12.10.09
(चौथी किश्त)
अभिनव
अब तक हमने फासीवाद के उदय की आम पृष्ठभूमि और आर्थिक-सामाजिक स्थितियों के बारे में पढ़ा और साथ ही जिन दो देशों में फासीवाद के क्लासिकीय विनाशकारी प्रयोग हुए उनके बारे में भी जाना, यानी, जर्मनी और इटली। इस बार हम भारत में फासीवादी उभार के इतिहास, पृष्ठभूमि, विशेषताओं और उसके वर्तमान हालात के बारे में पढ़ेंगे।
भारत में फासीवाद जर्मनी या इटली की तरह कभी सत्ता में नहीं आया। हालाँकि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एक गठबन्धन सरकार भारत में करीब 6 वर्षों तक रही लेकिन वह हिटलर या मुसोलिनी के सत्ता में आने से बिल्कुल भिन्न था। इसके अतिरिक्त, भाजपा ने अपने बूते सरकार नहीं बनायी थी। वह एक गठबन्धन सरकार थी जिसके अपने आन्तरिक खिंचाव और तनाव थे, जिनके कारण भाजपा अपने फासीवादी एजेण्डे को खुलकर लागू नहीं कर सकती थी। लेकिन जितना भाजपा ने एक गठबन्धन सरकार के रहते किया, उतने से ही साफ हो गया था कि अगर वह पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आती तो क्या करती। जर्मनी या इटली की तरह फासीवाद भारत में कभी सत्ता में नहीं आया लेकिन यह एक बड़ी ताक़त के रूप में, जो समाज के पोर-पोर में पैठी हुई है, भारत में लम्बे समय से मौजूद रहा है। सबसे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में कुछ बुनियादी जानकारियाँ साझा कर लेना उपयोगी होगा। उसके बाद हम भारत में फासीवाद के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्स के बारे में भी चर्चा करेंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : भारतीय फासीवादियों की असली जन्मकुण्डली
भारत में फासीवाद का इतिहास लगभग उतना ही पुराना है जितना कि जर्मनी और इटली में। जर्मनी और इटली में फासीवादी पार्टियाँ 1910 के दशक के अन्त या 1920 के दशक की शुरुआत में बनीं। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में नागपुर में विजयदशमी के दिन हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे केशव बलिराम हेडगेवार। हेडगेवार जिस व्यक्ति के प्रभाव में फासीवादी विचारों के सम्पर्क में आये थे वह था मुंजे। मुंजे 1931 में इटली गया था और वहाँ उसने मुसोलिनी से भी मुलाकात की थी। 1924 से 1935 के बीच आर.एस.एस. से करीबी रखने वाले अख़बार 'केसरी' ने मुसोलिनी और उसकी फासीवादी सत्ता की प्रशंसा में लगातार लेख छापे। मुंजे ने हेडगेवार को मुसोलिनी द्वारा युवाओं के दिमाग़ों में ज़हर घोलकर उन्हें फासीवादी संगठन में शामिल करने के तौर-तरीकों के बारे में बताया। हेडगेवार ने उन तौर-तरीकों का इस्तेमाल उसी समय से शुरू कर दिया और आर.एस.एस. आज भी उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करती है। 1930 के दशक के अन्त तक भारतीय फासीवादियों ने बम्बई में उपस्थित इतालवी कांसुलेट से भी सम्पर्क स्थापित कर लिया। वहाँ मौजूद इतालवी फासीवादियों ने हिन्दू फासीवादियों से सम्पर्क कायम रखा।
लगभग इसी समय एक अन्य हिन्दू कट्टरपन्थी विनायक दामोदर सावरकर, जिनके बड़े भाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से एक थे, ने जर्मनी के नात्सियों से सम्पर्क स्थापित किया। सावरकर ने जर्मनी में हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाये को सही ठहराया और भारत में मुसलमानों की ''समस्या'' के समाधान का भी यही रास्ता सुझाया। जर्मनी में 'यहूदी प्रश्न' का 'अन्तिम समाधान' सावरकर के लिए एक मॉडल था। सावरकर के लिए नात्सी राष्ट्रवादी थे जबकि यहूदी राष्ट्र-विरोधी और साम्प्रदायिक। लेनिन ने बहुत पहले ही आगाह किया था कि नस्लवादी अन्धराष्ट्रवादी पागलपन अक्सर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चोला पहनकर आ सकता है। भारत में हिन्दू साम्प्रदायिक अन्धराष्ट्रवाद भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जामा पहनकर ही सामने आ रहा था।
