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28.9.09

भगतसिंह के जन्मदिवस (28 सितम्बर) के अवसर पर -- क्या है क्रान्ति

क्रान्ति से हमारा अभिप्राय है - अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।

समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूँजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने-भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुन्दर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर ही अपनी जीवन-लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूँजीपति जरा-जरा-सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।

यह भयानक असमानता और जबर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियाँ मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं।

आमूल परिवर्तन की आवश्यकता

सभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते संभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है, और तब तक युध्दों को समाप्त कर विश्व-शान्ति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्रान्ति से हमारा मतलब अन्ततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा। और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व-संघ पीड़ित मानवता को पूँजीवाद के बन्‍धनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।

सामयिक चेतावनी

यह है हमारा आदर्श। और इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर हमने एक सही तथा पुरजोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्‍यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन-व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज न आयी तो क्रान्ति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंदकर आगे बढ़ते हुए उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा वर्ग के अधिनायकतंत्र की स्थापना होगी। यह अधिनायकतन्त्र क्रान्ति के आदर्शों की पूर्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। क्रान्ति मानवजाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। मज़दूर वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है, जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना मज़दूर वर्ग का अन्तिम लक्ष्य है। इन आदर्शों के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दण्ड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रान्ति की इस पूजा-वेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं, क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है। हम सन्तुष्ट हैं और क्रान्ति के आगमन की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं।

इन्कलाब जिन्दाबाद!

('बम काण्ड पर सेशन कोर्ट में बयान' से)

'बिगुल' के सितम्‍बर अंक में प्रकाशित

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25.9.09

गोरखपुर में मज़दूर आंदोलन की जीत -- संयुक्‍त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा की ओर से धन्‍यवाद ज्ञापन

प्रिय साथियो,

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर गोरखपुर में चल रहे मज़दूर आंदोलन में आपकी दिलचस्‍पी और समर्थन के लिए हम इस पूरे इलाके के मज़दूरों की ओर से आपको धन्‍यवाद देना चाहते हैं। 52 दिनों तक चले हमारे आंदोलन के बाद कल शाम हमें जीत मिली। ज़ि‍लाधिकारी और उपश्रमायुक्‍त की मौजूदगी में हुए समझौते के तहत मॉडर्न लैमिनेटर्स लि. और माडर्न पैकेजिंग लि. के मालिकान 15 दिनों के अंदर न्‍यूनतम मज़दूरी, जॉब कार्ड व पे स्लिप देने, काम के घंटे कम करने, ई.एस.आई. आदि मज़दूरों की अधिकांश माँगों को लागू करेंगे। इस बीच दोनों फैक्ट्रियों में श्रम कानूनों के पालन पर नज़र रखने के लिए दो लेबर इंस्‍पेक्‍टर वहाँ तैनात रहेंगे। यदि इस अवधि में इन माँगों को लागू करने में हीला-हवाली होगी तो 15 दिन के बाद ज़ि‍लाधिकारी की अध्‍यक्षता में दुबारा वार्ता होगी।

हालांकि ऐसे संकेत अभी से मिल रहे हैं कि मालिकान इतनी आसानी से समझौते को लागू नहीं करेंगे और मज़दूरों को कदम-कदम पर लड़ना होगा। समझौते की अगली सुबह यानी आज ही फैक्‍ट्री गेट पर मालिकों की तरफ से लगे नोटिस में आंदोलन में अगुवा भूमिका निभाने वाले 18 मज़दूरों को ''बाहरी'' घोषित कर दिया गया और सैकड़ों मज़दूरों के ज़बर्दस्‍त विरोध प्रदर्शन के बाद ही उन्‍हें काम पर लिया गया। इसके बाद मैनेजमेंट ठेके पर काम करने वाले करीब 500 मज़दूरों को काम पर लेने से इंकार करने लगा। मज़दूरों के विरोध के बाद फैक्‍ट्री में पहुंचे उपश्रमायुक्‍त का घेराव करने के बाद जाकर उन्‍हें वापस लेने पर सहमति बनी।

हमारे आंदोलन के दौरान इसे बदनाम करने, मज़दूरों और मज़दूर नेताओं को डराने-धमकाने, फ़र्ज़ी मुकदमों में फँसाने की कोशिशों से लेकर मज़दूरों को थकाकर आंदोलन तोड़ने के लिए हर तरह के ह‍थकंडे अपनाए गए। इसने एक बार फिर यह दर्शा दिया कि देश के पिछड़े क्षेत्रों में जनवादी अधिकारों की क्‍या हालत है, खासकर मज़दूरों से जुड़े मसलों पर। मालिकान, प्रशासन और स्‍थानीय नेताओं के गँठजोड़ ने एकदम न्‍यायसंगत और कानूनसम्‍मत आंदोलन को भी तोड़ने के लिए जिस तरह का अर्द्धफ़ासिस्‍ट रुख अपनाया उसके ख़ि‍लाफ़ जनमत तैयार करने में गोरखपुर शहर और देश भर से विभिन्‍न संगठनों, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों द्वारा प्रधानमंत्री, मुख्‍यमंत्री और ज़ि‍ला प्रशासन के नाम भेजे गए विरोधपत्रों, ज्ञापनों और बयानों की अहम भूमिका रही। इस समर्थन और सहयोग के लिए संयुक्‍त मज़दूर अधिकार संघर्ष समिति सभी आंदोलनरत मज़दूरों की ओर से आपको हार्दिक धन्‍यवाद देती है।

यहीं हम यह भी बताना चाहते हैं कि मज़दूरों की यह जीत आंशिक ही है। मज़दूरों की जुझारू एकजुटता और जनमत के चौतरफा दबाव में मालिकान ने थोड़ा समय लेने के लिए अभी समझौता कर लिया है, लेकिन विरोध का माहौल ठंडा होने पर वे इन्‍हें लागू करने से फिर मुकर सकते हैं और प्रशासन की मदद से अगुआ मज़दूरों को उत्‍पीड़न का शिकार बना सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो हम फिर आपको आवाज़ देंगे और आपको एक बार फिर हमारे साथ खड़ा होना होगा।

- संग्रामी अभिवादन के साथ,

संयुक्‍त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा

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23.9.09

गोरखपुर में एक शांतिपूर्ण, न्‍यायसंगत मज़दूर आंदोलन को ''माओवादी आंतकवाद'' का ठप्‍पा लगाकर कुचलने की साज़ि‍श का विरोध करें!

प्रिय पाठको,

हम यहाँ पूर्वी उत्तर प्रदेश में स्थित गोरखपुर के दो कारख़ानों के आंदोलनरत मज़दूरों की ओर से जारी एक अपील प्रस्‍तुत कर रहे हैं। अगस्‍त के पहले सप्‍ताह से 1000 से ज़्यादा मज़दूर न्‍यूनतम मज़दूरी, सुरक्षा के बुनियादी इंतज़ाम, जॉब कार्ड, ई.एस.आई. जैसी मूलभूत मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं लेकिन उद्योगपतियों, प्रशासन और स्‍थानीय भाजपा सांसद योगी आदित्‍यनाथ सहित राजनीतिज्ञों के एक हिस्‍से ने उनके ख़ि‍लाफ़ गँठजोड़ बना लिया है। इन लोगों ने मीडिया की मदद से मज़दूर आंदोलन के विरुद्ध कुत्‍साप्रचार अभियान छेड़ दिया है और मज़दूर नेताओं को ''माओवादी आतंकवादी'' और मज़दूर आंदोलन को पूर्वी उत्तर प्रदेश में अस्थिरता फैलाने की ''आतंकवादी साज़ि‍श'' कहकर बदनाम करने की कोशिश की जा रही है। भाजपा सांसद मज़दूर आंदोलन में चर्च के शामिल होने का आरोप लगाकर इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों में भी जुट गए हैं!

ये शक्तियाँ गोरखपुर में उभरते मज़दूर आंदोलन को अपने लिए एक गंभीर चुनौती के रूप में देख रही हैं क्‍योंकि यह एक-एक कारख़ाने में सीमित परंपरागत मज़दूर आंदोलन से भिन्‍न है जिसे अलग-थलग करके तोड़ देना उनके लिए आसान होता था। पूरे बरगदवा औद्योगिक इलाके के मज़दूरों ने आंदोलन कर रहे मज़दूरों को हर तरह से समर्थन देकर एकजुटता की शानदार मिसाल पेश की है। वर्तमान आंदोलन के पहले, इस इलाके के तीन अन्‍य कारख़ानों के मज़दूरों ने एकजुट होकर लड़ाई लड़ी थी और न्‍यूनतम मज़दूरी, काम के घंटे कम करने, जॉब कार्ड, ई.एस.आई. जैसी माँगें मनवाने में मज़दूर कामयाब रहे थे। (अब मालिकान-प्रशासन-नेताशाही के आक्रामक गँठजोड़ के चलते इन फैक्ट्रियों के मालिक भी मानी हुई माँगों को लागू करने से मुकर रहे हैं।) हाल ही में सात कारख़ानों के मज़दूरों ने आंदोलन के समर्थन में एक विशाल प्रदर्शन किया था।

