एक सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन का बिखराव की ओर जाना...
मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन
एक सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन का बिखराव की ओर
जाना...
शिशिर
मारुति सुजुकी के मज़दूर पिछले करीब 1
वर्ष से संघर्षरत रहे हैं। 18 जुलाई 2012 को
मारुति सुजुकी के मानेसर संयंत्र में हुई दुर्भाग्यपूर्ण घटना में मारुति सुजुकी
कम्पनी के एक मैनेजर अवनीश की मौत हो गयी थी। इस पूरी घटना की किसी जाँच के बिना
हरियाणा सरकार और मारुति सुजुकी कम्पनी ने मज़दूरों को अपना शिकार बनाया। इस घटना
के बाद से करीब 147 मज़दूर तत्काल गिरफ्तार कर लिये गये थे। इसके
बाद जब मज़दूरों ने अपने आन्दोलन की शुरुआत की तो अलग-अलग समय पर हरियाणा सरकार ने
मज़दूर राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आम मज़दूरों को गिरफ्तार करना जारी रखा। 7-8
नवम्बर को मारुति मज़दूरों ने हरियाणा सरकार द्वारा किये जा रहे दमन और मारुति
सुजुकी द्वारा तमाम मारुति कर्मचारियों को बर्खास्त करने के खिलाफ अपने संघर्ष की
शुरुआत की थी। मारुति सुजुकी देश की नम्बर एक कार कम्पनी है। इसके मज़दूर उन्नत
मशीनों पर काम करने वाले मज़दूर हैं। पढ़े-लिखे और नौजवान मज़दूर हैं। नतीजतन,
उनके आन्दोलन को लेकर पूरे देश के मज़दूरों के बीच एक उम्मीद रही है।
साथ ही, मज़दूरों के बीच काम करने वाले संगठन और कार्यकर्ता भी इस आन्दोलन को
आशा की दृष्टि से देखते आये हैं। निश्चित रूप से, इस
आन्दोलन में शुरु से ही ज़बर्दस्त सम्भावनाएँ मौजूद थीं। लेकिन ये सम्भावनाएँ अब
समाप्त होती दिख रही हैं।
हालिया घटनाक्रम और बिखराव की स्थिति
हमने पिछले अंक में मारुति सुजुकी वर्कर्स
यूनियन के नेतृत्व में चल रहे इस आन्दोलन में आये ठहराव का एक विश्लेषण पेश किया
था (देखें ‘क्यों ठहरावग्रस्त है मारुति सुजुकी मज़दूरों काआन्दोलन?’, मज़दूर बिगुल, जून,2013)। अब ठहराव की स्थिति और आगे बढ़कर गिरावट और बिखराव की ओर जा रही है।
18 जुलाई 2012 को मानेसर संयंत्र में हुई हिंसा की
घटना और उसके बाद से मारुति सुजुकी मज़दूरों के न्याय के लिए संघर्ष के एक वर्ष
पूरे हुए। मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने देश भर के विभिन्न मज़दूर संगठनों और
ट्रेड यूनियनों से अपील की थी कि वे इस वर्ष 18 जुलाई
को मानेसर में ताऊ देवीलाल पार्क पहुँचें और यूनियन द्वारा आयोजित अनिश्चितकालीन
धरने और भूख हड़ताल में शामिल हों। इस धरने की घोषणा के बाद गुड़गाँव प्रशासन ने इस
प्रदर्शन के बाबत निषेधाज्ञा जारी कर दी। कुछ दिनों बाद ही मजिस्ट्रेट ने धारा 144
भी लागू कर दी। प्रशासन ने कहा कि अगर मज़दूर चाहें तो गुड़गाँव के लेज़र वैली पार्क
में प्रदर्शन कर सकते हैं। ज्ञात हो कि यह पार्क औद्योगिक क्षेत्र से बेहद दूर कुछ
रिहायशी अपार्टमेण्टों और शॉपिंग मॉलों के बीच स्थित है। जाहिर है यहाँ प्रदर्शन
करने से न तो मारुति सुजुकी कम्पनी को कोई खुजली होती और न ही हरियाणा सरकार को।
मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व ने घोषणा की कि वे इस निषेधाज्ञा और धारा
144 का उल्लंघन करेंगे और पार्क से रैली निकालते हुए मानेसर के ताऊ
देवीलाल पार्क तक जायेंगे। सभी जानते थे कि ऐसा तभी सम्भव है जब 5
से 6 हज़ार लोग इस प्रदर्शन में शामिल हों। यूनियन के नेतृत्व को यह
उम्मीद भी थी कि देश भर के और ख़ास तौर पर दिल्ली एनसीआर के मज़दूर संगठनों के
शामिल होने से प्रदर्शन में लोगों की तादाद इतनी हो जायेगी। हालाँकि, हमने
पिछले अंक में मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन पर प्रकाशित अपने लेख में इस बात की ओर
ध्यान दिलाया था कि हर बीतते दिन के साथ एक ग़लत रणनीति और कार्यनीति अपनाने के
कारण मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन कमज़ोर होता जा रहा है। कुछ लोगों को हमारा
ऐसा लिखना नागवाँर गुज़रा। लेकिन इस 18 जुलाई को यह बात आईने की तरह साफ हो
गयी है कि हमने जो कुछ कहा था वह शत-प्रतिशत सही था।
इस 18 जुलाई के लिए
मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने ‘मानेसर चलो’ का नारा
बुलन्द किया था। उनका आह्नान था कि वह अनिश्चितकालीन धरना और भूख हड़ताल करेगी।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। न तो प्रदर्शन मानेसर तक पहुँच पाया और न ही
अनिश्चितकालीन धरना और भूख हड़तला हुई। मज़दूरों और जो लोग पूरे दिल्ली एनसीआर और
देश के अन्य हिस्सों से जुटे थे उनकी संख्या मुश्किल से 300 पहुँच
पायी थी। इनमें से मारुति मज़दूरों की संख्या बमुश्किल तमाम 60
थी। जो लोग जुटे थे वे लेज़र वैली पार्क में ही रहे, जहाँ पर
मारुति सुजुकी के दिवंगत एचआर मैनेजर अवनीश देव की याद में नारे लगे और उनकी
तस्वीरें सजायी गयीं। इसके बाद उस पार्क में ही मोमबत्तियाँ जलाकर प्रतिरोध हुआ।
स्वयं ही देखा जा सकता है कि यह संघर्ष अब बिखराव की मंजिल में पहुँच रहा है,
हालाँकि जब 7-8 नवम्बर 2012 को इस
संघर्ष की शुरुआत हुई थी तब इसमें ज़बर्दस्त सम्भावना मौजूद थी। अभी तक बीच-बीच में
कुछ धरना प्रदर्शन आदि हो रहे हैं तो इसका मुख्य कारण अब बाह्य ट्रेड यूनियनों और
मज़दूर संगठनों से मिल रहा समर्थन है। हालाँकि इस समर्थन में भी देश भर से कुल जमा 100-150
लोग ही जुट पाते हैं। जिन माँगों को लेकर मारुति सुजुकी का संघर्ष शुरू हुआ था वे
माँगें तो अब किनारे हो गयी हैं, और पूरा मारुति सुजुकी आन्दोलन ग़लत
रणनीति के कारण अलग-अलग समय पर गिरफ्तार कार्यकर्ताओं और मज़दूरों का रिहाई आन्दोलन
बन गया है। जहाँ 7-8 नवम्बर को मारुति सुजुकी के मज़दूर कई सौ की
संख्या में जुटे थे, वहाँ आज मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के
आह्नान पर 60 मज़दूर भी नहीं जुट पाते हैं। कोई अन्धा ही कह
सकता है कि यह आन्दोलन आगे जा रहा है, या फिर खुद को
खुश रखने पर आमादा कोई व्यक्ति ही इस आन्दोलन की प्रगति की बात कर सकता है। ऐसा
नहीं है कि बचे-खुचे मारुति सुजुकी मज़दूर घर बैठ जायेंगे। जाहिरा तौर पर वे