आर.एस.एस. ने भी खुले तौर पर जर्मनी में नात्सियों द्वारा यहूदियों के कत्ले-आम का समर्थन किया। हेडगेवार ने मृत्यु से पहले गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड' और बाद में प्रकाशित हुई 'बंच ऑफ थॉट्स' में जर्मनी में नात्सियों द्वारा उठाये गये कदमों का अनुमोदन किया था। गोलवलकर आर.एस.एस. के लोगों के लिए सर्वाधिक पूजनीय सरसंघचालक थे। उन्हें आदर से संघ के लोग 'गुरुजी' कहते थे। गोलवलकर ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मेडिकल की पढ़ाई की और उसके बाद कुछ समय के लिए वहाँ पढ़ाया भी। इसी समय उन्हें 'गुरुजी' नाम मिला। हेडगेवार के कहने पर गोलवलकर ने संघ की सदस्यता ली और कुछ समय तक संघ में काम किया। अपने धार्मिक रुझान के कारण गोलवलकर कुछ समय के लिए आर.एस.एस. से चले गये और किसी गुरु के मातहत संन्यास रखा। इसके बाद 1939 के करीब गोलवलकर फिर से आर.एस.एस. में वापस आये। इस समय तक हेडगेवार अपनी मृत्युशैया पर थे और उन्होंने गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से लेकर 1973 तक गोलवलकर आर.एस.एस. के सुप्रीमो रहे।
गोलवलकर के नेतृत्व में ही आर.एस.एस. के वे सभी संगठन अस्तित्व में आये जिन्हें आज हम जानते हैं। आर.एस.एस. ने इसी दौरान अपने स्कूलों का नेटवर्क देश भर में फैलाया। संघ की शाखाएँ भी बड़े पैमाने पर इसी दौरान पूरे देश में फैलीं। विश्व हिन्दू परिषद जैसे आर.एस.एस. के आनुषंगिक संगठन इसी दौरान बने। गोलवलकर ने ही आर.एस.एस. की फासीवादी विचारधारा को एक सुव्यवस्थित रूप दिया और उनके नेतृत्व में ही आर.एस.एस. की पहुँच महाराष्ट्र के ब्राह्मणों से बाहर तक गयी। आर.एस.एस. सही मायनों में एक अखिल भारतीय संगठन गोलवलकर के नेतृत्व में ही बना। यही कारण है कि गोलवलकर आज भी संघ के लोगों में सबसे आदरणीय माने जाते हैं और अभी दो वर्ष पहले ही संघियों ने देश भर में उनकी जन्मशताब्दी मनायी थी।
आर.एस.एस. ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ किसी भी स्वतन्त्रता संघर्ष में हिस्सा नहीं लिया। संघ हमेशा ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ तालमेल करने के लिए तैयार था। उनका निशाना शुरू से ही मुसलमान, कम्युनिस्ट और ईसाई थे। लेकिन ब्रिटिश शासक कभी भी उनके निशाने पर नहीं थे। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौरान संघ देशव्यापी उथल-पुथल में शामिल नहीं हुआ था। उल्टे जगह-जगह उसने इस आन्दोलन का बहिष्कार किया और अंग्रेज़ों का साथ दिया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा बंगाल में अंग्रेज़ों के पक्ष में खुलकर बोलना इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण था। ग़लती से अगर कोई संघ का व्यक्ति अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ा गया या गिरफ्तार किया गया तो हर बार उसने माफीनामा लिखते हुए ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी वफादारी को दोहराया और हमेशा वफादार रहने का वायदा किया। स्वयं पूर्व प्रधानमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी ने भी यह काम किया। ऐसे संघियों की फेहरिस्त काफी लम्बी है जो माफीनामे लिख-लिखकर ब्रिटिश जेलों से बाहर आये और जिन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानियों के ख़िलाफ अंग्रेज़ों से मुख़बिरी करने का घिनौना काम तक किया। ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य ने भी इसी वफादारी का बदला चुकाया और हिन्दु साम्प्रदायिक फासीवादियों को कभी भी निशाना नहीं बनाया। संघ आज राष्ट्रवादी होने का चाहे जितना गुण गा ले वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल न होने और अंग्रेज़ों का साथ देने का दाग़ अपने दामन से कभी नहीं मिटा सकता है। इतिहास को फिर से लिखने के संघ के प्रयासों के पीछे का मुख्य कारण यही है। वे अपने ही इतिहास से डरते हैं। वे जानते हैं कि उनका इतिहास ग़द्दारियों और कायरताओं का एक काला इतिहास रहा है। हिंसा से उनको बहुत प्रेम है, लेकिन झुण्ड में पौरुष प्रदर्शन वाली हिंसा से। वे कभी किसी जनान्दोलन में शामिल नहीं हुए और उनमें किसी दमन को झेलने की ताक़त नहीं है। हमेशा सत्ता के साथ नाभिनालबद्ध रहते हुए व्यवस्था के ख़िलाफ लड़ने वालों पर कायराना हिंस्र हमले करना इनकी फितरत रही है। चाहे वे मुसलमान रहे हों, ईसाई या फिर कोई भी राजनीतिक विरोधी। बहादुराना संघर्ष से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा है, कभी नहीं।