प्रशासन इस आंदोलन को कुचलने के लिए नेताओं को झूठे मामलों में फँसाने के लिए सारे हथकंडे आज़मा रहा है। कुछ पुलिस अफ़सरों की ओर से सीधे धमकियाँ दी जा रही हैं कि कुछ नेताओं को ''आतंकवादी'' बताकर एन्‍काउंटर कर दिया जाएगा और कुछ को जिलाबदर कर दिया जाएगा। फैक्‍ट्री मालिकों के गुंडे मज़दूरों को ''सबक सिखाने'' के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

विस्‍तार से जानने के लिए आंदोलन का संचालन कर रहे संयुक्‍त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा की ओर से जारी अपील को पढ़ें। इस आंदोलन से संबंधित ख़बरें और उद्योगपतियों एवं भाजपा सांसद के बयान देखने के लिए यहाँ क्लिक करें। मज़दूरों को आपके सहयोग की ज़रूरत है। कृपया प्रशासन पर दबाव डालने के लिए उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री और गोरखपुर के ज़ि‍लाधिकारी के नाम विरोध पत्र और ज्ञापन भेजें तथा उनकी प्रतियाँ श्रम मंत्री, श्रम सचिव, राज्‍यपाल और गोरखपुर के उपश्रमायुक्‍त को भी भेजें। फैक्‍स/फोन नंबरों, पतों और ईमेल पतों की सूची के लिए यहाँ क्लिक करें।

''माओवाद'' का ठप्पा लगाकर गोरखपुर में चल रहे मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के प्रयासों की निन्दा तथा प्रदेश सरकार से हस्तक्षेप के लिए उत्तर प्रदेश की मुख्‍यमंत्री से अपील

गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन के समर्थक नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता, छात्र एवं बुद्धिजीवी की प्रधानमंत्री के नाम अपील

संयुक्‍त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा की अपील गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन के खिलाफ मालिकों और प्रशासन का साज़िशाना कुत्सा-प्रचार अभियान : झूठ और अफवाहों के काले पर्दे से ढँक दी गयी सच्चाइयाँ हमारी अपील - मज़दूरों की बात सुनो! इंसाफ की आवाज़ सुनो!!



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18.9.09

बरगदवा, गोरखपुर में दो कारखानों के मज़दूरों का डेढ़ माह से जारी जुझारू आन्दोलन निर्णायक मुकाम पर

बिगुल संवाददाता

गोरखपुर के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र में स्थित मॉडर्न लेमिनेटर्स लि. और मॉडर्न पैकेजिंग लि. के करीब एक हजार मज़दूरों का डेढ़ महीने से जारी आन्दोलन अब निर्णायक मुकाम पर पहुँच गया है। गत तीन अगस्त को उपश्रमायुक्त को माँगपत्रक देने से इस आन्दोलन की शुरुआत हुई थी।

मालिकों और श्रम विभाग की मिलीभगत और ज़िला प्रशासन की शह से जारी टालमटोल के चलते मालिकान डेढ़ महीने से वार्ताओं के बहाने इसे लटकाये हुए हैं। इस बीच मज़दूरों को डराने-धमकाने-ललचाने और आन्दोलन के नेतृत्व में अगुआ भूमिका निभा रहे बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं को आतंकित करने की तमाम कोशिशों के बावजूद मज़दूर न सिर्फ एकजुट रहे हैं बल्कि आन्दोलन का तेवर और जुझारू हो गया है।

एक महीने से जारी वार्ताओं में मालिकों के टालमटोली रवैये और श्रम विभाग के पक्षपात के विरोध में मज़दूरों ने 11 सितम्बर को जिलाधिकारी कार्यालय पर ज़ोरदार प्रदर्शन करके क्रमिक अनशन शुरू कर दिया। दोनों कारखानों के सैकड़ों मज़दूर धरने पर बैठ गये। मज़दूरों के जुझारू तेवर से घबराये ज़िला प्रशासन के अधिकारियों ने देर रात अनशन स्थल पर पहुँचकर मज़दूरों के सामने उपश्रमायुक्त को बुलाकर आश्वासन दिया कि 12 सितम्बर की सुबह मालिक की मौजूदगी में एसडीएम के सामने वार्ता कराकर समझौता कराया जायेगा। इसके बाद मज़दूरों ने अगले दिन तक अपना अनशन व धरना सशर्त स्थगित कर दिया।

लेकिन इससे पहले प्रशासन ने मज़दूरों और उनके नेताओं को डराने की पूरी कोशिश की। रात करीब 9 बजे धरना स्थल पर पहुँचे एस.डी.एम. ने पुलिस बुला ली और संघर्ष समिति के अगुआ सदस्य तथा बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ता प्रशान्त को गिरफ्तार करवा दिया। प्रशान्त ने जब कहा कि मैं ख़ुद आपके साथ थाने चल रहा हूँ तो एस.पी. महोदय ने उद्दण्डता से कहा कि ''तुझे तो मैं घसीटकर ले जाऊँगा।'' हालाँकि मज़दूरों के तीखे तेवर देखकर वे शान्त हो गये और चुपचाप प्रशान्त को थाने भेज दिया गया। लेकिन कुछ ही देर बाद मौके पर पहुँचे एस.एस.पी. के आदेश से पुलिस को प्रशान्त को वापस लेकर आना पड़ा।

जिला प्रशासन के दबाव डालने पर मालिक पवन बथवाल और किशन बथवाल 12 सितम्बर को एस.डी.एम. के समक्ष वार्ता के लिए पहुँचे लेकिन ''बाहरी लोगों'' यानी बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं को वार्ता में शामिल नहीं करने पर अड़ गये। प्रशासन की ओर से पाँच अगुआ मज़दूरों को वार्ता के लिए बुलाया गया लेकिन उन मज़दूरों ने भीतर जाते ही ऐलान कर दिया कि 'बिगुल' के साथियों के बिना वार्ता नहीं होगी। मज़दूरों के अड़ जाने पर एस.डी.एम. ने 'बिगुल मज़दूर दस्ता' के तपीश मैंदोला और प्रशान्त को भी बुला लिया। काफी हील-हुज्जत के बाद दोनों मालिक न्यूनतम मज़दूरी के बराबर रेट से भुगतान करने के लिए तैयार हो गये। एसडीएम द्वारा डी.एल.सी. के सामने लिखित समझौता करने का निर्देश देने के बाद मज़दूर राज़ी हुए कि 13 सितम्बर से काम पर लौट आयेंगे। लेकिन डी.एल.सी. कार्यालय में मालिक के प्रतिनिधि फिर अपनी बात से पलट गये और न्यूनतम मज़दूरी देने से साफ इंकार कर दिया। अख़बार प्रेस में जाने तक वार्ता टूट चुकी थी और मज़दूर फिर से जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना और अनशन शुरू करने की तैयारी कर रहे थे।

आन्दोलन के इन डेढ़ महीनों के दौरान मालिकों ने मामले को लम्बा खींचकर मज़दूरों को थका डालने के लिए हर हथकण्डे अपनाये।

12 अगस्त की पहली वार्ता में मालिकों की ओर से मैनेजमेण्ट का कोई प्रतिनिधि आने के बजाय उनका वकील आया। फिर 21 अगस्त को वार्ता तय हुई। इससे पहले 18-19 की रात को मालिकों ने 2 लूम खुलवाकर फैक्ट्री से बाहर भिजवा दिये और प्रचार करवाया कि फैक्ट्री बन्द होने वाली है। लेकिन इससे डरने की बजाय मज़दूरों ने पूरी घटना की लिखित शिकायत डी.एल.सी. कार्यालय में की।

21 अगस्त की वार्ता में भी मैनेजमेण्ट का कोई व्यक्ति नहीं आया। 22 अगस्त को मालिक ने यह कहकर अघोषित तालाबन्दी कर दी कि जिसे न्यूनतम मज़दूरी चाहिए वह फैक्ट्री से बाहर रहे। इस पर सभी मज़दूरों ने काम बन्द कर दिया और फैक्ट्री से बाहर आ गये। 23 अगस्त को वार्ता में मालिक की ओर से उसके श्रम सलाहकार ने कहा कि फैक्ट्री चले या न चले, मालिक न्यूनतम दर से मज़दूरी नहीं देगा, मीटर रेट ही चलेगा। 25 अगस्त की वार्ता में मज़दूरों ने कहा कि वे फिलहाल मीटर रेट से मज़दूरी लेने को तैयार हो सकते हैं बशर्ते मीटर रेट की गणना सही तरीके से की जाये। इस पर प्रोडक्शन के ऑंकड़े लेकर आने की बात कहकर श्रम सलाहकार ने फिर 2 सितम्बर तक का समय ले लिया।

2 सितम्बर को मैनेजमेण्‍ट की ओर से श्रम सलाहकार जो ऑंकड़े लेकर आया वे एकदम फर्ज़ी थे और मज़दूर प्रतिनिधियों ने कुछ ही सवालों में उसकी पोल खोल दी। इसके बाद 5 सितम्बर और 8 सितम्बर की वार्ताओं में भी यही कहानी दोहरायी गयी। मज़दूरों ने जब प्रति लूम प्रोडक्शन के ऑंकड़े माँगे तो मालिक ने साफ झूठ बुलवा दिया कि ऐसे ऑंकड़े कम्प्यूटर से रोज़ हटा दिये जाते हैं और उनके पास कोई रिकार्ड नहीं है।

