हमारे इस ''शाइनिंग इण्डिया'' की एक वीभत्स तस्वीर यह भी है कि जिनकी ऑंखों में कल का सपना होना चाहिए, वे केवल भोजन की आस में ही दम तोड़ रहे हैं। इस देश के एक हिस्से में भूख के कारण वयस्क ही नहीं बच्चों की भी जानें जा रही हैं, तो दूसरे हिस्से में गोदामों में रखा अनाज सड़ रहा है और सरकारों के लिए समस्या यह है कि गेहूँ की नयी आमद का भण्डार कहाँ करे! उन्हें भूख से होती मौतों की इतनी चिन्ता नहीं है, जितना वे मालिकों के मुनाफे पर चोट पहुँचने से परेशान हैं।
पिछले दिनों उड़ीसा के बलाँगीर जिले में भयंकर पैमाने पर फैली भुखमरी के बारे में एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले इस एक जिले में रोज छह वर्ष की उम्र तक के 4 बच्चों की मौत हो रही है। 2006 में इस आयु-वर्ग के बच्चों की मृत्यु दर 1,000 पर 48 थी, जोकि 2009 में बढ़कर 51 हो गयी। साफ देखा जा सकता है कि सरकार द्वारा गरीबी उन्मूलन और भुखमरी खत्म करने के लिए चलाये जा रहे तथाकथित अभियानों से गरीबों को क्या फायदा मिल रहा है! यह आलम तब है जब उड़ीसा सरकार द्वारा गरीबी रेखा के नीचे की आबादी के लिए 2 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से प्रति व्यक्ति प्रति महीना 25 किलोग्राम चावल देने की घोषणा की गयी थी।
इस जिले के लोग भयंकर रूप से कुपोषण का शिकार हैं। वे भोजन की कमी के कारण टी.बी., शुगर, दस्त, अल्सर आदि पेट से सम्बन्धित बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। इलाज के लिए पैसे जुटाने के लिए उन्हें रियायती दरों पर मिलने वाले अनाज को बेचना भी पड़ता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि गरीबी से मुक्ति के बिना लोगों लिए रियायती दरों पर अनाज की स्कीमों का वास्तव में कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
वैसे, यह गरीबी रेखा और गरीबों का मजाक उड़ाना ही है कि एक तरफ सरकार के हिसाब से तय की गयी गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाली बड़ी आबादी इस रियायती अनाज से वंचित है, तो दूसरी तरफ यह रियायती अनाज अघोषित ''गरीबी रेखा के ऊपर'' कार्यक्रम के तहत मन्त्रियों, अफसरों, अधिकारियों आदि को बाँटा जा रहा है।
उपरोक्त रिपोर्ट जब अखबारों में प्रकाशित हुई थी, उसी समय पंजाब के अखबारों में एक अन्य समस्या पर खबरें आ रही थीं। पंजाब में इस वर्ष के गेहूँ की सरकारी खरीद शुरू होने वाली है। और पंजाब सरकार के लिए यह चिन्ता का विषय है कि जब पहले से ही पिछले वर्षों का अनाज गोदामों में पड़ा सड़ रहा है, बर्बाद हो रहा है तो इस नये गेहूँ को कहाँ सँभाला जायेगा।
पंजाब में पिछले तीन वर्षों में खुले में पड़ा 16,500 टन अनाज सड़ गया। जहाँ देश में एक तरफ लोगों को अनाज नहीं मिल रहा है, वहीं देश के एक प्रान्त की सरकार को इस वर्ष पिछले वर्ष से भी अधिक गेहूँ पैदा होने का डर सता रहा है। लोग अब पंजाब सरकार को अनाज भण्डारण के लिए और गोदाम बनाने की सलाह दे रहे हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि अनाज को सँभालने के लिए सही इन्तजाम होने चाहिए। लेकिन मूल प्रश्न तो यह है कि देश में एक तरफ अनाज की बहुलता की समस्या है, तो दूसरी तरफ लोग भूख से क्यों मर रहे हैं। इस सवाल का जवाब अधिकतर लोग यही देंगे कि सरकारों की नालायकी, लापरवाही के चलते ही ऐसा हो रहा है। वे कहेंगे कि अगर सरकारें सही ढंग से काम करें तो यह स्थिति पैदा नहीं होगी। लेकिन समस्या के मूल में सरकारों की नालायकी, लापरवाही या सही ढंग से काम न करना नहीं है; इसके मूल में है यह पूँजीवादी व्यवस्था, जो मुनाफे पर टिकी है।
हमारे देश में हर चीज की पैदावार की तरह अनाज की पैदावार भी मुनाफे के लिए होती है। सरकारें इस मुनाफाखोर व्यवस्था को हर हाल में बचाने और मजबूत बनाने के सिवा और कुछ नहीं करतीं।
ऐसे में सरकार गरीबों को रियायती दरों पर अनाज बाँटने का कुछ ढोंग तो कर सकती हैं, लेकिन अगर सारा अनाज ही गरीबों में इस तरह बाँट दिया गया तो उनकी पूँजीवादी व्यवस्था कैसे चलेगी?
बिगुल संवाददाता
(बिगुल के मार्च-अप्रैल 2010 अंक में प्रकाशित)
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