संघ का पूरा ढाँचा शुरू से ही फासीवादी रहा था। यह लम्बे समय तक सिर्फ पुरुषों के लिए ही खुला था। संघ की महिला शाखा बहुत बाद में बनायी गयी। संघ का पूरा आन्तरिक ढाँचा हिटलर और मुसोलिनी की पार्टियों से हूबहू मेल खाता है। हर सदस्य यह शपथ लेता है कि वह सरसंघचालक के हर आदेश का बिना सवाल किये पालन करेगा। सरसंघचालक सबसे ऊपर होता है और उसके नीचे एक सरकार्यवाह होता है जिसे सरसंघचालक ही नियुक्त करता है। एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल होता है जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है। अपना उत्तराधिकारी भी सरसंघचालक चुनता है। यानी पूरी तरह एक 'कमाण्ड स्ट्रक्चर' जिसमें जनवाद की कोई जगह नहीं है। नात्सी और फासीवादी पार्टी का पूरा ढाँचा इसी प्रकार का था। नात्सी पार्टी में 'फ्यूहरर' के नाम पर शपथ ली जाती थी और फासीवादी पार्टी में 'डयूस' के नाम पर शपथ ली जाती थी।
यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह हमेशा से सिर्फ हिन्दुओं के लिए खुला रहा है। यह खुले तौर पर कहता है कि यह हिन्दुओं के हितों की सेवा करने के लिए है। संघ ने कभी भी निचली जातियों या निचले वर्गों के हिन्दुओं के लिए कोई काम नहीं किया है। इनका समर्थन भी हमेशा से उजड़े टुटपुँजिया पूँजीपति वर्ग, नवधनाढ्यों और लम्पट सर्वहारा के बीच रहा है। संघ के सामाजिक आधार पर हम आगे आयेंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में फासीवाद का अपना मौलिक संस्करण तैयार किया। इसकी हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद से काफी समानताएँ थीं और उनसे इन्होंने काफी कुछ सीखा। गोलवलकर अपनी पुस्तक 'वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड' में लिखते हैं - ''आज दुनिया की नज़रों में सबसे ज्यादा जो दूसरा राष्ट्र है, वह है जर्मनी। यह राष्ट्रवाद का बहुत ज्वलन्त उदाहरण है। आधुनिक जर्मनी कर्मरत है तथा जिस कार्य में वह लगा हुआ है, उसे काफी हद तक उसने हासिल भी कर लिया है... पितृभूमि के प्रति जर्मन गर्वबोध, जिसके प्रति उस जाति का परम्परागत लगाव रहा है, सच्ची राष्ट्रीयता का ज़रूरी तत्व है। आज वह राष्ट्रीयता जाग उठी है तथा उसने नये सिरे से विश्वयुद्ध छेड़ने का जोखिम उठाते हुए अपने ''पुरखों के क्षेत्र'' पर एकजुट, अतुलनीय, विवादहीन, जर्मन साम्राज्य की स्थापना करने की ठान ली है।...'' (गोलवलकर, 'वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड, पृ. 34-35)
गोलवलकर ने इसी पुस्तक में यहूदियों के कत्लेआम का भरपूर समर्थन किया और इसे भारत के लिए एक सबक मानते हुए लिखा - ''...अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाये रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।'' (गोलवलकर, वही, पृ. 35)। हिटलर की इसी सोच को गोलवलकर भारत पर लागू कैसे करते हैं, देखिये : ''...जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा, अर्थात हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए, बिना कोई माँग किये, बिना किसी प्रकार का विशेषाधिकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करें; यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अधिकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं। हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।'' (गोलवलकर, वही, पृ. 47-48) बात बिल्कुल साफ है। मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति संघ के विचार वही हैं जो यहूदियों के प्रति हिटलर के थे।
संघ का राष्ट्र कौन है?