इस बीच वार्ताओं के समानान्तर मज़दूरों ने सड़कों पर जुझारू प्रदर्शन और अपनी न्यायोचित माँगों के जनता के बीच प्रचार का काम जारी रखा। 27 अगस्त से 5 सितम्बर के बीच उन्होंने बरगदवा क्षेत्र में तीन बड़े जुलूस निकाले और इलाके के सभी कारखानों के सामने से गुज़रते हुए अपनी बात हज़ारों मज़दूरों तक पहुँचायी। 7 सितम्बर को सैकड़ों मज़दूर जुलूस की शक्ल में गोरखपुर से मोहद्दीपुर इलाके में पहुँचे जहाँ मालिकों की विशाल कोठी स्थित है। करीब 5 घण्टे तक मज़दूरों ने बारिश में भीगते हुए पूरे इलाके में नारेबाज़ी और नुक्कड़ सभाएँ करके अपनी माँगों और आक्रोश से स्थानीय आबादी को परिचित कराया। इस बीच 6 सितम्बर से ही मज़दूरों ने आसपास के गाँवों से आटा, दाल, आलू, कण्डा आदि इकट्ठा करके फैक्ट्री के गेट पर सामूहिक भोजनालय शुरू कर दिया जिसमें पहले दिन 350 और दूसरे दिन करीब 400 मज़दूरों ने भोजन किया और लगातार गेट पर ही जमे रहे।

8 सितम्बर की वार्ता के दिन सैकड़ों मज़दूरों ने फिर जिलाधिकारी कार्यालय पर पहुँचकर धरना दिया और 9 सितम्बर को पुलिस को चकमा देते हुए शहर की विभिन्न सड़कों पर जुलूस निकालकर प्रशासन और मैनेजमेण्‍ट के खिलाफ जमकर नारे लगाये।

इस बीच एक सितम्बर को शहर के बुद्धिजीवियों के एक प्रतिनिधिमण्डल ने ज़िलाधिकारी से मिलकर उन्हें दोनों कारखानों में मज़दूरों की बुरी स्थिति की जानकारी दी तथा इस मामले में हस्तक्षेप करके जल्दी समाधान कराने की माँग की। प्रतिनिधिमण्डल में वरिष्ठ पत्रकार गिरिजेश राय, कथाकार मदनमोहन, वरिष्ठ राजनीतिक कार्यकर्ता फतेहबहादुर सिंह और फिल्मकार प्रदीप सुविज्ञ शामिल थे।

10 सितम्बर की वार्ता में मालिकों का वकील एक बार फिर फर्ज़ी ऑंकड़ों का पुलिन्दा लेकर आ गया। ऑंकड़े इस कदर झूठे थे कि जब मज़दूर प्रतिनिधियों ने उसकी एक प्रति माँगी तो उसने देने से मना कर दिया। यहाँ तक कि डी.एल.सी. के कहने के बावजूद उसने मज़दूरों को ऑंकड़े नोट करने तक का मौका नहीं दिया कि कहीं झूठ का भाँडा न फूट जाये।

इस आन्दोलन ने मालिकों के साथ श्रम विभाग और जिला प्रशासन की मिलीभगत को एकदम नंगा कर दिया है। एक महीने से वार्ताओं का नाटक जारी है लेकिन आज तक किसी भी वार्ता में न मालिक खुद आया और न ही मैनेजमेण्‍ट का कोई वरिष्ठ अधिकारी। तरह-तरह बहानों से सिर्फ तारीख आगे बढ़ायी जाती रही। मालिकों की ओर से एकदम फ़र्जी ऑंकड़े पेश किये जाते रहे और मज़दूरों की तरफ से पेश किये तथ्यों की सीधे अनदेखी की जाती रही। श्रम विभाग या प्रशासन ने बार-बार कहने पर भी एक बार भी फैक्ट्री के हालात का खुद ज़ायज़ा लेने की कोशिश नहीं की। गोरखपुर के तथाकथित जनप्रतिनिधियों का भी मालिकों को वरदहस्त है। इसी के दम पर मालिकान अब तक अड़े हुए हैं। मालिक वार्ता में तो नहीं आते हैं लेकिन मज़दूरों को धौंस में लेने के लिए बातचीत के वास्ते उन्हें अपनी कोठी पर या अपने क्लार्क होटल में आने का बुलावा भेजते रहते हैं।

दूसरी ओर मज़दूर एकदम एकजुट हैं और किसी भी उकसावे में आये बिना धीरज और हौसले के साथ मैदान में डटे हुए हैं। कुछ ही दिन पहले बरगदवा के तीन कारखानों के मज़दूरों की जीत ने उनमें यह भरोसा पैदा किया है कि फौलादी एकजुटता और सूझबूझ के दम पर ही जीत हासिल की जा सकती है। मालिक की अघोषित तालाबन्दी वाले दिन से ही फैक्ट्री गेट पर लगातार 400-500 मज़दूर सुबह-शाम मीटिंग करते हैं। फैक्ट्री में काम करने वाली करीब 25 महिलाएँ पूरे जोश के साथ आन्दोलन के हर कदम में शिरकत कर रही हैं। अपने आन्दोलन से अनेक माँगें मनवाने में कामयाब हुए बरगदाव के तीन कारखानों - अंकुर उद्योग, वी.एन डायर्स धागा मिल एवं कपड़ा मिल के मज़दूर भी अपने संघर्षरत मज़दूर भाइयों के साथ एकजुट हैं और हर मीटिंग, जुलूस और धरने में उनके प्रतिनिधि शामिल होते हैं। मज़दूर आन्दोलन के बिखराव के इस दौर में गोरखपुर के मज़दूरों की यह बढ़ती एकजुटता हर इलाके के मज़दूरों को राह दिखा रही है। अगर मज़दूर अपने बीच पैदा किये गये तरह-तरह के बँटवारों और फूट-बिखराव को दूर करके एकजुट हो गये तो कुछेक आन्दोलनों में तात्कालिक असफलता से भी उनकी हार नहीं होगी। मज़दूरों की व्यापक एकजुटता की ताकत के सामने मालिकों और सरकार को झुकना ही पड़ेगा।


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14.9.09

एक मज़दूर की अन्तरात्मा की आवाज़

मेरे प्यारे गरीब मजदूर-किसान भाइयो एवं साथियो। आज की पूँजीवादी व्यवस्था में आला अफसरों, अधिकारियों, नेताओं, फैक्टरी मालिकों, साहूकारों, पुलिस अफसरों में मजदूरों का दमन करने की होड़ लगी हुई है। कोई भी साधारण से साधारण व्यक्ति जब ऊंचे ओहदे वाला अधिकारी बन जाता है तो वह अपनी नैतिक जिम्मेवारी छोड़कर धनाढ्य बनने का सपना देखने लगता है। उसके पास बंगला-गाड़ी हो, चल-अचल सम्पत्ति की भरमार हो इसलिए जनता को लूटना-खसोटना शुरू कर देता है। नेता लोग गरीबों-दलितों को अपने समर्थन में लेने के लिए बड़े-बड़े वायदे करते हैं। गरीबों के उत्थान, रोजी-रोटी, कपड़ा और मकान का वादा करते हैं। गरीबों और दलितों के समर्थन से जब नेता कुर्सी पा जाते हैं तो गरीबों के ख्वाब ख्वाब ही रह जाते हैं। दलित उत्थान का ख्वाब अधर में ही लटक जाता है। सभी नेताओं का यही हाल है चाहे लालू प्रसाद यादव हो, रामविलास पासवान या यूपी की मुख्यमन्त्री बहन मायावती। यह सभी पूँजीपति का साथ पाकर ही सरकार चलाते हैं। इसलिए शोषित मजदूर साथियो, किसान भाइयो, इनके राजनीतिक खेल को समझो और इनके झूठे वायदों में न आओ। जिस तरह नदी के दो किनारे होते हैं और एक किनारे को पकड़कर ही हमारा जीवन बच सकता है, उसी तरह देश में दो अलग-अलग वर्ग हैं। एक पूँजीपति वर्ग है जो ज़ुल्म, अत्याचार, लूट-खसोट करता है। दूसरी तरफ मजदूर वर्ग है जो समाज की हर चीज पैदा करता है। लेकिन जिसे समाज में कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। हर एक मजदूर सारे मजदूर वर्ग के साथ खड़े होकर ही इन्साफ पा सकता है। यही बात बिगुल अखबार के माध्‍यम से गरीबों, शोषितों, मजदूरों को बतायी जा रही है ताकि उनमें जागृति आये, वे अपने हक के लिए आवाज उठायें। हम आजाद देश के गुलाम हैं। आजादी सिर्फ पूँजीपति वर्ग तक सीमित है, और वह हमारी लूट करता है। वह बल-छल से मजबूत बना हुआ है। यह भस्मासुर है। इसके पास आसुरी शक्तियाँ हैं। इस राक्षस का विनाश करने के लिए हमें एकजुट होना होगा। किसी आदर्शवादी समाजवादी नेता का हाथ पकड़ना होगा जो त्याग, तपस्या, ईमानदारी भरे जीवन से परिपूर्ण हो। ऐसा नेता हमारे लिए एक बूँद खून बहायेगा तो हम उसके लिए दस बूँद ख़ून बहायेंगे। इसलिए शोषित मजदूर भाइयो और ग़रीब किसान भाइयो, अपने बाल-बच्चों, बहन-बेटी को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाकर उनको जागृत करो तथा निडर बनाओ ताकि शोषण, ज़ुल्म के खिलाफ बेहतर जीवन जीने के लिए वे आवाज उठायें।
अमेरिका के मजदूर नेताओं ने मजदूरों के भयंकर शोषण के खिलाफ आवाज उठायी। मजदूरों को 16-18 घण्टे तक काम करता देखकर उन्होंने मजदूरों को संगठित किया। वे मजदूर क्रान्ति के लिए लड़े। उन्होंने हँसते हुए फाँसी का फन्दा चूमा। वे दुनिया के मज़दूरों को सन्देश देकर गये कि दुनिया के मजदूरो एक हो। शहीद भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि वीर नौजवानों ने आजादी के लिए फाँसी का फन्दा चूमा और शोषण और ज़ुल्म के खिलाफ लड़ने का सन्देश दे गये। आज उनके सन्देश को हर मजदूर, देश की समस्त मेहनतकश जनता तक पहुँचाना हमारा फर्ज बनता है। हमें उनका सपना साकार करना है। हमें कुर्बानियाँ देने वाले मजदूर नेताओं के सपने पूरे करने के लक्ष्य को हर मजदूर का लक्ष्य बनाना होगा। कुछ झूठे मजदूर नेता भी हैं जो दुकानदारी चलाते हैं। उनसे सावधान रहना चाहिए। वे धोखेबाज मालिकों के दलाल हैं, उनके चमचे हैं। हमारा कल्याण ईमानदार नेतृत्व से ही हो सकता है।
हमें एकजुट होकर मालिकों, नताओं, आला अफसरों द्वारा हो रहे मज़दूरों के दमन के विरुद्ध, मान-सम्मान की जिन्दगी जीने के अधिकार के लिए संघर्ष करना है। हमें अच्छे नेतृत्व वाले संगठन से जुड़ना होगा। हमें आने वाली पीढ़ी के लिए आजादी हासिल करनी है। एकजुटता से ही हमें आजादी मिल सकती है।

