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31.7.10

चीन में मजदूर संघर्षों का नया उभार

मजदूर हड़तालों के अनवरत सिलसिले से चीनी शासकों और दुनियाभर के पूँजीपतियों की नींद उड़ी

 
पिछले कुछ सप्ताहों के दौरान चीन में मजदूर हड़तालों की लहर ने चीन के कम्युनिस्ट नामधारी पूँजीवादी शासकों को हिलाकर रख दिया है। चीन के मजदूर वर्ग के संघर्ष के इस नये उभार ने दुनियाभर के पूँजीपतियों को भी चिन्ता में डाल दिया है। अब तक चीन के मजदूरों के सस्ते श्रम को निचोड़कर भारी मुनाफा पीटने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मुनाफा घटने की चिन्ता से परेशान हो उठी हैं।
पिछले करीब दो महीने के दौरान ही दक्षिण चीन के तटवर्ती इलाकों के औद्योगिक क्षेत्रों में 1000 से ज्यादा कारख़ानों में मजदूर हड़ताल कर चुके हैं। सभी जगह मजदूरों की लगभग एक-सी माँगें थीं - बेहद कम मजदूरी में बढ़ोत्तरी, काम के घण्टे कम करना, काम की अमानवीय परिस्थितियों को बेहतर बनाना और यूनियन बनाने का अधिकार देना। वैसे तो पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान चीन में मजदूरों के स्वत:स्फूर्त संघर्षों और हड़तालों का सिलसिला 2009 में कुछ महीनों को छोड़कर कभी थमा नहीं है, लेकिन पहले से अलग इन हड़तालों की एक ख़ास बात यह रही है कि अधिकांश जगहों पर मजदूर किसी न किसी हद तक अपनी माँगों को पूरा कराने में कामयाब रहे हैं।
पहले जो चीनी सत्ता किसी भी विरोध और हड़ताल को कुचलने के लिए पूरी ताकत के साथ टूट पड़ती थी, उसने इस बार न सिर्फ दमन कम किया बल्कि कई जगह तो मालिकान पर मजदूरों की माँगें मानने के लिए परोक्ष दबाव भी डाला। वजह साफ है। चीनी शासक समझ रहे हैं कि मजदूरों में फैलते ग़ुस्से को अगर समय रहते सँभाला नहीं गया तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है।
इस साल मई महीने में हड़तालों की इस लहर की शुरुआत हुई। फॉक्सकॉन कम्पनी में एक साल के अन्दर दस मजदूरों के आत्महत्या करने से मजदूरों में ग़ुस्सा भड़क उठा। अन्दर ही अन्दर घुटते कम्पनी के लाखों मजदूर खुलकर कम्पनी की भयंकर शोषण और उत्पीड़नकारी नीतियों के ख़िलाफ आवाज उठाने लगे। मजदूरों की यह नयी पीढ़ी इण्टरनेट और मोबाइल फोन के इस्तेमाल से बख़ूबी वाकिफ है और इनके जरिये कम्पनी के भीतर की ख़बरें चारों और फैल गयीं। देशी मीडिया को भी इसकी ख़बरें देने के लिए मजबूर होना पड़ा और फिर विदेशी मीडिया में भी इसकी काफी चर्चा हुई क्योंकि फॉक्सकॉन दुनिया की तमाम बड़ी कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक्स कम्पनियों के लिए उत्पाद बनाती है। फॉक्सकॉन इलेक्ट्रॉनिक्स सामानों की असेम्बलिंग करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कम्पनी है। यह ऐप्पल कम्पनी के आईपॉड और आईपैड से लेकर सोनी और एच.पी. जैसी कम्पनियों के लिए कम्प्यूटर और दूसरे उत्पाद बनाती है। इसमें करीब 8 लाख मजदूर काम करते हैं। काम की अमानवीय परिस्थितियों, बेहद कम मजदूरी और कदम-कदम पर गाली-गलौच तथा निरन्तर मानसिक दबाव के कारण अपने दस साथियों की आत्महत्या का मजदूरों द्वारा कड़ा विरोध करने और कम्पनी की बदनामी से घबराये मालिकान को मजदूरी में 66 प्रतिशत यानी दो तिहाई बढ़ोत्तरी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। फॉक्सकॉन के मजदूरों की कामयाबी से दूसरे कारख़ानों में ऐसी ही परिस्थितियों में घुट रहे मजदूरों को भी आवाज उठाने का हौसला मिल गया।
इसके बाद पर्ल रिवर इलाके में स्थित जापानी कार कम्पनी होण्डा की पार्ट्स फैक्टरियों में मजदूरों ने हड़ताल की और फिर ताबड़तोड़ अनेक कारख़ानों में हड़तालें शुरू हो गयीं। हड़तालों का सिलसिला कम से कम 6 औद्योगिक शहरों में फैल गया। करीब 15 दिन चली होण्डा की पहली हड़ताल के बाद मजदूर 30 से 40 प्रतिशत मजदूरी बढ़वाने में सफल रहे। उसके बाद से चीन में होण्डा के कारख़ानों में दो और हड़तालें हो चुकी हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय होण्डा के कई कारख़ानों में हड़ताल जारी थी। कई जगह मजदूरों ने पुलिस के साथ उग्र झड़पें भी कीं। होण्डा के एक कारख़ाने के बाहर पुलिस और मजदूरों के बीच हुए टकराव में कई दर्जन मजदूर घायल हुए लेकिन फिर भी मजदूर डटे रहे। 2000 से ज्यादा मजदूरों वाली एक इंजीनियरिंग फैक्टरी के हड़ताली मजदूरों को बाहर जाने से रोकने के लिए बुलाये गये पुलिस और हथियारबन्द विशेष सुरक्षा बलों के बीच हुए जबरदस्त टकराव में पचास से ज्यादा मजदूर जख्मी हो गये।
भारत के अख़बारों और टीवी चैनलों ने सोचे-समझे तरीके से चीन के मजदूरों के संघर्ष की इन ख़बरों का पूरी तरह ब्लैकआउट कर रखा है, लेकिन इण्टरनेट पर उपलब्ध विदेशी अख़बार इन ख़बरों से भरे हुए हैं। उनसे पता चलता है कि यह लहर अब चीन के मजदूर आन्दोलन में एक नये उभार का रूप लेती जा रही है।

कई सालों से लगातार बढ़ता मजदूर असन्तोष
दरअसल, चीन के औद्योगिक इलाकों में मजदूर असन्तोष पिछले कई सालों से लगातार बढ़ता रहा है और बीच-बीच में यहाँ-वहाँ हड़तालों और टकरावों के रूप में भड़क भी उठता रहा है। 2008 में टैक्सी ड्राइवरों की हड़ताल और प्रदर्शन हुए, जिनसे दस शहर प्रभावित हुए थे। गुआघदाघ प्रान्त के श्रम विभाग के अनुसार वहाँ 2008 में औद्योगिक झड़पों की संख्या में दोगुना इजाफा हुआ। चीन में 2006 में ही लगभग 90 हजार बड़ी हड़तालें और शहरी तथा ग्रामीण प्रदर्शन हुए थे, इसके बाद चीन की सरकार ने ये ऑंकड़े प्रकाशित करना ही बन्द कर दिया। हड़तालों का सिलसिला 2009 से कुछ महीनों तक रुका रहा, लेकिन अब नये, प्रचण्ड वेग से फिर फूट पड़ा है।
आज पूरी दुनिया में बुर्जुआ मीडिया चीन की अभूतपूर्व विकास दर और ''बाजार समाजवाद'' की उपलब्धियों का ख़ूब डंका पीट रहा है, लेकिन वह इस तथ्य को यथासम्भव दृष्टि से ओझल करने की कोशिश करता है कि यह विकास-दर मजदूरों-किसानों की भयंकर बदहाली, तबाही और भुखमरी की कीमत पर हासिल की जा रही है। एक ओर जहाँ चीनी समाज में अरबपतियों और करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, वहीं फैक्टरियों के मजदूर और कम्यूनों की सामूहिक खेती की व्यवस्था के टूटने से उजड़ने वाले किसान निकृष्टतम कोटि के उजरती ग़ुलामों की जिन्दगी बसर कर रहे हैं। भारत में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह से लेकर भाजपा तक विकास के चीनी मॉडल की तारीफ के कसीदे पढ़ते नहीं थकते। मनमोहन सिंह तो अकसर दिल्ली और मुम्बई को शंघाई और बीजिंग बना देने की बात किया करते हैं। लेकिन चीन की तरक्की क़ी चकाचौंध के पीछे की काली सच्चाई की कोई चर्चा नहीं करता। चीन की यह सारी तरक्की क़रोड़ों मजदूरों की बर्बर लूट और शोषण पर टिकी हुई है। मजदूरों का ख़ून और हड्डियाँ निचोड़कर विकास की जगमगाहट हो रही है। पचास करोड़ से ज्यादा चीनी मजदूर बेहद कम मजदूरी पर 12-12 घण्टे पशुवत कमरतोड़ मेहनत करके चीन के नये पूँजीवादी शासकों के लिए मुनाफा पैदा कर रहे हैं। दुनियाभर के पूँजीपतियों को सस्ते श्रम का लालच देकर चीन ने अपने यहाँ फैक्टरी लगाने के लिए आमन्त्रित किया है और पिछले दो दशकों के दौरान चीन के फैलते औद्योगिक इलाके दुनिया की लगभग सभी बड़ी कम्पनियों के कारख़ानों से भर गये हैं।
पर्ल रिवर डेल्टा, जहाँ हाल में सबसे अधिक हड़तालें हुई हैं, ऐसा ही एक इलाका है। हांगकांग, शेनझेन विशेष आर्थिक क्षेत्र और गुआंगझाऊ बन्दरगाह के बीच फैले इस इलाके में करीब 12 करोड़ मजदूर रहते हैं। सड़कों के किनारे-किनारे फैक्ट्रियों की कतार है। सड़क के दूसरी ओर तीन से छह मंजिला इमारतें हैं जिनके छोटे-छोटे कमरों में मजदूर रहते हैं। इस इलाके में सैकड़ों किलोमीटर तक यही दृश्य दिखायी देता है। यहाँ ज्यादातर ऐसे कारख़ाने हैं जो एक्सपोर्ट के लिए माल पैदा करते हैं या विदेशी कम्पनियों के सप्लायर हैं। ज्यादातर मजदूर चीन के देहातों से उजड़कर आये किसानों के बेटे-बेटियाँ हैं जो दिन-रात खटकर बस इतना कमा पाते हैं कि ख़ुद जानवरों की तरह जीते हुए कुछ पैसे बचाकर गाँव में अपने परिवार को भेज सकें।
मजदूरों के लिए बनाये गये रैनबसेरे और अपार्टमेण्ट बेहद भद्दे और गन्दे दिखते हैं। रैनबसेरे के एक कमरे में छह-सात से लेकर 12 मजदूर तक रहते हैं। इसकी वजह से कमरे में इतनी घिच-पिच और शोर-शराबा होता है कि तेरह-चौदह घण्टे हाड़-तोड़ श्रम के बाद मजदूर ठीक से सो भी नहीं पाते हैं। न तो वे अपने कमरे में खाना बना सकते हैं और न ही खाना गरम कर सकते हैं। किसी बाहरी व्यक्ति को रैनबसेरों में आने की अनुमति नहीं है, चाहे वे मजदूर के सगे-सम्बन्धी ही क्यों न हों। फॉक्सकॉन में काम करने वाले ज्यादातर मजदूर ऐसे ही रैनबसेरों में समय काटते हैं। काम के भीषण दबाव के कारण मजदूर एक कारख़ाने में तीन-चार महीने से ज्यादा नहीं टिकते। दूसरे, लगातार 12-12 घण्टों की शिफ्टों में रात-दिन, हफ्ते में सातों दिन, काम करने के चलते एक ही कमरे में रहने वाले मजदूर भी एक-दूसरे को ठीक से जान नहीं पाते हैं। कारख़ानों में मजदूरों के आपस में बात करने पर भी पाबन्दी होती है और बतियाते या हँसी-मजाक करते पाये जाने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है। एक दिन छुट्टी लेने पर तीन दिन के पैसे काट लिये जाते हैं। ऐसे में मजदूर बेहद अकेलेपन के शिकार होते हैं। ऊपर से लगातार बेहद नीरस और ऊबाऊ काम करते-करते वे गहरी मानसिक थकान और निराशा के शिकार हो जाते हैं जो अक्सर मानसिक बीमारी का रूप ले लेती है।
लगातार तेरह-चौदह घण्टे काम करने के बाद भी मजदूरों की न्यूनतम पगार केवल 1,000 युआन तक हो सकती है, जिसमें ओवरटाइम शामिल है। ना-नुकुर किये बिना इस शोषण की चक्की में पिसने के लिए पहली भर्ती के समय मजदूरों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसे सुपरवाइजरों की भाषा में ''सैन्य प्रशिक्षण'' कहा जाता है। इसका उद्देश्य साफ-तौर पर नये ''रंगरूटों'' को औद्योगिक अनुशासन के लिए तैयार करना होता है। फॉक्सकॉन जैसी बड़ी कम्पनियों से इतर छोटी-छोटी कम्पनियों में तो काम की स्थिति और भी भयावह है।
इन मजदूरों में करीब 90 फीसदी वे युवा हैं, जो पूँजी की मार से पारम्परिक खेती की तबाही और अत्याधुनिक तकनीकों, मशीनों और कीटनाशकों के प्रयोग से फार्महाउस खेती की बढ़ती उत्पादकता एवं श्रम की घटती माँग के कारण ग्रामीण इलाकों से निकलने को मजबूर हुए हैं और शहरों का रुख़ कर चुकी 20 करोड़ से अधिक आबादी का हिस्सा हैं। ये निर्माण कार्यों, नयी निर्यातोन्मुख फैक्टरियों या अन्य सबसे ख़तरनाक और गन्दे कामों में रोजगार तलाश करते हैं जहाँ उन्हें बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं होते। मजदूरों को काग़ज पर कुछ कानूनी अधिकार मिले हुए हैं। लेकिन वे किसी एक कम्पनी में लगातार दस वर्ष तक काम करने के बाद ही लागू होते हैं। उस पर भी जो मजदूर वास्तव में बीमा, चिकित्सा, पेंशन या काम नहीं होने पर पगार के कुछ हिस्से के कानूनी अधिकार का दावा करते हैं, उन्हें अक्सर निकाल बाहर किया जाता है। बहुत बार, मजदूरों को नौ साल या उससे कम अवधि में ही कम्पनी से निकाल दिया जाता है, ताकि दस वर्ष के बाद मिलने वाले कानूनी अधिकारों का झमेला भी नहीं रहे। कहने के लिए, सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी ऑल चाइना फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स की शाखाएँ फैक्टरियों में मौजूद हैं, लेकिन इनमें मजदूरों के बजाय मैनेजमेण्ट द्वारा चुने गये प्रतिनिधि होते हैं।
लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। चीन के युवा मजदूर अब चुपचाप बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। भारत की तरह ही आज चीन के मजदूरों में करीब 80 प्रतिशत 19 से 24 साल की उम्र के हैं और उनके बग़ावती तेवरों को उनकी बढ़ती संख्या से बल मिल रहा है। मजदूर अपनी स्वतन्त्र यूनियनें बनाने की कोशिश कर रहे हैं। मैनेजमेण्ट और पार्टी नौकरशाहों द्वारा डराने-धमकाने तथा उत्पीड़न की कोशिशों के बावजूद मजदूर अपनी जुझारू यूनियन के महत्त्‍व को समझ रहे हैं और उसके लिए लड़ रहे हैं।