हिन्दू, लेकिन सारे हिन्दू नहीं। उच्च जाति के पुरुष हिन्दू। स्त्रियों को हिटलर और मुसोलिनी के समान ही पुरुष का सेवक और स्वस्थ बच्चे पैदा करने के यन्त्र से अधिक और कुछ नहीं माना गया है। दूसरी बात, वे हिन्दू जिनके पास समाज के संसाधनों का मालिकाना है। मज़दूर वर्ग का काम है कि महान प्राचीन हिन्दू राष्ट्र की उन्नति और प्रगति के लिए बिना सवाल उठाये खटते रहें - 12 घण्टे और कभी-कभी तो 14-15 घण्टे तक। इस पर सवाल खड़े करना या श्रमिक अधिकारों की बात करना राष्ट्र-विरोधी माना जाएगा। हर कोई अपना 'कर्म' करे, सवाल नहीं! कर्म आपके जन्म से तय होता है। आप जहाँ जिस घर में, जिस परिवार में जन्मे आपको वैसा ही कर्म करना है। या फिर जैसा आपके राष्ट्र, धर्म और जाति का नेता आपसे कहे! प्रतिरोध, विरोध और प्रश्न राष्ट्रद्रोह है! श्रद्धा-भाव से कर्म कीजिये! मज़दूरों का यही धर्म है कि वे 'राष्ट्र प्रगति' में अपना हाड़-मांस गला डालें! बताने की ज़रूरत नहीं है कि संघ और भाजपा के लिए राष्ट्र का अर्थ है पूँजीपतियों, दुकानदारों, टुटपूँजियों की बिरादरी। जब ये मुनाफाखोर तरक्क्फ़ी करते हैं और मुनाफा कमाते हैं तो ही राष्ट्र तरक्की करता है। हिटलर और मुसोलिनी ने भी अपने-अपने देशों में मज़दूरों के प्रति यही रुख़ अपनाया था। इन देशों में फासीवादी सत्ताएँ आने के साथ ही ट्रेड यूनियनों को प्रतिबन्धित कर दिया गया था। ट्रेड यूनियन आन्दोलन पर हिंस्र हमले इटली और जर्मनी में फासीवादियों की गुण्डा फौजों ने तब भी किये जब वे सत्ता में नहीं थे। मुम्बई में ट्रेड यूनियन नेताओं, मज़दूरों और उनकी हड़तालों पर ऐसे ही हमले शिव सेना (जिसका फासीवाद प्रेम जगजाहिर है) ने भी किये थे। देश भर में जगह-जगह बजरंग दल और विहिप के गुण्डों ने समय-समय पर पूँजीपतियों के पक्ष से मज़दूरों, उनके नेताओं और हड़तालों को तोड़ने का काम किया है। जब वे इस किस्म की आतंकवादी कार्रवाइयाँ नहीं कर रहे होते हैं तो वे मज़दूरों की वर्ग एकता को तोड़ने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। मिसाल के तौर पर, मज़दूरों के बीच ऐसे संगठन बनाये जाते हैं जो मज़दूरों की दुर्दशा के लिए पूँजीपति वर्ग को ज़िम्मेदार नहीं ठहराते। पूँजीपतियों से ख़ैरात लेकर और साथ ही मज़दूरों के बीच से पैसे जुटाकर 'फण्ड पूल' बनाये जाते हैं जो मज़दूरों को बेरोज़गारी और भुखमरी की हालत में कुछ पैसे दे देता है।
कई बार ये पैसे सूद पर भी दिये जाते हैं। इसके अतिरिक्त, धार्मिक अवसरों पर मज़दूरों के बीच पूजा आदि करवाना, कीर्तन करवाना - ये ऐसे संगठनों का मुख्य काम होता है। साथ ही मज़दूरों के दिमाग़ में यह बात भरी जाती है कि उनके हालात के ज़िम्मेदार अल्पसंख्यक हैं जो उनके रोज़गार आदि के अवसर छीन रहे हैं। इन फासीवादी संगठनों के नेताओं के मुँह से अक्सर ऐसी बात सुनने को मिल जाती है - ''17 करोड़ मुसलमान मतलब 17 करोड़ हिन्दू बेरोज़गार।'' यह बरबस ही फ्रांस के फासीवादी नेता मेरी लॉ पेन के उस कथन की याद दिलाता है जिसमें उसने कहा था - ''दस लाख प्रवासी मतलब दस लाख