अण्णा हज़ारे जी के नाम कुछ मज़दूर कार्यकर्ताओं की खुली चिट्ठी
मिले,
श्री अण्णा हज़ारे
ग्राम एवं पोस्ट रालेगाँव सिद्धि
तालुका पारनेर, ज़िला अहमदनगर
महाराष्ट्र
आदरणीय अण्णा हज़ारे जी,
हम आपके सामाजिक सरोकारों और जनजीवन से जुड़ी चिन्ताओं की इज़्ज़त करते हैं। आपकी भ्रष्टाचार- विरोधी मुहिम से सारा देश परिचित है। राजनेताओं नौकरशाहों- जजों के भ्रष्टाचार पर नियंत्राण के लिए जन लोकपाल क़ानून बनाने की आपकी माँग सरकार मान चुकी है और अब सरकार और ''सिविल सोसायटी'' के प्रतिनिधियों की साझा ड्राफ्टिंग कमेटी विधेयक का मसौदा तैयार करने में जुट गयी है। भ्रष्टाचार के खिलापफ़ अपनी मुहिम को आप देश स्तर पर फैलाने और आगे बढ़ाने की घोषणा कर चुके हैं। चुने हुए जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के प्रावधान की भी आपने माँग की है। पढ़े-लिखे लोगों की अच्छी-खासी आबादी आपकी मुहिम को ''एक नयी क्रान्ति'' का आग़ाज़ तक बता रही है। कुछ नेता और बुद्धिजीवी शंकाएँ और विवाद भी उठा रहे हैं। पर हम लोगों के मन में कुछ और सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। इन सवालों की ज़मीन आम मेहनतकशों की ज़िन्दगी की समस्याएँ हैं। आप लोकतांत्रिक परम्परा और पद्धति के पक्षधर व्यक्ति हैं। हमारा भरोसा है कि हमारे सवालों को यूँ ही दरकिनार नहीं कर देंगे और स्वस्थ और खुले ढंग से इन पर एक देशव्यापी बहस सम्भव हो सकेगी।
भ्रष्टाचार का सामना हम आम ग़रीब लोग अपनी रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी में सबसे अधिक करते हैं। कदम-कदम पर छोटे से छोटे काम के लिए जो रिश्वत हमें देनी पड़ती है, वह रकम खाते-पीते लोगों को तो कम लगती है, मगर हमारा जीना मुहाल कर देती है। भ्रष्टाचार केवल कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी ही नहीं है। सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो यह है कि करोड़ों मज़दूरों को जो थोड़े बहुत हक़-हकू़क श्रम क़ानूनों के रूप में मिले हुए हैं, वे भी फाइलों में सीमित रह जाते हैं और अब उन्हें भी ज़्यादा से ज़्यादा बेमतलब बनाया जा रहा है। अदालतों से ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता। पूँजी की मार से छोटे किसान जगह-ज़मीन से उजाड़कर तबाह कर दिये जाते हैं और यह सब कुछ एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है! जिस देश में 40 प्रतिशत बच्चे और 70 प्रतिशत माँएँ कुपोषित हों, 40 प्रतिशत लोगों का बाँडी मास इण्डेक्स सामान्य से नीचे हो, 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हों और 18 करोड़ बेघर हों, वहाँ सत्ता सँभालने के 64 वर्षों बाद भी सरकार यदि जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी नहीं उठाती (उल्टे उन्हें घोषित तौर पर बाज़ार की शक्तियों के हवाल कर देती हो), तो इससे बड़ा विधिसम्मत सरकारी भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा? इससे अधिक अमानवीय ''कानूनी'' भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा कि मानव विकास सूचकांक में जो देश दुनिया के निर्धनतम देशों की पंगत में (उप सहारा के देशों, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि के साथ) बैठा हो, जहाँ 70 प्रतिशत से अधिक आबादी को शौचालय, साफ पानी, सुचारु परिवहन, स्वास्थ्य सेवा तक नसीब न हो, वहाँ संविधान में ''समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य'' होने का उल्लेख होने के बावजूद सरकार ने इन सभी ज़िम्मेदारियों से हाथ खींच लिया हो और समाज से उगाही गयी सारी पूँजी का निवेश पूँजीपति 10 फीसदी आबादी के लिए आलीशान महल, कारों बाइकों-फ्रिज-ए.सी. आदि की असंख्य किस्में, लकदक शाँपिंग माँल और मल्टीप्लेक्स आदि बनाने में कर रहे हों तथा करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हो।
रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, टैक्स चोरी, मिलावटखोरी, भाई-भतीजावाद भला कौन चाहेगा? यदि ये न होते तो अच्छा ही होता। लेकिन अण्णाजी, माफ़ करें, हमारा सवाल तो यह है कि भ्रष्टाचार मात्र इसी का नाम नहीं है। भ्रष्टाचार और अनैतिकता का फैसला क़ानूनीं-गैरक़ानूनी होने से नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक आचरण के व्यापक जनहित के अनुकूल या प्रतिकूल होने से तय होता है। थोड़ी देर के लिए मान लें कि एकदम विधिसम्मत तरीक़े से एक कारख़ानेदार किसी चीज़ के उत्पादन और आपूर्ति का ठेका लेता है और श्रम क़ानूनों का पालन करते हुए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ या दस घण्टे के लिए खरीदता है, उतने मूल्य का उत्पादन तो मज़दूर दो या तीन घण्टे में ही कर देता है, शेष मूल्य जो वह पैदा करता है उसमें से कच्चे माल की क़ीमत, मरम्मत-मेन्टेनेंस आदि का खर्च निकालने के बाद बची रकम पूँजीपति का मुनाफ़ा होता है जिसका निवेश करके वह नये कारख़ाने खोलता है, नयी मशीनें लाता है। मज़दूर जो पैदा करता है, उस पर उसका कोई नियंत्राण नहीं होता। पूँजीपति उसे उतना ही देता है जितने में वह ज़िन्दा रहकर, न्यूनतम ज़रूरतें पूरा करके काम करता रह सके। पूँजीवाद में उत्पादन सामाजिक उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि मुनापफ़े के हिसाब से निर्देशित होता है। पूँजीपति कई होते हैं । मुनाफ़े की प्रतिस्पर्द्धा गलाकाटू होती है। बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगलकर डकार भी नहीं लेती। मुनापफ़ा बढ़ाने की होड़ में पूँजीपति मज़दूरों से ज्यादा से ज्यादा काम कराने की तरक़ीबें निकालते हुए मज़दूरों द्वारा हासिल क़ानूनी हक़ों को भी हड़प लेते हैं, जबरिया सिंगल रेट ओवरटाइम कराते हैं। सुरक्षा उपकरण, स्वास्थ्य मुआवज़े आदि मदों के ख़र्चों को मार लेते हैं, फिर टैक्स भी चुरा लेते हैं तथा नेताओं-अपफसरों को रिश्वत भी खिलाते हैं। मतलब यह कि पूँजीवादी लूट-खसोट की होड़ जब क़ानूनी दायरे में होती है तब भी वह आम मेहनक़शों के हक़ मारती है और फिर यह होड़ क़नून की चौहद्दी को लाँघ जाती है तो रिश्वतखोरी कमीशनखोरी के रूप में समाज में काला धन का अम्बार इकट्ठा करने लगती है और विलासी नेताओें-अफसरों-दलालों का बिचौलिया तबका भी चाँदी काटने लगता है। थोड़ा और आगे बढ़ें। मुनाफ़े की रफ्ऱतार बढ़ाने के लिए पूँजीपति फिर उन्नत मशीनें और नयी तकनीकें लाता है, कम मज़दूरों से ज्यादा उत्पादन लेता है, बाक़ी मज़दूरों को बाहर निकाल देता है। मज़दूरों की बेरोजगारी बढ़ने से उनकी मोलतोल की ताकत घट जाती है और वे और अधिक कम मज़दूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। ब्लैकमेलिंग का यह काम भी एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है। पूँजी बटोरकर प्रतिस्पर्द्धी को पीछे छोड़ने के लिए पूँजीपति बैंक से जनता की बचत उधार लेते हैं, एक से दस बनाते हैं और उसका एक अत्यंत छोटा हिस्सा ब्याज के रूप में वापस करते हैं। यह धोखाधड़ी भी क़ानूनी ढंग से होती है। फिर वे शेयर बाज़ार से पूँजी बटोरने उतरते हैं, पहले शेयर का का़नूनी खेल होता है फिर वही तर्क नियंत्रण से बाहर जाकर ग़ैरक़ानूनी सट्टेबाज़ी को परवान चढ़ाता है। पूँजी बढ़ाने की यह होड़ ही हवाला कारोबार, ग़ैरक़ानूनी कारख़ानों और तमाम ग़ैरक़ानूनी कारोबारों को जन्म देती है और फिर अपराध को भी एक संगठित कारोबार बना देती है। माल बेचने के लिए अरबों-खरबों खर्च करके विज्ञापनों द्वारा जो भ्रामक प्रचार किये जाते हैं, वह भी क़ानूनी ठगी नहीं तो भला और क्या है?
