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2.7.10

छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति 2009-2014 : पूँजीवादी लूट व शोषण और मेहनतकश ग़रीबों के विस्थापन के लिए रास्ता साफ करने का फरमान


छत्तीसगढ़ पर्यवेक्षक


हाल ही में छत्तीसगढ़ की रमण सिंह की सरकार ने अगले पाँच वर्षों के लिए छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति का एलान किया। इस नीति की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट करने वाला एक दस्तावेज भी साथ में जारी किया गया। इस नीति का उद्योग जगत (यानीकारपोरेट घरानों के मुखियाओं और तमाम पूँजीपतियों) ने खुले दिल से स्वागत किया और छत्तीसगढ़ सरकार को एक निवेश-अनुकूल सरकार बताया। विभिन्न बुर्जुआ और संसदीय वामपन्थी दलों से जुड़े मजदूर संगठनों ने इस नीति की निन्दा की। लेकिन यह एक औपचारिकता मात्र थीक्योंकि किसी भी मजदूर संगठन ने इस नीति का सांगोपांग विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया।
जिन नीतियों के कारण छत्तीसगढ़ पिछले कई वर्षों से मजदूरोंआदिवासियों और अन्य ग़रीबों के भयंकर असन्तोष का केन्द्र बना रहा हैइस नयी औद्योगिक नीति में छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हीं नीतियों को और जोर-शोर से लागू करने की बात की है। ये नीतियाँ हैं छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक और मानव संसाधनों को देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को बेचने की नीतियाँ। इन्हीं नीतियों की एक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप यह राज्य उस वामपन्थी दुस्साहसवादी आन्दोलन के प्रमुख प्रभाव क्षेत्रों में से एक बना हुआ हैजिसे सरकार और कारपोरेट मीडिया ''माओवाद'' कहता हैइन्हीं नीतियों के कारण छत्तीसगढ़ में निवेश करने वाली तमाम कम्पनियों को सभी श्रम कानूनों को ताक पर रखकर मजदूरों के बेरोकटोक शोषण की आजादी मिली हुई हैइन नीतियों के ही कारण राज्य के तमाम प्राकृतिक संसाधनों को अन्‍धाधुन्‍ध दोहन के लिए इजारेदार पूँजी के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया हैऔर इन्हीं नीतियों के कारण छत्तीसगढ़ के मजदूरों और आदिवासियों समेत आम मेहनतकश जनता में भयंकर ग़ुस्सा पनप रहा है। ''माओवाद'' के दमन के नाम पर जो ऑपरेशन ग्रीन हण्ट शुरू किया गया हैउसका वास्तविक लक्ष्य नक्सलवादी ताकतों का दमन और सफाया नहीं है। इसका असली मकसद है राज्य की अकूत प्राकृतिक सम्पदा और श्रम शक्ति को इजारेदार पूँजी की लूट के लिए थाली में परोसकर रखने के रास्ते में आने वाले सभी प्रतिरोधों को कुचल कर रख देना और सरकार की भाषा में बात करें तो एक ''निवेश-अनुकूल वातावरण'' पैदा करना। ऐसा वातावरण पैदा करने के लिए निश्चित रूप से व्यवस्था को हर उस ताकत को जमींदोज करना होगा जो उसके रास्ते में बाधा बन रही है। छत्तीसगढ़ के ''माओवाद''-प्रभावित क्षेत्रों में जनता अपने जीवन के लिए लड़ने को मजबूर कर दी गयी है। आज अगर उनके जीवन के प्रश्न को लेकर लड़ने के लिए ''माओवाद'' की जगह कोई और ताकत मौजूद होतीतो वे उसके साथ खड़े होते। ऑपरेशन ग्रीन हण्ट का वास्तविक उद्देश्य है आम जनता के हर प्रकार के प्रतिरोध को कुचलकर पूँजी के प्रवेश के लिए एक सुगम रास्ता तैयार करना। सरकार को इसके लिए एक बहाने की आवश्यकता थी और ''माओवाद'' से बेहतर बहाना और कोई नहीं हो सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि ''माओवाद'' का प्रभाव-क्षेत्र बनने से पहले भी राज्य की आदिवासी जनता को शासकीय बर्बर दमन का सामना करना पड़ रहा था। इस क्षेत्र में पूँजीवादी विकास के लिए छत्तीसगढ़ राज्य को इस समय सरकार द्वारा आदिम पूँजी संचय की उसी प्रक्रिया के अधीन कर दिया गया हैजिसके अधीन पूँजीवाद अपने आरम्भिक विकास के लिए हर क्षेत्र को करता है। पूँजीवाद अपनी प्रकृति से ही असमान विकास करता है और भारत के उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवाद के मामले में तो यह बात और भी प्रत्यक्ष रूप से लागू होती है। प्रमुख उत्पादन पध्दति के रूप में स्थापित होने के लगभग पाँच दशक बाद भी भारत के तमाम इलाकों में अभी प्राक्-पूँजीवादी उत्पादन पध्दतियाँ या उनके अवशेषों की मौजूदगी है। आज नहीं तो कल इन सभी छोटे-छोटे खित्तों को पूँजी की सार्वभौमीकरण करने वाली गति के अधीन आना ही है। यह पूरी प्रक्रिया निश्चित रूप से एक बेहद उथल-पुथल भरी प्रक्रिया होगी क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में आम जनता की जरूरतें और उनका कल्याण नहींबल्कि देशी-विदेशी कारपोरेट जगत के मुट्ठी-भर धनपशुओं का अतिमुनाफा है। और जब इस मुनाफे को केन्द्र में रखकर और जनता की राय को कूड़े के डिब्बे में फेंककर लोगों को जबरन उनके जीविकोपार्जन के साधनों और स्थानों से विस्थापित किया जायेगाप्रताड़ित किया जायेगातो लाजिमी है कि वे लड़ेंगेऔर जो उन्हें लड़ता हुआ दिखेगा उसके साथ मिलकर लड़ेंगे। ऐसे में सरकार अगर नक्सलवाद को नेस्तनाबूद कर भी देती हैतो लोग लड़ना नहीं छोड़ेंगे। वे अपनी जिन्दगी और मौत की लड़ाई को छोड़ ही नहीं सकते हैं। लड़ना उनके लिए चयन का नहीं बल्कि बाध्‍यता का प्रश्न है।
इस नीति के दस्तावेज में राज्य सरकार ने अपनी बातें बिना किसी घुमाव-फिराव के पूँजीपतियों की प्रबन्‍धन समिति के तौर पर रखी हैं। कहीं कोई ढाँप-तोप करने की जरूरत महसूस नहीं की गयी है। दस्तावेज की शुरुआत छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक समृध्दि के बखान से होती है। पूँजी निवेश के लिए कम्पनियों को रिझाने के लिए बताया जाता है कि छत्तीसगढ़ हर प्रकार के प्राकृतिक संसाधन के मामले में सर्वाधिक समृध्द राज्यों में से एक है और राज्य सरकार द्वारा उसके ''योजनाबध्द दोहन'' से पूरा राज्य ''प्रगति के नये सोपानों की ओर अग्रसर'' है। छत्तीसगढ़ के खनिज संसाधनोंजंगलोंनदियों के जालविद्युत के आधिक्यतेजी से उन्नत होती औद्योगिक अवसंरचना और छत्तीसगढ़ की अनुकूल भौगोलिक स्थिति के बारे में इस तरह बताया गया हैजैसेकि उसे मुनाफाखोरों को ललचाने के लिए थाल में परोसकर रखा जा रहा हो।