विभिन्न प्रदर्शनों आदि में आते रहेंगे। हमेशा कि तरह मारुति के मज़दूर आन्दोलन का
ठेका किसी न किसी संशोधनवादी ट्रेड यूनियन, किसी
अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन या किसी खाप पंचायत या स्थानीय बुर्जुआ नेता को
मिलता रहेगा। ताज़ा ख़बर के मुताबिक इस ठेके के लिए तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों
के बीच प्रतिस्पर्द्धा जारी है। हाल ही में एक्टू ने मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन
को एक लाख रुपये की सहायता देकर इस ठेके पर अपना दावा पेश किया है। 18
जुलाई 2013 को जो प्रदर्शन गुड़गाँव के लेज़र वैली पार्क में हुआ है उसके बारे
में अखबारों में एक्टू की तरफ से यही ख़बर आयी है कि वह प्रदर्शन मारुति सुजुकी
वर्कर्स यूनियन की तरफ से नहीं बल्कि एक्टू की तरफ से किया गया है! हमेशा की तरह मारुति
सुजुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व ने एक नया रहनुमा चुन लिया है, जिसकी
पूँछ पकड़कर वह आन्दोलन में कुछ हासिल कर पाने की उम्मीद करती है। लेकिन हमेशा की
तरह एक ग़लत योजना के कारण उनकी आशाओं पर पानी ही फिरने वाला है। और यूनियन के
नेतृत्व की ग़लत नीति के कारण संघर्षरत मज़दूरों को हौसला और भी पस्त होता जायेगा,
जैसा कि अभी तक होता आया है।
बिखराव के कारणों की पड़ताल
ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि यह आन्दोलन अब
पराजय और बिखराव के रास्ते पर क्यों है? इसके कारणों की
पड़ताल किये बिना भविष्य में भी गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा के मज़दूर आन्दोलनों को इन
समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। हमने पिछले अंक में कुछ कारणों की ओर इंगित किया
था। अब जबकि आन्दोलन बिखराव के रास्ते पर आगे बढ़ चुका है, तो इन
कारणों की और स्पष्टता से पहचान की जा सकती है।
1. पहला
कारण, जो कि सबसे महत्वपूर्ण है और जिसकी चर्चा हमने पिछले लेख में भी की
थी, वह है मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व द्वारा लगातार एक ग़लत
और मूर्खतापूर्ण योजना पर अमल किया जाना। जैसा कि सभी जानते हैं कि मारुति सुजुकी
का मसला कोई हरियाणा का स्थानीय मसला नहीं है। अपने स्वभाव से ही यह मसला राष्ट्रीय
चरित्र का है और जब तक कोई मूर्खतापूर्ण तरीके से इसे खुद ही हरियाणा का मसला न
बना दे, तब तक इस पर संघर्ष की सही जगह, ज़मीन और
वक़्त इस राष्ट्रीय चरित्र के आधार पर ही तय किया जाना चाहिए। लेकिन एम.एस.डब्ल्यू.यू.
(मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन) के नेतृत्व ने पिछले एक वर्ष के अनुभव और कुछ
संगठनों द्वारा लगातार सलाह-मशविरा दिये जाने के बावजूद इस सच्चाई को नहीं समझा। ‘बिगुल
मज़दूर दस्ता’ ने नवम्बर 2012 में ही
यह सुझाव दिया था कि इस संघर्ष की सही ज़मीन गुड़गाँव से आगे दिल्ली तक जाती है और
भविष्य में हमें अपने संघर्ष की ज़मीन के तौर पर दिल्ली को चुनना चाहिए। लेकिन एम.एस.डब्ल्यू.यू.