आपका
सिद्धेश्वर यादव
वेल्डर क्रान्तिकारी यूनियन का सदस्य,
फौजी कलोनी, लुधियाना

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10.9.09

रामचरस को इन्साफ कब मिलेगा

रामचरस लगभग 20 वर्ष पहले रोजी-रोटी की तलाश में लुधियाना आया। उत्तर प्रदेश के सन्त कबीर नगर ज़िले के रहने वाले रामचरस की पृष्ठभूमि किसानी से जुड़ी है। थोड़ी बहुत ज़मीन होने के कारण घर का गुज़ारा मुश्किल से चलता था। इसलिए रामचरस की पढ़ाई नहीं हो सकी। जवान होने पर बाकी भाइयों की शादी हो गयी तो थोड़ी सी पुश्तैनी ज़मीन की खेती से सबका गुज़ारा हो पाना कठिन हो गया। इसलिए 18-19 वर्ष की उम्र में ही रामचरस को घर छोड़कर लुधियाना में काम की तलाश में आना पड़ा। यहीं उसके दो भाई रेहड़ी लगाते थे।

रामचरस ने कई कारख़ानों में काम किया। लेकिन पिछले चार वर्षों से वह जे. पी. हैण्डलूम फैक्टरी में काम कर रहा था जो कि महावीर जैन कालोनी में स्थित है। इसका मालिक परबिन्द मित्तल है जोकि शिव सेना हिन्दोस्तान का प्रदेश अध्‍यक्ष भी है और दो बार चुनाव भी लड़ चुका है। जनकपुरी जीरो नम्बर गली में इसकी कोयले की बड़ी दुकान है और लुधियाना के सेक्टर-32 में आलीशान बंगला है।

रामचरस का परिवार उसके साथ ही रहता है। उसके सात बच्चे हैं। चार लड़के और तीन लड़कियाँ। कठोर मेहनत के बाद मुश्किल से परिवार का पेट भरता था। बड़ा लड़का पाँचवीं तक पढ़ने के बाद रेहड़ी लगाकर मूँगफली बेचता है। उससे छोटा 10 वर्ष का लड़का एक होटल में बर्तन साफ करता है। बाकी छोटे बच्चे घर में अपनी माँ के साथ शाल के बम्बल बनाने का काम करते हैं। उससे इतनी कम कमाई होती है कि सारा दिन खटने के बाद मुश्किल से 20 से 50 रुपये ही कमा पाते हैं।

इस परिवार पर पहाड़ तब टूट पड़ा जब वूलन मिल में काम करते समय एक दिन रामचरस की बाईं बाजू डबलिंग मशीन में आ गयी। वजह थी मशीन की शाफ्ट पर एक बोल्ट की ग़ैरज़रूरी लम्बाई जिसे कटवाने के लिए पहले ही मालिक को कह दिया गया था लेकिन उसने ध्‍यान नहीं दिया। आख़िर यह हादसा हो गया। रामचरस मशीन के बीच मदद के लिए छटपटा रहा था। उसकी बाजू कटकर लटक चुकी थी। ख़ून बह रहा था। बाकी कारीगर मालिक को बुलाने के लिए फोन लगा रहे थे क्योंकि वे समझते थे कि मालिक आ जाये तो वही इलाज करवायेगा। अगर न बुलाया गया तो कहीं मुकर ही न जाये। 10 मिनट बाद उसे मशीन से अलग किया गया। मालिक के आने पर एक घण्टे बाद उसे सिविल अस्पताल पहुँचाया गया। इस समय तक रामचरस बेहोश हो चुका था। जब होश आया तो मालिक परबिन्द मित्तल और तीन अन्य फैक्टरी मालिक वहाँ मौजूद थे। उसकी पत्नी और भाई भी पास था।

डॉक्टरों ने सर्जरी करके बाँह जोड़ दी। जाँघों से मांस निकाल कर बाँह में भरा गया। डॉक्टरों ने मालिकों से कहा कि मरीज बहुत कमज़ोर है इसलिए हालत सुधरने पर ही अस्पताल से ले जाया जाना चाहिए। 9 दिन तक इलाज चला। 10वें दिन मालिक और अन्य तीन लोगों ने रामचरस को उठाया और कहा कि क्या वह उन्हें पहचानता है। रामचरस ने हाँ में उत्तर दिया। मालिक ने उसे सहारा देकर कमरे का चक्कर लगवाया और बेड पर लिटा दिया। रामचरस ने कहा कि उसे चक्कर आ रहे हैं। मालिक और उसके दोस्त चले गये। थोड़ी देर बाद वे एक स्ट्रेचर ले आये और अस्पताल के स्टाफ तथा मरीज के विरोध के बावजूद रामचरस को उठाकर स्ट्रेचर पर डालकर सरां में ले आये। यहाँ ठीक से इलाज होने का भरोसा दिया गया। लेकिन वहाँ देख-भाल करने वाला कोई नहीं था। रामचरस और उसका परिवार असहाय और बेबस था।

दूसरे दिन मालिक कोरा काग़ज़ ले आया। रामचरस और परिवार के हस्ताक्षर लेने चाहे तो उन्होंने मना कर दिया। मालिक गन्दी गालियाँ देता हुआ वापिस चला गया। जाते हुए वह कहता गया 'साले पड़ा-पड़ा मर जायेगा लेकिन दवा के पैसे नहीं दूँगा'। जाता हुआ वह दवा की पर्चियाँ भी ले गया। बाद में दवा खरीदने में भी दिक्कत आयी। कुछ दिनों बाद कार लेकर मालिक आया और पेंशन के फार्म भरने के लिए रामचरस, उसके भाई और पत्नी को कचहरी के किसी वकील के पास ले गया। वहाँ उसने रामचरस के ठीक होने पर फैक्टरी में सुरक्षा गार्ड की नौकरी देने का भरोसा भी दिया। उसका अंगूठा काग़ज़ पर लगवा लिया। उसे वापिस अस्पताल छोड़ने के बाद फिर कभी वापिस नहीं आया। रामचरस के बड़े भाई एक शादी में घर जा चुके थे इसलिए पैसा भी पास नहीं था। पत्नी ने लोगों से माँग-माँग कर कुछ दिन इलाज करवाया। महीने बाद रामचरस ने फैक्टरी फोन किया लेकिन मालिक ने बिना बात सुने ही फोन काट दिया। तंग आकर वह फैक्टरी गया और मालिक से इलाज के लिए पैसों की माँग की और नौकरी देने की बात कही। मालिक ने गालियाँ देते हुए कहा कि 'भाग जा नहीं तो जूते खायेगा। मैंने अपने बच्चे नहीं पालने?'। परेशान रामचरस लौट आया। एक बार फिर फैक्टरी गया था लेकिन मालिक ने पैसे देना तो दूर मिलने तक से इनकार कर दिया। परिवार भुखमरी की हालत में था। रामचरस की पत्नी रोती हुई बार-बार कह रही थी 'मालिक ने हमारे साथ ठीक नहीं किया। सुबह से रात तक की इतनी मेहनत की यह सजा मिली'।