इसके बाद 'प्रस्तावनामें ही छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बेहद ईमानदार आत्मस्वीकृति की है। दस्तावेज कहता है कि प्रस्तुत औद्योगिक नीति की रूपरेखा तैयार करने के लिए ''राज्य के उद्योग संघोंप्रमुख उद्योगपतियोंविभागीय अधिकारियोंराज्य शासन के औद्योगिक विकास से सम्बन्धिात विभाग प्रमुखों आदि के साथ विचार-विमर्श किया गया है।'' यह कथन स्पष्ट कर देता है कि सरकार ने औद्योगिक नीति के सूत्रीकरण के लिए किसी भी ट्रेड यूनियनमजदूरों के संगठनों और नागरिक संगठनों से विचार-विमर्श की कोई आवश्यकता नहीं समझी है। जिन लोगों की राय (या निर्देश!) को छत्तीसगढ़ राज्य की औद्योगिक नीति के निर्माण में शामिल किया गया हैवे राज्य के पूँजीपतियों के मंच और नौकरशाही के विभिन्न संस्तर हैं। बताने की जरूरत नहीं है कि नौकरशाही किनके हितों की सेवा में संलग्न रहती है। 'प्रस्तावनामें ही सरकार ने पूँजीपतियों और भावी निवेशकों को यह यकीन दिलाने की पूरी कोशिश की है कि उनके वर्ग हितों का पूरा ध्‍यान रखा गया है और छत्तीसगढ़ राज्य में मुनाफा पीटने के काम में हर प्रकार की ''बाधा'' (आगे हम देखेंगे कि ये बाधाएँ क्या हैं!) को हटाने के लिए सरकार प्रतिबध्द है। प्राकृतिक और मानव संसाधन को लूटने के लिए हर प्रकार से अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए सरकार ने मालिक वर्ग को निश्चिन्त करने का हर सम्भव प्रयास किया है।
'प्रस्तावनाके बाद दस्तावेज औद्योगिक नीति के 'उद्देश्यकी चर्चा पर आता है। इस हिस्से में भी सरकार ने छत्तीसगढ़ में निवेश की गुलाबी तस्वीर को पेश करने का काम जारी रखा है। हमें बताया जाता है कि औद्योगिक मशीनरी के सुगम और बाधारहित प्रचालन के लिए बुनियादी और औद्योगिक अधोसंरचना के निर्माण और उसमें निजी क्षेत्र के योगदान को सुनिश्चित किया जायेगा। स्पष्ट है कि अवसंरचनात्मक ढाँचे के निर्माण के तहत सड़कोंएक्सप्रेस वेऔद्योगिक उत्पादों के परिवहनभण्डारण आदि से लेकर उनके प्रसंस्करण तक के लिए जो विशालकाय परियोजनाएँ लागू की जायेंगीउनमें सरकार उन-उन कामों को छोड़कर जिसमें तत्काल और जबरदस्त मुनाफा मिलेगान्यूनतम हस्तक्षेप की नीति पर अमल करेगा। तात्पर्य यह है कि निर्माण कार्य के दैत्याकार प्रोजेक्टों में जबरदस्त मुनाफा कमाने का पूरा अवसर निर्माण-क्षेत्र की इजारेदार कम्पनियों को दिया जायेगा। मतलब यह कि गैमन इण्डियालार्सन एण्ड टूब्रोआदि जैसी कम्पनियों के लिए भारी मुनाफा छत्तीसगढ़ राज्य में इन्तजार कर रहा है। इसके बाद सरकार निर्यात सेक्टर के पूँजीपतियों को भरोसा दिलाती नजर आती है कि निर्यात को बढ़ावा देने के लिए ''अनुकूल वातावरण और उपयुक्त अधोसंरचना'' का विकास किया जायेगा। ''अनुकूल वातावरण'' तैयार करने से सरकार का क्या अर्थ हैइसका अर्थ है कि विशेष निर्यात क्षेत्र बनाये जायेंगेजिसमेंसरकारी भाषा में कहें तो श्रम कानूनों का ''सुगमीकरण और सरलीकरण'' किया जायेगा! सभी मजदूर जानते हैं कि श्रम कानूनों के ''सुगमीकरण/सरलीकरण'' का क्या मतलब हैइसका अर्थ होता है श्रम कानूनों का सफाया करके मुनाफा कमाने के रास्ते को सुगम और सरल बनाना। इस दस्तावेज में आगे छत्तीसगढ़ सरकार ने इसी बात को एकदम नंगे शब्दों में कह दिया है।
इसके बाद नीति के उद्देश्यों का ही बयान करते हुए सरकार अप्रवासी भारतीय पूँजीपतियों और शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों को यह आश्वासन देती है कि छत्तीसगढ़ में उन्हें अन्य किसी राज्य से ज्यादा छूटेंराहतें और अनुकूल वातावरण मिलेगा! जाहिर हैकि छत्तीसगढ़ सरकार का इरादा राज्य में निवेश करने वाली देशी-विदेशी कम्पनियों को करउत्पादन शुल्ककस्टम डयूटी आदि में भारी छूट देने और साथ हीबेहद मामूली ब्याज दरों पर कर्ज देने और साथ ही श्रम कानूनों को लागू करने के अवरोध को ख़त्म कर देने का है। अर्थशास्त्र की सामान्य समझदारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि करोंउत्पादन/कस्टम शुल्कोंऔर नाममात्र के ब्याज पर कर्ज देने का अर्थ है राज्य सरकार को होने वाला भारी राजस्व घाटा। और जो इतना समझ लेगावह यह भी जानता है कि राज्य सरकार अपनी आमदनी में होने वाले घाटे को जनता की जेब से वसूल करेगी। इसके अतिरिक्तइन कम्पनियों को अपनी परियोजनाओं के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण में भी हर किस्म की सुविधा दी जायेगी। सरकार ने दस्तावेज में आगे कहा है कि भूमि अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया को बेहद आसान और हल्का बना दिया जायेगा। इसके लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किये जायेंगे जो समयबध्द सीमा में काम का निपटारा करेंगे। काशमजदूरों के साथ होने वाले औद्योगिक विवादवेतन के मारे जाने और श्रम कानूनों के उल्लंघन आदि के निपटारे के लिए भी राज्य सरकार कोई समय-सीमा तय करती! लेकिन ऐसी आशा करनावह भी पूँजीपतियों की 'मैनेजिंग कमेटीके तौर पर नंगे रूप में काम कर रही एक सरकार सेलगभग पागलपन की श्रेणी में आयेगा। जाहिर हैकि सरकार तो श्रम कानूनों को तिलांजलि देकर परिभाषा के धरातल पर ऐसे विवादों को ही ख़त्म कर देना चाहती है। यानी कि अब भी मालिक मजदूरों के साथ उसी तरहबल्कि उससे भी बुरी तरह से अन्याय करेगालेकिन कानून की निगाह में वह कोई विवाद माना ही नहीं जायेगा क्योंकि इस अन्याय को ही कानूनी जामा पहना दिया जायेगा। राज्य पूँजीपतियों के अधिनायकत्व के उपकरण के रूप में यहाँ स्पष्ट रूप से दिख रहा है।
'उद्देश्यशीर्षक के तहत अन्त में एक बिन्दु जोड़ दिया गया है कि समाज के पिछड़े तबकों जैसे दलितोंआदिवासियोंलघु उद्यमियोंमहिलाओं के लिए सरकार क्या कर रही है। इसके तहत सरकार ने बस एक जुमला फेंक दिया है - इनको ''मुख्य धारा'' में लाया जायेगा। जी हाँउसी तरह जैसे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को ''मुख्य धारा'' में लाया जा रहा है! इसके अतिरिक्त यह भी वायदा किया गया है कि नक्सलवाद से प्रभावित परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन और विशेष सुविधाएँ दी जायेंगी!