का नेतृत्व इस बात को अन्त तक समझने में नाकाम रहा। नतीजतन, संघर्ष
को एक अलगाव की स्थिति में कभी रोहतक, कभी जीन्द,
कभी कैथल तो कभी फरीदाबाद की ओर धकेला जाता रहा। कई मज़दूरों की यह
राय भी थी कि संघर्ष को दिल्ली ले जाया जाय, क्योंकि
जब पहली बार दिल्ली में प्रदर्शन हुआ तो उसके अगले दिन ही भूपेन्द्र हूडा के बेटे
दीपेन्द्र हूडा ने बातचीत के लिए यूनियन के नेतृत्व को बुलाया था। यह अपने आपमें
बताता था कि दिल्ली में मारुति सुजुकी के मज़दूरों के प्रदर्शन और अनिश्चितकालीन
धरने का क्या असर पड़ सकता है। यही कारण था कि कई मज़दूर इस बात को समझ रहे थे।
लेकिन एम.एस.डब्ल्यू.यू. का नेतृत्व इस बात को नहीं समझ रहा था और लगातार संघर्ष
को हरियाणा के ही एक शहर से दूसरे शहर में घुमा रहा था। यह सुझाव भी नेतृत्व को
दिया गया था कि एकदिनी प्रदर्शनों से कुछ नहीं होगा और अनिश्चितकालीन धरने और भूख
हड़ताल पर बैठना पड़ेगा। ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के इस
सुझाव पर यूनियन ने काफ़ी देर से अमल किया, लेकिन
ग़लत जगह पर, यानी कैथल में। मार्च में कैथल में जब
अनिश्चितकालीन धरना और भूख हड़ताल शुरू हुई तो हमने इस कदम का स्वागत किया लेकिन
साथ ही आगाह किया था कि देर-सबेर हरियाणा सरकार इसका ज़बर्दस्त दमन करेगी और इसकी
ख़बर तक देश की जनता तक नहीं पहुँच सकेगी। अगर यही अनिश्चितकालीन धरना और भूख
हड़ताल दिल्ली में की जाती तो इससे मीडिया के ज़रिये हरियाणा सरकार, केन्द्र
सरकार और साथ ही मारुति सुजुकी कम्पनी पर ज़्यादा दबाव पड़ता और इस बात की पूरी
सम्भावना थी कि वे एम.एस.डब्ल्यू.यू. को वार्ता के लिए बुलाते। 19
मई को हमने जो कहा था वही हुआ। कैथल में मारुति के मज़दूरों और उनके परिजनों पर
बर्बरतापूर्ण लाठी चार्ज हुआ। इसके बाद भी हमने एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व को
सलाह दी कि अब तो होश में आइये और दिल्ली चलिये! लेकिन तब भी यूनियन नेतृत्व इसी जिद
पर अड़ा रहा कि वह मानेसर या गुड़गाँव में प्रदर्शन करेगा। हमने तब भी चेताया था कि
अब आपकी जितनी ताक़त है, उसमें आप यह संघर्ष केवल सही दाँव-पेच से जीत
सकते हैं, अपनी ताक़त के बूते नहीं। 18 जुलाई 2013
को यह बात एक बार फिर से साबित हुई जब यूनियन के देशव्यापी आह्नान पर और संगठनों
के तो महज़ 100-150 लोग आये, लेकिन
स्वयं मारुति मज़दूर ही केवल 55-60 की संख्या में आये! लेकिन इस प्रदर्शन
में भी यूनियन के नेतृत्व के लोगों ने अपने भाषण में कहा कि चाहे जो हो जाये वे
मानेसर में ही प्रदर्शन करेंगे और प्रदर्शन की आज्ञा के लिए सुप्रीम कोर्ट तक
जायेंगे। यानी कि अब आन्दोलन का प्रमुख मुद्दा प्रशासन से प्रदर्शन की आज्ञा लेना
है!! कोई भी समझ सकता है कि यह पूरी योजना किस कदर मूर्खतापूर्ण है। लेकिन यूनियन
नेतृत्व इस बात को समझने में नाकाम है।
2. इतने मौकों पर
यूनियन नेतृत्व सबसे साफ तौर पर दिखने वाली सच्चाई को भी नहीं समझ पा रहा है तो
इसका कारण क्या है? यही इस आन्दोलन के असफलता की ओर बढ़ने का दूसरा
कारण है। दरअसल, एम.एस.डब्ल्यू.यू. इस आन्दोलन में किसी भी
जनवादी कार्यपद्धति का इस्तेमाल नहीं कर रहा है। जिस चीज़ का पालन अभी यूनियन में
आन्तरिक तौर पर हो रहा है, उसे हम ‘प्रधान
जी’ संस्कृति कह सकते हैं। इसका एक कारण तो स्वयं मज़दूरों के बीच इस
चेतना का अभाव है कि ट्रेड यूनियन के भीतर जनवादी कार्यसंस्कृति होनी चाहिए। लेकिन
इसके लिए मुख्य तौर पर दो शक्तियाँ जिम्मेदार हैं। एक तो स्वयं एम.एस.डब्ल्यू.यू.