पूँजीवाद की समूची कार्यप्रणाली का विवरण न तो यहाँ सम्भव है, न ही हमारा यह उद्देश्य है। पहली बात हम कहना यह चाहते हैं कि जिस पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन सामाजिक उपभोग को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर होता है, वह यदि एकदम क़ानूनी ढंग से काम करे तो भी अपने आप में ही वह भ्रष्टाचार और अनाचार है। जो पूँजीवाद अपनी स्वतन्त्र आंतरिक गति से धनी-ग़रीब की खाई बढ़ाता रहता है, जिसमें समाज की समस्त सम्पदा पैदा करने वाली बहुसंख्यक श्रमिक आबादी की न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार है। जिस पूँजीवादी लोकतन्त्रा में उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे को चलाने में सामूहिक उत्पादकों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती और निर्णय की ताकत वस्तुतः उनके हाथों में अंशमात्रा भी नहीं होती, वह एक ‘फ्राँड’ है। जो पूँजीवादी राजनीतिक तन्त्र नागरिकों को काम करने का मूलभूत अधिकार नहीं देता और सम्पत्ति को मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा देता है, वह स्वयं में एक भ्रष्टाचार है! हम मेहनक़श अपने अनुभव से जानते हैं कि पूँजीवाद यदि भ्रष्टाचार मुक्त हो जाये, तो भी मज़दूरों को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल सकती।
दूसरी बात जो हम कहना चाहते हैं, वह यह कि भ्रष्टाचार की मात्रा घटती-बढ़ती रह सकती है, लेकिन पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो सकता! भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद एक मिथक है, एक मध्यवर्गीय आदर्शवादी यूटोपिया है। यदि किसी सदाचारी पूँजीवाद का अस्तित्व भी होता तो वह आम मेहनक़श जन के लिए, और उसकी निगाहों में, अनाचारी-अत्याचारी-भ्रष्टाचारी ही होता है। हर पूँजीवादी लोकतन्त्र में सरकारें मूलतः पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेंटी की भूमिका निभाती हैं। संसद बहसबाज़ी का अड्डा होती है जहाँ पूँजीपतियों के हित में और जनदबाव को हल्का बनाकर लोकतन्त्र का नाटक जारी रखने के लिए वही क़ानून बनाये जाते हैं जो (सदन में बहुमत के बूते) सरकार चाहती है और पूँजीवाद के सिद्धांतकार जिनका खाका बनाते हैं। राज्यसत्ता का सैन्यबल हर जन विद्रोह को कुचलने को तैयार रहता है, साथ ही वह वैश्विक-क्षेत्रीय चौध्रराहट के मसलों को युद्ध के जरिए हल करने के लिए भी सन्नद्ध रहता है। न्यायपालिका न्याय की नौटंकी करते हुए पूँजीपतियों के हित में बने क़ानूनों के अमल को सुनिश्चित करती है, मूलतः सम्पत्ति के अधिकार और सम्पत्तिवानों के विशेषाधिकारों की हिफ़ाजत का काम करती है तथा शासक वर्गों के आपसी झगड़ों में मध्यस्थ की भूमिका निभाती है। इन सभी कामों में लगे हुए लोग पूँजीपतियों के वफ़ादार सेवक होते हैं और सेवा के बदले उन्हें ऊँचे वेतनभत्तों और विशेषाधिकारों का मेवा मिलता है। यदि वे सिर्फ़ इस मेवे पर ही निर्भर रहें तो आम लोगों के मुक़ाबले उनका जीवन‘‘स्वर्ग का जीन’ होता है। लेकिन व्यवस्था के भीतर पैठने के बाद वे समझ जाते हैं कि वे लुटेरों के सेवक मात्रा हैं। पूँजीवादी शासन-प्रशासन की विराट मशीनरी में यदि कोई सदाचारी अपफ़सर हो भी तो वह कुछ व्यक्तियों का कल्याण भले कर सकता है, ‘सिस्टम’ को ज़रा भी नहीं बदल सकता। उसकी बिसात महज एक कल-पुर्जे की होती है और यह