') में बताया था कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग एक विशेष प्रकार का बुर्जुआ वर्ग था जो उत्पादन को बढ़ाने या उसकी क्षमता दर्शाने के बजाय सट्टेबाजी से अत्यधिक लगाव रखता था। भारतीय बुर्जुआ वर्ग की यही आर्थिक ताकत और चारित्रिक कमजोरी आगे चलकर हमें राजनीतिक पटल पर सत्ता-हस्तान्तरण और संविधान-निर्माण की पूरी प्रक्रिया के दौरान कांग्रेसी नेतृत्व की नीति एवं व्यवहार में प्रतिबिम्बित होती दीखती है।
सत्तासीन होने के बाद ब्रिटेन की लेबर सरकार ने सितम्बर, 1945 में लन्दन और दिल्ली में एक साथ अपनी भारत-विषयक नीति की पहली घोषणा की। उसमें कहा गया था कि क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों को अमल में लाते हुए 1945-46 की सर्दियों में केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानमण्डलों के चुनाव कराये जायेंगे। यह घोषणा जनता और बुर्जुआ राजनीतिक नेतृत्व दोनों को ही मायूस करने वाली थी। क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव तो कांग्रेस पहले ही ठुकरा चुकी थी। लेकिन जल्दी ही उपनिवेशवाद- विरोधी जन-उभारों की नयी लहर ने ब्रिटिश योजनाओं में संशोधन और उनके अमल में तेजी लाने की स्थिति पैदा कर दी।
1945 के मध्य में मजदूर हड़तालों की एक नयी देशव्यापी लहर आयी। ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक होते जाना इस लहर की विशेषता थी। मजदूर हड़तालें छात्रों और अन्य मेहनतकश समुदायों के राजनीतिक संघर्षों-प्रदर्शनों के साथ जुड़ती जा रही थीं। ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) जनवरी 1945 में मद्रास में हुए 21वें अधिवेशन में ही राष्ट्रीय स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित कर चुकी थी। परिस्थितियों ने ट्रेड यूनियन संगठनों के भीतर विभिन्न राजनीतिक गुटों के बीच, कुछ ही समय के लिए सही, लेकिन एकता कायम कर दी थी। 1945 के उत्तरार्द्ध में हड़तालें और प्रदर्शन सेना और पुलिस के साथ सशस्त्र झड़पों और टकरावों की शक्ल लेने लगे थे। इस जुझारू जन एकता को तोड़ने के लिए साम्राज्यवादी साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की साजिशें रचते थे। बम्बई में सफल होने के बाद उन्होंने अपनी कोशिशें और तेज कर दीं और मुस्लिम लीग की राजनीति इसमें मददगार भी बनी, लेकिन, फिर भी जुझारू जनान्दोलनों का दबाव ब्रिटिश उपनिवेशवादियों पर बढ़ता गया।
अक्टूबर 1945 से लेकर फरवरी 1946 के बीच घटी कुछ घटनाओं ने ऐसा व्यापक जन-दबाव निर्मित किया कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को अपनी नीतियों में कुछ बुनियादी बदलाव के लिए विवश होना पड़ा। उग्र देशव्यापी जन-उभार ने एक ओर जहाँ कांग्रेसी नेतृत्व को भयभीत किया, वही इसका लाभ उठाकर उन्होंने सत्ता-हस्तान्तरण के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादियों पर दबाव बढ़ा दिया। इस विस्फोटक दौर को वेवेल के जर्नल के सम्पादक पेण्डरले मून ने बिल्कुल सटीक ढंग से 'ज्वालामुखी के कगार' की संज्ञा दी है।
इस विस्फोटक स्थिति का पहला कारक उपादान अंग्रेजों द्वारा आजाद हिन्द फौज के 20,000 फौजियों पर सार्वजनिक मुकदमा चलाने का मूर्खतापूर्ण निर्णय था। साथ ही, कम से कम 7000 को नौकरी से निकालकर बिना मुकदमा चलाये हिरासत में रखा गया। तुर्रा यह कि ऐसा पहला मुकदमा लाल किले में चला जिसमें आजाद हिन्द फौज के एक हिन्दू, एक मुसलमान और एक सिख अफसर को एक साथ कठघरे में खड़ा किया गया। इससे जनता में जो तीव्र भावनात्मक लहर फैली, उसने कुछ समय के लिए साम्प्रदायिक अलगाव की दीवारों को गिरा दिया। मुस्लिम लीग भी इस व्यापक जनान्दोलन का समर्थन करने को विवश हो गयी। सुभाष चन्द्र बोस की राजनीति और सामरिक नीति की विसंगतियाँ चाहे जो भी रही हों, आजाद हिन्द फौज के मुकदमे अब एक साम्राज्यवाद-विरोधी भावनात्मक मुद्दा बन चुके थे। महत्वपूर्ण बात यह थी कि आजाद हिन्द फौज की देशभक्तिपूर्ण शौर्य की भावना तेजी से सेना में भी फैलती जा रही थी (जनवरी 1946 में आजाद हिन्द फौज के रिहा किये गये कुछ सैनिकों के स्वागत समारोह में भारतीय सेना के बहुत सारे सिपाही वर्दी पहनकर शामिल हुए थे)।