इतना तो साफ हो गया है कि चीन की मेहनतकश जनता अपनी दुरवस्था को नियति मानकर झेलते रहने के लिए अब कतई तैयार नहीं है। पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद चीन में तेजी से बढ़ता वर्ग ध्रुवीकरण यहाँ-वहाँ स्थानीय और क्षेत्रीय स्तरों पर वर्ग संघर्षों के रूप में लगातार फूटता रहा है। यह सिलसिला अब लगातार व्यापक और गहरा होता जा रहा है। इससे भी महत्त्‍वपूर्ण बात यह है कि इस वर्ग संघर्ष को दिशा देने वाली विचारधारा और मनोगत शक्तियाँ भी, चाहे बिखरे रूप में ही सही, लेकिन परिदृश्य पर मौजूद हैं। स्थितियाँ महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के अन्तिम वर्षों के दौरान की गयी माओ की इस भविष्यवाणी को सत्यापित कर रही हैं कि ''चीन में यदि पूँजीवादी पथगामी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना में सफल हो भी गये तो वे कभी चैन से कुर्सी पर नहीं बैठ सकेंगे।'' दस वर्षों तक चलने वाली चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने चीन की मेहनतकश जनता को समाजवादी समाज की दीर्घकालिक संक्रमणशील प्रकृति, उसमें जारी वर्ग-संघर्ष की दिशा, पार्टी और राज्य में पूँजीवादी पथगामियों की मौजूदगी और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लम्बे समय तक मौजूद रहने वाले ख़तरे के बारे में गहराई से शिक्षित किया था और यह स्पष्ट बताया था कि चीन में यदि पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो जाती है तो चीनी जनता को अविलम्ब पूँजीवादी पथगामियों के विरुध्द संघर्ष छेड़ देना चाहिए। अब हालात बता रहे हैं कि चीनी जनता ने सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षा को भुलाया कतई नहीं था।

चीन के मजदूर संघर्षों की यह लहर अगर कुछ आंशिक सफलताएँ हासिल करने के बाद दबा भी दी जाये, तो भी इतना तय है कि चीनी मजदूर अब जाग उठा है और कम्युनिज्म के नाम पर जारी पूँजीवादी तानाशाही के नंगनाच को और बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है। चीनी शासकों की तमाम लफ्फाजियों के बावजूद उनके असली चेहरे को अब वह पहचान चुका है। आने वाले वर्ष चीन में मजदूर आन्दोलन के जबरदस्त उभार का साक्षी बनेंगे - और इसका असर पूरी दुनिया की पूँजीवादी व्यवस्था को हिलाकर रख देगा। ऐसा होना ही है।

सत्यप्रकाश

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14.7.10

कॉमरेड के ''कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन'' और कॉमरेड का कतिपय ''मार्क्‍सवाद''

दिल्ली के बादाम मजदूरों का ऐतिहासिक आन्दोलन और मजदूर आन्दोलन की भावी दिशा



अभिनव

(पृष्ठभूमि : यह टिप्पणी 'समयान्तर' जनवरी 2010 में प्रकाशित लेख 'गुड़गाँव का मजदूर आन्दोलन : भावी मजदूर आन्दोलन के दिशा संकेत' में प्रस्तुत कुछ स्थापनाओं का उत्तर देते हुए लिखी गयी थी। 'समयान्तर' ने वह लेख 'इन्कलाबी मजदूर' से साभार लिया था। 'समयान्तर' सम्पादक यूँ तो प्रासंगिक विषयों पर जनवादी तरीके से वाद-विवाद चलाने का पुरजोर समर्थन करते हैं, लेकिन किन्हीं कारणोंवश उन्होंने हमारी यह टिप्पणी प्रकाशित नहीं की। तब यह टिप्पणी 'बिगुल' को प्रकाशनार्थ भेजी गयी। ज्ञातव्य है कि विगत 24 जुलाई, 2009 को दिल्ली में हुई एक संगोष्ठी में भी 'इन्कलाबी मजदूर' के एक साथी ने ''भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर आन्दोलन के स्वरूप और दिशा पर यही बातें रखी थीं, जिनका हमने विस्तार से उत्तर दिया था। इस संगोष्ठी की विस्तृत रपट 'बिगुल' के अगस्त '09 अंक में प्रकाशित हुई थी, जिसे पाठक देख सकते हैं। इसके बावजूद, हमारे ''इन्कलाबी कामरेड'' जब ''कतिपय बुध्दिजीवियों'' का पुतला खड़ा करके शरसन्धान करते हुए अपने कठमुल्लावादी-अर्थवादी मार्क्‍सवाद का प्रदर्शन कर रहे हैं, तो हम अपनी पोजीशन एक बार फिर स्पष्ट करना जरूरी समझते हैं - अभिनव)


दिसम्बर 2009 का महीना दिल्ली के मजदूर आन्दोलन के इतिहास में एक यादगार तारीख़ बन गया। 16 दिसम्बर से लेकर 31 दिसम्बर तक दिल्ली के करावलनगर क्षेत्र में स्थित बादाम संसाधन उद्योग के करीब 30 से 35 हजार मजदूरों ने एक जुझारू हड़ताल की। यह दिल्ली के मजदूर आन्दोलन के इतिहास में अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की अब तक की सबसे बड़ी हड़ताल साबित हुई और इसे कनाडा और अमेरिका की ऑलमण्ड वर्कर्स यूनियनों से भी समर्थन मिला। 15 दिनों तक यह हड़ताल तमाम देशी-विदेशी वेबसाइटों पर छाई रही (जैसे सिलोब्रेकर डॉट कॉम, सन्हति डॉट कॉम, रैडिकलनोट्स डॉट कॉम, डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस डॉट ओआरजी, आदि)। आप अभी भी गूगल या किसी अन्य सर्च इंजन पर ''ऑलमण्ड वर्कर्स स्ट्राइक डेल्ही'' सर्च वर्ड देकर सर्च करें तो आपको सैकड़ों वेबसाइटों की सूची मिलेगी, जिसमें इस हड़ताल से सम्बन्धिात रिपोर्टें भरी हुई हैं। यह ऐतिहासिक हड़ताल 31 दिसम्बर को मालिकों और मजदूर पक्ष के बीच में समझौते के रूप में समाप्त हुई। इस हड़ताल का नेतृत्व करावलनगर स्थित इलाकाई मजदूर यूनियन 'बादाम मजदूर यूनियन' कर रही थी। इस नाम से यह भ्रम न हो कि यह महज बादाम मजदूरों की ही यूनियन है। इस यूनियन में करावलनगर के तमाम मजदूर सदस्य हैं, जिनमें करावलनगर के कारख़ाना मजदूरों से लेकर बादाम मजदूर, पल्लेदार, रिक्शेवाले, आदि शामिल हैं। पिछले डेढ़ वर्षों से यह यूनियन इन विविध पेशों में कार्यरत मजदूरों के मुद्दों पर संघर्ष करती रही है। हालिया हड़ताल इस यूनियन की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई थी, जो दिल्ली के मजदूर आन्दोलन की भी सबसे बड़ी कार्रवाइयों में से एक बन गयी।

इस संघर्ष ने दिखलाया कि मजदूरों की उस भारी आबादी को भी एकजुट किया जा सकता है जो बेहद छोटे, छोटे और मँझोले कारख़ानों में काम करती है। इन्हें कारख़ानों में संगठित कर पाना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि आमतौर पर इन कारख़ानों में अधिकतम 300 मजदूर काम करते हैं। इनमें से भी अधिकांश ऐसे होते हैं जिन्हें प्रसिध्द लेबर इतिहासकार यान ब्रीमन ने 'फूटलूज लेबर' कहा है। ये मजदूर आज एक कारख़ाने में होते हैं तो कल दूसरे और परसों तीसरे कारख़ाने में, और कभी-कभी वे किसी कारख़ाने की बजाय रेहड़ी-खोमचा लगाये भी मिल सकते हैं या ठेले पर अण्डा या मूँगफली बेचते हुए भी दिख सकते हैं। ऐसे मजदूरों को आख़िर किस प्रकार संगठित किया जाये? इस सवाल का जवाब एक हद तक बादाम मजदूरों की इस ऐतिहासिक हड़ताल ने दिया। ऐसे बेहद छोटे, छोटे या मँझोले कारख़ानों में भी अगर मजदूरों की लड़ाई को लड़ना होगा तो महज कारख़ाना यूनियन पर्याप्त नहीं होगी, क्योंकि ऐसी किसी भी यूनियन की स्थायी सदस्यता बेहद छोटी होगी और शेष मजदूर लगातार बदलते रहेंगे। लेकिन अगर मजदूरों को उनकी रिहायश की जगह पर संगठित किया जाये तो कारख़ाने के संघर्षों को भी नये तरीके से संगठित किया जा सकता है। बादाम मजदूर यूनियन ने यही काम करके दिखाया। एक इलाकाई पैमाने पर बनी यूनियन ने करीब 45 बादाम संसाधन कारख़ानों में एक साथ हड़ताल कर दी और इस हड़ताल के कारण बादाम का पूरा वैश्विक व्यवसाय बुरी तरह डगमगा गया (देखें रैडिकलनोट्स डॉट कॉम, सन्हति डॉट कॉम, सिलोब्रेकर डॉट कॉम, डब्ल्यूएसडब्ल्यूएस डॉट ओरआरजी)। एक-एक बादाम कारख़ाने की यूनियन बनाना सम्भव नहीं था। अगर बादाम मजदूरों को अपनी कारख़ाने की लड़ाई भी जीतनी थी तो उन्हें अपने संगठित होने के लोकेशन को कारख़ाने से बस्ती की ओर ले जाना और फिर बस्ती से कारख़ाने तक आना जरूरी था। यही काम बादाम मजदूर यूनियन ने किया और नतीजा था बादाम मजदूरों की एक ऐसी हड़ताल जो परिघटना बन गयी।

लेकिन इतनी-सी बात को कुछ ''इन्कलाबी मार्क्‍सवादी'' साथी समझ नहीं पा रहे हैं। इस बात पर वे बेहद नाराज हो जाते हैं और उन ''कतिपय बुध्दिजीवियों या संगठनों'' पर बरस पड़ते हैं जो मजदूरों को उनकी रिहायश की जगहों पर संगठित करने की बात कर देते हैं। इस ग़ुस्से के मस्तिष्क ज्वर में वे एक काल्पनिक मार्क्‍सवादी का पुतला खड़ा करते हैं। इसके बाद वे अपने ''इन्कलाबी तीरों'' से इस पुतले को तहस-नहस करने के लिए टूट पड़ते हैं। लेकिन जरा देखिये! अपने इस प्रयास में वे तमाम ऐसी बातें बोल जाते हैं जो हमारे ''इन्कलाबी कॉमरेड'' के मार्क्‍सवाद के अर्थवादी पाठ और समझदारी को उघाड़ कर रख देती हैं। हमारे ''इन्कलाबी साथी'' अपने काल्पनिक मार्क्‍सवादी कतिपय बुध्दिजीवियों या संगठनों पर कुछ आरोप लगाते हैं। वे कहते हैं कि ये कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन यह कहते हैं कि कारख़ाना आधारित संघर्षों का जमाना चला गया और भूमण्डलीकरण के दौर में असेम्बली लाइन उत्पादन के ह्रास के साथ अब मजदूरों को कारख़ाना संघर्षों में संगठित करना सम्भव नहीं रह गया है। सच कहें तो हम भी ऐसे कतिपय बुध्दिजीवियों और संगठनों से मिलना चाहेंगे जो ऐसा कहते हैं! यह वाकई काफी दिलचस्प होगा! दूसरा आरोप यह है कि ये कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन यह कहते हैं कि संगठित सर्वहारा अब इतना छोटा रह गया है कि वह उत्पादन ठप्प करने के अपने अमोघ अस्त्र से वंचित हो गया है और कारख़ाना संघर्षों के सन्दर्भ में अब पूँजीवाद इम्यून हो गया है। यह आरोप सुनकर तो इन कतिपय बुध्दिजीवियों या संगठनों से मिलने की हमारी तमन्ना और भी अधिक तीव्र हो चली है। तीसरा आरोप यह है कि ये कतिपय बुध्दिजीवी या संगठन कहते हैं कि जितने संगठित मजदूर बाकी बचे हैं, वे सबके सब अभिजात या कुलीन मजदूर वर्ग में तब्दील हो चुके हैं। ये आरोप सुनने के बाद तो हम इन बुध्दिजीवियों और संगठनों से मिलने के लिए कुछ ज्यादा ही उतावले हो गये हैं!