का नेतृत्व जो इस ‘प्रधान जी’ संस्कृति
को बढ़ावा देता है और उसका आनन्द लेता है। और दूसरी जिम्मेदार शक्तियाँ हैं अपने
आपको देश के मज़दूरों को ‘इंक़लाबी’ केन्द्र
घोषित करने वाले और अपने आपको नौजवानों का ‘क्रान्तिकारी’
संगठन बताने वाले कुछ बुद्धिजीवी संगठन। बल्कि कहना चाहिए कि अपने
आपको क्रान्तिकारी घोषित करने वाले ये संगठन मज़दूरों के बीच राजनीतिक चेतना की कमी
के लिए प्रमुख तौर पर जिम्मेदार हैं, क्योंकि ये मज़दूरों को सही नेतृत्व
देने और उनकी राजनीतिक चेतना का विकास करने की बजाय पुछल्लावाद के शिकार हैं। यानी
कि यह सोच कि मज़दूर आबादी स्वयं जो भी करेगी वह सही करेगी और इसमें उन्हें कुछ भी
सलाह, मार्गदर्शन और नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है। यही कारण है कि आन्दोलन
के सभी नाजुक मोड़ों पर, जहाँ पर एक सही दिशा निर्देशन की ज़रूरत थी,
ये संगठन स्वतःस्फूर्तता की पूँछ पकड़कर चलते रहे। और साथ ही ये ‘इंक़लाबी’
और ‘क्रान्तिकारी’ संगठन उन
लोगों और संगठनों के बारे में मज़दूरों में और यूनियन के नेतृत्व के बीच
कुत्सा-प्रचार और अफवाह फैलाने की कार्रवाई करते रहे, जो कि
मज़दूर आन्दोलन को एक सही दिशा देने के लिए एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व को लगातार
उपयुक्त सुझाव-सलाह दे रहे थे। ये संगठन आन्दोलन को किसी भी तरह दिल्ली ले जाने से
रोकना चाहते थे, क्योंकि इन्हें भय था कि दिल्ली जाने पर उनके
प्रभाव में कमी आ जायेगी और अन्य मज़दूर संगठन आन्दोलन पर हावी हो जायेंगे। बताने
की ज़रूरत नहीं कि यह बेबुनियाद डर था और दिखला रहा था कि ये तथाकथित ‘इंक़लाबी’
और ‘क्रान्तिकारी’ संगठन
वास्तव में आन्दोलन की बेहतरी के बारे में नहीं सोच रहे थे, बल्कि
अपने संकीर्ण सांगठनिक स्वार्थ के बारे में सोच रहे थे। कानाफूसी, खुसर-फुसर
के ज़रिये ये नेतृत्व की राय बनाते रहे कि उन ताक़तों को संघर्ष में किनारे किया
जाये जो दिल्ली जाने की बात कर रही हैं। और यह प्रक्रिया यहाँ तक पहुँची कि इसके
लिए ये संगठन संशोधनवादी केन्द्रीय ट्र्रेड यूनियनों से भी अपवित्र गठबन्धन बनाने
लगे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें भी संघर्ष को दिल्ली
ले जाने के बहुत पक्ष में नहीं हैं। नतीजतन, 18 जुलाई 2013
के प्रदर्शन में एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व ने यह शर्त रखी कि जो संगठन कोई
आलोचनात्मक बात नहीं रखेगा, उसे ही मंच से बोलने दिया जायेगा।
जाहिर है कोई भी संगठन जो कि आन्दोलन की सफलता से सरोकार रखता है ऐसी शर्त पर बात
रखने की बजाय बात न रखना और खुद ही किनारे हो जाना पसन्द करेगा। यह पूरी घटना
वास्तव में यही दिखला रही है कि अब एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व जनवादी तरीके से
संवाद और बातचीत तक से डरता है और चाहता है किसी तरह से मज़दूरों के बीच वह बात न
चली जाये, जिससे वह घबराता है। इस पूरी कार्रवाई के लिए एम.एस.डब्ल्यू.यू.