एक और मुद्दा यह था कि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों - विशेषकर वियतनाम और इण्डोनेशिया में प्रफ़ांसीसी और डच औपनिवेशिक शासन को बहाल करने के लिए और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को कुचलने के लिए ब्रिटेन द्वारा भारतीय सेना का उपयोग किया जा रहा था। इससे शहरी मध्यवर्गीय और मजदूर जनता के साथ ही सेना के भीतर भी गम्भीर विक्षोभ फैल गया, जो साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के प्रचण्ड उभार का एक द्योतक था। इसके विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए। गोदी मजदूरों ने इण्डोनेशिया को फौजी सामान ले जाने वाले जहाजों में माल लादने से इन्कार कर दिया और 25 अक्टूबर 1945 को पूरे देश में 'इण्डोनेशिया दिवस' मनाया गया। कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंगठनों के अतिरिक्त कांग्रेस और लीग ने भी इस जनान्दोलन का समर्थन किया।
ब्रिटिश उपनिवेशवादी इस साम्राज्यवाद-विरोधी लहर से तथा साम्प्रदायिक आधार पर देश के विभाजन के अपने षड्यन्त्र को विफल होते देख घबरा उठे। लीग को भी स्वयं के अप्रासंगिक हो जाने का भय सताने लगा। अंग्रेजों को लगने लगा कि यदि कांग्रेस फिर से 1942 जैसे देशव्यापी आन्दोलन का आह्नान कर दे तो उसमें व्यापक मजदूर-किसान आबादी के अतिरिक्त शहरी मध्यवर्गीय आबादी, असन्तुष्ट सैनिक और फौजी अनुभव रखने वाले आजाद हिन्द फौज के सैनिक भी शामिल हो जायेंगे। कम्युनिस्ट पार्टी भी तब उसमें पूरी ताकत से शामिल हो जायेगी। तब स्थिति उनके हाथ से एकदम निकल जायेगी। लेकिन जल्दी ही उन्होंने समझ लिया कि दूरन्देश कांग्रेसी नेता ऐसा कतई नहीं करेंगे। वे समझ गये कि 1942 के नायकों-शहीदों को और आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को महिमामण्डित करने वाले कांग्रेसियों के उग्र भाषण महज चुनावी लोकलुभावन पैंतरेबाजियाँ हैं। बात तब और स्पष्ट हो गयी जब कांग्रेस ने कम्युनिस्टों के विरुध्द जबर्दस्त अभियान चलाया जिसमें ''वामपन्थी'' लच्छेदार जुमलेबाजी करने वाले नेहरू की अग्रणी भूमिका थी। जगह-जगह कम्युनिस्टों पर हमले भी हुए। बम्बई में नेहरू के भाषण से उत्तोजित भीड़ ने कम्युनिस्ट पार्टी मुख्यालय पर धावा बोल दिया। इसकी चरम परिणति यह हुई कि 5 अक्टूबर को कांग्रेस से कम्युनिस्ट पार्टी सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया और दिसम्बर में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी से सभी कम्युनिस्टों को निकाल दिया गया। 1945 के अन्त तक कांग्रेस को जुझारू राष्ट्रवादी और आमूल परिवर्तनवादी लहर में बहने से बचाने के लिए बिड़ला आदि पूँजीपति और पार्टी के भीतर के पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, भूलाभाई देसाई, टण्डन आदि दक्षिणपन्थी धड़े के अग्रणी सदस्य सक्रिय हो चुके थे। जवाहरलाल पूर्ववत सन्तुलनकारी तत्व और पार्टी के लोकलुभावन मुखौटे का काम कर रहे थे और पहले की तरह 1946 के चुनावों में भी पार्टी के अग्रणी चुनाव प्रचारक की भूमिका भी वही निभाने वाले थे।
फौजी अदालत द्वारा आजाद हिन्द फौज के उपरोक्त तीनों अफसरों को लम्बी कैद की सजा के बाद नवम्बर 1945 में देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये। कलकत्ता में जनप्रदर्शन आम राजनीतिक हड़ताल में बदल गये। छात्र, युवा, मजदूर और आम नागरिकों ने सड़कों पर बैरिकेड खड़े कर दिये। 22-23 नवम्बर को भीड़ सेना और पुलिस से मोर्चा लेती रही। कारखानों के मजदूरों के अतिरिक्त टैक्सी ड्राइवरों और ट्राम चालकों ने कम्युनिस्ट नेतृत्व में हड़ताल कर दी। भीड़ ने रेलगाड़ियाँ रोक दीं। दर्जनों प्रदर्शनकारी मारे गये, सैकड़ों घायल हुए। पर पुलिस और सेना को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस शहरी जन-विद्रोह की घटना में कम्युनिस्टों और फॉरवर्ड ब्लॉक के अतिरिक्त कांग्रेस और लीग के आम कार्यकर्ताओं ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया, लेकिन इन पार्टियों के शीर्ष नेता इससे अलग रहे॥ सुभाष के भाई, कांग्रेसी नेता शरत बोस ने छात्रों की एक सभा को सम्बोधित करने से इन्कार कर दिया और कम्युनिस्टों पर हिंसा भड़काने का आरोप लगाया। भारी सैनिक दमन के साथ ही कांग्रेसी नेताओं के प्रयासों से यह हड़ताल समाप्त हो पायी। लेकिन इसी तरह की राजनीतिक हड़तालें (कम उग्र स्तर पर) बम्बई और अन्य नगरों में भी हुईं। कांग्रेस के चरित्र को समझने के लिए इस घटना पर उसके नेताओं की प्रतिक्रिया जानना दिलचस्प होगा। इसके तुरन्त बाद गाँधी जी ने बंगाल के गवर्नर से सौहार्दपूर्ण वार्ता शुरू कर दी। 7-11 दिसम्बर को कलकत्ता में हुई कांग्रेस कमेटी की बैठक में अहिंसा पर काफी जोर दिया गया था जो सितम्बर बैठक के तेवर (जिसमें 1942 के जनसंघर्ष का गौरवगान किया गया था) के एकदम उलट था। जाहिर है कि कांग्रेस जनान्दोलन से भयभीत हो गयी थी। उसे कमान अपने हाथ से निकल जाने का भय सताने लगा, बावजूद इसके, कि कम्युनिस्ट अपनी विचारधारात्मक-राजनीतिक-सांगठनिक कमजोरी तथा अनिर्णय के कारण तथा अतीत की गलतियों के चलते, निर्णायक पहलकदमी ले पाने की स्थिति में नहीं थे।