समझने के साथ ही आदर्शवादियों का आदर्शवाद हवा हो जाता है। वे भी ''रास्ते पर आ जाते हैं''। लुटेरों के सेवकों से नैतिकता, सदाचार और देशभक्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती। तमाम सम्पत्तिधारी परजीवियों के हितों की ''कानूनी'' ढंग से रक्षा करते हुए, उन्हें जहाँ भी मौक़ा मिलता है, अपनी भी ज़ेब गर्म कर लेते हैं। समूचे पूँजीपति वर्ग के प्रबंधकों और सेवकों के समूह के कुछ लोग, पूँजीपति घरानों की आपसी होड़ का लाभ उठाकर इस या उस घराने से रिश्वत, दलाली और कमीशन की मोटी रकम ऐंठते ही रहते हैं। पूँजीपतियों की यह आपसी होड़ जब उग्र और अनियंत्रित हो कर पूरी व्यवस्था की पोल खोलने लगती है, और बदहाल जनता का क्रोध फूटने का एक बहाना मिलने लगता है तथा ''लूट के लिए होड़ के खेल'' के नियमों को ताक पर रख दिया जाता है तो व्यवस्था-बहाली और ''डैमेज कंट्रोल'' के लिए पूँजीपतियों की संस्थाएँ (फिक्की, एसोचैम, सी.आई.आई.आदि), पूँजीवादी सिद्धांतकार, समाज सुधारक आदि चिन्तित हो उठते हैं। जो पूँजीपति स्वयं अपने हित के लिए कमीशन देते हैं, वे भी अलग-अलग और समूह में बढ़ते भ्रष्टचार पर चिन्ता जाहिर करते हैं, सरकार की गिरती साख को बहाल करने के लिए सामूहिक तौर पर चिन्ता जाहिर करते हैं और पूँजीवाद को ''भ्रष्टाचार मुक्त'' बनाने की मुहिम में लगी स्वयंसेवी संस्थाओं की उदारतापूर्वक फण्डिंग करते हैं। कभी कोई नेता, कभी कोई अफसर, तो कभी कोई समाजसेवी भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का मसीहा और‘‘ह्विसल ब्लोअर’ बनकर सामने आता है जो पूँजीवादी शोषण- उत्पीड़न की व्यवस्था का विकल्प सुझाने के बजाय भ्रष्टाचार को ही सारी बुराई की जड़ बताने लगता है और मौजूद ढाँचे में कुछ सुधारमूलक पैबंदसाज़ी की सलाह देते हुए जनता को दिग्भ्रमित कर देता है। इन ‘‘ह्विसल ब्लोअर’ की नीयत यदि एकदम सही भी हो तो वे तरह-तरह के डिटर्जेण्ट लेकर इस व्यवस्था के दामन पर लगे धब्बों को धोने की ही भूमिका अदा करते है। वे भ्रम का कुहासा छोड़ने वाली चिमनी, जनाक्रोश के दबाव को कम करने वाले ‘सेफ्टीवाँल्व’ और व्यवस्था के पतन की सरपट ढलान पर बने ‘स्पीड ब्रेकर’ की ही भूमिका निभाते हैं।
अण्णाजी, हमें आपकी नीयत पर भी शक़ नहीं है। पर व्यवस्था की कार्यप्रणाली, भ्रष्टाचार के मूल कारण और समस्या के समाधान की आपकी समझदारी पर हमारे सवाल हैं। भ्रष्टाचार पूँजीवादी समाज की सार्विक परिघटना है। जहाँ लोभ-लाभ की संस्कृति होगी, वहाँ मुनाफ़ा निचोड़ने की हवस क़ानूनी दायरों को लाँघकर खुली लूटपाट और दलाली को जन्म देती ही रहेगी। जनता को भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद नहीं चाहिए बल्कि पूँजीवाद से ही मुक्ति चाहिए। जहाँ क़ानूनी शोषण और लूट होगी, वहाँ गैरक़ानूनी शोषण और लूट भी होगी ही। काला धन सफ़ेद धन का ही सगा भाई होता है।
फ्रांसीसी उपन्यासकार बाल्ज़ाक ने यूँ ही नहीं कहा था कि हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है। दूर क्यों जायें? हम जन लोकपाल बिल की ड्राफ्रिटंग कमेटी में शामिल शान्तिभूषण-प्रशान्तभूषण का ही उदाहरण लेते हैं। हम अमर सिंह के आरोपों और उनके द्वारा प्रस्तुत सीडी के असली-फर्जी होने, स्टाँम्पचोरी जैसे आरोपों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। पर यह तो सच है कि बसपा विधायकों का दलबदल कराने को लेकर मुलायम