ऐसी बातें अगर कोई भी बुध्दिजीवी या संगठन कहता है तो कोई भी श्रमिक कार्यकर्ता, ट्रेडयूनियन कार्यकर्ता या राजनीतिक कार्यकर्ता उससे असहमत हुए बिना नहीं रह सकता। लेकिन हमारे ''इन्कलाबी कॉमरेडों'' की बातें सुनकर न जाने क्यों डीजावू (पुनरावृत्ति की भ्रामक अनुभूति) की अनुभूति हो रही है। बरबस ही जुलाई 2009 में हुई एक गोष्ठी की बात याद आ रही है जिसमें हमारे ऐसे ही एक ''इन्कलाबी कॉमरेड'' ने एक कतिपय मार्क्‍सवादी बुध्दिजीवी या संगठन के पुतले पर बेतहाशा तीर बरसाये थे। उस समय भी यह जवाब दिया गया था कि आप जिस निशाने पर तीर चला रहे हैं ऐसा कोई बुध्दिजीवी या संगठन तो नजर आ नहीं रहा है; उल्टे ऐसा लग रहा है कि तीर खाने वाला तो एक काल्पनिक मार्क्‍सवादी का बेचारा पुतला है! लेकिन इस तर्कबाण-वर्षा में उस समय भी हमारे ''इन्कलाबी साथी'' कुछ ऐसी बातें कह गये जिससे मार्क्‍सवाद और मजदूर आन्दोलन के इतिहास के बारे में उनकी अर्थवादी समझदारी उजागर हो गयी थी। इससे पहले कि हम अपने ''इन्कलाबी कॉमरेड'' के तर्कों का विश्लेषण करें हम कुछ श्रेणियों और ऑंकड़ों को स्पष्ट करना चाहेंगे।

जब हम कहते हैं कि आज मजदूर आबादी का बड़े पैमाने पर अनौपचारिकीकरण हो रहा है और जहाँ भी सम्भव है पूँजीवाद बड़ी औद्योगिक इकाइयों को छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों में तोड़ रहा है जिसके कारण पुराने जमाने की तरह बेहद बड़े पैमाने पर कारख़ाना संघर्षों के होने और उनके सफल होने की सम्भावनाएँ कम हो रही हैं तो इसका यह अर्थ आलोचना करने को उतावला कोई जल्दबाज ही निकाल सकता है कि हम कारख़ाना संघर्षों को ही तिलांजलि दे देने के लिए कह रहे हैं या यह कह रहे हैं कि अब कारख़ाना संघर्ष होंगे ही नहीं। इसका सिर्फ इतना अर्थ है कि कारख़ाना केन्द्रित लड़ाइयों को भी अब अगर जुझारू और सफल तरीके से लड़ना होगा तो मजदूरों की पेशागत यूनियनें और इलाकाई यूनियनें बनानी होंगी। इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि कारख़ाना-आधारित यूनियनें नहीं बनानी होंगी। जहाँ कहीं भी सम्भव हो वहाँ निश्चित रूप से कारख़ाना-आधारित यूनियनें बनानी होंगी। लेकिन जहाँ कारख़ाना-आधारित यूनियनें होंगी या बनायी जायेंगी, वहाँ भी इलाकाई और पेशागत यूनियनें बनानी होंगी। इस बात को हमारे जल्दबाज उतावले आलोचक इसलिए नहीं समझते हैं क्योंकि वे दो अलग-अलग श्रेणियों में फर्क नहीं कर पाते हैं। ये दो श्रेणियाँ हैं औपचारिक/अनौचारिक क्षेत्र और संगठित/असंगठित क्षेत्र। हमारे ''इन्कलाबी साथियों'' समेत कई लोग यह समझते हैं कि औपचारिक क्षेत्र यानी संगठित क्षेत्र व अनौपचारिक क्षेत्र मतलब असंगठित क्षेत्र। यह समझदारी विनाशकारी नतीजों तक ले जाती है। इन दोनों श्रेणियों के बीच के फर्क को समझना अनिवार्य है। इनके फर्क को समझ लिया जाये और फिर इनसे सम्बन्धिात ऑंकड़ों को देखा जाये तो हमारा तर्क काफी हद तक साफ हो जाता है। औपचारिक क्षेत्र का अर्थ होता है, वे कारख़ाने व वर्कशॉप जो फैक्टरी एक्ट व अन्य औद्योगिक व श्रम कानूनों के अन्तर्गत आते हैं, कम से कम आधिकारिक तौर पर। औपचारिक क्षेत्र में संगठित मजदूर भी हैं और असंगठित मजदूर भी हैं। सरकारी और ग़ैर-सरकारी ऑंकड़ों के अनुसार औपचारिक क्षेत्र में संगठित मजदूरों का प्रतिशत 10 के करीब है जबकि असंगठित मजदूर आबादी करीब 90 प्रतिशत है। अनौपचारिक क्षेत्र में वे लाखों औद्योगिक इकाइयाँ और वर्कशॉप हैं जो कानूनों के दायरे से बाहर हैं या कानूनों के लागू होने की श्रेणी में नहीं आते। यानी उन पर कोई औद्योगिक और श्रम कानून लागू नहीं होता। सरकारी और ग़ैर-सरकारी ऑंकड़ों के अनुसार अनौपचारिक क्षेत्र में संगठित मजदूरों का कुल प्रतिशत मुश्किल से 1 से 3 प्रतिशत है। संगठित मजदूर का अर्थ है स्थायी मजदूर जो आमतौर पर ट्रेड यूनियनों में संगठित होते हैं (हालाँकि अनौपचारिक क्षेत्र में ऐसे स्थायी मजदूर भी बेहद कम हैं जो किसी ट्रेड यूनियन के रूप में संगठित हों)। असंगठित मजदूर का अर्थ है कैजुअल, दिहाड़ी या पीस रेट पर काम करने वाले मजदूर। ये मजदूर अनौपचारिक क्षेत्र के कुल मजदूरों का करीब 97 से 99 प्रतिशत हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में किसी भी औद्योगिक या श्रम कानून के तहत न आने वाले कारख़ानों और वर्कशापों के अतिरिक्त वे करोड़ों छोटे काम-धन्‍धे भी शामिल हैं जिन्हें सरकारी ऑंकड़े ''स्वरोजगार'' की मजाकिया श्रेणी में रखते हैं। लेकिन यह समझना भी बहुत बड़ी भूल होगी कि ऐसे मेहनतकश कभी कारख़ाना मजदूर नहीं होते या जो अनौपचारिक क्षेत्र के कारख़ानों/वर्कशॉपों के मजदूर हैं, वे कभी छोटे-मोटे स्वरोजगार नहीं करते। वास्तव में अनौपचारिक क्षेत्र की कुल मजदूर आबादी में आन्तरिक गतिशीलता (इण्टर्नल मोबिलिटी) बहुत अधिक होती है। यान ब्रीमन अपनी प्रसिध्द और प्रशंसित रचना ''फुटलूज लेबर'' में बताते हैं कि ऐसे मजदूरों में आप पायेंगे कि 2 महीने पहले कारख़ाने में काम कर रहा मजदूर आज रिक्शा चला रहा है या रेहड़ी-खोमचा लगा रहा है; दो महीने बाद आपको पता चल सकता है कि वह वापस कारख़ाने में काम करने लगा है, लेकिन किसी नये कारख़ाने में।

रोहिणी हेंसमान, यान ब्रीमन, अर्जुन सेनगुप्ता, कानन जैसे अर्थशास्त्रियों से लेकर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन, जनगणना, आदि जैसे सरकारी स्रोत तक बताते हैं कि औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र मिलाकर कुल मजदूर आबादी का 3 प्रतिशत संगठित मजदूर आबादी है और 97 प्रतिशत असंगठित। देश के करीब 60 करोड़ सर्वहारा आबादी में से करीब एक तिहाई कारख़ाना मजदूर हैं। लेकिन इनमें से ऐसे 98 प्रतिशत या तो बेहद छोटे कारख़ानों और वर्कशॉपों में काम करते हैं, छोटा-मोटा स्वरोजगार करते हैं या फिर अगर किसी बड़े औपचारिक क्षेत्र की इकाई में भी काम करते हैं तो असंगठित मजदूर (कैजुअल, ठेका, दिहाड़ी) के रूप में। अगर कुल औद्योगिक मजदूरों का 98 प्रतिशत फुटलूज लेबर है तो निश्चित रूप से उन्हें कारख़ाने के भीतर संगठित करने की कुछ गम्भीर कठिनाइयाँ, चुनौतियाँ और सीमाएँ होंगी। गुड़गाँव में हुआ मजदूर आन्दोलन भी कोई कारख़ाना केन्द्रित आन्दोलन ही नहीं रह गया था। स्वत:स्फूर्त तरीके से वह एक इलाके के मजदूरों के आन्दोलन में तब्दील हो चुका था। कारख़ाने के मुद्दों पर संघर्ष हो, इस पर कोई दो राय नहीं है। जिन कतिपय बुध्दिजीवियों या संगठनों पर हमारे ''इन्कलाबी कॉमरेड'' निशाना ताने बैठे हैं, उन्होंने हाल ही में पूर्वांचल के सबसे बड़े कारख़ाना मजदूर आन्दोलनों में से एक को नेतृत्व दिया (गोरखपुर मजदूर आन्दोलन)। इसलिए यह कोई नहीं कह रहा है कि कारख़ाना मजदूरों के संघर्ष नहीं किये जायें। सिर्फ इतना कहा जा रहा है कि कारख़ाना मजदूरों के संघर्षों को भी कारगर तरीके से एक मुकाम पर पहुँचाने के लिए यह जरूरी है कि उनकी पेशागत और इलाकाई यूनियनें बनायी जायें। ऐसी यूनियनें मजदूरों की राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन के काम को किसी भी कारख़ाना आधारित ट्रेड यूनियन से अधिक कारगर तरीके से कर सकती है। जिन मुद्दों को हमारे ''इन्कलाबी कॉमरेड'' सुधारवादी और एनजीओ मार्का मुद्दे कहते हैं, वे ऐसे मुद्दे हैं जिन पर सघन और व्यापक राजनीतिकरण किया जा सकता है। यह तो एक त्रासदी और विडम्बना है कि शिक्षा, चिकित्सा, सैनीटेशन, शौचालय, आदि जैसे नागरिक अधिकारों को आज एनजीओ और सुधारवादी ले उड़े हैं। इन्हें वास्तव में सर्वहारा क्रान्तिकारियों को उठाना चाहिए था। यह कोई संघर्ष को उत्पादन के क्षेत्र से उपभोग के क्षेत्र में ले जाना नहीं है, जैसाकि हमारे ''इन्कलाबी साथी'' समझते हैं। वे मार्क्‍सवाद की यह बुनियादी समझदारी भूल जाते हैं कि पूँजीवादी समाज में श्रमशक्ति भी एक माल होती है। इस माल के पुनरुत्पादन का लोकेशन मजदूरों की बस्तियाँ और रिहायशी इलाके हैं। यह अनायास नहीं है कि सर्वहारा वर्ग के सबसे पहले सचेत आन्दोलनों में शिरकत करने वाली भारी मजदूर आबादी बड़े कारख़ानों में असेम्बली लाइन पर काम करने वाला मजदूर नहीं था, चाहे वह शिकागो के मजदूरों का आन्दोलन हो, पेरिस कम्यून या फिर इंग्लैण्ड का चार्टिस्ट आन्दोलन। इनमें शिरकत करने वाले अधिकांश मजदूर छोटी-छोटी वर्कशॉपों में काम करते थे या स्वरोजगार करते थे।

कुछ लोग समझते हैं कि असेम्बली लाइन के विखण्डित होकर ग्लोबल असेम्बली लाइन में तब्दील होने का अर्थ यह है कि उत्पादन बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा है। यह बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की बड़ी यान्त्रिक समझदारी है। मार्क्‍स, एंगेल्स, लेनिन, स्टालिन या माओ ने कहीं नहीं लिखा है कि बड़े पैमाने का उत्पादन सिर्फ एक ही रूप में, यानी कि आधुनिक फोर्डिस्ट रूप में हो सकता है। फोर्डिस्ट उत्पादन के ह्रास और ग्लोबल या फ्रैग्मेण्टेड असेम्बली लाइन का यह अर्थ नहीं है कि चूँकि एक छत के नीचे मजदूर बड़ी संख्या में इकट्ठा नहीं हो रहे हैं इसलिए उत्पादन बड़े पैमाने पर नहीं हो रहा है। उत्पादन के पैमाने का आकार कारख़ाने की छत के आकार से नहीं तय होता। यह पूँजी निवेश, उत्पादन, विनियोजन के चक्र के आकार से तय होता है। यह चक्र भौतिक तौर पर फ्रैग्मेण्टेड हो तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उत्पादन का पैमाना छोटा हो गया। उत्पादन और अधिक बड़े पैमाने पर हो रहा है। मजदूरों को फैक्टरी फ्लोर पर संगठित होने से रोकने की कोशिश करके पूँजीवाद मजदूरों को संगठित होने से नहीं रोक सकता। और मार्क्‍सवाद भी कहीं यह नहीं कहता कि मजदूर अगर संगठित होंगे तो फैक्टरी फ्लोर पर ही संगठित होंगे। उन्हें उनकी रिहायश की जगहों पर पेशा-पारीय, कारख़ाना-पारीय और क्षेत्र-पारीय आधार पर संगठित किया जा सकता है। इस रूप में संगठित मजदूर कारख़ाने की लड़ाई भी लड़ सकते हैं, किसी पूरे पेशे के मजदूरों की माँगों के लिए भी लड़ सकते हैं और अपने नागरिक अधिकारों के लिए भी लड़ सकते हैं (जिन्हें हमारे ''इन्कलाबी साथी'' एनजीओ मार्का मुद्दा मानते हैं!), जो वास्तव में मजदूरों की चेतना को बेहद ऊपर उठाने में सक्षम हैं। दरअसल, लेनिन ने स्वयं 'जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक जनवाद की दो कार्यनीतियाँ' में लिखा है कि बुर्जुआ जनवाद ही वह स्पेस है जिसमें मजदूर वर्ग अपनी राजनीति को सबसे व्यापक और सघन रूप में चला सकता है। बुर्जुआ जनवाद जो भी जनवादी और नागरिक अधिकार देता है, मजदूर वर्ग को किसी भावी ''ठोस वर्ग संघर्ष'' के इन्तजार में उस पर अपना दावा कभी नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसे मुद्दों पर संघर्ष मजदूर वर्ग और पूँजीवादी राजसत्ता को सीधे आमने-सामने खड़ा करते हैं और पूँजीवादी राजसत्ता के चरित्र को मजदूर वर्ग के सामने कहीं ज्यादा साफ करते हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग कहीं अधिक तेजी से वर्ग सचेत बनता है और अपने ऐतिहासिक लक्ष्य को समझता है। दूसरी बात यह कि मजदूर आन्दोलन जिन नागरिक अधिकारों के मुद्दों को उठायेगा, वे प्रियदर्शिनी मट्टू और जेसिका लाल के लिए न्याय की माँग जैसे मध्‍यवर्गीय मुद्दे नहीं होंगे। उनका भी एक वर्ग-चरित्र होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन जिन नागरिक मुद्दों को उठायेगा उनका रिश्ता मजदूरों के भौतिक, जैविक और सांस्कृतिक पुनरुत्पादन से होगा। शिक्षा, चिकित्सा, सैनीटेशन, आवास ऐसे ही मुद्दे हैं जो मजदूरों के इंसानी जीवन के अधिकार के सवाल को उठाते हैं। अगर आज एनजीओपन्थी इन मुद्दों को सुधारवादी तरीके से उठाकर वर्ग चेतना को कुन्द कर रहे हैं, तो यह एक त्रासदी है। ऐसा नहीं है कि इन मुद्दों पर एनजीओ वालों का पेटेण्ट है। ये अपनेआप में कोई मध्‍यवर्गीय माँगें नहीं हैं। ये वास्तव में सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक माँगें हैं जो सीधे पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करती हैं। लेकिन अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद के कम्युनिस्ट आन्दोलन में हावी होने की बड़ी कीमत यह रही कि ये मुद्दे मजदूर आन्दोलन के चार्टर से ग़ायब हो गये। लेकिन ऐतिहासिक तौर पर ऐसा नहीं रहा है (हम सुझाव देंगे कि हमारे ''इन्कलाबी साथी'' चार्टिस्ट आन्दोलन के माँगपत्रक का अध्‍ययन करें)। 21वीं सदी में तो ये मुद्दे और प्रमुखता के साथ मजदूर वर्ग के चार्टर में होने चाहिए। मजदूर वर्ग अगर बुर्जुआ समाज के भीतर नागरिक पहचान पर अपना दावा छोड़ता है, तो वह संघर्ष के एक बहुत बड़े उपकरण से हाथ धोयेगा। लेनिनवादी जनदिशा की सोच भी इस अर्थवादी समझदारी का निषेध करती है।