उधर अंग्रेजों ने महसूस किया कि कुछ रियायतें देना और नरमी बरतना तथा कांग्रेस और लीग के साथ बातचीत को आगे बढ़ाकर समझौते-सौदेबाजी के द्वारा बुर्जुआ वर्ग को सत्ता सौंपने की दिशा में आगे बढ़ने की रफ्तार तेज करनी होगी। 1 दिसम्बर को घोषणा की गयी कि ''सम्राट के विरुध्द युध्द छेड़ने'' के आम आरोप में आजाद हिन्द फौज के सभी अफसरों-सैनिकों पर मुकदमा चलाने के बजाय केवल उन्हीं सैनिकों पर मुकदमा चलाया जायेगा जिन पर साथी कैदियों के साथ दर्ुव्यवहार या उनकी हत्या करने के आरोप हैं। जनवरी 1996 में आजाद हिन्द फौज के पहले बैच को दी गयी सजा रद्द कर दी गयी। फरवरी तक हिन्दचीन और इण्डोनेशिया से भारतीय सैनिकों की वापसी शुरू हो गयी।
22 जनवरी 1946 को एटली की सरकार ने कांग्रेस और लीग के नेताओं के साथ सौदेबाजी-समझौते की प्रक्रिया तय करने के लिए एक कैबिनेट मिशन भारत भेजने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया। इसमें भारत मन्त्री सर पेथिक लॉरेंस (मिशन के नेता) के अतिरिक्त दो और मन्त्री लॉर्ड अलेक्जेण्डर और सर स्टैफोर्ड क्रिप्स शामिल थे।
कैबिनेट मिशन, जनसंघर्ष की नयी लहर, नौसेना विद्रोह, और प्रान्तीय विधानमण्डल के चुनाव : अन्तरिम सरकार के गठन और संविधान सभा के चुनाव की पूर्वबेला
कैबिनेट मिशन मार्च के अन्त तक भारत पहुँचा। लेकिन इसके पहले, फरवरी के महीने में भारत में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं, जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के समक्ष गम्भीर चुनौती उपस्थित कर दी और कैबिनेट मिशन के भावी क्रियाकलापों की दिशा एवं गति तय करने में अहम भूमिका निभायी।
इनमें से पहली घटना थी, फरवरी में एक बार फिर कलकत्ता की सड़कों पर बैरिकेड और आम हड़ताल। आजाद हिन्द फौज के अब्दुल रशीद को 7 वर्ष कैद की सजा सुनायी जाने के बाद 11 और 13 फरवरी के बीच एक बार फिर कलकत्ता की सड़कों पर प्रचण्ड जनरोष उमड़ पड़ा। छात्रों ने पहल ली और फिर व्यापक कामगार और मध्यवर्गीय आबादी सड़कों पर उमड़ पड़ी। 12 फरवरी को कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आम हड़ताल की घोषणा ने कलकत्ता के औद्योगिक जीवन को ठप्प कर दिया। दो दिनों तक सड़कों पर सेना और पुलिस से मुठभेड़ के दौरान 84 लोग मारे गये। इसी दौरान रेलवे और डाकखाने के कर्मचारियों के अखिल भारतीय संगठन बढ़ी हुई कीमतों और राशन-कटौती के विरुध्द हड़ताल की धमकी दे रहे थे। जल्दी ही सरकारी कर्मचारी भी उनके साथ हो लिये। गौरतलब है कि कांग्रेसी नेता ऐसी किसी भी हड़ताल के विरुध्द थे। लीग और कांग्रेस राशन-कटौती के प्रस्ताव को स्वागत करते हुए स्वीकार कर चुके थे, लेकिन यह देशव्यापी जनान्दोलन का मुद्दा बन गया था।
दूसरी घटना राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के इतिहास की एक युगान्तरकारी घटना थी, जिसके वास्तविक महत्व का इतिहासकारों ने अभी तक बहुत कम आकलन किया है। यह घटना थी, 18 से 23 फरवरी 1946 के बीच बम्बई में होने वाला नौसेना विद्रोह, जो अनायास 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के समय काले सागर में तैनात 'बैटलशिप' पोतेम्किन के नौसैनिकों के ऐतिहासिक विद्रोह की याद दिलाता है। विद्रोह की स्वत:स्फूर्त शुरुआत नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत 'आई.एन.एस. तलवार' से हुई। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। इस पर 18 फरवरी को नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। हड़ताल अगले ही दिन कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बन्दरगाह के 22 जहाजों तक फैल गयी। 19 फरवरी को एक हड़ताल कमेटी का चुनाव किया गया। नाविकों की माँगों में बेहतर खाने और गोरे और भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की माँग भी शामिल हो गयी। विद्रोही बेड़े के मस्तूलों पर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झण्डे एक साथ फहरा दिये गये। 