नेतृत्व मारुति के मज़दूरों के प्रति कोई जवाबदेही नहीं समझता है, क्योंकि
कोई ऐसा मंच ही नहीं है जिस पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम मारुति मज़दूरों की
कोई भागीदारी हो। महीने-दो महीने पर जनरल बॉडी मीटिंग होती है और उसमें भी मज़दूरों
से कोई राय नहीं ली जाती कि आगे क्या योजना हो। उन्हें पहले से बन्द कमरों में बनी
योजना के बारे में सूचित कर दिया जाता है, जो कि तथाकथित ‘इंक़लाबी’
और ‘क्रान्तिकारी’ संगठनों
की खुसर-फुसर की मदद से बनती है। जाहिर है कि यूनियन के भीतर नेतृत्व किसी भी
जनवादी कार्यपद्धति पर अमल नहीं करता। उसने मज़दूरों की भी यही चेतना बना रखी है कि
‘प्रधान लोग फैसला कर लेंगे!’ यह चेतना बनाने
में तथाकथित ‘इंक़लाबी’ और ‘क्रान्तिकारी’
संगठनों की भी भूमिका है।
3. ऐसा भी नहीं है
कि एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व पूरी तरह कानाफूसीवादी ‘इंक़लाबी’
और ‘क्रान्तिकारी कामरेडों’ के कहे
पर अमल करता हो। आन्दोलन के बिखराव की ओर बढ़ने का तीसरा कारण यह है कि एम.एस.डब्ल्यू.यू.
नेतृत्व व्यवहारवादी तरीके से उस ताक़त का पुछल्ला बनता है जो उसे स्थानीय तौर पर
शक्तिशाली लगता है, या जो उसे पैसे से सहायता करता है। मिसाल के
तौर पर, जब पहले चक्र में आन्दोलन गुड़गाँव-मानेसर में था तो एम.एस.डब्ल्यू.यू.
नेतृत्व केन्द्रीय ट्र्रेड यूनियनों की पूँछ पकड़कर चल रहा था; जब
वहाँ कुछ नहीं मिला तो रोहतक में प्रदर्शन किया जहाँ पर यूनियन नेतृत्व सीटू की
शरण में था; उसके बाद जब केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों से थोड़ा
मन-मुटाव हुआ तो आन्दोलन को कैथल ले जाया गया जहाँ पर एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व
खाप पंचायतों के चरणों में साष्टांग दण्डवत हो गया। जब वहाँ बात नहीं बनी तो उसके
बाद आन्दोलन वापस चक्कर लगाकर गुड़गाँव-मानेसर पहुँच। एक बार फिर से बागडोर सीटू,
एक्टू आदि जैसी केन्द्रीय संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों के हाथों में
है। मिसाल के तौर पर, एक्टू ने एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व को एक लाख
रुपये का चन्दा दिया। इसके साथ ही हर जगह अखबारों में एक्टू ने यह प्रचारित करना
शुरू कर दिया है कि यह आन्दोलन उसके नेतृत्व में चल रहा है। यहाँ तक कि एक्टू की
प्रेस विज्ञप्तियों में एम.एस.डब्ल्यू.यू. का कहीं नाम तक नहीं होता! इस पर एम.एस.डब्ल्यू.यू.
नेतृत्व को कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि एक्टू ने उसे एक लाख रुपये का
सहयोग किया है। एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व अब कहता भी है कि अब तो वह उसकी ही बात
मानेगा जो उसे आर्थिक रूप से भी सहयोग देगा! जाहिर है, कि
आन्दोलन का नेतृत्व राजनीतिक पतन की अवस्था में जा रहा है। इस प्रवृत्ति के खिलाफ
भी तथाकथित ‘इंक़लाबी कामरेडों’ और ‘क्रान्तिकारी
बुद्धिजीवी कामरेडों’ ने कोई संघर्ष नहीं चलाया, बल्कि
इसे बढ़ावा ही दिया। क्योंकि इन लोगों का तो मानना ही यही है कि मज़दूरों को नेतृत्व
की ज़रूरत नहीं है, वे खुद ही अपना नेतृत्व, दिशा-निर्देशन
और मार्गदर्शन कर लेंगे, हमें तो बस उनकी पूँछ पकड़कर चलना है।
तो स्थिति यह है कि एम.एस.डब्ल्यू.यू. नेतृत्व किसी ताक़त (केन्द्रीय ट्रेड
यूनियनें, खाप, स्थानीय चुनावी पार्टियों के नेता, आदि)