उद्देश्यों के प्रतिपादन के बाद दस्तावेज 'रणनीतिके बारे में बताता है। छत्तीसगढ़ सरकार गर्व से बताती है कि राज्य के औद्योगिक विकास के लिए नये औद्योगिक क्षेत्र स्थापित किये जायेंगे और इसके लिए जमीन आरक्षित की जायेगी। ''जमीन आरक्षित करने'' का अर्थ समझाने की आवश्यकता नहीं हैहम सभी जानते हैं। इसके अतिरिक्त, ''विशिष्ट औद्योगिक पार्कों'' की स्थापना की जायेगी। जाहिर है कि इन ''विशिष्ट औद्योगिक पार्कों'' की ''विशिष्टता'' इस बात में निहित होगी कि इनमें कम्पनियों को हर तरह के करब्याजश्रम कानूनक्लियरेंस आदि के झंझट से छुटकारा मिल जायेगा। मुनाफे के चक्के के धुरे में सरकार ने हर प्रकार का तेल और ग्रीज उड़ेल दिया है! उत्पादन की जगह पर हर प्रकार के सिरदर्द से छुटकारे के वायदे के बाद सरकार कम्पनियों को यकीन दिलाती है कि उत्पादन के बाद उसे विपणन के क्षेत्र तक पहुँचाने के लिए परिवहन की उत्तम व्यवस्था की जायेगी। इसका अर्थ है कि सरकार औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादों को प्रमुख विपणन बिन्दुओं तक पहुँचाने के लिए एक्सप्रेस वेटोल वेआदि-आदि का निर्माण करेगी। जनता तो इन राजमार्गों पर चल नहीं पायेगीलेकिन इसका निर्माण जनता के पैसों से ही होगा। अवसंरचना के विकास के नाम पर सरकार ने उस अवधारणा का उपयोग करने की बात की है जो पूरे देश में जनता के लिए चुटकुला बन चुका है। इस चुटकुले का नाम है पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप। यह नाम पहली बार सुनने में तो बहुत अच्छा लगा था। ऐसा लगा था मानो नीति-निर्धारण और मुनाफे में हिस्सेदारी के लिए जनता के पक्ष को शामिल किया जा रहा है। लेकिन इस अवधारणा के कार्यान्वयन के कुछ प्रारम्भिक मॉडल देखकर ही समझ में आ गया कि इसका अर्थ क्या है। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का अर्थ एक ऐसी साझीदारी है जिसमें सारी लागत उठायेगी पब्लिक और सारा मुनाफा चाँपेगा प्राइवेट! दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक में जहाँ-जहाँ इसे लागू किया गया हैवहाँ यही हुआ है। ''पब्लिक'' की ओर से भागीदारी करती है सरकार जो जनता से वसूले गये धन से अवसंरचना के निर्माण का बड़ा ख़र्च उठाती हैकिसान जनता से बलात् औनी-पौनी कीमतों पर जमीन लेकर पूँजीपतियों को मुहैया कराती है। ''प्राइवेट'' के नाम पर पूँजीपति उन कामों को अपने जिम्मे लेते हैंजिनमें कम लागत हो और निर्माण में लगे मजदूरों को निचोड़ने के मनमाने अवसर अधिकाधिक हों। जाहिर है कि जब पूरा अवसंरचनात्मक ढाँचा खड़ा हो जाता है तो उसका इस्तेमाल प्राइवेट सेक्टर के उद्योग मनमानी शर्तों पर अतिलाभ निचोड़ने के लिए करते हैं। यह सब होता है विकास के नाम परलेकिन व्यापक जनता को मिलती है सिर्फ विस्थापन की विभीषिका और उजरती ग़ुलामी का नारकीय जीवन।
तमाम असाधारण और अद्भुत रणनीतियों का बखान करते हुए सरकार कहती है कि वह बीमार और बन्द उद्योगों का पुनर्वास करेगी। पुनर्वास को आप स्वर्गवास भी पढ़ सकते हैं। अब तक ऐसे उद्योगों के कैसे पुनर्वास हुए हैंहम सभी जानते हैं। या तो उन्हें औने-पौने दामों पर निजी हाथों में बेच दिया जाता हैया फिर ऊपर बतायी गयी नायाब अवधारणा के तहत 'पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिपके नाम पर किसी कम्पनी को बेंच दिया जाता है। छत्तीसगढ़ में इससे कुछ अलग करने का इरादा सरकार का होऐसा मानने का एक भी कारण जनता के पास नहीं है।
'रणनीतिशीर्षक के अन्त में सरकार क्या कहती हैजरा ग़ौर करें
''राज्य में उद्योगों के लिए आरक्षित भूखण्ड एवं नये औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना के लिए विशाल पैमाने पर भू-अध्रग्रहण को सुगम बनाने हेतु जिला एवं राज्‍य स्‍तर पर उद्योग विभाग के कार्यालयों को सशक्‍त बनाना।'' (जोर हमारा)
हम पहले ही बता आये हैं कि ऐसे सुगमीकरण का क्या अर्थ है। इसका अर्थ होगा जनता से जबरन जमीन हथियाकर मुआवजे के नाम पर उन्हें मामूली रकम थमाकर (ज्यादातर मामलों में सिर्फ काग़ज पर) घर बिठा देना और चूँ-चपड़ करने पर सबक सिखाना। भू-अधिग्रहण का मसला इस समय छत्तीसगढ़ समेत तमाम उन राज्यों में सबसे विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है जहाँ वामपन्थी दुस्साहसवाद का प्रभाव है। आदिवासी जनता को जबरन उनके जीविकोपार्जन के अन्तिम साधनों से भी मरहूम कर देने की सरकारी कोशिशों के ख़िलाफ आदिवासी जनता बग़ावत करने को मजबूर है और इन्हीं परिस्थितियों में वामपन्थी दुस्साहसवाद की सोच के जड़ जमाने के कारण निहित हैं। इन्हें सरकार लाख चाहकर भी सैन्य तरीकों से ख़त्म नहीं कर सकती। जनता अपना प्रतिरोध छोड़ ही नहीं सकती क्योंकि यह उसके लिए जीवन-मृत्यु का प्रश्न है। बेशकइस प्रतिरोध युध्द में उसे विजय हासिल न होलेकिन जब करोड़ों की आबादी को उनके जीवन के आख़िरी साधनों से विस्थापित कर दिया जायेगातो उनके सामने लड़ते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। उन्हें नेतृत्व देने के लिए वहाँ कोई भी ताकत मौजूद होतीतो वे उसके साथ खड़े होकर लड़ते।