हमारे ''इन्कलाबी साथी'' यह तर्क भी देते हैं कि उन्नत सर्वहारा वर्ग सिर्फ बड़े कारख़ानों का संगठित मजदूर वर्ग है और इसलिए हिरावल की भूमिका यही निभायेगा। यह बात द्वितीय विश्वयुध्द के पहले के समय के लिए निश्चित रूप से एक हद तक कही जा सकती थी। लेकिन आज के समय में असंगठित सर्वहारा वर्ग कोई पिछड़ी चेतना वाला सर्वहारा वर्ग नहीं है। यह भी उन्नत मशीनों पर और असेम्बली लाइन पर काम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह यह काम लगातार और किसी बड़े कारख़ाने में ही नहीं करता। उसका कारख़ाना और पेशा बदलता रहता है। इससे उसकी चेतना पिछड़ती नहीं है, बल्कि और अधिक उन्नत होती है। यह एक अर्थवादी समझदारी है कि जो मजदूर लगातार बड़े कारख़ाने की उन्नत मशीन पर काम करेगा, वही उन्नत चेतना से लैस होगा। उन्नत मशीन और असेम्बली लाइन उन्नत चेतना का एकमात्र स्रोत नहीं होतीं। आज के असंगठित मजदूर का साक्षात्कार पूँजी के शोषण के विविध रूपों से होता है और यह उनकी चेतना को गुणात्मक रूप से विकसित करता है। उनका एक अतिरिक्त सकारात्मक यह होता है कि वे पेशागत संकुचन, अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद जैसी ग़ैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों का शिकार कम होते हैं और तुलनात्मक रूप से अधिक वर्ग सचेत होते हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बड़े कारख़ानों की संगठित मजदूर आबादी के बीच राजनीतिक प्रचार की आज जरूरत है और इसके जरिये मजदूर वर्ग को अपने उन्नत तत्त्‍व मिल सकते हैं। लेकिन आज का असंगठित मजदूर वर्ग भी 1960 के दशक का असंगठित मजदूर वर्ग नहीं है जिसमें से उन्नत तत्त्वों की भर्ती बेहद मुश्किल हो। यह निम्न पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का श्रेष्ठताबोध है कि वे इस मजदूर को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

अन्त में हम यही सुझाव देना चाहेंगे कि हमारे ''इन्कलाबी साथी'' किन्हीं कतिपय बुध्दिजीवियों या संगठनों के पुतलों पर बमबारी बन्द करके आज की ठोस सच्चाइयों से रूबरू हों और अर्थवाद और ट्रेडयूनियनवाद के दलदल से बाहर निकलकर क्रान्तिकारी मार्क्‍सवाद के सार से सम्बन्‍ध पुनर्स्थापित करें। साथ ही, तर्कों को उनकी बारीकियों समेत समझकर ही उनकी आलोचना का बीड़ा उठाया जाना चाहिए।

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5.7.10

द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आमंत्रण




 विषय: इक्कीसवीं सदी में भारत का मजदूर आन्दोलन: निरन्तरता और परिवर्तनदिशा और सम्भावनाएँसमस्याएँ और चुनौतियाँ

(26-27-28 जुलाई, 2010)
गोरखपुर (उ.प्र.)


प्रिय साथी,
हमारे अनन्य सहयोध्दा का. अरविन्द के असामयिक निधन (24 जुलाई 2008) को दो वर्ष होने को आ रहे हैं। उनके न होने को वे तमाम लोग आज भी स्वीकार नहीं कर पातेजिन्होंने उनके साथ काम किया है। उनकी कमी लम्बे समय तक पूरी नहीं की जा सकतीपर उनके सपने हमारे सपनों में जीवित रहेंगे और हमारे संकल्पों को मज़बूत बनाते रहेंगे।
का. अरविन्द की पहली पुण्यतिथि के अवसर पर गत वर्ष 24 जुलाई को नयी दिल्ली में प्रथम अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसका विषय था : 'भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम क़ानून और मज़दूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप।अब इसी विषय को विस्तार देते हुए इस वर्ष 'द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठीका विषय निर्धारित किया गया है : 'इक्कीसवीं सदी में भारत का मज़दूर आन्दोलन : निरन्तरता और परिवर्तन, दिशा और सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ।'
विषय की व्यापकता को देखते हुए इस वर्ष संगोष्ठी तीन दिनों की रखी गयी है। पहले दिन के पहले सत्र में 'अरविन्द स्मृति न्यास' और उसके तत्वावधान में संचालित होने वाले 'अरविन्द मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान' की स्थापना की औपचारिक घोषणा की जायेगी तथा इनके उद्देश्य और कार्यभारों पर सभी आमन्त्रित साथियों के साथ अनौपचारिक अन्तरंग बातचीत की जायेगी। इस स्मृति न्यास और मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान की स्थापना का निर्णय गोरखपुर में का. अरविन्द के निधन के बाद 27 जुलाई, 2008 को आयोजित शोक सभा में लिया गया था। अब आप सभी साथियों के सहयोग से इसे अमली जामा पहनाया जा रहा है।
26 जुलाई के दूसरे सत्र से लेकर 28 जुलाई के दूसरे सत्र तक संगोष्ठी के लिए निर्धारित विषय पर आलेख पढ़े जायेंगे और उन पर विचार-विमर्श चलेगा।
विषय के बारे में :
बीसवीं शताब्दी साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों के प्रथम संस्करणों की शताब्दी थी। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि गत शताब्दी के विशेषकर अन्तिम दो दशकों के दौरानविश्‍व पूँजीवाद की कार्य-प्रणाली एवं ढाँचे मेंसाम्राज्यवादी दुनिया के आपसी समीकरणों और राजनीतिक परिदृश्य मेंराष्ट्रपारीय निगमों के चरित्र और राष्ट्रराज्यों की भूमिका में तथा अधिशेष निचोड़ने के तौर-तरीक़ों में अहम बदलाव आये हैं। इन बदलावों का बुनियादी कारण पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की आन्तरिक गतिकी हैलेकिन इनमें सर्वहारा क्रान्तियों की प्रथम श्रृंखला की पराजय और विश्‍वव्यापी विपर्यय से पैदा हुए हालात की भी अहम भूमिका रही है। आज पूँजी का परजीवीअनुत्पादकपरभक्षी और ह्रासोन्मुख चरित्र सर्वथा नये रूप में सामने आया है। इसके ढाँचागत आर्थिक संकट का रूप भी पहले से भिन्न है। लेकिन समस्या यह है कि श्रम के शिविर की ओर से पूँजी के सामने अभी भी कोई प्रभावी चुनौती पेश नहीं हो पा रही है।
दरअसल यह तब तक सम्भव नहींजब तक पूँजी की आज की कार्य-प्रणाली कोउसकी अर्थनीति एवं राजनीति को तथा विचारधारात्मकराजनीतिकऔर सांस्कृतिक वर्चस्व क़ायम करने के उसके नये-नये तौर-तरीक़ों को गहराई से समझकर सर्वहारा-प्रतिरोध की नयी रणनीति विकसित नहीं की जायेगी। प्रश्‍न केवल बहुसंख्यक असंगठित मज़दूर आबादी के साझा संघर्षों का एजेण्डा तय करने और ट्रेड यूनियन काम के क्रान्तिकारी पुनर्गठन का ही नहीं है। प्रश्‍न समूचे मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराने का भी हैमज़दूर आन्दोलन में सर्वहारा क्रान्ति की विचारधारा के नये सिरे से बीजारोपण का और उसके हरावल दस्ते के नवनिर्माण का भी है। बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों और वर्ग-संघर्षों का गहराई से अध्ययन और समीक्षा-समाहार करके सीखना ज़रूरी हैपर स्वतन्त्र विवेक के साथ नयी परिस्थितियों का अध्‍ययन भी ज़रूरी है।
इस बार संगोष्ठी का विषय इन्हीं समस्याओं-चुनौतियों को ध्यान में रखकर तय किया गया है। ज़ाहिर है किथोथा अकादमिक विमर्श हमारा अभीष्ट नहीं है। हम मज़दूर आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत एक्टिविस्टों और पक्षधर वाम बुद्धिजीवी साथियों के साथ मिल-बैठकर अध्ययन और व्यावहारिक अनुभवों की पूर्वाग्रहमुक्त साझेदारी करना चाहते हैं तथा वैज्ञानिक वस्तुपरकता के साथ बहस-मुबाहसा चाहते हैं। यह संगोष्ठी इस प्रक्रिया की एक कड़ी मात्र है। आगे हमारा इरादा इसी विषय पर और व्यापक स्तर पर तैयारी करके पाँच दिवसीय संगोष्ठी करने का है।
साथियों से हमारा आग्रह है कि इस विषय पर वे अपना आलेख/पेपर लेकर आयें। इसकी सूचना हमें पहले दे दें तो बेहतर होगा। यदि आलेख भी पहले भेज सकें तो सत्रों की योजना बनाने में हमें आसानी होगी।
हम आपसे इस संगोष्ठी में भागीदारी का हार्दिक आग्रह करते हैं। अतिथि साथियों की सुविधा के लिए आयोजन स्थल (चित्रगुप्त मन्दिर प्रांगणगोरखपुर) पर आवास-भोजन आदि का प्रबन्धएक दिन पूर्व, 25 जुलाई से ही किया गया है। आप अपने पहुँचने की तिथिट्रेनबस आदि की सूचना आयोजन समिति के किसी भी सदस्य के मोबाइल नम्बर पर या आयोजन समिति के कार्यालय (संस्कृति कुटीरकल्याणपुरगोरखपुर) के फ़ोन नम्बर पर दे दें तो हमारे साथी आपको रेलवे/बस स्टेशन पर ही मिल जायेंगे। हम आश्‍वस्त करते हैं कि आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होगी।
हम आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
   हार्दिक अभिवादन सहित,
   कात्यायनीसत्यम
   अरविन्द स्मृति संगोष्ठी आयोजन समिति

 कार्यक्रम

आयोजन स्थल (संगोष्ठी एवं आवास) : चित्रगुप्त मन्दिर प्रांगण एवं सभागारनिकटजुबली इण्टर कॉलेजबक्शीपुरगोरखपुर (उ.प्र.)