फ्रांसीसी बेरोज़गार।'' मज़दूरों के बीच सुधार के कार्य करते हुए ये संघी संगठन मज़दूरों की वर्ग चेतना को भोथरा बनाने का काम करते हैं। वे उन्हें हिन्दू मज़दूर के तौर पर संगठित करने की कोशिश करते हैं। और इस प्रकार वे मज़दूरों की वर्ग एकता को तोड़ते हैं। साथ ही, 'कमेटी' डालने (सूद पर पैसा देने वाली एक संस्था जिसे संघी संगठन मज़दूरों के पैसे से ही बनाते हैं, जो देखने में आपसी सहकार जैसी लगती है) जैसी गतिविधियों के ज़रिये थोड़ी देर के लिए ही सही, मगर पूँजीपति वर्ग से अन्तरविरोधों को तीख़ा नहीं होने देते। संघ का एक ऐसा ही संगठन है 'सेवा भारती'। साथ ही संघी ट्रेड यूनियन भारतीय मज़दूर संघ अक्सर मुसोलिनी की तर्ज़ पर औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए 'कारपोरेटवादी' समाधान सुझाती है। इसमें फासीवादी नेतृत्व में एक संघीय निकाय बनाया जाता है जिसमें मज़दूरों और पूँजीपतियों के प्रतिनिधि बैठते हैं। फासीवादी पार्टी विवादों का निपटारा करती है और ऐसा वह हमेशा पूँजीपतियों के पक्ष में अधिक झुकते हुए करती है। या फिर हिटलर की तरह मज़दूरों पर पूर्ण नियन्त्रण के लिए विभिन्न आतंकवादी संगठन बनाने का रास्ता भी आर.एस.एस. हमेशा खोलकर रखता है। बजरंग दल एक ऐसा ही आतंकवादी संगठन है जो हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को असंवैधानिक रास्ते से सड़क पर झुण्ड हिंसा के ज़रिये निपटाने के लिए संघ द्वारा खड़ा किया गया है। यह कम्युनिस्टों, उदारवादियों, साहित्यकारों समेत मज़दूरों और ट्रेड यूनियन प्रतिरोध को गुण्डों और मवालियों के झुण्ड के हिंस्र हमलों द्वारा शान्त करने में यकीन करता है। यानी, भारत के फासीवादियों ने जर्मन और इतालवी तरीकों का मेल किया है।
संक्षेप में कह सकते हैं कि फासीवादी हमेशा राष्ट्रवाद की ओट में पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं। राष्ट्र से उनका मतलब पूँजीपति वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग हैं, बाकी वर्गों की स्थिति अधीनस्थ होती है और उन्हें उच्च राष्ट्र की सेवा करनी होती है; यही उनका कर्तव्य और दायित्व होता है। प्रतिरोध करने वालों को 'दैहिक और दैविक ताप से पूर्ण मुक्ति' दे दी जाती है। फासीवाद समाज में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए हमेशा ही सड़क पर झुण्डों में की जाने वाली हिंसा का सहारा लेता है। जर्मनी और इटली में भी ऐसा ही हुआ था और भारत में भी संघ ने यही रणनीति अपनायी। संघ के आनुषंगिक संगठन जैसे विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल अक्सर इस तरीके को अपनाते हैं। भोपाल में प्रो. सभरवाल की हत्या इसी का एक उदाहरण था।
भारतीय फासीवाद की कार्यपद्धति और उसके उभार का इतिहास