लेकिन आख़िरी बिन्दु में छत्तीसगढ़ सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि भू-अधिग्रहण की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रहेगीबल्कि सरकार इसे और अधिक ''सुगम'' बनायेगी।
इस शीर्षक के बाद दस्तावेज कार्यनीतियानी एक्शन प्लानको स्पष्ट करता है। सबसे पहले बुनियादी अधोसंरचना के विकास के लिए कार्यनीति प्रतिपादन किया गया है। इसके लिए सरकार ने लगातार पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का गुणगान किया है। हमें बताया जाता है कि पीपीपी के तहत एक कॉमन रेल कॉरीडोर का निर्माण किया जायेगा। इसका मकसद होगा राज्य के औद्योगिक क्षेत्रों को खनन-उत्खनन के क्षेत्रों से जोड़ना। पीपीपी के नाम पर इसके इस्तेमाल का ख़र्च बहुत मामूली होगा। जैसाकि हमने पहले ही बताया है कि इस अवधारणा का अर्थ होता है पब्लिक के लिए लागत उठानाऔर प्राइवेट के लिए मुनाफा कमाना। इस कॉरीडोर के निर्माण के बाद औद्योगिक क्षेत्र में परियोजनाएँ लगाने वाले पूँजीपतियों की लागत में भारी कमी आ जायेगी। यानीमुनाफे में कई गुना की वृध्दि सुनिश्चित! कॉमन रेल कॉरीडोर के साथ ही पीपीपी के ही तहत वृहद औद्योगिक परियोजनाओं (यानी कई हजार करोड़ की लागत वाली बड़ी कम्पनियों के उपक्रम के क्षेत्रों) में बड़े पैमाने पर सड़कों और राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ने वाले पहुँच सड़क मार्गों का निर्माण किया जायेगा। इसका अर्थ भी लागत में भारी कमी हैऔर वह भी जनता के ख़र्चे पर। यह भार स्थानान्तरित करने जैसा है। आगे सुनिये पीपीपी का कमाल!
पीपीपी के ही तहत तकनीकी प्रशिक्षण संस्थान बनाये जायेंगे। इसका कारण यह है कि विशालकाय औद्योगिक परियोजनाओं के लगने के बाद पूँजीपतियों को थोड़ी कुशल श्रमशक्ति की जरूरत भी पड़ेगी। और इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों को खड़ा किया जायेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि ये संस्थान स्वयं मुनाफा कमाने के उपक्रम होंगे। इसीलिए तो इनका भी ''पीपीपीकरण'' कर दिया जायेगा। लागत उठायेगी पब्लिकमुनाफा कमायेगा प्राइवेट!
बुनियादी अधोसंरचना निर्माण के लिए कार्यनीति के बयान के बाद दस्तावेज औद्योगिक अधोसंरचना निर्माण की कार्यनीति पर आ जाता है। इसमें सबसे पहले एक रस्मी वाक्य जोड़ा गया है कि सन्तुलित औद्योगिक विकास के लिए लघु और सूक्ष्म उद्योगों के लिए भूमि आबण्टित की जायेगी। लेकिन इसके बाद सरकार अपने असली एजेण्डा पर आ जाती है। निजी क्षेत्र को राज्य में औद्योगिक क्षेत्र निर्माण के लिए कम-से-कम 75 एकड़ की भूमि आबण्टित की जायेगी। इन क्षेत्रों में सरकार ने अधिकतम सम्भव छूटें और रियायतें देने का वायदा किया है। इसका अर्थ है कि जमीनबिजलीपानीकर्जश्रमशक्ति को कम-से-कम लागत में उपलब्ध कराने का वायदा। इन निजी औद्योगिक क्षेत्रों को मुनाफा कमाने के लिए हर प्रकार की छूट दी जायेगी। भू-अधिग्रहण और भू-आबण्टन की प्रक्रिया को बिल्कुल सुगम और बाधारहित बनाने का सरकार ने एलान किया है। यानी कि चुटकियों में जनता के हाथ से जमीन छीनी जायेगी और चुटकियों में उसे कारपोरेट घरानों और इजारेदार पूँजीपतियों के हवाले कर दिया जायेगा। नाम के लिए सरकार ने कहा है कि अगर जमीन देने वाले परिवारों में से कोई स्वयं उद्योग लगाना चाहता है तो उसे प्राथमिकता दी जायेगी। लेकिन हम सभी जानते हैं कि वृहद औद्योगिक विकास वाले क्षेत्रों में जिस लागत से किसी भी औद्योगिक उपक्रम को स्थापित किया जा सकता है उसका ख़र्च उठा पाना किसी मध्‍यमवर्गीय परिवार के भी बूते की बात नहीं हैग़रीबों को तो छोड़ ही दिया जाये। इसलिए यह बात जोड़ना एक मजाक जैसा ही है। इसी मजाक के बाद एक मजाक और भी किया गया है। भू-अधिग्रहण पर जमीन के मालिक को ''समुचित मुआवजा'' दिया जायेगा! अब यह समुचित मुआवजा कितना होगा और कौन इसे तय करेगाइसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है। औद्योगिक उपयोग के लिए जमीन की क्रय-विक्रय दर के अनुसार भुगतान किया जायेगा या किसी और दर सेयह भी निर्दिष्ट नहीं है। इसे तय करने की शक्ति किसके पास होगीयह भी गोपनीय रखा गया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि यह ''समुचित मुआवजा'' कितना समुचित होगा!