20 फरवरी को विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाइयों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी चुनी। लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें अभी बनी हुई थी, जो काफी नुकसानदेह साबित हुई। 20 फरवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें किसी भी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद चार बजे युध्द विराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे ऑफ इण्डिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य मदद लेकर उमड़ पड़ी।
विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कलकत्ता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फरवरी हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्युनिस्ट पार्टी के आह्नान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब तीन सौ लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह, कराची में भारी लड़ाई के बाद ही 'हिन्दुस्तान' जहाज से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालात संगीन थे, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुध्द हड़ताल पर थे तथा कलकत्ता और दूसरे कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। कैण्टोनमेण्ट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असन्तोष खदबदाने और विद्रोह की सम्भावना की ख़ुफिया रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था। ऐसे नाज़ुक समय में उनके तारणहार की भूमिका में कांग्रेस और लीग के नेता आगे आये, क्योंकि सेना के सशस्त्र विद्रोह, मजदूरों द्वारा उसके समर्थन तथा कम्युनिस्टों की सक्रिय भूमिका से भारतीय पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रीय आन्दोलन का बुर्जुआ नेतृत्व स्वयं आतंकित हो गया था। जिन्ना की सहायता से पटेल ने काफी कोशिशों के बाद 23 फरवरी को नौसैनिकों को समर्पण के लिए तैयार कर लिया। उन्हें आश्वासन दिया गया कि कांग्रेस और लीग उन्हें अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और नौसैनिकों के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात किया। मार्च '46 में आन्ध्र के एक कांग्रेसी नेता को लिखे पत्र में सेना के अनुशासन पर बल देने का कारण पटेल ने यह बताया था कि 'स्वतन्त्र भारत में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी।' उल्लेखनीय है कि 22 फरवरी को कम्युनिस्ट पार्टी ने जब हड़ताल का आह्नान किया था तो कांग्रेसी समाजवादी अच्युत पटवर्धान और अरुणा आसफ अली ने तो उसका समर्थन किया था, लेकिन पटेल ने लोगों से सामान्य ढंग से काम करने की अपील की थी। कांग्रेस और लीग के प्रान्तीय नेता एस.के. पाटिल और चुन्दरीगर ने तो कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए स्वयंसेवकों को लगाने तक का प्रस्ताव दिया था। नेहरू ने नौसैनिकों के विद्रोह का यह कहकर विरोध किया कि 'हिंसा के उच्छृंखल उद्रेक को रोकने की आवश्यकता है।' गाँधी ने 22 फरवरी को कहा कि 'हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एकसाथ आना एक अपवित्र बात है।' नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। अरुणा आसफ अली ने इसका दोटूक जवाब देते हुए कहा कि नौसैनिकों से नौकरी छोड़ने की बात कहना उन कांग्रेसियों के मुँह से शोभा नहीं देता जो ख़ुद विधायिकाओं में जा रहे हैं।
नौसेना विद्रोह ने कांग्रेस और लीग के वर्ग चरित्र को एकदम उजागर कर दिया। नौसेना विद्रोह और उसके समर्थन में उठ खड़ी हुई जनता की भर्त्सना करने में लीग और कांग्रेस के नेता बढ़-चढ़कर लगे रहे, लेकिन सत्ता की बर्बर दमनात्मक कार्रवाई के खिलाफ उन्होंने चूँ तक नहीं की। जाहिर है कि भारतीय पूँजीपतियों के राजनीतिक प्रतिनिधि साम्राज्यवाद से राजनीतिक आजादी केवल देशी पूँजीवादी हितों और लूट-खसोट के निर्बन्ध विस्तार के लिए चाहते थे। जनता के विद्रोह की स्थिति में वे साम्राज्यवाद के साथ खड़े होने को तैयार थे और स्वातन्त्रयोत्तर भारत में साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए वे तैयार थे। जनान्दोलनों की जरूरत उन्हें बस साम्राज्यवाद पर दबाव बनाने के लिए और समझौते की टेबल पर बेहतर शर्तें हासिल करने के लिए थी। बावजूद इसके, उपनिवेशवाद के पीछे हटने के बाद लम्बे समय से संघर्षरत जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उन्हें जनता को सीमित जनवादी अधिकार देने ही थे (यह उनकी विवशता थी) तथा पूँजीवादी लूट का दायरा बढ़ाने के लिए गाँवों में, धीमी गति से, गैरक्रान्तिकारी रास्ते से, सामन्ती वर्गों को नये पूँजीवादी शोषक के रूप में बदलने का अवसर देते हुए पूँजीवाद का विकास करना ही था। भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के इसी विशिष्ट चरित्र को हम 1946-47 के दौरान संविधान सभा के चुनाव के पहले से लेकर बाद तक की अवधि में निर्मित होते हुए देखते हैं।