रामचरस ने एक यूनियन के ज़रिये लेबर आफिस में शिकायत दर्ज करवायी। पेशी पर मालिक ने रामचरस से कहा कि तुमने तो समझौते के काग़ज़ पर ख़ुद ही अंगूठा लगाया था तो रामचरस हैरान रह गया। उसने तो पेंशन के काग़ज़ों पर अंगूठा लगाया था। तभी उसे मालिक की धोखाधड़ी समझ में आई। मालिक ने उसे धमकी दी कि अब अगर दुबारा उसे परेशान किया तो मारकर खेतों में फेंक देगा और सारा झंझट ही ख़त्म कर देगा।

फरवरी में रामचरस की बाँह काट दी गयी क्योंकि इलाज सही न होने की वजह से वह सड़ गयी थी। जान बचाने के लिए बाँह काटनी ज़रूरी थी। अब कटी बाँह लेकर रामचरस लेबर कोर्ट के चक्कर काट रहा है कि शायद इन्साफ मिल ही जाये।

यह कहानी सिर्फ रामचरस की नहीं है बल्कि यह करोड़ों मज़दूरों की कहानी है।

राजविन्द

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6.9.09

गोरखपुर में मज़दूरों की बढती एकजुटता और संघर्ष से मालिक घबराये बरगदवा क्षेत्र में फिर से मज़दूर आन्दोलन की राह पर

गोरखपुर में पिछले दिनों तीन कारखाने के मज़दूरों के जुझारू संघर्ष की जीत से उत्‍साहित होकर बरगदवा इलाके के दो और कारखानों के मजदूर भी आन्‍दोलन की राह पर उतर पड़े हैं। इलाके के कुछ अन्‍य कारखानों मे भी मजदूर संघर्ष के लिए कमर कस रहे हैं।

वर्षों से बुरी तरह शोषण के शिकार, तमाम अधिकारों से वंचित और असंगठित बरगदवा क्षेत्र के हज़ारों मज़दूरों में अपने साथी मज़दूरों के सफल आन्दोलन ने उम्मीद की एक लौ जगा दी है।

मॉर्डन लेमिनेटर्स तथा मॉर्डन पैकेजिंग के मज़दूर आन्दोलन की राह पर

इस इलाके में प्लास्टिक की बोरियाँ बनाने वाले दो बड़े कारखाने हैं मॉर्डन लेमिनेटर्स प्रा.लि. और मॉर्डन पैकेजिंग प्रा.लि.। एक ही परिसर में स्थित इन दो कारखानों में कुल एक हज़ार से ज्यादा मज़दूर काम करते हैं। इनमें करीब आधे मज़दूर ठेकेदार के हैं और आधे कम्पनी के हैं, लेकिन दोनों की हालत में कोई अन्तर नहीं है। सभी पीस रेट (मीटर रेट) पर काम करते हैं। रेट इतना कम है कि रोज़ 12 घण्टे 28-29 दिन लगातार काम करें तब जाकर करीब 4000 रुपये मज़दूरी बनेगी। लेकिन हमेशा इतना काम नहीं मिलता। वाइंडर का काम करने वालों को तो 12 घण्टे काम करने के बाद 2400 से 3000 रुपये ही मिलते हैं।

यहाँ पर करीब 150 लूम पर सीमेण्ट और खाद की बोरियाँ बनती हैं। प्लास्टिक के दानों को पिघलाकर शीट तैयार करना, उनकी कटाई-सिलाई सब यहीं होती है। पीवीसी पिघलाने के कारण कारखाने में भीषण गर्मी होती है और हालात स्वास्थ्य के लिए भी बेहद नुकसानदेह होते हैं। लेकिन इनसे बचाव का कोई इन्तज़ाम नहीं है।

इन दोनों कारखानों का मालिक बथवाल परिवार है जिसके मुखिया पवन बथवाल पहले शहर के कांग्रेसी मेयर थे और आजकल भाजपा में हैं। गोरखपुर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ से भी उनकी काफी करीबी है। मज़दूरों को डराने-धमकाने और चुप कराने के लिए वह हर तरह के हथकण्डे अपनाते रहे हैं। मज़दूरों ने पहले कई बार यूनियन बनाने की कोशिश की, लेकिन मालिक ने एक-दो अगुआ मज़दूरों को पैसे देकर और बाकी को डरा-धमकाकर आन्दोलन की नौबत ही नहीं आने दी।

पिछले दिनों बरगदवा क्षेत्र की दो धागा मिलों तथा एक कपड़ा मिल के मज़दूर के सफल आन्दोलन (देखें, बिगुल, जुलाई 2009) के दौरान ही बोरी मिल मज़दूरों ने भी संघर्ष समिति तथा बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों से सम्पर्क करना शुरू कर दिया था। उन्होंने आपसी एकजुटता बनानी शुरू कर दी थी और कई बैठकों में व्यापक चर्चा के बाद मॉर्डन लेमिनेटर्स प्रा.लि. एवं मॉर्डन पैकेजिंग प्रा.लि. मज़दूर संघर्ष समिति का गठन किया गया। संघर्ष समिति की ओर से तीन अगस्त को उप श्रमायुक्त को माँगपत्रक सौंपा गया तथा चेतावनी दी गयी कि यदि 14 दिन के अन्दर प्रबन्‍धन ने माँगों पर गम्भीरता से विचार कर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की तो मज़दूर आन्दोलन शुरू कर देंगे। माँगपत्रक में ठेका तथा पीसरेट खत्म करके सभी मज़दूरों को नियमित करने, नियमानुसार न्यूनतम मज़दूरी देने, काम के घण्टे 8 करने, पीएफ तथा ईएसआई की सुविधा देने, साप्ताहिक तथा अर्जित अवकाश देने तथा काम की परिस्थितियों में सुधार सहित विभिन्न माँगें शामिल हैं।

श्रम कार्यालय का जैसा मज़दूर विरोधी चेहरा अब तक सामने आया है, उसे देखते हुए मज़दूरों को कोई भ्रम नहीं है कि उनकी माँगों पर सुनवाई होगी। वे जानते हैं कि अपने हक लड़कर ही हासिल करने होंगे और वे लड़ने के लिए एकजुट और तैयार हैं।

मज़दूरों की बढ़ती एकजुटता और जुझारूपन से मालिक घबराये

इस बीच इलाके के कई अन्य कारखानों के मज़दूर भी संघर्ष के लिए एकजुट हो रहे हैं। कई छोटे-बड़े कारखानों के मज़दूरों ने बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों से भी सम्पर्क किया है।

मज़दूरों के इन तेवरों को देखते हुए कुछ कारखानों के मालिकों ने किसी आन्दोलन से बचने के लिए पहले ही पेशबन्दी शुरू कर दी है। जालान सरिया यहाँ की सबसे पुरानी तथा बड़ी मिलों में से एक है। इसमें 1000 से ज्यादा मज़दूर काम करते हैं। इसमें ज्यादातर काम ठेका मज़दूरों से करवाया जाता है जो कई-कई साल से बेहद कम मज़दूरी पर और बहुत खराब स्थितियों में काम कर रहे हैं। धधकती भट्ठी के आगे बिना किसी सुरक्षा इन्तज़ाम के घण्टों काम करने वाले इन मज़दूरों को सरकार द्वारा घोषित बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं मिलतीं।

जैसे ही मालिक को पता चला कि मज़दूर आन्दोलन की तैयारी कर रहे हैं उसने फौरन काम के घण्टे 8 कर दिये तथा मज़दूरी भी बढ़ा दी। लेकिन ठेका खत्म कर मज़दूरों को नियमित करने सहित कई बुनियादी माँगें अभी बनी हुई हैं।

कुछ ऐसी ही स्थिति बरगदवा स्थित तीसरी धागा मिल जालानजी पॉलीटेक्स लि. में भी हुई। इसके मालिक विनोद कुमार जालान उसी अशोक जालान के भाई हैं जिनकी धागा मिल अंकुर उद्योग लि. के मज़दूरों ने सबसे पहले आन्दोलन का बिगुल फूँका था। 2002 में स्थापित इस मिल में 200 से ज्यादा मज़दूर वैसी ही भयंकर स्थितियों में काम करते हैं जिनमें गोरखपुर के अधिकांश मज़दूर खटने को मजबूर हैं। इन मज़दूरों ने भी आन्दोलन के दौरान संघर्ष समिति और बिगुल मजदूर दस्ता के साथियों से सम्पर्क किया था और उनके साथ कई दौर की बैठकें भी की थीं।

इसकी भनक मिलते ही मालिक ने पहले तो मज़दूरों को तरह-तरह से भरमाने की कोशिश की लेकिन उसकी दाल नहीं गली। मज़दूरों के लड़ाकू तेवरों से वह डरा हुआ था। 13 जुलाई को कपड़ा मिल मज़दूरों की जीत के बाद उसने 15 जुलाई को नोटिस निकाल दिया कि दूसरी मिलों के मज़दूरों की जो भी माँगें पूरी हुई हैं वे सब यहाँ भी पूरी की जायेंगी। इसलिए मज़दूर किसी प्रकार का आन्दोलन न करें। नोटिस में एक अगस्त से सारी माँगें लागू करने की घोषण की गयी थी। मज़दूर इस बात पर एकजुट हैं कि अगर नोटिस में किये आश्वासनों को लागू नहीं किया गया तो वे आन्दोलन का रास्ता अपनायेंगे।