दस्तावेज आगे कहता है कि उद्योग-विशिष्ट औद्योगिक पार्क बनाये जायेंगे। यानी कि ऐसे विशेष आर्थिक क्षेत्र जिसमें किसी एक श्रेणी के ही उद्योग होंगे। इसके तहतजेम्स एण्ड ज्यूलरीफूड प्रोसेसिंग पार्कहर्बल एण्ड मेडिसिनल पार्कमेटल पार्कऐपेरेल पार्कइंजीनियरिंग पार्करेलवे सहायक उद्योगउद्योग कॉम्प्लेक्सएल्यूमीनियम पार्कप्लास्टिक पार्कग्रामोद्योग पार्क एवं फार्मास्यूटिकल पार्क बनाये जायेंगे। जाहिर हैउद्योग विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों को भी सरकार ढेर सारे तोहफे दे रही है। ऐसे पार्कों को बनाने से इसमें निवेश करने वाले पूँजीपतियों को लागत घटाने में और अधिक सहायता मिलेगी। इसका कारण यह है कि एक ही पेशे पर आधारित विशेष आर्थिक क्षेत्रों में कुशल श्रमशक्तिकच्चे मालभण्डारण से लेकर लॉजिस्टिक्स तक प्राप्त करना कहीं अधिक सुगम हो जायेगा। और श्रमशक्ति की उपलब्धता को कम-से-कम दरों पर सुनिश्चित करने का इन्तजाम तो छत्तीसगढ़ सरकार पहले से ही कर रही है - हर प्रकार के श्रम कानूनों को लागू करने के बन्‍धन से कम्पनियों को मुक्ति देकर। इस तरह के नये औद्योगिक क्षेत्रों के लिए उच्च भारवहन क्षमता की सड़कें व अन्य कई सुविधाओं का भी निर्माण किया जायेगा। अब यह एक विडम्बना ही है कि आज तक छत्तीसगढ़ के पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जरूरत के लिए वहाँ कभी भी अवसंरचनात्मक निर्माणसामाजिक आवश्यकताओं के लिए स्कूलोंअस्पतालों आदि के निर्माण और विद्युत और सड़कपीने योग्य पानी आदि की पहुँच का इन्तजाम नहीं किया गया। लेकिन जैसे ही यह क्षेत्र एक पसन्दीदा निवेश का स्थान बनावैसे ही सरकार को विकास की याद आ रही है। कारण साफ है। एक पूँजीवादी व्यवस्था में विकास हर-हमेशा पूँजी और पूँजीपतियों का विकास होता है।
अन्त मेंपर्यावरण संरक्षण पर एक रूटीनी बिन्दु जोड़ने के बाद दस्तावेज प्रशासकीय व कानूनी सुधार के लिए चुनी गयी कार्यनीति पर आ जाता है। यह पूरे दस्तावेज के सबसे महत्त्‍वपूर्ण उपशीर्षकों में से एक है। केवल पाँच बिन्दुओं में सरकार ने पूँजीपतियों की हितपूर्ति में उनकी मैनेजिंग कमेटी के तौर पर अपने कार्यभारों को स्पष्ट कर दिया है। पहले बिन्दु में सरकार क्या कहती हैजरा सुनिये -
''मेगा औद्योगिक परियोजनाओं के ''क्लियरेंस'' से सम्बन्धिात प्रकरणों के त्वरित निराकरण हेतु राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड में उद्योगों/ निवेशकों द्वारा प्रस्तुत एकीकृत आवेदन पत्र पर विभिन्न विभागों द्वारा की गयी कार्यवाही की सतत समीक्षा उच्च स्तर पर की जायेगी।''
इस स्पष्ट कथन के बारे में वैसे तो किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं हैलेकिन फिर भी। सरकार ने अद्भुत स्पष्टवादिता के साथ कहा है कि मेगा परियोजनाओं (100 से 1000 करोड़ रुपये के स्थायी निवेश वाली परियोजनाओं) के मामले में जिन क्लियरेंस प्रक्रियाओं से कम्पनियों और कारपोरेट घरानों को गुजरना पड़ता हैउसे बिल्कुल सीधा और सरल बना दिया जायेगा और इसमें निहित हर प्रकार की लालफीताशाही को समाप्त किया जायेगा। इसके लिए एक उच्च स्तरीय बोर्ड बनाया गया हैजिसका नाम है राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड। इस बोर्ड में किसी भी विभाग में क्लियरेंस की प्रक्रिया के फँसने या विलम्बित होने की समीक्षा उच्च स्तर पर की जायेगी।
अब पूँजीपतियों के पक्ष में की गयी इस कार्रवाई की तुलना मजदूरों के साथ होने वाले अन्यायों की सुनवाई के लिए स्थापित सरकारी प्रक्रिया से कीजिये। अगर किसी मजदूर का वेतन मारा जाता हैउसे अन्यायपूर्ण ढंग से काम से निकाला जाता हैन्यूनतम मजदूरी का भुगतान नहीं किया जाताई.एस.आई./पी.एफ की व्यवस्था नहीं की जातीऔर वह इसके विरुध्द कार्रवाई का फैसला लेता हैतो उसके पास क्या रास्ता हैउसके पास यह रास्ता है कि वह भ्रष्ट और पूँजीपतियों के हाथों बिके हुए और उनकी गोद में बैठे श्रमायुक्त या उप-श्रमायुक्त कार्यालय या लेबर कोर्ट के चक्कर काटता रहे। और इसके चक्कर काटने में ही उसकी इतनी रकम ख़र्च हो जाये जितनी रकम पर दावे के लिए वह लड़ रहा है! हर मजदूर जानता है कि इस चक्कर में फँसने से बेहतर है कि ग़ुस्से को पीकर 'संतोषं परं सुखंका जाप किया जाये और अपने साथ हुए अन्याय को भूल जाया जाये। लेकिन पूँजीपतियों का हित न मारा जाये और उनके उद्योगों को हर सुविधा और छूट/रियायत के साथ लगाने का काम त्वरित गति सेबिना लालफीताशाही की बाधा के होइसके लिए अलग बोर्ड और विभाग तक बनाने में सरकार देर नहीं करती! कारण समझा जा सकता है! पूँजीपतियों के मुनीमों और मुंशियों से और क्या उम्मीद की जाये?