प्रसंगवश, यहाँ पर एक बार फिर हमें कम्युनिस्ट पार्टी की जो ऐतिहासिक चूक देखने को मिलती है, उस पर भी संक्षिप्त चर्चा जरूरी है। नौसेना-विद्रोह की ख़बर मिलते ही, पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने पहलकदमी लेकर उसे राजनीतिक नेतृत्व देने की कोशिश नहीं की, जबकि लीग और कांग्रेस के रुख को देखते हुए परिस्थितियाँ अनुकूल थीं। केवल मुम्बई में आम हड़ताल से आगे बढ़कर कम्युनिस्ट पार्टी यदि पूरे देश में आम राजनीतिक हड़ताल का आह्नान करती तो स्थितियाँ आम बगावत तक भी जा सकती थीं। यदि यह आम बगावत सफल नहीं होती, तो भी पार्टी पीछे हटकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोकयुध्द की नीति अपनाते हुए किसान संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए देशव्यापी विद्रोह के अगले चक्र का इन्तजार कर सकती थी। नौसेना (और सेना-वायुसेना में भी सम्भावित) विद्रोह से उसे स्वयं जनता को सशस्त्र करने के अनुकूल अवसर मिल सकते थे। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का नेतृत्व कम्युनिस्टों के हाथ में आ जाना लगभग तय था। साथ ही, साम्प्रदायिक विभाजन की प्रक्रिया भी रुक जाती, जैसाकि अरुणा आसफ अली ने नौसेना विद्रोह के दिनों में कहा था, ''हिन्दुओं और मुसलमानों को संवैधानिक मोर्चे की तुलना में सड़क की मोर्चेबन्दियों पर एक करना कहीं अधिक सरल है।'' लेकिन हम यहाँ जिस वैकल्पिक स्थिति की सम्भावना जता रहे हैं, वह बिना लम्बी तैयारी के, ऐन वक्त पर सम्भव नहीं थी। सच यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी इसके लिए तैयार ही नहीं थी। विचारधारात्मक कमजोरी (विशेषकर, दक्षिणपन्थी विचलन के लम्बे दौर), ढुलमुलपन, भारतीय परिस्थितियों की मौलिक समझ के अभाव, लौह अनुशासन में ढले लेनिनवादी सांगठनिक ढाँचे के अभाव और पहले से तैयारी की कमी के कारण पार्टी आम राजनीतिक हड़ताल का आह्नान करने और सशस्त्र आम बगावत की दिशा में आगे बढ़ने जैसा कोई काम कर ही नहीं सकती थी। आजाद हिन्द फौज के मुकदमों के मसले पर कलकत्ता से शुरू होकर पूरे देश में फैलने वाले जनान्दोलन के दो चक्रों में भी पार्टी की यही कमजोरी देखने को मिली थी और उसने इससे कोई सबक नहीं लिया था। आगे हम देखेंगे कि अपनी इन्हीं मूलभूत चारित्रिक कमजोरियों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी तेभागा, पुनप्रा-वायलार- तेलंगाना के किसान संघर्षों को भी दीर्घकालिक लोकयुध्द की राह पर आगे नहीं बढ़ा पायी। 1946 से लगभग 1950 तक जारी संक्रमण काल का वह कोई लाभ नहीं उठा सकी, क्योंकि वह वैचारिक कमजोरी की शिकार थी, जुझारू चरित्र और निर्णायक होने की क्षमता से रिक्त थी। इस थकी-हारी पार्टी ने 1951-52 में ही यदि संसदीय राजनीति का मार्ग निर्णायक तौर पर चुन लिया तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं थी।
1945-46 के शीत और शरद की घटनाओं ने (विशेषकर कलकत्ता की घटनाओं और नौसेना विद्रोह ने) ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के रुख को गम्भीरता से प्रभावित किया। 15 मार्च 1946 को भारत के सम्बन्ध में एटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में लेबर पार्टी की नीति की दूसरी घोषणा की जिसमें यह माना गया था कि भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन देशव्यापी है जिसमें सेना भी शामिल है। घोषणा में भारत को यथाशीघ्र पूर्ण स्वाधीनता देने की बात दोहरायी गयी थी। मार्च के अन्त में मिशन भारत पहुँचा और जून तक वायसराय वेवेल के साथ मिलकर कांग्रेस और लीग के साथ बातचीत के लम्बे सिलसिले में लगा रहा। इधर अप्रैल 1946 में केन्द्रीय और प्रान्तीय विधायिकाओं के चुनाव होने थे, जो वैसे भी युध्द के बाद होने तय थे (इनकी घोषणा वेवेल ने 21 अगस्त 1945 को ही कर दी थी) और लेबर सरकार ने वायदा करके इनकी पुष्टि भी कर दी थी। फरवरी 1937 की ही भाँति इस बार के चुनाव भी 1935 के 'गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट' के मुताबिक सीमित मताधिकार (11.5 प्रतिशत) के आधार पर ही होने थे। 