26 जुलाई
प्रथम सत्र (अल्पाहार के बादप्रात: 10 बजे से अपराह्न 1 बजे तक)
'अरविन्द स्मृति न्यासऔर 'अरविन्द मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थानकी स्थापना की घोषणा। न्यास और अध्ययन संस्थान के उद्देश्य और कार्यभारों की घोषणा तथा उन पर चर्चा।
भोजनावकाश - अपराह्न 1 बजे से 3 बजे तक
द्वितीय सत्र (अपराह्न 3 बजे से रात्रि 8 बजे तकबीच में सायं छ: बजे अल्पाहार)
'इक्कीसवीं सदी में भारत का मज़दूर आन्दोलन : निरन्तरता और परिवर्तन,दिशा और सम्भावनाएँसमस्याएँ और चुनौतियाँविषय पर संगोष्ठी की शुरुआत। विषय-प्रवर्तनआलेख-प्रस्तुति और बहस।

27 जुलाई
प्रथम सत्र (प्रात: 10 बजे से अपराह्न 1 बजे तक)
संगोष्ठी में आलेखों का पाठ और उन पर बहस जारी
भोजनावकाश - अपराह्न 1 बजे से 3 बजे तक
द्वितीय सत्र (अपराह्न 3 बजे से रात्रि 8 बजे तक)
संगोष्ठी में आलेखों का पाठ और उन पर बहस जारी

28 जुला
प्रथम सत्र (प्रात: 10 बजे से अपराह्न 1 बजे तक)
संगोष्ठी में आलेखों का पाठ और उन पर बहस जारी
भोजनावकाश - अपराह्न 1 बजे से 3 बजे तक
द्वितीय सत्र (अपराह्न 3 बजे से रात्रि 8 बजे तक)
संगोष्ठी में आलेखों का पाठ और उन पर बहस जारी

प्रतिदिन रात में भोजन के बाद क्रान्तिकारी गीतोंनाटकों की प्रस्तुतिऐतिहासिक क्रान्तिकारी फ़िल्मों का प्रदर्शन।

आप आयोजन समिति के निम्नलिखित किसी भी सदस्य सेया आयोजन समिति के स्थानीय पते पर सम्पर्क कर सकते हैं :
सत्यमदिल्लीफ़ोन: 9910462009,  ईमेल: satyamvarma@gmail.com
मीनाक्षीदिल्लीफ़ोन: 9212511042
कात्यायनीलखनऊफ़ोन: 9936650658
अभिनवदिल्लीफ़ोन: 9999379381, ईमेल: abhinav_disha@rediffmail.com
सुखविन्दरलुधियानाफ़ोन: 09888025102
तपीशगोरखपुरफ़ोन: 9451957218

आयोजन समिति का स्थानीय पता :
आह्वान कार्यालयसंस्कृति कुटीरकल्याणपुरगोरखपुर-273001
फ़ोन : 0551-2241922,  ईमेल: arvind.trust@gmail.com

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2.7.10

छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति 2009-2014 : पूँजीवादी लूट व शोषण और मेहनतकश ग़रीबों के विस्थापन के लिए रास्ता साफ करने का फरमान