आगे सुनिये
''राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड ''सिंगल विण्डो प्रणाली'' के सचिवालय के रूप में कार्य करेगा। छत्तीसगढ़ औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन अधिनियम-2002 के अन्तर्गत बनाये गये छत्तीसगढ़ औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन नियम-2004 के अधीन जिला स्तर पर गठित जिला निवेश प्रोत्साहन समितियों तथा राज्य स्तर पर गठित राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड की कार्य-प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिए निवेश प्रस्तावों पर सम्बन्धिात विभाग द्वारा निर्धारित कालावधि के भीतर आवश्यक ''क्लीयरेंस'' उपलब्ध कराने के लिए उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक की पध्दति अपनायी जायेगी।''
मुनाफे के रास्ते से हर तरह के रोड़े हटाने के लिए छत्तीसगढ़ की रमण सिंह सरकार ने शायद सबसे व्यवस्थित ढंग से काम किया है। कानून और नियम बनाकर कम्पनियों के रास्ते से हर प्रकार के अवरोधों को हटाने का प्रयास किया गया है। जैसाकि ऊपर उद्धृत अंश से स्पष्ट हैसरकार ने ऐसे विशेष मण्डलसमितियाँ और कानूनी ढाँचे की रचना की है जिससे औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित करने की पूरी प्रक्रिया को पूँजीपतियों के लिए बेहद सुगम बनाया जा सके। ज्ञात हो कि किसी भी औद्योगिक इकाई की स्थापना पर कम्पनियों को तमाम किस्म के क्लीयरेंस लेने होते हैं। मिसाल के तौर परपर्यावरणीय मूल्यांकन रिपोर्ट देकर बताना होता है कि इस इकाई से धवनिजलवायु और जैव विविधता पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। साथ हीउन्हें यह भी बताना पड़ता है कि आस-पास के सामाजिक-आर्थिक माहौल के लिए भी इस औद्योगिक इकाई की स्थापना लाभदायक होगी। इस पूरी प्रक्रिया के लिए कम्पनियों को परामर्शदाताओं और यह काम करने में माहिर एजेंसियों को भाड़े पर रखना पड़ता हैइसके बादतमाम सरकारी विभागों के अफसरों आदि को जमकर खिलाना-पिलाना पड़ता हैताकि पूरी प्रक्रिया छोटी और आसान हो जाये। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में कम-से-कम नाममात्र के लिए ही सहीइस प्रक्रिया को अपनाया जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने इस रस्म-अदायगी के बोझ से भी छत्तीसगढ़ में पूँजीपतियों को मुक्त कर दिया है। अब सरकारी अधिकारी स्वयं पूँजीपतियों के कारकून की तरह काम करते हुए ''सिंगल विण्डो प्रणाली'' के तहत सारे नियमों-कानूनों को ताक पर रखकर त्वरित प्रक्रिया से हर प्रकार के क्लियरेंस के काम को अंजाम देंगे।
इस उपशीर्षक के तीसरे बिन्दु में सरकार पूँजीपतियों के प्रति अपने तीसरे कर्तव्य की बात करते हुए बताती है
''मेगा औद्योगिक परियोजनाओं के भू-अर्जन/भू-आबण्टनजल आबण्टन एवं विद्युत प्रदाय सम्बन्धी प्रकरणों के समय-सीमा में निराकरण हेतु नोडल अधिकारी नामांकित किये जायेंगे जो प्रकरणों के त्वरित निराकरण हेतु कार्य करेंगे।''
रमण सिंह सरकार ने जमीन हड़पनेलगभग मुफ्त में पानी और बेहद रियायती दरों पर बिजली देने और इसके सम्बन्‍ध में होने वाले किसी भी विवाद या मुद्दे के निपटारे के लिए एक अलग नोडल अधिकारी की नियुक्ति की घोषणा कर पूँजीपतियों को एक और बहुत बड़ी राहत देने की घोषणा की है। यह नोडल अधिकारी भी निर्धारित समय-सीमा के भीतर इन प्रकरणों का निपटारा करेगा। सरकार अपनी कार्यक्षमताकुशलता और वफादारी को कम्पनियों और कारपोरेट घरानों की निगाह में साबित करने के लिए काफी तत्पर दिखायी देती है।
चौथे बिन्दु में सरकार यह भरोसा दिलाती है कि ऐसे औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना के बाद उद्योगों की आवश्यकताओं के त्वरित निराकरण के लिए नये सरकारी व्यापार व उद्योग केन्द्रों आदि की स्थापना की जायेगी। यानी कि न सिर्फ उद्योगों को लगाने के दौरानबल्कि उनके प्रचालन के शुरू होने के बाद भी इस बात का पूरा ख़याल रखा जायेगा कि उन्हें किसी किस्म की असुविधा न हो।
आख़िरी बिन्दु मजदूरों के लिए सबसे महत्त्‍वपूर्ण है और शायद इसीलिए इसे सरकार ने संक्षिप्ततम रखने का प्रयास किया है। देखिये सरकार क्या कहती है
''श्रम कानूनों के सरलीकरण और उन्हें युक्तियुक्त बनाने हेतु पहल की जायेगी।'' (जोर हमारा)
वाह! क्या कहने हैं! श्रम कानूनों को और अधिक सरलीकृत और युक्तियुक्त बना दिया जायेगा। तो उसमें बचेगा क्याविशेष आर्थिक क्षेत्र में वैसे भी अधिकांश श्रम कानून नहीं लागू होते हैं और मालिकों को इसका कानूनी अधिकार भी सरकार ने सौंप दिया है। अब इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में और भी अधिक आसानी से मजदूरों का हक मारा जा सकेइसके लिए कानूनों को और अधिक पंगु और प्रभावहीन बना देने का आश्वासन सरकार ने पूँजीपतियों को दिया है। सरकार यह नहीं बताती है कि किसके पक्ष में कानूनों को युक्तियुक्त बनाया जायेगा। यह ''युक्तियुक्त'' काफी युक्तिपूर्ण शब्द है। मेगा औद्योगिक परियोजनाओं (100 से 1000 करोड़ रुपये के स्थायी पूँजी निवेश वाली औद्योगिक परियोजनाएँ) निश्चित रूप से बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा लगायी जायेंगी। उन्हें भी हर प्रकार के बन्‍धन से मुक्त कर दिया जायेगा। यह है श्रम कानूनों को युक्तियुक्त बनाने का अर्थ। यानीमजदूरों को नाममात्र के लिए प्राप्त कानूनी सुरक्षा से भी पूर्ण मुक्ति! वे अब कानूनी तौर पर कोई दावा भी नहीं कर सकेंगे। उन्हें शाब्दिक अर्थों में उजरती ग़ुलाम बना दिया जायेगा। सरकार के इरादे और पक्षधरता साफ हैं।