की पूँछ पकड़कर चलता है, और ये तथाकथित ‘इंक़लाबी-क्रान्तिकारी
कामरेड’ एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व की पूँछ पकड़ कर चलते हैं और उनके कान
में ‘लगे रहो’ का मन्त्र फूँकते रहते हैं। जो सबसे आगे चलता
है वह संघर्ष को गड्ढे में ले जाये, तो सभी गड्ढे में जाते हैं। और यही इस
समय हो रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में नुकसान आम मारुति मज़दूरों के आन्दोलन का
होता है।
निष्कर्ष
स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि यह आन्दोलन
कमज़ोर होते-होते पर बिखराव की मंजिल पर पहुँच रहा है। कैथल में 19
मई कोई हुए लाठी चार्ज के बाद से ही समस्त मज़दूरों में राजस्थान और मध्यप्रदेश के
मज़दूरों का धड़ा पीछे हट चुका है। हरियाणा के मज़दूरों का भी एक हिस्सा अब नियमित
तौर पर नहीं आ रहा है। केवल कुछ मज़दूर ही अब आ रहे हैं। यह 18
जुलाई 2013 के प्रदर्शन में ही दिख गया है। अफसोस की बात यह है कि देश भर की
वामपंथी पत्र-पत्रिकाएँ और बुद्धिजीवी इस वस्तुगत तस्वीर को पेश करने की बजाय अपने
आपको रोमांचित करने में लगे हुए हैं और ऐसे लेख और रिपोर्ट छाप रहे हैं, जो
कि ऐसी तस्वीर पेश करती हैं मानो मारुति सुजुकी मज़दूरों का आन्दोलन अब विजय की
कगार पर खड़ा है, पूरे देश में मज़दूर इसके पक्ष में खड़े हो गये हैं,
गुड़गाँव-मानेसर का मज़दूर इसके पक्ष में उठ खड़ा हुआ है। अगर ऐसा होता
तो गत 18 जुलाई को मज़दूर और समर्थक संगठनों को मिलाकर 300
लोगों की भीड़ जुटाने के लाले नहीं पड़ते। दिल्ली और मुम्बई में मारुति सुजुकी
मज़दूरों के आन्दोलन के समर्थन में कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी 100-200
की संख्या में ज़रूर जुटते हैं, लेकिन उसके बूते आन्दोलन नहीं जीता जा
सकता। न तो ऐसा कभी हुआ है और न ही हो सकता है। ऐसे में, क्रान्तिकारी
बुद्धिजीवियों का यह कर्तव्य बनता है कि इस आन्दोलन की एक सही वस्तुगत स्थिति से
लोगों को वाकिफ करायें और इस बात के कारणों की पड़ताल करें कि आन्दोलन संकटग्रस्त
और बिखराव की स्थिति में क्यों है। लेकिन अफसोस की बात है कि वे सारी ऊर्जा अपने
आपको उत्साहित और रोमांचित करने में ख़र्च कर रहे हैं और लोगों को भी भ्रमित कर
रहे हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि झूठी आशा निराशा से भी ज़्यादा ख़तरनाक होती
है।
हमारा मानना है कि मारुति सुजुकी के मज़दूरों ने
लम्बे समय तक एक साहसपूर्ण संघर्ष चलाया और वह साहस एक मिसाल है। लेकिन यूनियन
नेतृत्व की ग़लत प्रवृत्तियों, अवसरवाद और व्यवहारवाद के कारण आन्दोलन
को सही दिशा नहीं मिल सकी और यही कारण है कि आज आन्दोलन इस स्थिति में है। दूसरा
कारण, आन्दोलन में ‘इंक़लाबी-क्रान्तिकारी’ कामरेडों
की अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी, पुछल्लावादी सोच, और
कानाफूसी और कुत्साप्रचार की राजनीति का असर है। और तीसरा असर है, एम.एस.डब्ल्यू.यू.
के नेतृत्व का स्वयं का पुछल्लावाद जो कभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की पालकी का
कहार बनता है तो कभी खापों के समक्ष दण्डवत हो जाता है। इन कारणों के चलते आज एक
सम्भावनासम्पन्न मज़दूर आन्दोलन जो पूरे देश के मज़दूरों में उम्मीद का स्रोत और एक
मिसाल बन सकता है, वह गम्भीर बिखराव और संकट का शिकार है। इन
कारणों पर गम्भीरता से विचार की ज़रूरत है।
0 कमेंट:
Post a Comment