छत्तीसगढ़ पर्यवेक्षक


हाल ही में छत्तीसगढ़ की रमण सिंह की सरकार ने अगले पाँच वर्षों के लिए छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति का एलान किया। इस नीति की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट करने वाला एक दस्तावेज भी साथ में जारी किया गया। इस नीति का उद्योग जगत (यानीकारपोरेट घरानों के मुखियाओं और तमाम पूँजीपतियों) ने खुले दिल से स्वागत किया और छत्तीसगढ़ सरकार को एक निवेश-अनुकूल सरकार बताया। विभिन्न बुर्जुआ और संसदीय वामपन्थी दलों से जुड़े मजदूर संगठनों ने इस नीति की निन्दा की। लेकिन यह एक औपचारिकता मात्र थीक्योंकि किसी भी मजदूर संगठन ने इस नीति का सांगोपांग विश्लेषण प्रस्तुत नहीं किया।
जिन नीतियों के कारण छत्तीसगढ़ पिछले कई वर्षों से मजदूरोंआदिवासियों और अन्य ग़रीबों के भयंकर असन्तोष का केन्द्र बना रहा हैइस नयी औद्योगिक नीति में छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हीं नीतियों को और जोर-शोर से लागू करने की बात की है। ये नीतियाँ हैं छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक और मानव संसाधनों को देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को बेचने की नीतियाँ। इन्हीं नीतियों की एक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप यह राज्य उस वामपन्थी दुस्साहसवादी आन्दोलन के प्रमुख प्रभाव क्षेत्रों में से एक बना हुआ हैजिसे सरकार और कारपोरेट मीडिया ''माओवाद'' कहता हैइन्हीं नीतियों के कारण छत्तीसगढ़ में निवेश करने वाली तमाम कम्पनियों को सभी श्रम कानूनों को ताक पर रखकर मजदूरों के बेरोकटोक शोषण की आजादी मिली हुई हैइन नीतियों के ही कारण राज्य के तमाम प्राकृतिक संसाधनों को अन्‍धाधुन्‍ध दोहन के लिए इजारेदार पूँजी के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया हैऔर इन्हीं नीतियों के कारण छत्तीसगढ़ के मजदूरों और आदिवासियों समेत आम मेहनतकश जनता में भयंकर ग़ुस्सा पनप रहा है। ''माओवाद'' के दमन के नाम पर जो ऑपरेशन ग्रीन हण्ट शुरू किया गया हैउसका वास्तविक लक्ष्य नक्सलवादी ताकतों का दमन और सफाया नहीं है। इसका असली मकसद है राज्य की अकूत प्राकृतिक सम्पदा और श्रम शक्ति को इजारेदार पूँजी की लूट के लिए थाली में परोसकर रखने के रास्ते में आने वाले सभी प्रतिरोधों को कुचल कर रख देना और सरकार की भाषा में बात करें तो एक ''निवेश-अनुकूल वातावरण'' पैदा करना। ऐसा वातावरण पैदा करने के लिए निश्चित रूप से व्यवस्था को हर उस ताकत को जमींदोज करना होगा जो उसके रास्ते में बाधा बन रही है। छत्तीसगढ़ के ''माओवाद''-प्रभावित क्षेत्रों में जनता अपने जीवन के लिए लड़ने को मजबूर कर दी गयी है। आज अगर उनके जीवन के प्रश्न को लेकर लड़ने के लिए ''माओवाद'' की जगह कोई और ताकत मौजूद होतीतो वे उसके साथ खड़े होते। ऑपरेशन ग्रीन हण्ट का वास्तविक उद्देश्य है आम जनता के हर प्रकार के प्रतिरोध को कुचलकर पूँजी के प्रवेश के लिए एक सुगम रास्ता तैयार करना। सरकार को इसके लिए एक बहाने की आवश्यकता थी और ''माओवाद'' से बेहतर बहाना और कोई नहीं हो सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि ''माओवाद'' का प्रभाव-क्षेत्र बनने से पहले भी राज्य की आदिवासी जनता को शासकीय बर्बर दमन का सामना करना पड़ रहा था। इस क्षेत्र में पूँजीवादी विकास के लिए छत्तीसगढ़ राज्य को इस समय सरकार द्वारा आदिम पूँजी संचय की उसी प्रक्रिया के अधीन कर दिया गया हैजिसके अधीन पूँजीवाद अपने आरम्भिक विकास के लिए हर क्षेत्र को करता है। पूँजीवाद अपनी प्रकृति से ही असमान विकास करता है और भारत के उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवाद के मामले में तो यह बात और भी प्रत्यक्ष रूप से लागू होती है। प्रमुख उत्पादन पध्दति के रूप में स्थापित होने के लगभग पाँच दशक बाद भी भारत के तमाम इलाकों में अभी प्राक्-पूँजीवादी उत्पादन पध्दतियाँ या उनके अवशेषों की मौजूदगी है। आज नहीं तो कल इन सभी छोटे-छोटे खित्तों को पूँजी की सार्वभौमीकरण करने वाली गति के अधीन आना ही है। यह पूरी प्रक्रिया निश्चित रूप से एक बेहद उथल-पुथल भरी प्रक्रिया होगी क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में आम जनता की जरूरतें और उनका कल्याण नहींबल्कि देशी-विदेशी कारपोरेट जगत के मुट्ठी-भर धनपशुओं का अतिमुनाफा है। और जब इस मुनाफे को केन्द्र में रखकर और जनता की राय को कूड़े के डिब्बे में फेंककर लोगों को जबरन उनके जीविकोपार्जन के साधनों और स्थानों से विस्थापित किया जायेगाप्रताड़ित किया जायेगातो लाजिमी है कि वे लड़ेंगेऔर जो उन्हें लड़ता हुआ दिखेगा उसके साथ मिलकर लड़ेंगे। ऐसे में सरकार अगर नक्सलवाद को नेस्तनाबूद कर भी देती हैतो लोग लड़ना नहीं छोड़ेंगे। वे अपनी जिन्दगी और मौत की लड़ाई को छोड़ ही नहीं सकते हैं। लड़ना उनके लिए चयन का नहीं बल्कि बाध्‍यता का प्रश्न है।
इस नीति के दस्तावेज में राज्य सरकार ने अपनी बातें बिना किसी घुमाव-फिराव के पूँजीपतियों की प्रबन्‍धन समिति के तौर पर रखी हैं। कहीं कोई ढाँप-तोप करने की जरूरत महसूस नहीं की गयी है। दस्तावेज की शुरुआत छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक समृध्दि के बखान से होती है। पूँजी निवेश के लिए कम्पनियों को रिझाने के लिए बताया जाता है कि छत्तीसगढ़ हर प्रकार के प्राकृतिक संसाधन के मामले में सर्वाधिक समृध्द राज्यों में से एक है और राज्य सरकार द्वारा उसके ''योजनाबध्द दोहन'' से पूरा राज्य ''प्रगति के नये सोपानों की ओर अग्रसर'' है। छत्तीसगढ़ के खनिज संसाधनोंजंगलोंनदियों के जालविद्युत के आधिक्यतेजी से उन्नत होती औद्योगिक अवसंरचना और छत्तीसगढ़ की अनुकूल भौगोलिक स्थिति के बारे में इस तरह बताया गया हैजैसेकि उसे मुनाफाखोरों को ललचाने के लिए थाल में परोसकर रखा जा रहा हो।
इसके बाद 'प्रस्तावनामें ही छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बेहद ईमानदार आत्मस्वीकृति की है। दस्तावेज कहता है कि प्रस्तुत औद्योगिक नीति की रूपरेखा तैयार करने के लिए ''राज्य के उद्योग संघोंप्रमुख उद्योगपतियोंविभागीय अधिकारियोंराज्य शासन के औद्योगिक विकास से सम्बन्धिात विभाग प्रमुखों आदि के साथ विचार-विमर्श किया गया है।'' यह कथन स्पष्ट कर देता है कि सरकार ने औद्योगिक नीति के सूत्रीकरण के लिए किसी भी ट्रेड यूनियनमजदूरों के संगठनों और नागरिक संगठनों से विचार-विमर्श की कोई आवश्यकता नहीं समझी है। जिन लोगों की राय (या निर्देश!) को छत्तीसगढ़ राज्य की औद्योगिक नीति के निर्माण में शामिल किया गया हैवे राज्य के पूँजीपतियों के मंच और नौकरशाही के विभिन्न संस्तर हैं। बताने की जरूरत नहीं है कि नौकरशाही किनके हितों की सेवा में संलग्न रहती है। 'प्रस्तावनामें ही सरकार ने पूँजीपतियों और भावी निवेशकों को यह यकीन दिलाने की पूरी कोशिश की है कि उनके वर्ग हितों का पूरा ध्‍यान रखा गया है और छत्तीसगढ़ राज्य में मुनाफा पीटने के काम में हर प्रकार की ''बाधा'' (आगे हम देखेंगे कि ये बाधाएँ क्या हैं!) को हटाने के लिए सरकार प्रतिबध्द है। प्राकृतिक और मानव संसाधन को लूटने के लिए हर प्रकार से अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए सरकार ने मालिक वर्ग को निश्चिन्त करने का हर सम्भव प्रयास किया है।
'प्रस्तावनाके बाद दस्तावेज औद्योगिक नीति के 'उद्देश्यकी चर्चा पर आता है। इस हिस्से में भी सरकार ने छत्तीसगढ़ में निवेश की गुलाबी तस्वीर को पेश करने का काम जारी रखा है। हमें बताया जाता है कि औद्योगिक मशीनरी के सुगम और बाधारहित प्रचालन के लिए बुनियादी और औद्योगिक अधोसंरचना के निर्माण और उसमें निजी क्षेत्र के योगदान को सुनिश्चित किया जायेगा। स्पष्ट है कि अवसंरचनात्मक ढाँचे के निर्माण के तहत सड़कोंएक्सप्रेस वेऔद्योगिक उत्पादों के परिवहनभण्डारण आदि से लेकर उनके प्रसंस्करण तक के लिए जो विशालकाय परियोजनाएँ लागू की जायेंगीउनमें सरकार उन-उन कामों को छोड़कर जिसमें तत्काल और जबरदस्त मुनाफा मिलेगान्यूनतम हस्तक्षेप की नीति पर अमल करेगा। तात्पर्य यह है कि निर्माण कार्य के दैत्याकार प्रोजेक्टों में जबरदस्त मुनाफा कमाने का पूरा अवसर निर्माण-क्षेत्र की इजारेदार कम्पनियों को दिया जायेगा। मतलब यह कि गैमन इण्डियालार्सन एण्ड टूब्रोआदि जैसी कम्पनियों के लिए भारी मुनाफा छत्तीसगढ़ राज्य में इन्तजार कर रहा है। इसके बाद सरकार निर्यात सेक्टर के पूँजीपतियों को भरोसा दिलाती नजर आती है कि निर्यात को बढ़ावा देने के लिए ''अनुकूल वातावरण और उपयुक्त अधोसंरचना'' का विकास किया जायेगा। ''अनुकूल वातावरण'' तैयार करने से सरकार का क्या अर्थ हैइसका अर्थ है कि विशेष निर्यात क्षेत्र बनाये जायेंगेजिसमेंसरकारी भाषा में कहें तो श्रम कानूनों का ''सुगमीकरण और सरलीकरण'' किया जायेगा! सभी मजदूर जानते हैं कि श्रम कानूनों के ''सुगमीकरण/सरलीकरण'' का क्या मतलब हैइसका अर्थ होता है श्रम कानूनों का सफाया करके मुनाफा कमाने के रास्ते को सुगम और सरल बनाना। इस दस्तावेज में आगे छत्तीसगढ़ सरकार ने इसी बात को एकदम नंगे शब्दों में कह दिया है।
इसके बाद नीति के उद्देश्यों का ही बयान करते हुए सरकार अप्रवासी भारतीय पूँजीपतियों और शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों को यह आश्वासन देती है कि छत्तीसगढ़ में उन्हें अन्य किसी राज्य से ज्यादा छूटेंराहतें और अनुकूल वातावरण मिलेगा! जाहिर हैकि छत्तीसगढ़ सरकार का इरादा राज्य में निवेश करने वाली देशी-विदेशी कम्पनियों को करउत्पादन शुल्ककस्टम डयूटी आदि में भारी छूट देने और साथ हीबेहद मामूली ब्याज दरों पर कर्ज देने और साथ ही श्रम कानूनों को लागू करने के अवरोध को ख़त्म कर देने का है। अर्थशास्त्र की सामान्य समझदारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि करोंउत्पादन/कस्टम शुल्कोंऔर नाममात्र के ब्याज पर कर्ज देने का अर्थ है राज्य सरकार को होने वाला भारी राजस्व घाटा। और जो इतना समझ लेगावह यह भी जानता है कि राज्य सरकार अपनी आमदनी में होने वाले घाटे को जनता की जेब से वसूल करेगी। इसके अतिरिक्तइन कम्पनियों को अपनी परियोजनाओं के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण में भी हर किस्म की सुविधा दी जायेगी। सरकार ने दस्तावेज में आगे कहा है कि भूमि अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया को बेहद आसान और हल्का बना दिया जायेगा। इसके लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किये जायेंगे जो समयबध्द सीमा में काम का निपटारा करेंगे। काशमजदूरों के साथ होने वाले औद्योगिक विवादवेतन के मारे जाने और श्रम कानूनों के उल्लंघन आदि के निपटारे के लिए भी राज्य सरकार कोई समय-सीमा तय करती! लेकिन ऐसी आशा करनावह भी पूँजीपतियों की 'मैनेजिंग कमेटीके तौर पर नंगे रूप में काम कर रही एक सरकार सेलगभग पागलपन की श्रेणी में आयेगा। जाहिर हैकि सरकार तो श्रम कानूनों को तिलांजलि देकर परिभाषा के धरातल पर ऐसे विवादों को ही ख़त्म कर देना चाहती है। यानी कि अब भी मालिक मजदूरों के साथ उसी तरहबल्कि उससे भी बुरी तरह से अन्याय करेगालेकिन कानून की निगाह में वह कोई विवाद माना ही नहीं जायेगा क्योंकि इस अन्याय को ही कानूनी जामा पहना दिया जायेगा। राज्य पूँजीपतियों के अधिनायकत्व के उपकरण के रूप में यहाँ स्पष्ट रूप से दिख रहा है।
'उद्देश्यशीर्षक के तहत अन्त में एक बिन्दु जोड़ दिया गया है कि समाज के पिछड़े तबकों जैसे दलितोंआदिवासियोंलघु उद्यमियोंमहिलाओं के लिए सरकार क्या कर रही है। इसके तहत सरकार ने बस एक जुमला फेंक दिया है - इनको ''मुख्य धारा'' में लाया जायेगा। जी हाँउसी तरह जैसे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को ''मुख्य धारा'' में लाया जा रहा है! इसके अतिरिक्त यह भी वायदा किया गया है कि नक्सलवाद से प्रभावित परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन और विशेष सुविधाएँ दी जायेंगी!
उद्देश्यों के प्रतिपादन के बाद दस्तावेज 'रणनीतिके बारे में बताता है। छत्तीसगढ़ सरकार गर्व से बताती है कि राज्य के औद्योगिक विकास के लिए नये औद्योगिक क्षेत्र स्थापित किये जायेंगे और इसके लिए जमीन आरक्षित की जायेगी। ''जमीन आरक्षित करने'' का अर्थ समझाने की आवश्यकता नहीं हैहम सभी जानते हैं। इसके अतिरिक्त, ''विशिष्ट औद्योगिक पार्कों'' की स्थापना की जायेगी। जाहिर है कि इन ''विशिष्ट औद्योगिक पार्कों'' की ''विशिष्टता'' इस बात में निहित होगी कि इनमें कम्पनियों को हर तरह के करब्याजश्रम कानूनक्लियरेंस आदि के झंझट से छुटकारा मिल जायेगा। मुनाफे के चक्के के धुरे में सरकार ने हर प्रकार का तेल और ग्रीज उड़ेल दिया है! उत्पादन की जगह पर हर प्रकार के सिरदर्द से छुटकारे के वायदे के बाद सरकार कम्पनियों को यकीन दिलाती है कि उत्पादन के बाद उसे विपणन के क्षेत्र तक पहुँचाने के लिए परिवहन की उत्तम व्यवस्था की जायेगी। इसका अर्थ है कि सरकार औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादों को प्रमुख विपणन बिन्दुओं तक पहुँचाने के लिए एक्सप्रेस वेटोल वेआदि-आदि का निर्माण करेगी। जनता तो इन राजमार्गों पर चल नहीं पायेगीलेकिन इसका निर्माण जनता के पैसों से ही होगा। अवसंरचना के विकास के नाम पर सरकार ने उस अवधारणा का उपयोग करने की बात की है जो पूरे देश में जनता के लिए चुटकुला बन चुका है। इस चुटकुले का नाम है पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप। यह नाम पहली बार सुनने में तो बहुत अच्छा लगा था। ऐसा लगा था मानो नीति-निर्धारण और मुनाफे में हिस्सेदारी के लिए जनता के पक्ष को शामिल किया जा रहा है। लेकिन इस अवधारणा के कार्यान्वयन के कुछ प्रारम्भिक मॉडल देखकर ही समझ में आ गया कि इसका अर्थ क्या है। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का अर्थ एक ऐसी साझीदारी है जिसमें सारी लागत उठायेगी पब्लिक और सारा मुनाफा चाँपेगा प्राइवेट! दिल्ली से लेकर उत्तर प्रदेश तक में जहाँ-जहाँ इसे लागू किया गया हैवहाँ यही हुआ है। ''पब्लिक'' की ओर से भागीदारी करती है सरकार जो जनता से वसूले गये धन से अवसंरचना के निर्माण का बड़ा ख़र्च उठाती हैकिसान जनता से बलात् औनी-पौनी कीमतों पर जमीन लेकर पूँजीपतियों को मुहैया कराती है। ''प्राइवेट'' के नाम पर पूँजीपति उन कामों को अपने जिम्मे लेते हैंजिनमें कम लागत हो और निर्माण में लगे मजदूरों को निचोड़ने के मनमाने अवसर अधिकाधिक हों। जाहिर है कि जब पूरा अवसंरचनात्मक ढाँचा खड़ा हो जाता है तो उसका इस्तेमाल प्राइवेट सेक्टर के उद्योग मनमानी शर्तों पर अतिलाभ निचोड़ने के लिए करते हैं। यह सब होता है विकास के नाम परलेकिन व्यापक जनता को मिलती है सिर्फ विस्थापन की विभीषिका और उजरती ग़ुलामी का नारकीय जीवन।