इसके बाद दस्तावेज नये शीर्षक ''उद्योगों के दायित्व'' पर आ जाता है। आप इसे पढ़ते ही समझ जाते हैं कि दस्तावेज का मसविदा तैयार करने वाले को सबसे अधिक अक्ल इसी हिस्से को तैयार करने में लगानी पड़ी होगी। ऐसा लगता है कि सरकार को समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस शीर्षक के तहत लिखा क्या जायेउद्योगों के दायित्व!काफी जोर लगाकर छह बिन्दु तैयार किये गये हैं जिनमें कम्पनियों को छत्तीसगढ़ राज्य के निवासियों को रोजगार का बड़ा हिस्सा देने के लिए कहा गया है। इसके बादकही गयी बातें अनिवार्यता की श्रेणी में नहीं बल्कि सुझाव की श्रेणी में आती हैं। मिसाल के तौर परकम्पनियों को राज्य के तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों में कैम्पस सेलेक्शन के लिए प्रेरित किया जायेगा। परियोजनाओं से प्रभावित जिलों में सामुदायिक विकास के लिए ''मुख्यमन्त्री सामुदायिक विकास कोष'' बनाया जायेगा (यह भला उद्योगों का दायित्व कैसे हैइसमें तो सरकार अपना ही एक दायित्व बता रही है! ख़ैर!) इसी तरहउद्योगपतियों को पर्यावरण का अधिक से अधिक ख़याल रखते हुए रेन वाटर हार्वेस्टिंग आदि करने की सलाह दी गयी है। इसके अलावाउन्हें एनर्जी ऑडिट करने के लिए भी कहा गया है। साफ हैकि यह उपशीर्षक इस पूरे दस्तावेज में नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसके बादसरकार ''निर्यात संवर्धन एवं एफ.डी.आई. निवेश'', ''प्रक्रिया सरलीकरण एवं सहायक उद्योगों का विकास'', ''उद्यमिता एवं मानव संसाधन विकास'' के शीर्षकों के तहत पूँजीपतियों के प्रति पहले जतायी गयी प्रतिबध्दताओं को ही दोहराया गया है। मिसाल के तौर परसरकार कहती है कि 100 प्रतिशत निर्यात करने वाले उद्योगों व एफ.डी.आई. निवेशकों और आप्रवासी भारतीय निवेशकों को राज्य में उद्योग स्थापित करने पर अतिरिक्त छूटें/रियायतें दी जायेंगी। प्रक्रिया सरलीकरण के तहत हमें बताया जाता है कि जमीन हड़पने के रास्ते में जो कानून बाधा बनते हैंउन्हें भी युक्तियुक्त बना दिया जायेगा। यानीउनका क्रियाकर्म कर दिया जायेगा। ठेकेदारों के लिए भी काफी प्रक्रिया सरलीकरण किया जा रहा है। उनके लिए ई-टेण्डरिंग की व्यवस्था की जायेगी और इसके लिए उन्हें समुचित प्रशिक्षण दिया जायेगा। मानव संसाधन विकास से सरकार का क्या अर्थ हैइसे भी स्पष्ट किया गया है। राज्य के तमाम कुशल/अर्ध्दकुशल/अकुशल श्रमिकों को तो विशेष आर्थिक क्षेत्र और मेगा व अल्ट्रा मेगा औद्योगिक परियोजनाओं में कोयले के समान झोंक दिया जायेगालेकिन इसके बाद भी जो भारी मजदूर और युवा आबादी बेरोजगार बचेगीउसे सरकार ने स्वरोजगार का उपदेश दिया है। इसके लिए ऋण संस्थाएँ स्थापित की जायेंगी। बताने की जरूरत नहीं है कि इन सूक्ष्म ऋण योजनाओं से सरकार कितनी जबरदस्त कमाई करती है। स्वरोजगार के भ्रम में युवाओं और मजदूरों की भारी आबादी अर्ध्दबेरोजगार बनी रहती है और ऋण का ब्याज भरने और जीविकोपार्जन की न्यूनतम बुनियादी शर्तों को मुश्किल से पूरा कर पाने के दबाव में ही आर्थिक और भौतिक तौर पर ख़र्च हो जाती है। आगे के शीर्षक में यह भी बताया गया है कि युवाओं के बीच व्याप्त बेरोजगारी को दूर करने के लिए राज्य में ''मुख्यमन्त्री स्वरोजगार योजना'' शुरू की जायेगा। इस योजना का यही लक्ष्य है। बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की मशीनरी जिस आबादी को खपाने में अक्षम होगीउसे इस योजना के तहत एक लॉलीपॉप थमा दिया जायेगा।
''औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन'' शीर्षक के तहत सरकार ने पूँजीपतियों की सेवा में कुछ महत्त्‍वपूर्ण घोषणाएँ की हैं। सरकार उद्योगों को उनकी पात्रता के अनुसार ब्याज अनुदानस्थायी पूँजी निवेश अनुदानविद्युत शुल्क से छूटस्टाम्प शुल्क से छूटऔद्योगिक क्षेत्रों में भू-आबण्टन पर प्रीमियम में छूट/रियायतपरियोजना प्रतिवेदन अनुदानभूमि व्यपवर्तन शुल्क से छूटगुणवत्ता प्रमाणीकरण अनुदानतकनीकी पेटेण्ट अनुदान व मण्डी शुल्क प्रतिपूर्ति अनुदान जैसी महत्त्‍वपूर्ण छूटें/रियायतें दी जायेंगी। 100 प्रतिशत एफ.डी.आई. निवेशकों को अन्य उद्यमियों से 5 प्रतिशत अधिक अनुदान दिया जायेगा। महिला उद्यमियोंराज्य के सेना से सेवानिवृत्त उद्यमियोंव नक्सलवाद से प्रभावित परिवारों को सामान्य से 10 प्रतिशत अधिक अनुदान प्राप्त होगा। परिशिष्ट 1-''परिभाषाएँ'' खण्ड में नक्सलवाद से प्रभावित व्यक्ति/परिवार को उन व्यक्तियों/लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो राज्य में नक्सलवाद के उन्मूलन के दौरान शहीद हुए हैं। स्पष्ट हैसरकार सलवा जुडुमऔर इस जैसी अपने अनौपचारिक और ग़ैर-कानूनी सशस्त्र दस्तों के मारे गये लोगों को यह छूट दे रही हैजो आदिवासियों पर बर्बर से बर्बर दमन के कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। जाहिर है कि नक्सलवाद/माओवाद के उन्मूलन के नाम पर पुलिसअर्ध्दसैनिक बलों और सलवा जुडुम की सरकार समर्थित गुण्डा-वाहिनियों ने जिन निर्दोष आदिवासियों को मारा या उजाड़ा हैउन्हें या उनके परिवार को सरकार कोई राहत नहीं देने जा रही हैक्योंकि वह उन्हें दुर्दान्त आतंकवादी मानती है।
अब जरा देखिये कि किन-किन उद्योगों को कितनी छूट/रियायत दी गयी है।
सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों को आर्थिक विकास की दृष्टि से पिछड़े और विकासशील क्षेत्रों के अनुरूप कर्ज क़े ब्याज पर 40 प्रतिशत से 90 प्रतिशत छूट दी जायेगी। स्थायी पूँजी निवेश के मामले में इन उद्योगों को इस निवेश पर 30 से 50 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। मँझोले उद्योगों को भी कर्ज के ब्याज पर लगभग इतनी ही छूट दी जायेगी। स्थायी पूँजी निवेश पर मँझोले उद्योगों को 35 से 45 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। वृहद उद्योगों को भी स्थायी पूँजी निवेश पर 35 से 45 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। मेगा/अल्ट्रा मेगा परियोजनाओं को स्थायी पूँजी निवेश पर 35 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। कुल मिलाकरइन छूटों से सरकारी ख़जाने का हजारों करोड़ रुपये का घाटा होगा। जाहिर है कि इस घाटे को मजदूरों और आम मेहनतकश आबादी को और ज्यादा निचोड़कर कम किया जायेगा। नये औद्योगिक क्षेत्रों में हर आकार की औद्योगिक परियोजनाओं को विद्युत शुल्क से से 12 वर्ष तक की छूट होगी। यानी कि राज्य के बिजली उत्पादन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा पूँजीपतियों को मुफ्त में सौंप दिया जायेगा। पूँजीपतियों को स्टाम्प शुल्क से भारी छूट के रूप में भी सार्वजनिक मद में राज्य सरकार भारी नुकसान उठाने को तैयार है। जाहिर हैइसकी भरपाई भी मेहनतकश जनता की जेब काटकर की जायेगी।