फासीवाद ने भारत में जिस कार्यपद्धति को लागू किया उसकी भी जर्मन और इतालवी फासीवादियों की कार्यपद्धति से काफी समानता रही है। जर्मनी और इटली की तरह यहाँ पर भी फासीवाद ने जिन तौर-तरीकों का उपयोग किया, वे थे सड़क पर की जाने वाली झुण्ड हिंसा; पुलिस, नौकरशाही, सेना और मीडिया का फासीवादीकरण; कानून और संविधान का खुलेआम मख़ौल उड़ाते हुए अपनी आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना और इस पर उदारवादी पूँजीवादी नेताओं की चुप्पी; शुरुआत में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना और फिर अपने हमले के दायरे में हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को ले आना; शाखाओं, शिशु मन्दिरों, सांस्कृतिक केन्द्रों और धार्मिक त्योहारों का उपयोग करते हुए मिथकों को समाज के 'सामान्य बोध' (कॉमन सेंस) के तौर पर स्थापित कर देना (जैसे, आज उदारवादी हिन्दुओं में भी यह धारणा प्रचलित है कि मुसलमान बहुविवाह करते हैं, ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं, शातिर होते हैं, हिन्दू राष्ट्र को निगल जाना चाहते हैं, गन्दे रहते हैं, आदि-आदि, जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है); झूठा प्रचार : यह दुनिया भर के फासीवादियों की साझा रणनीति रही है; फासीवादी हमले का निशाना संस्थाएँ नहीं बल्कि व्यक्ति हुआ करते हैं और भारत में भी विरोधियों को आतंकित करने की यही नीति फासीवादियों द्वारा अपनायी गयी; अफवाहों का कुशलता से इस्तेमाल करना भी भारतीय फासीवादियों की एक प्रमुख निशानी रही है; जर्मनी और इटली की तरह ही एक ही साथ कई बातें बोलना भी भारतीय फासीवादियों ने ख़ूब लागू किया है; उनका एक नर्म चेहरा होता है, एक उग्र चेहरा, एक मध्यवर्ती चेहरा और जब जिस चेहरे की ज़रूरत पड़ती है उसे आगे कर दिया जाता है; भारत में भी संघ का कोई एक स्थायी संविधान नहीं रहा था; ये जब जैसी ज़रूरत वैसा चाल-चेहरा-चरित्र अपनाने के हामी होते हैं। क्योंकि सभी फासीवादी अवसरवादी होते हैं और अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
ये संघी फासीवादियों की आम कार्यपद्धति रही है। इन तौर-तरीकों में से अधिकांश संघियों ने अपने जर्मन और इतालवी पिताओं से ही सीखा है। इन कार्यपद्धतियों के इस्तेमाल के ज़रिये फासीवाद ने भारतीय समाज और जनमानस में जड़ें जमानी शुरू कीं।
आज़ादी के पहले 1890 के दशक और 1900 के दशक में भी हिन्दू और इस्लामी पुनरुत्थानवादियों के कारण हिन्दू-मुस्लिम तनाव पैदा हुए थे। लेकिन उस दौर में राष्ट्रवादी नेताओं द्वारा किये गये प्रयासों के चलते ये तनाव ज्यादा तीव्र नहीं हो सके। 1910 के दशक में भी ऐसे तनाव पैदा हुए थे लेकिन 1916 के लखनऊ समझौते और ख़िलाफत आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन के मिलने से हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द्र की स्थिति थी और वे अपने साझा दुश्मन के तौर पर अंग्रेज़ी औपनिवेशिक सत्ता को देखते थे। इस दौरान भी हिन्दू महासभा नामक एक हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन मौजूद था। लेकिन राष्ट्रवादी आन्दोलन द्वारा बनी साम्प्रदायिक एकता असहयोग आन्दोलन के पहले तक पूरी तरह टूट नहीं सकी, हालाँकि उसमें दरारें आनी शुरू हो गयी थीं। असहयोग आन्दोलन के अचानक वापस लिये जाने के साथ यह एकता टूटनी शुरू हो गयी। यही समय