माँगें मानने के बाद लागू करने में मालिकों की तिकड़मबाज़ी

जिन तीन कारखानों में मालिकों ने मज़दूरों के संघर्ष के बाद उनकी माँगें मान ली थीं, वहाँ अब वे उन्हें पूरी तरह लागू करने में दायें-बायें कर रहे हैं। अंकुर उद्योग प्रा.लि., वी.एन. डायर्स धागा मिल एवं कपड़ा मिल के मालिकान ने डीएलसी के समक्ष हुए समझौतों में जो माँगें मानी थीं, उनमें से काम के घण्टे आठ करने को तो पिछले माह ही लागू कर दिया गया था लेकिन वेतन स्लिप देने, ईएसआई तथा अन्य माँगों को वे लटकाये हुए हैं। न्यूनतम मज़दूरी देने में भी घपलेबाज़ी करके कुशल मज़दूरों का रेट न देकर सभी मज़दूरों को अर्द्धकुशल के रेट से मज़दूरी दी जा रही है। साथ ही कुछ मज़दूरों को दोगुनी मज़दूरी देने का लालच देकर वे बारह घण्टे काम कराने के लिए फुसलाने में लगे हुए हैं। लेकिन मज़दूर इन चालबाज़ियों को अच्छी तरह समझ रहे हैं और उनमें मालिकों की इन हरकतों पर तीखा आक्रोश है। अगर मालिकों ने ये हथकण्डे बन्द नहीं किये और स्वीकृत माँगों को पूरी तरह लागू नहीं किया तो मज़दूर फिर से आन्दोलन की राह पकड़ने के लिए भी तैयार हैं।

इस बीच मज़दूरों ने गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में इन्हीं हालात में बुरी तरह शोषित-उत्पीड़ित अपने हजारों-हजार मज़दूर भाइयों तक एकजुटता और संगठन का अपना पैगाम भेजना शुरू कर दिया है।

बिगुल संवाददाता

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4.9.09

फासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें?

तीसरी किश्‍त
अभिनव

पहली किश्‍त


इटली में फासीवाद

इटली में फासीवाद की हमारी चर्चा के इतना विस्तृत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम यहाँ उन कारकों की चर्चा करेंगे जिनके मामले में इटली में फासीवादी उभार जर्मनी से अलग था।

इटली में फासीवादी आन्दोलन की शुरुआत 1919 में हुई। युद्ध की समाप्ति के बाद इटली के मिलान शहर में बेनिटो मुसोलिनी ने फासीवादी आन्दोलन की शुरुआत करते हुए एक सभा बुलायी। इस सभा में कुल जमा करीब 100 लोग इकट्ठा हुए। इसमें से अधिकांश युद्ध में भाग लेने वाले नौजवान सिपाही थे। पहले विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की तरफ से युद्ध में हिस्सा लेने के बावजूद इटली को उसका उचित पुरस्कार नहीं मिला जबकि युद्ध में उसे काफी क्षति उठानी पड़ी थी। इससे पूरे देश में एक प्रतिक्रिया का माहौल था, ख़ासकर सैनिकों के बीच। दूसरी तरफ, देश की आर्थिक स्थिति बुरी तरह से डावाँडोल थी। सरकार एकदम अप्रभावी और कमज़ोर थी और कोई भी कदम नहीं उठा पा रही थी। एक ऐसे समय में मुसोलिनी ने फासीवादी आन्दोलन की शुरुआत की। मुसोलिनी ने इस सभा में खुले तौर पर ऐलान किया कि फासीवाद मार्क्‍सवाद, उदारवाद, शान्तिवाद और स्वतन्त्रता का खुला दुश्मन है। यह राजसत्ता के हर शक्ति से ऊपर होने, उग्र राष्ट्रवाद, नस्ली श्रेष्ठता, युद्ध, नायकवाद, पवित्रता और अनुशासन में यकीन करता है। आर्थिक और सामाजिक तौर पर बिखरे हुए और असुरक्षा और अनिश्चितता का सामना कर रहे एक राष्ट्र को ऐसे जुमले आकृष्ट करते हैं, ख़ासतौर पर तब, जबकि कोई क्रान्तिकारी सम्भावना उनकी दृष्टि में न हो। फासीवाद के आर्थिक और सामाजिक आधारों के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे। पहले उसके वैचारिक आधारों की बात कर लें। मुसोलिनी पहले इतालवी समाजवादी पार्टी में शामिल था। 1903 से 1914 तक वह समाजवादी पार्टी का एक महत्वपूर्ण नेता था। इसके बाद वह जॉर्ज सोरेल नामक एक संघाधिपत्यवादी चिन्तक के प्रभाव में आया, जो कहता था कि संसदीय जनतन्त्र नहीं होना चाहिए और श्रम संघों द्वारा सरकार चलायी जानी चाहिए। मुसोलिनी पर दूसरा गहरा प्रभाव फ्रेडरिख नीत्शे नामक जर्मन दार्शनिक का था, जो मानता था कि इतिहास में अतिमानव और नायकों की केन्द्रीय भूमिका होती है, जिनमें सत्ता प्राप्त करने की इच्छाशक्ति होती है। इन सारे विचारों का मेल करके ही इटली में जेण्टाइल नामक फासीवादी चिन्तक की सहायता से मुसोलिनी ने पूरे फासीवादी सिद्धान्त की रचना की। यह सिद्धान्त मज़दूर-विरोधी, पूँजी के पक्ष में खुली तानाशाही, अधिनायकवाद, जनवाद-विरोध, कम्युनिज्म-विरोध और साम्राज्यवादी विस्तार की खुले तौर पर वकालत करता था।

लेकिन यह सिद्धान्त कोई जेण्टाइल और मुसोलिनी के दिमाग़ की उपज नहीं था। यदि जेण्टाइल व मुसोलिनी न होते तो कोई और होता क्योंकि समाज में इस प्रकार एक प्रतिक्रियावादी विचार और आन्दोलन की ज़मीन मौजूद थी। इस ज़मीन को समझकर ही इटली में फासीवादी उभार को समझा जा सकता है।

जर्मनी के समान इटली में भी पूँजीवादी विकास बहुत देर से शुरू हुआ। इटली का एकीकरण 1861 से 1870 के बीच हुआ। जैसाकि हम पिछले उपशीर्षक में ही बता चुके हैं, इस समय तक ब्रिटेन, फ्रांस और हॉलैण्ड जैसे देश पूँजीवादी विकास की एक लम्बी यात्रा तय कर चुके थे और औद्योगिक क्रान्ति को भी अंजाम दे चुके थे। इन देशों में रैडिकल भूमि-सुधार लागू किये गये थे। पूँजीवादी विकास एक लम्बी प्रक्रिया में हुआ था, जिसके कारण इससे पैदा होने वाले सामाजिक तनाव को व्यवस्था जनवादी दायरे के भीतर रहते हुए ही झेल सकती थी। इटली में 1890 के दशक में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई और जर्मनी के ही समान इसकी रफ्तार काफी तेज़ रही। जर्मनी से अलग इटली में यह विकास क्षेत्रीय तौर पर बहुत असमानतापूर्ण रहा। उत्तरी इटली में मिलान, तूरिन और रोम से बनने वाले त्रिभुजाकार इलाके में उद्योगों का ज़बरदस्त विकास हुआ और एक मज़दूर आन्दोलन भी पैदा हुआ जिसका नेतृत्व पहले इतालवी समाजवादी पार्टी कर रही थी और बाद में इसके नेतृत्व में इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी का भी प्रवेश हुआ। उत्तरी इटली के क्षेत्रों में भूमि-सुधार भी एक हद तक लागू हुए और कृषि का वाणिज्यीकरण हुआ जिसके कारण कृषि में पूँजीवादी विकास हुआ। नतीजतन, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र, दोनों में ही एक मज़दूर आन्दोलन पैदा हुआ। दूसरी ओर दक्षिणी इटली था जहाँ सामन्ती उत्पादन सम्बन्‍धों का वर्चस्व कायम था। यहाँ कोई भूमि-सुधार लागू नहीं हुए थे और बड़ी-बड़ी जागीरें थीं जिन पर विशाल भूस्वामियों का कब्ज़ा था। इसके अतिरिक्त, छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों की एक विशाल आबादी थी जो पूरी तरह इन बड़े भूस्वामियों के नियन्त्रण में थी। इस नियन्त्रण को ये भूस्वामी अपने सशस्त्र गिरोहों द्वारा कायम रखते थे। इन्हीं गिरोहों को इटली में माफिया कहा जाता था जो बाद में स्वायत्त शक्ति बन गये और पैसे के लिए लूटने, मारने और चोट पहुँचाने का काम करने लगे। फासीवादियों ने इन माफिया गिरोहों का ख़ूब लाभ उठाया। दक्षिणी इटली में औद्योगिक विकास न के बराबर था। इस फर्क के बावजूद, या यूँ कहें कि इसी फर्क के कारण फासीवादियों को दो अलग-अलग प्रकार के प्रतिक्रियावादी वर्गों का समर्थन प्राप्त हुआ। वह कैसे हुआ इस पर हम बाद में आते हैं, पहले उस प्रक्रिया पर निगाह डालें जिसके ज़रिये मुसोलिनी सत्ता में आया।