तमाम असाधारण और अद्भुत रणनीतियों का बखान करते हुए सरकार कहती है कि वह बीमार और बन्द उद्योगों का पुनर्वास करेगी। पुनर्वास को आप स्वर्गवास भी पढ़ सकते हैं। अब तक ऐसे उद्योगों के कैसे पुनर्वास हुए हैंहम सभी जानते हैं। या तो उन्हें औने-पौने दामों पर निजी हाथों में बेच दिया जाता हैया फिर ऊपर बतायी गयी नायाब अवधारणा के तहत 'पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिपके नाम पर किसी कम्पनी को बेंच दिया जाता है। छत्तीसगढ़ में इससे कुछ अलग करने का इरादा सरकार का होऐसा मानने का एक भी कारण जनता के पास नहीं है।
'रणनीतिशीर्षक के अन्त में सरकार क्या कहती हैजरा ग़ौर करें
''राज्य में उद्योगों के लिए आरक्षित भूखण्ड एवं नये औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना के लिए विशाल पैमाने पर भू-अध्रग्रहण को सुगम बनाने हेतु जिला एवं राज्‍य स्‍तर पर उद्योग विभाग के कार्यालयों को सशक्‍त बनाना।'' (जोर हमारा)
हम पहले ही बता आये हैं कि ऐसे सुगमीकरण का क्या अर्थ है। इसका अर्थ होगा जनता से जबरन जमीन हथियाकर मुआवजे के नाम पर उन्हें मामूली रकम थमाकर (ज्यादातर मामलों में सिर्फ काग़ज पर) घर बिठा देना और चूँ-चपड़ करने पर सबक सिखाना। भू-अधिग्रहण का मसला इस समय छत्तीसगढ़ समेत तमाम उन राज्यों में सबसे विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है जहाँ वामपन्थी दुस्साहसवाद का प्रभाव है। आदिवासी जनता को जबरन उनके जीविकोपार्जन के अन्तिम साधनों से भी मरहूम कर देने की सरकारी कोशिशों के ख़िलाफ आदिवासी जनता बग़ावत करने को मजबूर है और इन्हीं परिस्थितियों में वामपन्थी दुस्साहसवाद की सोच के जड़ जमाने के कारण निहित हैं। इन्हें सरकार लाख चाहकर भी सैन्य तरीकों से ख़त्म नहीं कर सकती। जनता अपना प्रतिरोध छोड़ ही नहीं सकती क्योंकि यह उसके लिए जीवन-मृत्यु का प्रश्न है। बेशकइस प्रतिरोध युध्द में उसे विजय हासिल न होलेकिन जब करोड़ों की आबादी को उनके जीवन के आख़िरी साधनों से विस्थापित कर दिया जायेगातो उनके सामने लड़ते रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। उन्हें नेतृत्व देने के लिए वहाँ कोई भी ताकत मौजूद होतीतो वे उसके साथ खड़े होकर लड़ते।
लेकिन आख़िरी बिन्दु में छत्तीसगढ़ सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि भू-अधिग्रहण की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रहेगीबल्कि सरकार इसे और अधिक ''सुगम'' बनायेगी।
इस शीर्षक के बाद दस्तावेज कार्यनीतियानी एक्शन प्लानको स्पष्ट करता है। सबसे पहले बुनियादी अधोसंरचना के विकास के लिए कार्यनीति प्रतिपादन किया गया है। इसके लिए सरकार ने लगातार पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का गुणगान किया है। हमें बताया जाता है कि पीपीपी के तहत एक कॉमन रेल कॉरीडोर का निर्माण किया जायेगा। इसका मकसद होगा राज्य के औद्योगिक क्षेत्रों को खनन-उत्खनन के क्षेत्रों से जोड़ना। पीपीपी के नाम पर इसके इस्तेमाल का ख़र्च बहुत मामूली होगा। जैसाकि हमने पहले ही बताया है कि इस अवधारणा का अर्थ होता है पब्लिक के लिए लागत उठानाऔर प्राइवेट के लिए मुनाफा कमाना। इस कॉरीडोर के निर्माण के बाद औद्योगिक क्षेत्र में परियोजनाएँ लगाने वाले पूँजीपतियों की लागत में भारी कमी आ जायेगी। यानीमुनाफे में कई गुना की वृध्दि सुनिश्चित! कॉमन रेल कॉरीडोर के साथ ही पीपीपी के ही तहत वृहद औद्योगिक परियोजनाओं (यानी कई हजार करोड़ की लागत वाली बड़ी कम्पनियों के उपक्रम के क्षेत्रों) में बड़े पैमाने पर सड़कों और राष्ट्रीय राजमार्ग से जोड़ने वाले पहुँच सड़क मार्गों का निर्माण किया जायेगा। इसका अर्थ भी लागत में भारी कमी हैऔर वह भी जनता के ख़र्चे पर। यह भार स्थानान्तरित करने जैसा है। आगे सुनिये पीपीपी का कमाल!
पीपीपी के ही तहत तकनीकी प्रशिक्षण संस्थान बनाये जायेंगे। इसका कारण यह है कि विशालकाय औद्योगिक परियोजनाओं के लगने के बाद पूँजीपतियों को थोड़ी कुशल श्रमशक्ति की जरूरत भी पड़ेगी। और इसके लिए तकनीकी प्रशिक्षण संस्थानों को खड़ा किया जायेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि ये संस्थान स्वयं मुनाफा कमाने के उपक्रम होंगे। इसीलिए तो इनका भी ''पीपीपीकरण'' कर दिया जायेगा। लागत उठायेगी पब्लिकमुनाफा कमायेगा प्राइवेट!
बुनियादी अधोसंरचना निर्माण के लिए कार्यनीति के बयान के बाद दस्तावेज औद्योगिक अधोसंरचना निर्माण की कार्यनीति पर आ जाता है। इसमें सबसे पहले एक रस्मी वाक्य जोड़ा गया है कि सन्तुलित औद्योगिक विकास के लिए लघु और सूक्ष्म उद्योगों के लिए भूमि आबण्टित की जायेगी। लेकिन इसके बाद सरकार अपने असली एजेण्डा पर आ जाती है। निजी क्षेत्र को राज्य में औद्योगिक क्षेत्र निर्माण के लिए कम-से-कम 75 एकड़ की भूमि आबण्टित की जायेगी। इन क्षेत्रों में सरकार ने अधिकतम सम्भव छूटें और रियायतें देने का वायदा किया है। इसका अर्थ है कि जमीनबिजलीपानीकर्जश्रमशक्ति को कम-से-कम लागत में उपलब्ध कराने का वायदा। इन निजी औद्योगिक क्षेत्रों को मुनाफा कमाने के लिए हर प्रकार की छूट दी जायेगी। भू-अधिग्रहण और भू-आबण्टन की प्रक्रिया को बिल्कुल सुगम और बाधारहित बनाने का सरकार ने एलान किया है। यानी कि चुटकियों में जनता के हाथ से जमीन छीनी जायेगी और चुटकियों में उसे कारपोरेट घरानों और इजारेदार पूँजीपतियों के हवाले कर दिया जायेगा। नाम के लिए सरकार ने कहा है कि अगर जमीन देने वाले परिवारों में से कोई स्वयं उद्योग लगाना चाहता है तो उसे प्राथमिकता दी जायेगी। लेकिन हम सभी जानते हैं कि वृहद औद्योगिक विकास वाले क्षेत्रों में जिस लागत से किसी भी औद्योगिक उपक्रम को स्थापित किया जा सकता है उसका ख़र्च उठा पाना किसी मध्‍यमवर्गीय परिवार के भी बूते की बात नहीं हैग़रीबों को तो छोड़ ही दिया जाये। इसलिए यह बात जोड़ना एक मजाक जैसा ही है। इसी मजाक के बाद एक मजाक और भी किया गया है। भू-अधिग्रहण पर जमीन के मालिक को ''समुचित मुआवजा'' दिया जायेगा! अब यह समुचित मुआवजा कितना होगा और कौन इसे तय करेगाइसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा गया है। औद्योगिक उपयोग के लिए जमीन की क्रय-विक्रय दर के अनुसार भुगतान किया जायेगा या किसी और दर सेयह भी निर्दिष्ट नहीं है। इसे तय करने की शक्ति किसके पास होगीयह भी गोपनीय रखा गया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि यह ''समुचित मुआवजा'' कितना समुचित होगा!
दस्तावेज आगे कहता है कि उद्योग-विशिष्ट औद्योगिक पार्क बनाये जायेंगे। यानी कि ऐसे विशेष आर्थिक क्षेत्र जिसमें किसी एक श्रेणी के ही उद्योग होंगे। इसके तहतजेम्स एण्ड ज्यूलरीफूड प्रोसेसिंग पार्कहर्बल एण्ड मेडिसिनल पार्कमेटल पार्कऐपेरेल पार्कइंजीनियरिंग पार्करेलवे सहायक उद्योगउद्योग कॉम्प्लेक्सएल्यूमीनियम पार्कप्लास्टिक पार्कग्रामोद्योग पार्क एवं फार्मास्यूटिकल पार्क बनाये जायेंगे। जाहिर हैउद्योग विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों को भी सरकार ढेर सारे तोहफे दे रही है। ऐसे पार्कों को बनाने से इसमें निवेश करने वाले पूँजीपतियों को लागत घटाने में और अधिक सहायता मिलेगी। इसका कारण यह है कि एक ही पेशे पर आधारित विशेष आर्थिक क्षेत्रों में कुशल श्रमशक्तिकच्चे मालभण्डारण से लेकर लॉजिस्टिक्स तक प्राप्त करना कहीं अधिक सुगम हो जायेगा। और श्रमशक्ति की उपलब्धता को कम-से-कम दरों पर सुनिश्चित करने का इन्तजाम तो छत्तीसगढ़ सरकार पहले से ही कर रही है - हर प्रकार के श्रम कानूनों को लागू करने के बन्‍धन से कम्पनियों को मुक्ति देकर। इस तरह के नये औद्योगिक क्षेत्रों के लिए उच्च भारवहन क्षमता की सड़कें व अन्य कई सुविधाओं का भी निर्माण किया जायेगा। अब यह एक विडम्बना ही है कि आज तक छत्तीसगढ़ के पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जरूरत के लिए वहाँ कभी भी अवसंरचनात्मक निर्माणसामाजिक आवश्यकताओं के लिए स्कूलोंअस्पतालों आदि के निर्माण और विद्युत और सड़कपीने योग्य पानी आदि की पहुँच का इन्तजाम नहीं किया गया। लेकिन जैसे ही यह क्षेत्र एक पसन्दीदा निवेश का स्थान बनावैसे ही सरकार को विकास की याद आ रही है। कारण साफ है। एक पूँजीवादी व्यवस्था में विकास हर-हमेशा पूँजी और पूँजीपतियों का विकास होता है।
अन्त मेंपर्यावरण संरक्षण पर एक रूटीनी बिन्दु जोड़ने के बाद दस्तावेज प्रशासकीय व कानूनी सुधार के लिए चुनी गयी कार्यनीति पर आ जाता है। यह पूरे दस्तावेज के सबसे महत्त्‍वपूर्ण उपशीर्षकों में से एक है। केवल पाँच बिन्दुओं में सरकार ने पूँजीपतियों की हितपूर्ति में उनकी मैनेजिंग कमेटी के तौर पर अपने कार्यभारों को स्पष्ट कर दिया है। पहले बिन्दु में सरकार क्या कहती हैजरा सुनिये -
''मेगा औद्योगिक परियोजनाओं के ''क्लियरेंस'' से सम्बन्धिात प्रकरणों के त्वरित निराकरण हेतु राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड में उद्योगों/ निवेशकों द्वारा प्रस्तुत एकीकृत आवेदन पत्र पर विभिन्न विभागों द्वारा की गयी कार्यवाही की सतत समीक्षा उच्च स्तर पर की जायेगी।''
इस स्पष्ट कथन के बारे में वैसे तो किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं हैलेकिन फिर भी। सरकार ने अद्भुत स्पष्टवादिता के साथ कहा है कि मेगा परियोजनाओं (100 से 1000 करोड़ रुपये के स्थायी निवेश वाली परियोजनाओं) के मामले में जिन क्लियरेंस प्रक्रियाओं से कम्पनियों और कारपोरेट घरानों को गुजरना पड़ता हैउसे बिल्कुल सीधा और सरल बना दिया जायेगा और इसमें निहित हर प्रकार की लालफीताशाही को समाप्त किया जायेगा। इसके लिए एक उच्च स्तरीय बोर्ड बनाया गया हैजिसका नाम है राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड। इस बोर्ड में किसी भी विभाग में क्लियरेंस की प्रक्रिया के फँसने या विलम्बित होने की समीक्षा उच्च स्तर पर की जायेगी।
अब पूँजीपतियों के पक्ष में की गयी इस कार्रवाई की तुलना मजदूरों के साथ होने वाले अन्यायों की सुनवाई के लिए स्थापित सरकारी प्रक्रिया से कीजिये। अगर किसी मजदूर का वेतन मारा जाता हैउसे अन्यायपूर्ण ढंग से काम से निकाला जाता हैन्यूनतम मजदूरी का भुगतान नहीं किया जाताई.एस.आई./पी.एफ की व्यवस्था नहीं की जातीऔर वह इसके विरुध्द कार्रवाई का फैसला लेता हैतो उसके पास क्या रास्ता हैउसके पास यह रास्ता है कि वह भ्रष्ट और पूँजीपतियों के हाथों बिके हुए और उनकी गोद में बैठे श्रमायुक्त या उप-श्रमायुक्त कार्यालय या लेबर कोर्ट के चक्कर काटता रहे। और इसके चक्कर काटने में ही उसकी इतनी रकम ख़र्च हो जाये जितनी रकम पर दावे के लिए वह लड़ रहा है! हर मजदूर जानता है कि इस चक्कर में फँसने से बेहतर है कि ग़ुस्से को पीकर 'संतोषं परं सुखंका जाप किया जाये और अपने साथ हुए अन्याय को भूल जाया जाये। लेकिन पूँजीपतियों का हित न मारा जाये और उनके उद्योगों को हर सुविधा और छूट/रियायत के साथ लगाने का काम त्वरित गति सेबिना लालफीताशाही की बाधा के होइसके लिए अलग बोर्ड और विभाग तक बनाने में सरकार देर नहीं करती! कारण समझा जा सकता है! पूँजीपतियों के मुनीमों और मुंशियों से और क्या उम्मीद की जाये?
आगे सुनिये
''राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड ''सिंगल विण्डो प्रणाली'' के सचिवालय के रूप में कार्य करेगा। छत्तीसगढ़ औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन अधिनियम-2002 के अन्तर्गत बनाये गये छत्तीसगढ़ औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन नियम-2004 के अधीन जिला स्तर पर गठित जिला निवेश प्रोत्साहन समितियों तथा राज्य स्तर पर गठित राज्य निवेश प्रोत्साहन बोर्ड की कार्य-प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने के लिए निवेश प्रस्तावों पर सम्बन्धिात विभाग द्वारा निर्धारित कालावधि के भीतर आवश्यक ''क्लीयरेंस'' उपलब्ध कराने के लिए उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक की पध्दति अपनायी जायेगी।''
मुनाफे के रास्ते से हर तरह के रोड़े हटाने के लिए छत्तीसगढ़ की रमण सिंह सरकार ने शायद सबसे व्यवस्थित ढंग से काम किया है। कानून और नियम बनाकर कम्पनियों के रास्ते से हर प्रकार के अवरोधों को हटाने का प्रयास किया गया है। जैसाकि ऊपर उद्धृत अंश से स्पष्ट हैसरकार ने ऐसे विशेष मण्डलसमितियाँ और कानूनी ढाँचे की रचना की है जिससे औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित करने की पूरी प्रक्रिया को पूँजीपतियों के लिए बेहद सुगम बनाया जा सके। ज्ञात हो कि किसी भी औद्योगिक इकाई की स्थापना पर कम्पनियों को तमाम किस्म के क्लीयरेंस लेने होते हैं। मिसाल के तौर परपर्यावरणीय मूल्यांकन रिपोर्ट देकर बताना होता है कि इस इकाई से धवनिजलवायु और जैव विविधता पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। साथ हीउन्हें यह भी बताना पड़ता है कि आस-पास के सामाजिक-आर्थिक माहौल के लिए भी इस औद्योगिक इकाई की स्थापना लाभदायक होगी। इस पूरी प्रक्रिया के लिए कम्पनियों को परामर्शदाताओं और यह काम करने में माहिर एजेंसियों को भाड़े पर रखना पड़ता हैइसके बादतमाम सरकारी विभागों के अफसरों आदि को जमकर खिलाना-पिलाना पड़ता हैताकि पूरी प्रक्रिया छोटी और आसान हो जाये। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में कम-से-कम नाममात्र के लिए ही सहीइस प्रक्रिया को अपनाया जाता है। लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने इस रस्म-अदायगी के बोझ से भी छत्तीसगढ़ में पूँजीपतियों को मुक्त कर दिया है। अब सरकारी अधिकारी स्वयं पूँजीपतियों के कारकून की तरह काम करते हुए ''सिंगल विण्डो प्रणाली'' के तहत सारे नियमों-कानूनों को ताक पर रखकर त्वरित प्रक्रिया से हर प्रकार के क्लियरेंस के काम को अंजाम देंगे।
इस उपशीर्षक के तीसरे बिन्दु में सरकार पूँजीपतियों के प्रति अपने तीसरे कर्तव्य की बात करते हुए बताती है
''मेगा औद्योगिक परियोजनाओं के भू-अर्जन/भू-आबण्टनजल आबण्टन एवं विद्युत प्रदाय सम्बन्धी प्रकरणों के समय-सीमा में निराकरण हेतु नोडल अधिकारी नामांकित किये जायेंगे जो प्रकरणों के त्वरित निराकरण हेतु कार्य करेंगे।''
रमण सिंह सरकार ने जमीन हड़पनेलगभग मुफ्त में पानी और बेहद रियायती दरों पर बिजली देने और इसके सम्बन्‍ध में होने वाले किसी भी विवाद या मुद्दे के निपटारे के लिए एक अलग नोडल अधिकारी की नियुक्ति की घोषणा कर पूँजीपतियों को एक और बहुत बड़ी राहत देने की घोषणा की है। यह नोडल अधिकारी भी निर्धारित समय-सीमा के भीतर इन प्रकरणों का निपटारा करेगा। सरकार अपनी कार्यक्षमताकुशलता और वफादारी को कम्पनियों और कारपोरेट घरानों की निगाह में साबित करने के लिए काफी तत्पर दिखायी देती है।
चौथे बिन्दु में सरकार यह भरोसा दिलाती है कि ऐसे औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना के बाद उद्योगों की आवश्यकताओं के त्वरित निराकरण के लिए नये सरकारी व्यापार व उद्योग केन्द्रों आदि की स्थापना की जायेगी। यानी कि न सिर्फ उद्योगों को लगाने के दौरानबल्कि उनके प्रचालन के शुरू होने के बाद भी इस बात का पूरा ख़याल रखा जायेगा कि उन्हें किसी किस्म की असुविधा न हो।