1937 के चुनावों में हिस्सा लेते हुए भी कांग्रेस ने कम से कम सार्विक मताधिकार की अपनी माँग दोहरायी थी और 1935 के कानून को 'ग़ुलामी के चार्टर' की संज्ञा दी थी। चुनाव में भाग लेना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि जुझारू जनसंघर्ष का रास्ता वह चुन नहीं सकते थे। 1946 में स्थिति यह थी कि जनसमुदाय स्वयं तेजी से जनविद्रोह की दिशा में आगे बढ़ रहा था। नवम्बर '45 से फरवरी '46 के बीच कांग्रेसी नेताओं ने जनसंघर्ष की बात को दृढ़तापूर्वक अस्वीकार करने के बाद अपनी पूरी ताकत चुनाव में झोंक दी थी। सार्विक वयस्क मताधिकार की जो माँग वह 1930 से उठाती रही थी, उसे चुपचाप छोड़ दिया गया। यह कांग्रेसी नेतृत्व के वर्ग चरित्र को उजागर करने वाली प्रातिनिधिक ऐतिहासिक घटना थी। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण था क्योंकि कांग्रेस को पता था कि सीमित मताधिकार के आधार पर चुनी गयी इन्हीं प्रान्तीय विधायिकाओं द्वारा संविधान सभा के परोक्ष चुनाव पर ब्रिटिश सत्ता का जोर है, जबकि कांग्रेस की माँग सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के प्रत्यक्ष चुनाव की रही है। यही नहीं, 1937 की ही भाँति, ये चुनाव धार्मिक आधार पर पृथक निर्वाचक मण्डलों द्वारा होने थे। स्पष्ट था, कि जनसंघर्षों से भयाक्रान्त कांग्रेसी नेतृत्व हर हाल में समझौता वार्ताओं और ''संवैधानिक रास्ते'' से ही सत्ता पाना चाहता था और इसके लिए चुनाव की इस व्यवस्था को स्वीकार कर उसने प्रकारान्तर से मुस्लिम लीग के दावे को मजबूत आधार प्रदान करने और साम्प्रदायिक आधार पर देश के बँटवारे की जमीन तैयार करने का काम किया। यानी कांग्रेस ब्रिटिश शर्तों को मानने और देश के बँटवारे तक को स्वीकार कर सकती थी, लेकिन साम्राज्यवाद विरोधी जुझारू जनसंघर्ष का रास्ता उसे किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं था।
कांग्रेस के मुख्य चुनाव-प्रचारक नेहरू थे, पर प्रत्याशियों के चयन पर मुख्यत: पटेल और उनके दक्षिणपन्थी धड़े का नियन्त्रण था। इस चुनाव में कांग्रेस ने सभी प्रान्तों में आम (गैर-मुस्लिम में पूर्ण) बहुमत हासिल किया। मुस्लिम निर्वाचक मण्डल में उसे केवल पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में ही बहुमत मिला। केन्द्रीय असेम्बली की 102 में से 57 सीटें उसे मिलीं। ग़ैर मुस्लिम मतों का 91.3 प्रतिशत उसे मिला। बंगाल, सिन्ध, पंजाब छोड़कर सभी प्रान्तीय असेम्बलियों में उसे पूर्ण बहुमत मिला।
लेकिन मुस्लिम सीटों पर लीग की विजय भी उतनी ही शानदार थी। केन्द्र में आरक्षित सभी तीस मुस्लिम सीटें उसने (86.6 प्रतिशत मतों के साथ) और प्रान्तों की 509 में से 442 मुस्लिम सीटें उसने जीत ली थीं। जाहिर है कि 1937 के एकदम उलट, लीग ने इस बार स्पष्टत: अपने को मुसलमानों की प्रमुख पार्टी कहलाने का औचित्य हासिल कर लिया था और पाकिस्तान की उसकी माँग को भी इससे काफी मजबूती मिल गयी थी। यह कांग्रेस द्वारा सीमित मताधिकार आधारित चुनाव और समझौता-वार्ताओं के रास्ते आजादी की दिशा में आगे बढ़ने की तार्किक परिणति थी। यह याद रखना होगा कि मुख्यत: सम्पत्तिा के आधार पर निर्धारित 11.5 प्रतिशत लोगों के निर्वाचक मण्डल ने ही (यानी धनी मुसलमानों के एक छोटे हिस्से ने ही) मुस्लिम लीग को ''मुसलमानों की प्रतिनिधि पार्टी'' कहलाने और पाकिस्तान की माँग का अधिकार दिया था। बहुसंख्यक आम मुसलमान आबादी की आवाज को यहाँ स्थान ही नहीं मिला था। और 1945-46 के जनसंघर्षों और विगत तीन दशकों के किसानों-मजदूरों के सभी संघर्षों के अनुभवों ने सिध्द कर दिया था कि बहुसंख्यक आम मेहनतकश और निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम आबादी साम्प्रदायिक आधार पर बँटवारे की हिमायती कतई नहीं थी। उन्होंने सिध्द कर दिया था कि यदि राष्ट्रीय मुक्ति का रास्ता जुझारू जनसंघर्ष का रास्ता हो तो भीषण साम्प्रदायिक दंगे और विभाजन भारतीय इतिहास के काले अधयाय के रूप में हमारे सामने नहीं होते।