था जब देश में तमाम हिस्सों में हिन्दू पुनरुत्थानवादियों का उभार हो रहा था। सावरकर बन्धुओं का समय यही था। लगभग यही समय था जब बंकिम चन्द्र का उपन्यास 'आनन्दमठ' प्रकाशित हुआ और राष्ट्रवाद के स्वरूप को लेकर एक पूरी बहस देश भर में चल पड़ी। इसमें एक धारा कांग्रेस के राष्ट्रवाद की थी जो पूँजीपति वर्ग के हितों के नेतृत्व में आम जनता को साम्राज्यवाद के ख़िलाफ लेने की बात करता था। यह समझौतापरस्त था। यह सेक्युलर तो था मगर इसका सेक्युलरिज्म स्वयं हिन्दू पुनरुत्थानवाद की ओर झुकाव रखता था। जो कांग्रेसी नेता पुनरुत्थानवादी रुझान नहीं रखते थे उनका सेक्युलरिज्म पुंसत्वहीन था और कभी साम्प्रदायिक कट्टरता के ख़िलाफ लड़ नहीं सकता था। दूसरी अवस्थिति साम्राज्यवाद-विरोधी थी जो कम्युनिस्टों ने अपनायी। उन्होंने लगातार ईमानदारी से जनता को एकजुट करते हुए संघर्ष किया लेकिन तमाम रणनीतिक और कूटनीतिक मसलों पर साफ न हो पाने के कारण पूरे स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान उनसे तमाम ग़लतियाँ हुईं जिसके कारण वे कभी भी आन्दोलन के नेतृत्व को अपने हाथ में नहीं ले सके। और तीसरा पक्ष था हिन्दू साम्प्रदायिकतावादियों का जिन्होंने अपनी फासीवादी विचारधारा को हिन्दू राष्ट्रवाद के चोगे में पेश किया। वे कितने राष्ट्रवादी थे यह तो हम देख ही चुके हैं। उनका असली प्रोजेक्ट फासीवाद का था जिसे राष्ट्रवाद के चोगे में छिपाया गया था।
1925 में आर.एस.एस. की स्थापना हुई। इस समय तक कांग्रेसी राष्ट्रवाद साम्प्रदायिक एकता को कायम रखने की इच्छा और इरादा दोनों ही खोने लग गया था। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने हिन्दू साम्प्रदायिकता और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने और उन्हें आपस में लड़ाने का शुरू से ही हर सम्भव प्रयास किया। कई इतिहासकार तो यहाँ तक मानते हैं कि भारत में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता अंग्रेज़ों की ही पैदा की हुई चीज़ है। अंग्रेज़ों के आने से पहले किसी साम्प्रदायिक दंगे का कहीं कोई हवाला नहीं मिलता है। यह पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवाद और अंग्रेज़ों के प्रयास के संगम से पैदा हुई थी। बंगाल का विभाजन करने के पीछे अंग्रेज़ों का सबसे बड़ा मकसद यही था। कहीं वे हिन्दू फासीवादियों का साथ देते तो कहीं इस्लामी कट्टरपन्थियों का। जनगणना का भी अंग्रेज़ों ने साम्प्रदायिकता बढ़ाने के लिए बख़ूबी इस्तेमाल किया। कम्युनिस्टों ने इन प्रयासों का प्रतिरोध किया लेकिन फासीवाद से लड़ने की कोई सुसंगत रणनीति न होने के कारण यह प्रतिरोध सफल न हो पाया।