आख़िरी बिन्दु मजदूरों के लिए सबसे महत्त्‍वपूर्ण है और शायद इसीलिए इसे सरकार ने संक्षिप्ततम रखने का प्रयास किया है। देखिये सरकार क्या कहती है
''श्रम कानूनों के सरलीकरण और उन्हें युक्तियुक्त बनाने हेतु पहल की जायेगी।'' (जोर हमारा)
वाह! क्या कहने हैं! श्रम कानूनों को और अधिक सरलीकृत और युक्तियुक्त बना दिया जायेगा। तो उसमें बचेगा क्याविशेष आर्थिक क्षेत्र में वैसे भी अधिकांश श्रम कानून नहीं लागू होते हैं और मालिकों को इसका कानूनी अधिकार भी सरकार ने सौंप दिया है। अब इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में और भी अधिक आसानी से मजदूरों का हक मारा जा सकेइसके लिए कानूनों को और अधिक पंगु और प्रभावहीन बना देने का आश्वासन सरकार ने पूँजीपतियों को दिया है। सरकार यह नहीं बताती है कि किसके पक्ष में कानूनों को युक्तियुक्त बनाया जायेगा। यह ''युक्तियुक्त'' काफी युक्तिपूर्ण शब्द है। मेगा औद्योगिक परियोजनाओं (100 से 1000 करोड़ रुपये के स्थायी पूँजी निवेश वाली औद्योगिक परियोजनाएँ) निश्चित रूप से बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा लगायी जायेंगी। उन्हें भी हर प्रकार के बन्‍धन से मुक्त कर दिया जायेगा। यह है श्रम कानूनों को युक्तियुक्त बनाने का अर्थ। यानीमजदूरों को नाममात्र के लिए प्राप्त कानूनी सुरक्षा से भी पूर्ण मुक्ति! वे अब कानूनी तौर पर कोई दावा भी नहीं कर सकेंगे। उन्हें शाब्दिक अर्थों में उजरती ग़ुलाम बना दिया जायेगा। सरकार के इरादे और पक्षधरता साफ हैं।
इसके बाद दस्तावेज नये शीर्षक ''उद्योगों के दायित्व'' पर आ जाता है। आप इसे पढ़ते ही समझ जाते हैं कि दस्तावेज का मसविदा तैयार करने वाले को सबसे अधिक अक्ल इसी हिस्से को तैयार करने में लगानी पड़ी होगी। ऐसा लगता है कि सरकार को समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस शीर्षक के तहत लिखा क्या जायेउद्योगों के दायित्व!काफी जोर लगाकर छह बिन्दु तैयार किये गये हैं जिनमें कम्पनियों को छत्तीसगढ़ राज्य के निवासियों को रोजगार का बड़ा हिस्सा देने के लिए कहा गया है। इसके बादकही गयी बातें अनिवार्यता की श्रेणी में नहीं बल्कि सुझाव की श्रेणी में आती हैं। मिसाल के तौर परकम्पनियों को राज्य के तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों में कैम्पस सेलेक्शन के लिए प्रेरित किया जायेगा। परियोजनाओं से प्रभावित जिलों में सामुदायिक विकास के लिए ''मुख्यमन्त्री सामुदायिक विकास कोष'' बनाया जायेगा (यह भला उद्योगों का दायित्व कैसे हैइसमें तो सरकार अपना ही एक दायित्व बता रही है! ख़ैर!) इसी तरहउद्योगपतियों को पर्यावरण का अधिक से अधिक ख़याल रखते हुए रेन वाटर हार्वेस्टिंग आदि करने की सलाह दी गयी है। इसके अलावाउन्हें एनर्जी ऑडिट करने के लिए भी कहा गया है। साफ हैकि यह उपशीर्षक इस पूरे दस्तावेज में नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसके बादसरकार ''निर्यात संवर्धन एवं एफ.डी.आई. निवेश'', ''प्रक्रिया सरलीकरण एवं सहायक उद्योगों का विकास'', ''उद्यमिता एवं मानव संसाधन विकास'' के शीर्षकों के तहत पूँजीपतियों के प्रति पहले जतायी गयी प्रतिबध्दताओं को ही दोहराया गया है। मिसाल के तौर परसरकार कहती है कि 100 प्रतिशत निर्यात करने वाले उद्योगों व एफ.डी.आई. निवेशकों और आप्रवासी भारतीय निवेशकों को राज्य में उद्योग स्थापित करने पर अतिरिक्त छूटें/रियायतें दी जायेंगी। प्रक्रिया सरलीकरण के तहत हमें बताया जाता है कि जमीन हड़पने के रास्ते में जो कानून बाधा बनते हैंउन्हें भी युक्तियुक्त बना दिया जायेगा। यानीउनका क्रियाकर्म कर दिया जायेगा। ठेकेदारों के लिए भी काफी प्रक्रिया सरलीकरण किया जा रहा है। उनके लिए ई-टेण्डरिंग की व्यवस्था की जायेगी और इसके लिए उन्हें समुचित प्रशिक्षण दिया जायेगा। मानव संसाधन विकास से सरकार का क्या अर्थ हैइसे भी स्पष्ट किया गया है। राज्य के तमाम कुशल/अर्ध्दकुशल/अकुशल श्रमिकों को तो विशेष आर्थिक क्षेत्र और मेगा व अल्ट्रा मेगा औद्योगिक परियोजनाओं में कोयले के समान झोंक दिया जायेगालेकिन इसके बाद भी जो भारी मजदूर और युवा आबादी बेरोजगार बचेगीउसे सरकार ने स्वरोजगार का उपदेश दिया है। इसके लिए ऋण संस्थाएँ स्थापित की जायेंगी। बताने की जरूरत नहीं है कि इन सूक्ष्म ऋण योजनाओं से सरकार कितनी जबरदस्त कमाई करती है। स्वरोजगार के भ्रम में युवाओं और मजदूरों की भारी आबादी अर्ध्दबेरोजगार बनी रहती है और ऋण का ब्याज भरने और जीविकोपार्जन की न्यूनतम बुनियादी शर्तों को मुश्किल से पूरा कर पाने के दबाव में ही आर्थिक और भौतिक तौर पर ख़र्च हो जाती है। आगे के शीर्षक में यह भी बताया गया है कि युवाओं के बीच व्याप्त बेरोजगारी को दूर करने के लिए राज्य में ''मुख्यमन्त्री स्वरोजगार योजना'' शुरू की जायेगा। इस योजना का यही लक्ष्य है। बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की मशीनरी जिस आबादी को खपाने में अक्षम होगीउसे इस योजना के तहत एक लॉलीपॉप थमा दिया जायेगा।
''औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन'' शीर्षक के तहत सरकार ने पूँजीपतियों की सेवा में कुछ महत्त्‍वपूर्ण घोषणाएँ की हैं। सरकार उद्योगों को उनकी पात्रता के अनुसार ब्याज अनुदानस्थायी पूँजी निवेश अनुदानविद्युत शुल्क से छूटस्टाम्प शुल्क से छूटऔद्योगिक क्षेत्रों में भू-आबण्टन पर प्रीमियम में छूट/रियायतपरियोजना प्रतिवेदन अनुदानभूमि व्यपवर्तन शुल्क से छूटगुणवत्ता प्रमाणीकरण अनुदानतकनीकी पेटेण्ट अनुदान व मण्डी शुल्क प्रतिपूर्ति अनुदान जैसी महत्त्‍वपूर्ण छूटें/रियायतें दी जायेंगी। 100 प्रतिशत एफ.डी.आई. निवेशकों को अन्य उद्यमियों से 5 प्रतिशत अधिक अनुदान दिया जायेगा। महिला उद्यमियोंराज्य के सेना से सेवानिवृत्त उद्यमियोंव नक्सलवाद से प्रभावित परिवारों को सामान्य से 10 प्रतिशत अधिक अनुदान प्राप्त होगा। परिशिष्ट 1-''परिभाषाएँ'' खण्ड में नक्सलवाद से प्रभावित व्यक्ति/परिवार को उन व्यक्तियों/लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो राज्य में नक्सलवाद के उन्मूलन के दौरान शहीद हुए हैं। स्पष्ट हैसरकार सलवा जुडुमऔर इस जैसी अपने अनौपचारिक और ग़ैर-कानूनी सशस्त्र दस्तों के मारे गये लोगों को यह छूट दे रही हैजो आदिवासियों पर बर्बर से बर्बर दमन के कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। जाहिर है कि नक्सलवाद/माओवाद के उन्मूलन के नाम पर पुलिसअर्ध्दसैनिक बलों और सलवा जुडुम की सरकार समर्थित गुण्डा-वाहिनियों ने जिन निर्दोष आदिवासियों को मारा या उजाड़ा हैउन्हें या उनके परिवार को सरकार कोई राहत नहीं देने जा रही हैक्योंकि वह उन्हें दुर्दान्त आतंकवादी मानती है।
अब जरा देखिये कि किन-किन उद्योगों को कितनी छूट/रियायत दी गयी है।
सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों को आर्थिक विकास की दृष्टि से पिछड़े और विकासशील क्षेत्रों के अनुरूप कर्ज क़े ब्याज पर 40 प्रतिशत से 90 प्रतिशत छूट दी जायेगी। स्थायी पूँजी निवेश के मामले में इन उद्योगों को इस निवेश पर 30 से 50 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। मँझोले उद्योगों को भी कर्ज के ब्याज पर लगभग इतनी ही छूट दी जायेगी। स्थायी पूँजी निवेश पर मँझोले उद्योगों को 35 से 45 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। वृहद उद्योगों को भी स्थायी पूँजी निवेश पर 35 से 45 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। मेगा/अल्ट्रा मेगा परियोजनाओं को स्थायी पूँजी निवेश पर 35 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। कुल मिलाकरइन छूटों से सरकारी ख़जाने का हजारों करोड़ रुपये का घाटा होगा। जाहिर है कि इस घाटे को मजदूरों और आम मेहनतकश आबादी को और ज्यादा निचोड़कर कम किया जायेगा। नये औद्योगिक क्षेत्रों में हर आकार की औद्योगिक परियोजनाओं को विद्युत शुल्क से से 12 वर्ष तक की छूट होगी। यानी कि राज्य के बिजली उत्पादन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा पूँजीपतियों को मुफ्त में सौंप दिया जायेगा। पूँजीपतियों को स्टाम्प शुल्क से भारी छूट के रूप में भी सार्वजनिक मद में राज्य सरकार भारी नुकसान उठाने को तैयार है। जाहिर हैइसकी भरपाई भी मेहनतकश जनता की जेब काटकर की जायेगी।
छूटों/रियायतों की फेहरिस्त अभी ख़त्म नहीं हुई है। भू-आबण्टन में उद्योगपतियों से लिये जाने वाले भू-प्रीमियम में भी 50 से 100 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। इसके अतिरिक्तपरियोजना प्रतिवेदन पर होने वाले पूँजीपतियों के ख़र्च को भी सरकार अनुदान देकर कम कर देगी या माफ कर देगी। गुणवत्ता प्रमाणीकरण पर होने वाले ख़र्च को भी सरकार अनुदान के जरिये भर देगी और भू-आबण्टन पर लगने वाले सेवा शुल्क पर भी से 20 प्रतिशत तक की छूट दी जायेगी। पूँजीपति उद्योग लगाने के बाद किसी वस्तु के उत्पादन के लिए जो पेटेण्ट ख़रीद करेंगेउसका भी 50 प्रतिशत सरकार भर देगी। जिन मामलों में कृषि उपज मण्डी से कच्चा माल ख़रीदा जायेगाउसमें भी सरकार 50 प्रतिशत तक की राशि को अपने ख़जाने से भरेगीजो वास्तव में सार्वजनिक मद है। निजी औद्योगिक क्षेत्रों और पार्कों की स्थापना के लिए भी सरकार अधोसंरचना लागत पर 25 प्रतिशत तक की छूटडायवर्सन शुल्क से पूर्ण छूट और स्टाम्प शुल्क से पूर्ण छूट देगी।
कुल मिलाकर देखा जाये तो छत्तीसगढ़ सरकार विभिन्न छूटों और रियायतों के नाम पर कारपोरेट जगत को हजारों करोड़ रुपये का तोहफा दे रही है। ये हजारों करोड़ रुपये जो सरकारी ख़जाने में जातेअब वे पूँजीपतियों की जेब में जायेंगे। अगर वे सरकारी खजाने में भी चले जाते तो निश्चित रूप से उनका बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचारी नेताओं और विराट और भ्रष्ट नौकरशाही की जेब में चला जाता। लेकिन इतने भारी राजस्व घाटे के कारण इन पाँच वर्षों के दौरान अप्रत्यक्ष करों के रूप में जनता की जेब पर भारी बोझ डाला जायेगा। पहले से ही दरिद्रताबेरोजगारी और विस्थापन की मार झेल रही छत्तीसगढ़ की आम मेहनतकश जनतामजदूर और आदिवासी इस बोझ तले दबकर अपनी जीविका के अन्तिम स्रोतों के लिए भी तरस जायेंगे। मजदूरों की भारी आबादी को पहले से भी अधिक समय तक पुरानी या कई मामलों में उससे भी कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। नये आर्थिक क्षेत्रों और औद्योगिक पार्कों में शुरू से ही यूनियन बनाना असम्भवप्राय कार्य होगा। कई मामलों में इसे कानूनन निषिध्द करने का प्रयास किया जायेगा या फिर उसकी राह में इतने रोड़े खड़े कर दिये जायेंगेकि वास्तव में वह निषिध्द ही हो जायेगा। संक्षेप में कहें तो मजदूरों को संगठन के अधिकार से वंचित कर और अधिक सघन और व्यापक शोषण और उत्पीड़न के चक्कों के बीच पिसने के लिए फेंक दिया जायेगा।
यह औद्योगिक नीति पूँजीपतियों की प्रबन्‍धन समिति की भूमिका निभाने वाली एक पूँजीवादी सरकार की औद्योगिक नीति का क्लासिक उदाहरण है। राज्य के विकास का अर्थ राज्य के पूँजीपतियों या राज्य के भीतर देशी-विदेशी पूँजीपतियों के मुनाफे की तरक्की और बढ़ोत्तरी है। यह विकास का वही मॉडल है जो नयी आर्थिक नीतियों के 1991 में देश-स्तर पर खुले तौर पर लागू होने के बाद सभी चुनावी पूँजीवादी पार्टियों या उनके गठबन्‍धनों की सरकार ने अपनाया है। यह मॉडल है नवउदारवादी और भूमण्डलीकरण की नीतियों का मॉडलजिसे विश्व बैंकविश्व व्यापार संगठन और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का तिमुँहा राक्षस हमेशा से लागू करने की वकालत करता आ रहा है। यह मॉडल है देश की जनता की साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट का मॉडल। भारत का पूँजीपति वर्ग भी इसे देश स्तर पर और राज्यों के स्तर पर लागू कर रहा है। इस भूमण्डलीकृत लूट के कनिष्ठ साझीदार के तौर पर भारतीय पूँजीपति वर्ग श्रम की लूट के रास्ते के हर अवरोध को हटाने का काम कर रहा है। राज्य खुलकर जनता के कल्याणकारी के रूप में नहीं बल्कि पूँजीवादी हितों के रक्षक और विस्तारक के रूप में काम कर रहा है।
भूमण्डलीकरण के इस दौर मेंराज्य ने एक और भूमिका अपना ली है। श्रम और पूँजी के बीच पैदा होने वाले हर विवाद में उसने पूँजी को हर प्रकार के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया है। पहले मजदूरों के कल्याणस्वास्थ्यआवास और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा जैसे कई काम मालिक के जिम्मे हुआ करते थे और कानूनन उसे इन जिम्मेदारियों को निभाना पड़ता था। लेकिन नवउदारवादी नीतियों के खुले तौर पर लागू होने के बाद एक पूँजीवादी राज्य के अन्दर एक विशेष आभिलाक्षणिकता पैदा हुई है। मजदूरों के प्रति कई जिम्मेदारियों को तो अब समाप्त कर दिया गया है। जो जिम्मेदारियाँ बची भी हैंउनसे भी मालिक वर्ग को मुक्त कर दिया गया है। इन जिम्मेदारियों को भी राज्य ने ले लिया है। मनरेगाभावी सामाजिक सुरक्षा कानून और भावी खाद्य सुरक्षा कानूनआम आदमी बीमा योजना आदि जैसी तमाम योजनाएँ इसी बात की ओर इशारा करती हैं। ऐसे में बुध्दिजीवियों का एक हिस्सा राज्य का गुणगान करता है और कहता है कि ''देखो! देखो! राज्य अभी भी कल्याणकारी है!'' लेकिन यह महज ऑंखों का धोखा है। यह बोझे का कन्‍धा बदलना-भर है। राज्य ने कोई नया कल्याणकारी उत्तरदायित्व नहीं लिया है। उसने बस मालिक वर्ग को भारमुक्त कर अपने कन्‍धे पर तमाम उत्तरदायित्व ले लिये हैं। यह भी इसीलिए किया गया है कि मालिक वर्ग को किसी किस्म का सिरदर्द न मिले और वह तनावमुक्त होकर मुनाफा पीट सके। हर प्रकार के श्रम-पूँजी विवाद में भी श्रम कार्यालय की भूमिका इस प्रकार बदली है कि हम कह सकते हैं कि श्रम और पूँजी के बीच राज्य एक ऐसे मध्‍यस्थ की भूमिका अदा कर रहा है जिसकी स्पष्ट पक्षधरता पूँजी के साथ है। मजदूर काम की जगह से लेकर घर तकश्रम अधिकारों की रक्षा से लेकर अपने मानवाधिकारों की रक्षा तक पूरी तरह अरक्षित हैंजबकि मालिकों को हर प्रकार का राज्य संरक्षण प्राप्त है।
छत्तीसगढ़ की औद्योगिक नीति भूमण्डलीकरण और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर की इन सभी चारित्रिक विशेषताओं से लैस है। पूँजीपतियों को हर प्रकार का संरक्षणमजदूर हर तरह से अरक्षित और बाजार की अन्धी शक्तियों के रहमो-करम पर। यह औद्योगिक नीति राज्य सरकार की पूँजीपतियों के साथ पक्षधरता का जीता-जागता सबूत है। इस पूरी औद्योगिक नीति में मजदूरों और आम मेहनतकश जनता के लिए अगर कुछ है तो वह सिर्फ लूटबरबादी और विस्थापन है।

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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