छूटों/रियायतों की फेहरिस्त अभी ख़त्म नहीं हुई है। भू-आबण्टन में उद्योगपतियों से लिये जाने वाले भू-प्रीमियम में भी 50 से 100 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। इसके अतिरिक्तपरियोजना प्रतिवेदन पर होने वाले पूँजीपतियों के ख़र्च को भी सरकार अनुदान देकर कम कर देगी या माफ कर देगी। गुणवत्ता प्रमाणीकरण पर होने वाले ख़र्च को भी सरकार अनुदान के जरिये भर देगी और भू-आबण्टन पर लगने वाले सेवा शुल्क पर भी से 20 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। पूँजीपति उद्योग लगाने के बाद किसी वस्तु के उत्पादन के लिए जो पेटेण्ट ख़रीद करेंगेउसका भी 50 प्रतिशत सरकार भर देगी। जिन मामलों में कृषि उपज मण्डी से कच्चा माल ख़रीदा जायेगाउसमें भी सरकार 50 प्रतिशत तक की राशि को अपने ख़जाने से भरेगीजो वास्तव में सार्वजनिक मद है। निजी औद्योगिक क्षेत्रों और पार्कों की स्थापना के लिए भी सरकार अधोसंरचना लागत पर 25 प्रतिशत तक की छूटडायवर्सन शुल्क से पूर्ण छूट और स्टाम्प शुल्क से पूर्ण छूट देगी।
कुल मिलाकर देखा जाये तो छत्तीसगढ़ सरकार विभिन्न छूटों और रियायतों के नाम पर कारपोरेट जगत को हजारों करोड़ रुपये का तोहफा दे रही है। ये हजारों करोड़ रुपये जो सरकारी ख़जाने में जातेअब वे पूँजीपतियों की जेब में जायेंगे। अगर वे सरकारी खजाने में भी चले जाते तो निश्चित रूप से उनका बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचारी नेताओं और विराट और भ्रष्ट नौकरशाही की जेब में चला जाता। लेकिन इतने भारी राजस्व घाटे के कारण इन पाँच वर्षों के दौरान अप्रत्यक्ष करों के रूप में जनता की जेब पर भारी बोझ डाला जायेगा। पहले से ही दरिद्रताबेरोजगारी और विस्थापन की मार झेल रही छत्तीसगढ़ की आम मेहनतकश जनतामजदूर और आदिवासी इस बोझ तले दबकर अपनी जीविका के अन्तिम स्रोतों के लिए भी तरस जायेंगे। मजदूरों की भारी आबादी को पहले से भी अधिक समय तक पुरानी या कई मामलों में उससे भी कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। नये आर्थिक क्षेत्रों और औद्योगिक पार्कों में शुरू से ही यूनियन बनाना असम्भवप्राय कार्य होगा। कई मामलों में इसे कानूनन निषिध्द करने का प्रयास किया जायेगा या फिर उसकी राह में इतने रोड़े खड़े कर दिये जायेंगेकि वास्तव में वह निषिध्द ही हो जायेगा। संक्षेप में कहें तो मजदूरों को संगठन के अधिकार से वंचित कर और अधिक सघन और व्यापक शोषण और उत्पीड़न के चक्कों के बीच पिसने के लिए फेंक दिया जायेगा।
यह औद्योगिक नीति पूँजीपतियों की प्रबन्‍धन समिति की भूमिका निभाने वाली एक पूँजीवादी सरकार की औद्योगिक नीति का क्लासिक उदाहरण है। राज्य के विकास का अर्थ राज्य के पूँजीपतियों या राज्य के भीतर देशी-विदेशी पूँजीपतियों के मुनाफे की तरक्की और बढ़ोत्तरी है। यह विकास का वही मॉडल है जो नयी आर्थिक नीतियों के 1991 में देश-स्तर पर खुले तौर पर लागू होने के बाद सभी चुनावी पूँजीवादी पार्टियों या उनके गठबन्‍धनों की सरकार ने अपनाया है। यह मॉडल है नवउदारवादी और भूमण्डलीकरण की नीतियों का मॉडलजिसे विश्व बैंकविश्व व्यापार संगठन और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का तिमुँहा राक्षस हमेशा से लागू करने की वकालत करता आ रहा है। यह मॉडल है देश की जनता की साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट का मॉडल। भारत का पूँजीपति वर्ग भी इसे देश स्तर पर और राज्यों के स्तर पर लागू कर रहा है। इस भूमण्डलीकृत लूट के कनिष्ठ साझीदार के तौर पर भारतीय पूँजीपति वर्ग श्रम की लूट के रास्ते के हर अवरोध को हटाने का काम कर रहा है। राज्य खुलकर जनता के कल्याणकारी के रूप में नहीं बल्कि पूँजीवादी हितों के रक्षक और विस्तारक के रूप में काम कर रहा है।
भूमण्डलीकरण के इस दौर मेंराज्य ने एक और भूमिका अपना ली है। श्रम और पूँजी के बीच पैदा होने वाले हर विवाद में उसने पूँजी को हर प्रकार के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया है। पहले मजदूरों के कल्याणस्वास्थ्यआवास और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा जैसे कई काम मालिक के जिम्मे हुआ करते थे और कानूनन उसे इन जिम्मेदारियों को निभाना पड़ता था। लेकिन नवउदारवादी नीतियों के खुले तौर पर लागू होने के बाद एक पूँजीवादी राज्य के अन्दर एक विशेष आभिलाक्षणिकता पैदा हुई है। मजदूरों के प्रति कई जिम्मेदारियों को तो अब समाप्त कर दिया गया है। जो जिम्मेदारियाँ बची भी हैंउनसे भी मालिक वर्ग को मुक्त कर दिया गया है। इन जिम्मेदारियों को भी राज्य ने ले लिया है। मनरेगाभावी सामाजिक सुरक्षा कानून और भावी खाद्य सुरक्षा कानूनआम आदमी बीमा योजना आदि जैसी तमाम योजनाएँ इसी बात की ओर इशारा करती हैं। ऐसे में बुध्दिजीवियों का एक हिस्सा राज्य का गुणगान करता है और कहता है कि ''देखो! देखो! राज्य अभी भी कल्याणकारी है!'' लेकिन यह महज ऑंखों का धोखा है। यह बोझे का कन्‍धा बदलना-भर है। राज्य ने कोई नया कल्याणकारी उत्तरदायित्व नहीं लिया है। उसने बस मालिक वर्ग को भारमुक्त कर अपने कन्‍धे पर तमाम उत्तरदायित्व ले लिये हैं। यह भी इसीलिए किया गया है कि मालिक वर्ग को किसी किस्म का सिरदर्द न मिले और वह तनावमुक्त होकर मुनाफा पीट सके। हर प्रकार के श्रम-पूँजी विवाद में भी श्रम कार्यालय की भूमिका इस प्रकार बदली है कि हम कह सकते हैं कि श्रम और पूँजी के बीच राज्य एक ऐसे मध्‍यस्थ की भूमिका अदा कर रहा है जिसकी स्पष्ट पक्षधरता पूँजी के साथ है। मजदूर काम की जगह से लेकर घर तकश्रम अधिकारों की रक्षा से लेकर अपने मानवाधिकारों की रक्षा तक पूरी तरह अरक्षित हैंजबकि मालिकों को हर प्रकार का राज्य संरक्षण प्राप्त है।
छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति भूमण्डलीकरण और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर की इन सभी चारित्रिक विशेषताओं से लैस है। पूँजीपतियों को हर प्रकार का संरक्षणमजदूर हर तरह से अरक्षित और बाजार की अन्धी शक्तियों के रहमो-करम पर। यह औद्योगिक नीति राज्य सरकार की पूँजीपतियों के साथ पक्षधरता का जीता-जागता सबूत है। इस पूरी औद्योगिक नीति में मजदूरों और आम मेहनतकश जनता के लिए अगर कुछ है तो वह सिर्फ लूटबरबादी और विस्थापन है।

बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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