चुनावों में हुए साम्प्रदायिक मतदान के बोलबाले ने लीग के दावों, भारत-विभाजन की उपनिवेशवादी साजिशों और आने वाले दिनों के अभूतपूर्व नरसंहार और विस्थापन के लिए जमीन तैयार करने में अहम भूमिका निभायी और यहाँ से एक ऐसी गति आगे बढ़ी, जिसे कांग्रेसी नेतृत्व चाहते हुए भी नियन्त्रित नहीं कर सकता था।
लीग को पर्याप्त प्रगति के बावजूद पंजाब में स्पष्ट बहुमत नहीं मिल सका था। असम और पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त (जिन्हें पाकिस्तान के लिए माँगा जा रहा था) में भी कांग्रेस ने अच्छा बहुमत हासिल कर लिया था। बंगाल और सिन्ध में लीग की सरकारें बनीं, लेकिन वे ब्रिटिश सत्ता और यूरोपीयों के समर्थन की मोहताज थीं।
कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस द्वारा सार्विक मताधिकार की माँग त्यागने का मुद्दा बनाकर आन्दोलन की राह चुनने के बजाय (वस्तुत: वह इसके लिए तैयार नहीं थी और 1945-46 के शरद-शीत के जनसंघर्षों ने उसकी इस कमजोरी को साफ कर दिया था) सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा की माँग, राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार, आमूलगामी भूमि सुधार, उद्योगों के राष्ट्रीयकरण और बड़े कारखानों पर मजदूरों के नियन्त्रण को अपने चुनाव घोषणापत्र के प्रमुख मुद्दे बनाते हुए चुनावों में भागीदारी की। मुख्यत: सम्पत्ति के आधार पर 11.5 प्रतिशत आबादी का जो निर्वाचक-मण्डल बना था, उसे देखते हुए कम्युनिस्ट पार्टी बेहतर नतीजों की उम्मीद कर ही नहीं सकती थी। फिर भी उसने बंगाल की प्रान्तीय असेम्बली में 3 तथा बम्बई और मद्रास की प्रान्तीय असेम्बलियों में 2-2 सीटें हासिल की थीं। महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि अनेक प्रान्तों में कम्युनिस्ट कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरे थे। लेकिन पार्टी की कमजोरी का सबसे जीता-जागता उदाहरण यह तथ्य है कि नवम्बर '45 से फरवरी '46 की घटनाओं के बाद ही, पार्टी महासचिव पी.सी. जोशी ने अपने चुनावी परचे में, ''अपनी साझी लज्जा के विरुध्द और साझे गौरव के लिए, कांग्रेस-लीग-कम्युनिस्टों का संयुक्त मोर्चा'' बनाने की भावनात्मक अपील की थी।
जून 1946 तक कैबिनेट मिशन और वायसराय के साथ कांग्रेस और लीग के नेताओं की वार्ताओं के लम्बे सिलसिले में दो ही अहम मुद्दे थे : एक केन्द्र में अन्तरिम सरकार का गठन और दूसरा, संविधान सभा का गठन तथा संविधान निर्माण की प्रक्रिया। इस बीच 17 अप्रैल को पी.सी. जोशी ने भी कैबिनेट मिशन से मुलाकात की और सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के चुनाव की अपनी माँग पर बल दिया। इस समय तक कांग्रेस सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा चुनने की अपनी दो दशक पुरानी माँग को चुपचाप निगलकर चुप्पी मार चुकी थी और लीग का तो पहले से ही इस पर जोर नहीं था। लीग के नेता यह जानते थे कि यह माँग यदि मान ली जायेगी तो लीग की स्थिति बेहद कमजोर हो जायेगी और पाकिस्तान बन पाना असम्भव हो जायेगा। कांग्रेस के नेता सत्ता पाने के लिए हड़बड़ी में थे और अब वे उस प्रकार के किसी 'पैसिव' जनान्दोलन के लिए भी कतई तैयार नहीं थे ('42 जैसे जनसंघर्ष की तो बात ही छोड़ दें) जैसा कांग्रेस अतीत में करती रही थी, क्योंकि उन्हें आन्दोलन की कमान हाथ से निकल जाने का भय था और सामाजिक व्यवस्था में किसी भी कीमत पर ऐसे किसी उथल-पुथल का जोखिम मोल लेने के लिए वे तैयार नहीं थे, जो देशी बुर्जुआ हितों के लिए खतरा पैदा कर सकता हो। अप्रैल के महीने में मलाबार, अण्डमान द्वीप समूह ढाका, बिहार और दिल्ली में पुलिस हड़तालें हुईं, गर्मी भर अखिल भारतीय रेल हड़ताल के अल्टीमेटम दिये जाते रहे, जुलाई में डाक कर्मचारियों की देशव्यापी हड़ताल हुई और 16 अगस्त के साम्प्रदायिक नरसंहार से 18 दिन पहले 29 जुलाई को कम्युनिस्टों के नेतृत्व में कलकत्ता में डाककर्मियों के समर्थन में पूर्णत: शान्तिपूर्ण और जबर्दस्त एकताबद्ध बन्द आयोजित हुआ (हालाँकि कम्युनिस्ट पहले की ही भाँति इन आन्दोलनों को जोड़कर अखिल भारतीय जन-उभार की कड़ी और सीढ़ी नहीं बना पाये)। इस समय कांग्रेसी नेतृत्व प्रान्तों में सरकारें चलाने और कैबिनेट कमीशन से सौदेबाजी में व्यस्त तो था ही, इन जनान्दोलनों के प्रति हाईकमान का रुख भी एकदम साफ था। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने अगस्त प्रस्ताव में कामगारों की बढ़ती अनुशासनहीनता और कर्तव्यपालन में लापरवाही की भर्त्सना की थी। एक बातचीत के दौरान वेवेल ने तब राहत की साँस ली जब ''नेहरू समझ गये कि रेलकर्मियों की माँगें कितनी नाजायज हैं और उनके आगे झुकना कितना खतरनाक होगा।'' अन्तरिम सरकार में मन्त्री बनने के बाद शरत बोस दिल्ली के बिजली कर्मचारियों की हड़ताल की सम्भावना दीखने पर सेना और अंग्रेज तकनीशियनों को बुलाने को तैयार थे और यह बात वेवेल के लिए राहत देने वाली थी। उस दौर के अंग्रेज राजनीतिज्ञों-नौकरशाहों के प्राइवेट पेपर्स से इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि ब्रिटिश सत्ता जनक्रान्ति की आशंका से कितनी भयभीत थी और कांग्रेसी नेतृत्व पर वह कितना भरोसा करने लगी थी। इस तरह कैबिनेट मिशन योजना और अन्तरिम सरकार की कवायदों के दौरान साम्प्रदायिक दंगों की विनाशलीला, देश के विभाजन और विकृत-विकलांग पूँजीवादी लोकतान्त्रिक गणतन्त्र की स्थापना की जमीन तैयार होती रही।
जिन्ना पाकिस्तान के प्रस्ताव पर अब दृढ़ता से अड़े हुए थे। कांग्रेसी नेताओं के विरोध का स्वर नरम और रुख लचीला होता जा रहा था, क्योंकि सामाजिक उथल-पुथल से भयभीत वे जल्दी से जल्दी सत्ता-हस्तान्तरण चाहते थे। कैबिनेट मिशन ने कांग्रेस और लीग के अन्तरविरोधों का कुशलता से लाभ उठाया। 16 मई '46 को उसने एक दीर्घावधि योजना प्रकाशित की जिसमें विभाजन के विचार को खुले तौर पर न रखते हुए भी, अविभाजित, भावी स्वाधीन भारत में हिन्दू बहुसंख्या द्वारा मुस्लिम अल्पसंख्या को आत्मसात कर लेने के खतरे की ओर इशारा करते हुए एक ऐसा संघात्मक, ढीला-ढाला, तीन स्तरों वाला ढाँचा प्रस्तावित किया गया था जिसमें बँटवारे के बीज मौजूद थे। कैबिनेट मिशन का प्रस्ताव इस प्रकार था :
(1) भारत का 'डोमिनियन' राज्य प्रान्तों और देशी रियासतों का एक ढीला-ढाला संघ होगा जिन्हें व्यापकतम स्वायत्तता हासिल होगी, केन्द्र का नियन्त्रण केवल विदेश विभाग, प्रतिरक्षा और संचार-साधनों पर होगा।
(2) ब्रिटिश भारत के प्रान्त तीन मण्डलों में बाँट दिये जायेंगे : हिन्दू-बहुल प्रान्तों के लिए मण्डल 'अ' होगा तथा उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी मुस्लिम-बहुल प्रान्तों (असम सहित) के लिए क्रमश: मण्डल 'ब' और मण्डल 'स' होंगे। इन मण्डलों को अपने स्वयं की मध्यवर्ती स्तर की विधायिकाएँ और कार्यकारिणियाँ बनाने का अधिकार होगा।
(3) एक संविधान सभा गठित की जायेगी, जिसमें प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा निर्वाचित और देशी रियासतों के शासकों द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि होंगे। यह संविधान सभा पूरे भारत के लिए संविधान तैयार करने के बाद ऊपर उल्लिखित तीन मण्डलों के हिसाब से तीन विभागों में बँट जायेगी, जिनमें सम्बद्ध प्रान्तों के प्रतिनिधि तीन मण्डलों के लिए संविधान बनायेंगे।
(4) संविधान सभा का चुनाव प्रान्तीय असेम्बलियों द्वारा तीन निर्वाचक मण्डलों - हिन्दू, मुस्लिम और सिख - के आधार पर (दस लाख की आबादी पर एक प्रतिनिधि) होगा।
(5) प्रान्त, मण्डल और संघ - तीनों स्तरों पर संविधान-निर्माण की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद प्रान्तों को किसी एक मण्डल-विशेष से बाहर जाने का अधिकार होगा, लेकिन संघ से अलग होने का अधिकार नहीं होगा। उन्हें दस वर्षों के अन्तराल पर संविधान पर पुनर्विचार का भी अधिकार होगा।
(6) संविधान-निर्माण की प्रक्रिया पूरी होने और नये संविधान के लागू होने तक रोजमर्रा के प्रशासकीय कामों की जिम्मेदारी एक अन्तरिम सरकार की होगी।
मिशन के सदस्य पेथिक-लॉरेंस ने यह भी घोषित किया कि अन्तिम उद्देश्य भारत को स्वाधीनता प्रदान करना है, यह स्वाधीनता ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के अन्तर्गत होगी या उसके बिना होगी, यह भारतीय जन अपनी स्वतन्त्र इच्छा से तय करेंगे। पहली बार, खुले शब्दों में स्वाधीनता देने की मंशा की इस घोषणा के पीछे उस समय की विस्फोटक परिस्थितियाँ थीं।
(अगले अंक में : अन्तरिम सरकार और संविधान सभा, साम्प्रदायिक विनाश-लीला, तेभागा-तेलंगाना, पुनप्रा-वायलार, माउण्टबेटन योजना, विभाजन और आजादी)
(अगले अंक में : अन्तरिम सरकार और संविधान सभा, साम्प्रदायिक विनाश-लीला, तेभागा-तेलंगाना, पुनप्रा-वायलार, माउण्टबेटन योजना, विभाजन और आजादी)
आलोक रंजन
2 कमेंट:
अच्छी श्रंखला!
bhartiya sanwidhan kis tarah poonji ki sewa mein salangn hai
jankar accha laga
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