1896 में इटली को इरिट्रिया से अपने साम्राज्य को इथियोपिया तक फैलाने के प्रयास में अडोवा नामक जगह पर एक शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। इसके कारण देश में चार वर्षों तक एक भयंकर अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया। लेकिन 1900 से 1914 तक के दौर में उदारवादी पूँजीवादी प्रधानमन्त्री गियोवान्नी गियोलिटी के नेतृत्व में थोड़ी स्थिरता वापस लौटी और इटली में औद्योगिक विकास ने और गति पकड़ी। 1913 में सर्वमताधिकार के आधार पर इटली में पहले आम चुनाव आयोजित किये गये। लेकिन यह जनवादी संसदीय व्यवस्था अभी अपने पाँव जमा ही पायी थी कि 1915 में इटली ने मित्र राष्ट्रों की तरफ से प्रथम विश्वयुद्ध में प्रवेश किया। इसके बाद इटली में जो अस्थिरता पैदा हुई, उसने संसदीय व्यवस्था को जमने ही नहीं दिया। अक्टूबर 1917 में इटली कापोरेट्टो नामक जगह पर बुरी तरह हारते-हारते बचा। युद्ध के बाद इटली को कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ। इन सभी कारकों की वजह से पूरा देश विभाजित था। इसका प्रमुख कारण इटली का आर्थिक रूप से छिन्न-भिन्न हो जाना भी था। 1919 में जो चुनाव हुए, उसमें किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। समाजवादियों और उदारवादियों को सबसे अधिक वोट मिले थे, लेकिन वे साथ में सरकार बनाने को तैयार नहीं थे। समाजवादियों ने 1919 में बोल्शेविक क्रान्ति के प्रभाव में वक्त से पहले ही सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया। 1919-20 में इटली की पो घाटी में यह संघर्ष काफी आगे तक गया। समाजवादियों ने कई शहरों पर एक तरह से कब्ज़ा कर लिया था। ऐसा लग रहा था कि इटली एक गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा है। लेकिन समाजवादियों ने इस उभार को सँभाल पाने के लिए न अपनी तैयारी की थी और न ही जनता की। नतीजतन, यह उभार कुचल दिया गया। इसे कुचलने में जहाँ बुर्जुआ राजसत्ता ने एक भूमिका निभायी, वहीं फासीवादी सशस्त्र गिरोहों ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1919 के चुनावों में फासीवादियों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी। लेकिन 1919-20 के मज़दूर उभार ने सम्पत्तिधारी वर्गों के दिल में एक ख़ौफ पैदा कर दिया था। रूस में जो कुछ हुआ था, वह उनके सामने था। ऐसे मौके पर उन्हें किसी ऐसी ताकत की ज़रूरत थी जो मज़दूर उभार को कुचलने के लिए एक वैकल्पिक गोलबन्दी कर सके। यह वायदा मुसोलिनी ने उनसे किया। मुसोलिनी ने उद्योगपतियों से वायदा किया कि अगर वे उसे समर्थन देते हैं तो वह औद्योगिक अनुशासन को फिर से स्थापित करेगा। इसके बाद से ही मुसोलिनी को उद्योगपतियों से भारी आर्थिक मदद मिलनी शुरू हुई जिसके बूते पर फासीवादियों ने ज़बरदस्त प्रचार किया और जनता के दिमाग़ में ज़हर घोला। शहरों में फासीवादियों के सशस्त्र दस्तों ने मज़दूर कार्यकर्ताओं, ट्रेडयूनियनिस्टों, कम्युनिस्टों, हड़तालियों आदि पर हमले और उनकी हत्याएँ करनी शुरू कीं। फासीवाद पूँजी, और विशेषकर बड़ी पूँजी की सेवा में अपने हरबे-हथियारों के साथ हाज़िर था।

दक्षिणी इटली में बड़े भूस्वामी अपने तईं स्वयं फासीवादी तरीकों से किसानों और खेतिहर मज़दूरों के संघर्ष का दमन कर रहे थे। फासीवाद की यह किस्म जल्दी ही मुसोलिनी के फासीवाद में समाहित हो गयी और बड़ा भूस्वामी वर्ग मुसोलिनी का एक बड़ा समर्थक बनकर उभरा। 1920 के अन्त में एक अन्य प्रतिद्वन्द्वी फासीवादी संगठन जिसका नेता गेब्रियेल दि' अनुंसियो था, मुसोलिनी की फासीवादी धारा में शामिल हो गया। 1921 तक इतालवी समाजवादी पार्टी द्वारा बिना किसी तैयारी के किया गया सशस्त्र विद्रोह कुचला जा चुका था। शहरों में कायम हुआ मज़दूर नियन्त्रण योजना और हथियारबन्द तैयारी के अभाव में कुचला जा चुका था। फासीवादी आन्दोलन की बढ़त स्पष्ट रूप से हासिल हो चुकी थी। अक्टूबर 1922 में मुसोलिनी ने नेपल्स में फासीवादी पार्टी की कांग्रेस में निर्णय लिया कि फासीवादी रोम पर चढ़ाई करेंगे। फासीवादी सशस्त्र गिरोहों ने रोम पर चढ़ाई शुरू कर दी। राजा विक्टर इमानुएल तृतीय ने घुटने टेक दिये और मुसोलिनी को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया और इसके साथ 1922 में मुसोलिनी इटली का प्रधानमन्त्री बना। उसने एक गठबन्‍धन सरकार गठित की जिसमें इतालवी संशोधनवादी शामिल थे, जिस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए! उनका मानना था कि मुसोलिनी को वे उदारवादी धारा का अंग बना लेंगे। इतिहास ने उनकी इस इच्छा को मूर्खतापूर्ण साबित किया।

1924 के चुनावों में फासीवादी पार्टी को 65 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए। हालाँकि, सामाजिक जनवादी नेता मात्तिओत्ती ने संसद में प्रमाण सहित साबित किया कि चुनाव में फासीवादियों ने घपले और बल के आधार पर दो-तिहाई के करीब वोट हासिल किये हैं, लेकिन फासीवादियों ने संसद में शोर मचाकर उसे आगे बोलने ही नहीं दिया। दो महीने बाद फासीवादी गुण्डों ने मात्तिओत्ती को चाकू से गोद-गोदकर मार डाला। यही हाल जल्दी ही उन सभी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों का हुआ जिन्होंने मुसोलिनी की मुख़ालफत की हिम्मत की। 1925 में मुसोलिनी ने अपनी खुली तानाशाही को स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी। एक-एक करके सभी अन्य पार्टियों पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया। नवम्बर, 1926 में ''अपवादस्वरूप पेश कानूनों'' के साथ यह प्रक्रिया पूरी हो गयी। इसके बाद के 17 वर्षों में मुसोलिनी ने अपने सभी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों को ख़त्म करने का काम किया और किसी को भी सिर नहीं उठाने दिया।

फासीवादी शासन के सुदृढ़ रूप से स्थापित होने के बाद मज़दूर प्रतिरोध को बुरी तरह कुचल दिया गया। कहने के लिए मालिकों और मज़दूरों के संघ बनाए गये, जिसमें कि फासीवादी पार्टी के लोग भी होते थे। इन संघों को ही निर्णय लेने का अधिकार था कि उत्पादन कितना, कैसे और किसके लिए किया जाये। लेकिन यह बात बस दिखावा थी। वास्तव में मज़दूर प्रतिनिधि इसमें कुछ भी नहीं बोल सकते थे। सारे निर्णय पूँजीपतियों के प्रतिनिधि फासीवादियों के साथ मिलकर लेते थे। मज़दूरों के एक हिस्से को फासीवादियों ने अपने साथ मिला रखा था जिसके कारण मज़दूर कोई संगठित प्रतिरोध नहीं खड़ा कर पाते थे। अपने साथ मज़दूरों को शामिल करने के लिए फासीवादियों ने उनके बीच सुधार के काम किये और उनके मनोरंजन के लिए क्लब आदि बनाये। साथ ही, उनके बीच आपसी आर्थिक सहयोग के संगठन बनाये जिनका फायदा 10 से 15 फीसदी मज़दूरों को मिलता था। लेकिन सिर्फ इतने मज़दूरों को एक भ्रामक और बेहद मामूली फायदा पहुँचाकर और अच्छे-ख़ासे मज़दूरों को इस फायदे का सपना दिखलाकर वे मज़दूरों की वर्ग चेतना और एकजुटता को तोड़ने में सफल हो गये। यही कारण था कि ऐसे मालिक-मज़दूर संघों में मज़दूरों का ज़बरदस्त शोषण जारी रहा और उसका कोई कारगर प्रतिरोध भी नहीं हो सका। बाद में बात यहाँ तक पहुँच गयी कि हड़ताल पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया, किसी भी प्रकार के प्रदर्शन या जुटान को अपराध घोषित कर दिया गया, ट्रेडयूनियनों पर रोक लगा दी गयी और उनकी जगह पूँजी के तलवे चाटने वाले मज़दूर संघों ने ले ली जिनमें फासीवादी घुसे होते थे। फासीवादियों ने वर्ग सहयोग के नाम पर उजरती श्रम की ग़ुलामी को और अधिक बढ़ाया और मज़दूरों को पूँजीपतियों का और अधिक ग़ुलाम बनाया।