साम्प्रदायिकता का कारगर विरोध और ध्वंस न होने का नतीजा यह था कि 1925 में संघ की स्थापना के 15 वर्ष बीतते-बीतते उसकी सदस्यता करीब एक लाख तक पहुँच चुकी थी। उस समय तक संघ एक हिन्दू पुनरुत्थानवादी और कट्टरपन्थी अवस्थिति को अपनाता और उसका प्रचार करता था। उसके निशाने पर मुसलमान प्रमुख तौर पर थे। औपनिवेशिक सत्ता का विरोध करना संघ ने कभी अपना कर्तव्य नहीं समझा और हमेशा अंग्रेज़ों का वफादार बना रहा। लेकिन हिन्दू राष्ट्रवाद की बात करना वह शुरू कर चुका था। उसके प्रचार में प्राचीन भारत के ''हिन्दू'' गौरव का गुणगान होता था। अभी फासीवादी विचारधारा को लागू करने में संघ स्वयं प्रशिक्षित हो रहा था। 1930 के दशक के अन्त तक गोलवलकर के नेतृत्व में संघ आधुनिक फासीवादी विचारधारा और कार्यप्रणाली को भारतीय सन्दर्भों में लागू करने की शुरुआत कर चुका था। शाखाओं का विराट ताना-बाना देश के तमाम हिस्सों में फैलना शुरू हो चुका था। आज़ादी के आन्दोलन में अपनी शर्मनाक भूमिका को संघ ने आज़ादी के बाद अपने झूठे प्रचारों से ढँकना शुरू किया। यह काम संघ को आज तक करना पड़ता है क्योंकि संघ के नेताओं की ग़द्दारी के दस्तावेज़ी प्रमाण बड़े पैमाने पर मौजूद हैं, जैसे कि माफीनामे, मुखबिरी, वफादारी के वायदे, आदि, संघी फासीवादियों ने अंग्रेज़ों से किये।
आज़ादी मिलने के बाद सत्ता कांग्रेस के हाथ में आयी और नेहरू प्रधानमन्त्री बने। गोलवलकर इस पर काफी हताश हुए और उन्होंने इसे मुसलमानों के हाथों से मिली हार माना। इसके बाद संघ ने अपने तमाम संगठनों की स्थापना शुरू की जिनमें विश्व हिन्दू परिषद प्रमुख था। बाद में बजरंग दल, वनवासी कल्याण परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, दुर्गा वाहिनी, इत्यादि संगठनों की भी स्थापना की गयी। इन सभी संगठनों के ज़रिये संघ ने देश के कोने-कोने में और हर सामाजिक श्रेणी में अपने पाँव पसारने शुरू किये। संघ 1980 के आते-आते देश का सबसे बड़ा संगठन बन चुका था। भाजपा सत्ता में आये या न आये पूँजीवादी व्यवस्था के रहते संघी फासीवादी हमेशा एक ख़तरे के तौर पर मौजूद रहेंगे। एक अर्थशास्त्री माइकल कालेकी ने सत्ता से बाहर फासीवाद को ज़ंजीर से बँधो कुत्तो की संज्ञा दी थी। भारत में यह रूपक हूबहू लागू होता है। अगर यह कुत्ता ज़ंजीर से न बँधा रहे और इसके हाथ में पूरी सत्ता हो तो वह क्या कर सकता है यह जर्मनी और इटली में हम देख चुके हैं। लेकिन ज़ंजीर से बँधो होने की चिड़चिड़ाहट में भी यह कुत्ता बहुत से कुकृत्य कर सकता है, यह बात भारत के इतिहास से साबित होती है।
भारत में पिछले 4 दशकों में संघी फासीवाद के अभूतपूर्व विस्तार के क्या कारण थे? भारत में फासीवाद की ज़मीन क्या थी? कौन से वर्ग फासीवाद के सामाजिक आधार बने? यह समझना फासीवाद से मुकाबले की रणनीति बनाने में सबसे ज्यादा अहमियत रखता है।
(अगले अंक में जारी)
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2 कमेंट:
Why PPl are not intrested to read your article only 6 PPL read your article WHY?
आप का लेख भ्रामक है,लगता है आप की सोच सदा पूर्वाग्रहों से ग्रसित रही है!ऐसी सोच समाज को ठीक दिशा नही देगी!सच है भाजपा सरकार ने सत्ता में रहते हिन्दुवों के लिये कुछ नही किया पर हाँ देश को गर्वित कई क्रित्यों से किया है!मेरे विचार मे,६० सालों मे देश के विकास की दर वो नही रही जो भाजपा के ८ सालों मे थी!
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