सिंह पर चल रहे मुकदमें में शान्तिभूषण उनके वकील थे। यह तो सच है कि एक-एक पेशी के लिए शांतिभूषण 25 लाख रुपये की फीस लेते हैं। प्रशांतभूषण भी लाखों में ही लेते हैं। आपके मंच पर समर्थन देने आये राम जेठमलानी की भी यही स्थिति है। क्या शुचिता मात्रा यही है कि शान्तिभूषण जी अपनी फ़़ीस का पूरा हिसाब रखते हैं और टैक्स देते हैं। सवाल क्या यह नहीं है कि इतने मँहगे वकील कितने ग़रीबों को न्याय दिला सकते हैं ? क्या कुछ राजनीतिक क़ैदियों को ज़मानत दिला देने, कुछ जनहित याचिकाएँ दाखिल कर देने और जन लोकपाल बिल का मसौदा बनाने में भागीदार हो जाने से सारा पाप-प्रक्षालन हो गया? जिस देश में 77.5 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज़ से कम पर जीती हो और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित है, वहाँ किसी व्यक्ति के पास 1 अरब 36 करोड़ की दौलत और आठ अचल सम्पत्तियाँ (शांतिभूषण जी की संपत्तिद्ध) क्या आपने आप में अनाचार नहीं है? प्रशांतभूषण जी और रामजेठमलानी जैसों की सम्पत्ति भी करोड़ों में है। शांतिभूषण या रामजेठमलानी जिन काँरपोरेट घरानों के मुकदमों की पैरवी पेशे के नाम पर करते हैं, वे घराने मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर और टैक्स चोरी करके ही अकूत धन जुटाते हैं और फिर अपने हितों की क़ानूनी हिफ़ाजत के लिए शांतिभूषण जैसे वकीलों को मोटी फीस देते हैं। बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के विरुद्ध ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। आपके मंच पर भी आकर समर्थन जता गये। क्या उनके ट्रस्टों द्वारा संचालित प्रतिष्ठानों में जो मज़दूर काम करते हैं, उन्हें श्रम क़ानूनों के अनुसार सारी सुविधाएँ दी जाती है? अभी दिलीप मण्डल के ब्लाँग से यह जानकारी मिली कि अरविन्द केजरीवाल की दो एन.जी.ओ संस्थाओं को टाटा घराने के ट्रस्टों से अनुदान मिलते हैं। भ्रष्टाचार की ही बात करें तो टाटा-राडिया टेप की याद दिलाना मात्र काफ़ी होगा। टाटा की जो भी सम्पदा है वह मज़दूरों से अधिशेष निचोड़कर ही संचित हुई है। जो ''सिविल सोसायटी'' भ्रष्टाचार- विरोध की मुहिम में सबसे अधिक मुखर है, वह एक कुलीन मध्यवर्गीय सुधारवादी आन्दोलन है जिसके कर्ता-धर्ता एन.जी.ओ हैं, जिनकी फण्डिंग देशी पूँजीपतियों के ट्रस्टों के अतिरिक्त उन्हीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा स्थापित फण्डिंग एजेंसियों से होती है, जो पूरी दुनिया के कच्चे माल को लूटकर, मज़दूरों को निचोड़कर, हथियार से लेकर दवाएँ तक बेचकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं, तेल के लिए विनाशकारी युद्ध करवाती हैं, सरकारों का तख़्तापलट कराती हैं, और पर्यावरण को तबाह करती हैं। दूसरी ओर यही कम्पनियाँ मुनाफ़े की लूटमार से मचने वाली तबाही को नियंत्रित करने के लिए, जनता को दिग्भ्रमित और शांत करने के लिए, पूँजीवाद के अंतरविरोधों को विस्फ़ोटक होने से बचाने के लिए दान देती हैं, सामाजिक आन्दोलनों का मंच संगठित करने में पीछे से पैसा लगाती हैं, सुधारमूलक कार्यवाइयाँ करती हैं और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को समर्थन देती हैं। बिल गेट्स, वारेन बफ़ेट्स, अजीम प्रेमजी, टाटा - सभी चैरिटी करते हैं। यह आज से नहीं हो रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी से ही यही चलन है।