इतालवी फासीवाद को कृषक पूँजीपति वर्ग का भी ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त था। हम पहले भी बता चुके हैं कि उत्तरी इटली में पूँजीवादी कृषि का विकास हो गया था और वहाँ एक उन्नत कृषक पूँजीपति वर्ग सामने आ चुका था। लेकिन साथ ही ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों का एक आन्दोलन भी कम्युनिस्टों और समाजवादियों के नेतृत्व में पैदा हो चुका था। संगठित किसान व खेतिहर मज़दूर संघर्षों के कारण मुनाफे की दर कम होती जा रही थी। इससे निपटने के लिए इन पूँजीपतियों को राजसत्ता के समर्थन की आवश्यकता थी। लेकिन इतालवी एकीकरण के बाद उदारवादी पूँजीवादी राजसत्ता इतनी ताकतवर नहीं थी कि पूँजी के पक्ष में कोई खुला दमनात्मक कदम उठा सके। नतीजतन यहाँ पर फासीवादियों के उभार की एक ज़मीन मौजूद थी। फासीवादियों ने इन मज़दूर आन्दोलनों पर नकेल कसने का कृषक पूँजीपतियों से वायदा किया और इसके बदले में उन्हें उनका सहयोग-समर्थन प्राप्त हुआ। राज्य हस्तक्षेप की जगह फासीवादियों के नग्न हस्तक्षेप ने ली। दक्षिणी इटली में बड़े भूस्वामी वर्ग को फासीवादी पार्टी के समर्थन की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि वह सभी फासीवादी कदम और हिंस्र हमले अपने माफिया गिरोहों के दम पर कर लेता था और अपने यहाँ की ग़रीब किसान व काश्तकार आबादी व खेतिहर मज़दूरों को कुचलकर रखता था। फासीवादी पार्टी ने मुसोलिनी के नेतृत्व में कुशलता से फासीवाद की इस अभिव्यक्ति को अपने में समाहित करा लिया। यहाँ का बड़ा भूस्वामी वर्ग भी फासीवाद का ज़बरदस्त समर्थक बना।

इटली में फासीवाद के उदय की पृष्ठभूमि और प्रक्रिया के इस विश्लेषण के बाद साफ है कि यहाँ पर भी फासीवादी उभार की मूल वजहें कमोबेश वे ही रही हैं जो जर्मनी में थीं। जर्मनी में फासीवाद के उदय का कालानुक्रम अलग था, लेकिन वहाँ पर भी प्रेरक शक्तियाँ कमोबेश वे ही थीं।

फासीवादी उभार की ज़मीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, अनिश्चितता और आर्थिक संकट से तैयार होती है। फासीवादी प्रतिक्रिया के पैदा होने की उम्मीद उन देशों में सबसे अधिक होती है जहाँ पूँजीवादी विकास किसी क्रान्तिकारी प्रक्रिया के द्वारा नहीं बल्कि एक विकृत, विलम्बित और ठहरावग्रस्त प्रक्रिया से होता है। जर्मनी और इटली विश्व इतिहास के पटल पर बहुत देर से पैदा होने वाले राष्ट्र थे। इन देशों में एकीकृत पूँजीवाद और उसकी मण्डी में पैदा होने वाला अन्‍धराष्ट्रवाद तब अस्तित्व में आया जब विश्व पैमाने पर पूँजीवाद अपनी चरम अवस्था साम्राज्यवाद, यानी इजारेदार पूँजीवाद, की अवस्था में प्रवेश कर चुका था। नतीजतन, इन दोनों ही देशों में पूँजीवादी विकास बेहद द्रुत गति से हुआ जिसने आम मेहनतकश आबादी, निम्न मध्‍यवर्गीय आबादी और आम मध्‍यवर्गीय आबादी को इस गति से उजाड़ा जिसे सोख पाने की क्षमता इन देशों के अविकसित पूँजीवादी जनवाद में नहीं थी। दूसरी तरफ, विश्वव्यापी पूँजीवादी मन्दी ने इन दोनों ही देशों के पूँजीपति वर्ग की हालत खस्ता कर दी। पूँजीपति वर्ग अब किसी उदारवादी पूँजीवादी जनवाद और उसकी कल्याणकारी नीतियों का ख़र्च उठाने के लिए कतई तैयार नहीं था। वह मज़दूरों को उनके श्रम अधिकार देने के लिए भी तैयार नहीं था। इसके लिए सभी जनवादी अधिकारों का दमन और मज़दूर आन्दोलन को कुचलना ज़रूरी था। इस आन्दोलन को एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के ज़रिये ही कुचला जा सकता था। यह प्रतिक्रियावादी आन्दोलन निम्न पूँजीपति वर्ग, लम्पट सर्वहारा वर्ग, धनी और मंझोले किसान वर्ग की प्रतिक्रिया की लहर पर सवार होकर जर्मनी में नात्सी पार्टी और इटली में फासीवादी पार्टी ने खड़ा किया। हालाँकि समय ने यह साबित किया कि फासीवादी उभार ने निम्न पूँजीपति वर्ग और लम्पट सर्वहारा या मंझोले किसान को कुछ भी नहीं दिया। आगे चलकर उनका भी दमन किया गया। वास्तव में, फासीवादी उभार ने हर हमेशा मुख्य तौर पर दो ही वर्गों को फायदा पहुँचाया क्योंकि वह उन्हीं का प्रतिनिधि था - वित्तीय और औद्योगिक बड़ा पूँजीपति वर्ग और धनी किसान, कुलक व फार्मरों का वर्ग, यानी बड़ा कृषक पूँजीपति वर्ग। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इतिहास के समक्ष और कोई रास्ता नहीं था। सच्चाई तो यह है कि ऐसे देशों में पूँजीवादी संकट पैदा होने के बाद क्रान्तिकारी सम्भावना और प्रतिक्रियावादी सम्भावना, दोनों ही समान रूप से मौजूद रहती हैं। इटली और जर्मनी, दोनों ही देशों में फासीवादी उभार का एक बहुत बड़ा कारण मज़दूर वर्ग के ग़द्दार सामाजिक जनवादियों की हरकतें रहीं। इन दोनों ही देशों में क्रान्तिकारी सम्भावना ज़बरदस्त रूप से मौजूद थी, लेकिन सामाजिक जनवादियों ने मज़दूर आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, संसदवाद और ट्रेडयूनियनवाद की चौहद्दी में ही कैद रखा। पूरा मज़दूर आन्दोलन जर्मनी में सर्वाधिक संगठित था, लेकिन वह महज़ एक दबाव फैक्टर बनकर रह गया जो प्राप्त कर लिये गये जनवादी अधिकारों से चिपका रह गया, जबकि पूँजीवाद का संकट अब माँग कर रहा था कि पूँजीवाद का विकल्प दिया जाये। किसी विकल्प के पेश न होने की सूरत में वही क्रान्तिकारी सम्भावना प्रतिक्रियावाद की दिशा में मुड़ गयी और जर्मनी में नात्सी पार्टी और इटली में फासीवादी पार्टी इसके इस्तेमाल के लिए तैयार खड़ी थीं।

अन्त में, समाहार करते हुए हम कह सकते हैं कि फासीवादी उभार की सम्भावना ऐसे पूँजीवादी देशों में हमेशा पैदा होगी जहाँ पूँजीवाद बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया, बल्कि किसी भी प्रकार की क्रमिक प्रक्रिया से आया; जहाँ क्रान्तिकारी भूमि-सुधार लागू नहीं हुए; जहाँ पूँजीवाद का विकास किसी लम्बी, सुव्यवस्थित, गहरी पैठी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं बल्कि असामान्य रूप से अव्यवस्थित, अराजक और द्रुत प्रक्रिया से हुआ; जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद इस तरह विकसित हुआ कि सामन्ती अवशेष किसी न किसी मात्रा में बचे रहे। ऐसे सभी देशों में पूँजीवाद का संकट बेहद जल्दी उथल-पुथल की स्थिति पैदा कर देता है। समाज में बेरोज़गारी, ग़रीबी, अनिश्चितता, असुरक्षा का पैदा होना और करोड़ों की संख्या में जनता का आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक तौर पर उजड़ना बहुत तेज़ी से होता है। ऐसे में पैदा होने वाली क्रान्तिकारी परिस्थिति को कोई तपी-तपायी क्रान्तिकारी पार्टी ही संभाल सकती है। फासीवादी उभार होना ऐसी परिस्थिति का अनिवार्य नतीजा नहीं होता है। फासीवादी उभार हर-हमेशा सामाजिक जनवादियों की घृणित ग़द्दारी के कारण और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की अकुशलता के कारण सम्भव हुआ है। जर्मनी और इटली दोनों ही इस तथ्य के साक्ष्य हैं।

अगले अंक में हम भारत में फासीवाद के उभार के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे और साथ ही भारत में फासीवाद से लड़ने के रास्तों पर विचार करेंगे। आज हर क्रान्तिकारी ताकत के सामने यह सबसे जीवन्त और ज्वलन्त सवालों में से एक है। भारत में भी हम बेहद तेज़ी से उस पूँजीवादी संकट की तरफ बढ़ रहे हैं, जो क्रान्तिकारी सम्भावना और प्रतिक्रियावादी सम्भावना को समान रूप से जन्म देता है। फासीवादी ताकतें इस प्रतिक्रियावादी सम्भावना को संभालने की तैयारी में लगी हुई हैं। ऐसे में क्रान्तिकारी ताकतों को अपनी तैयारियाँ कैसे करनी होंगी? यही अगली किश्त की प्रमुख विषय-वस्तु होगी।

(अगले अंक में जारी)

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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