कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है?
औपनिवेशिक भारत में संविधान-निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इसकी निर्माण-प्रक्रिया, इसके चरित्र और भारतीय बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की वर्ग-अन्तर्वस्तु, इसके अति सीमित बुर्जुआ जनवाद और निरंकुश तानाशाही के ख़तरों के बारे में
''हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी पन्थनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढसंकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।''
इन्हीं लच्छेदार शब्दों की प्रस्तावना के साथ दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्रा के संविधान की शुरुआत होती है जो (90,000 शब्द) दुनिया का सबसे वृहद संविधान है। इस 26 जनवरी को भारतीय गणतन्त्र और भारतीय संविधान की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनायी गयी। जश्न और जलसे हुए। राजधानी दिल्ली में तगड़े सुरक्षा-बन्दोबस्त के साथ गणतन्त्र दिवस परेड हुई। वहाँ महामहिम गण और अतिविशिष्ट जन ही मौजूद थे। एक तो जनता में अब मेले-ठेले वाला पुराना उत्साह रहा भी नहीं, दूसरे तगड़े सुरक्षा बन्दोबस्त उसे राजपथ तक पफटकने भी नहीं देते।
सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि गणतन्त्र दिवस का मुख्य आकर्षण सैन्य शक्ति का प्रदर्शन ही क्यों हुआ करता है? क्या लोकतन्त्र की मज़बूती सेना की ताकत से तय होती है? वैसे इस प्रतीकात्मकता से जाने-अनजाने एक सच्चाई ही प्रदर्शित होती है। हर बुर्जुआ जनवाद (लोकतन्त्र) वास्तव में बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व होता है, वह बहुमत पर शोषक अल्पमत का शासन होता है जो थोड़े कामचलाऊ और थोड़े दिखावटी जनवाद के बावजूद मुख्यत: बल पर आधारित होता है। सामरिक शक्ति उसकी आधारभूत ताक़त होती है। गणतन्त्र दिवस के अवसर पर सामरिक शक्ति का प्रदर्शन एक ओर लोगों में अन्धराष्ट्रवादी भावोद्रेक पैदा करता है, दूसरी ओर यह भी संदेश देता है कि इतनी विराट सैन्य-शक्ति से लैस सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की जुर्रत कोई कत्तई न करे।
बहरहाल, इन ऊपरी, चलताऊ बातों से हटकर ऐसे मौक़े पर यह बुनियादी सवाल उठाये जाने की ज़रूरत है कि हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी जनवादी (लोकतान्त्रिक) गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना सम्प्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना जनवादी है? पिछले साठ वर्षों के दौरान आम भारतीय नागरिक को कितने जनवादी अधिकार हासिल हुए हैं? हमारा संविधान आम जनता को किस हद तक नागरिक और जनवादी अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिपफाज़त की गारण्टी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिद्धान्तों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है? ये सभी प्रश्न एक विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं। इस निबन्धा में हम थोड़े में संविधान के चरित्रा और भारत के जनवादी गणराज्य की असलियत को जानने के लिए कुछ प्रातिनिधिक तथ्यों के ज़रिये एक तस्वीर उपस्थित करने की कोशिश करेंगे।किसी भी चीज़ के चरित्रा को संक्षेप में, सही-सटीक तरीवफे से समझने के लिए, ऊपरी टीमटाम और लप्पे-टप्पे को भेदकर उसके अन्दर की सच्चाई को जानने का सबसे उचित-सटीक तरीवफा यह होता है कि हम उस चीज़ के जन्म, विकास और आचरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया की पड़ताल करें। यही पहुँच और पद्धति अपनाकर हम सबसे पहले भारतीय संविधान के निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से चर्चा की शुरुआत कर रहे हैं। इसके बाद हम संविधान सभा के गठन और संविधान-निर्माण की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे। इसके बाद इसके चरित्रा-विश्लेषण और भारतीय गणराज्य के चाल-चेहरा-चरित्रा को जानने-समझने की बारी आयेगी।
संविधान-निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आज बहुत कम लोगों को ही इस तथ्य की जानकारी है कि जो संविधान भारतीय लोकतन्त्रा (जनवाद) का फ्पवित्रा'' आधार ग्रन्थ है, जो हर नागरिक के लिए अनुल्लंघ्य और बाधयताकारी है, उसका निर्माण भारतीय जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने नहीं किया था, न ही चुने हुए प्रतिनिधियों के किसी निकाय द्वारा उसे पारित ही किया गया था। संविधान बनाने वाली संविधान सभा को उन प्रान्तीय विधानमण्डल के सदस्यों ने चुना था, स्वयं जिनका चुनाव देश की कुल वयस्क आबादी के मात्रा 11.5 प्रतिशत हिस्से से बने निर्वाचक मण्डल ने किया था। ज़ाहिर है कि इनमें से चन्द एक कांस्टीच्युएंसी से चुने गये प्रतिनिधियों को छोड़कर शेष सभी सम्पत्तिशाली कुलीनों के प्रतिनिधि थे। यानी संविधान सभा सार्विक नहीं बल्कि अतिसीमित वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनी गयी थी और प्रत्यक्ष नहीं बल्कि परोक्ष चुनाव के आधार पर चुनी गयी थी। इन चुने गये प्रतिनिधियों के अतिरिक्त उसमें राजाओं-नवाबों के मनोनीत प्रतिनिधि थे। कुछ उच्च मधयवर्गीय विधिवेत्ता और प्रशासकों को भी उसमें मनोनीत किया गया था। यहाँ यह भी जोड़ दें कि इस संविधान सभा को चुनने वाले प्रान्तीय विधान मण्डलों का चुनाव (अतिसीमित मताधिकार पर आधारित होने के अतिरिक्त) धार्मिक एवं जातिगत आधार पर पृथक् निर्वाचक-मण्डलों द्वारा किया गया था। चुनाव के इन आधारों और प्रक्रिया का निर्धारण 'गवर्नमेण्ट ऑपफ इण्डिया ऐक्ट, 1935' के द्वारा औपनिवेशिक शासकों ने किया था। संविधान सभा ने 1946 में जब काम करना शुरू किया तो देश अभी ग़ुलाम था। 1950 में संविधान जब बनकर तैयार हुआ तो देश आज़ाद हो चुका था। लेकिन सार्विक मताधिकार के आधार पर चुने गये किसी नये निकाय द्वारा पारित या पुष्ट किये जाने के बजाय उसी पुरानी संविधान सभा द्वारा इसे पारित करके पूरे देश की जनता पर इसे लाद दिया गया।
दरअसल 15 अगस्त 1947 को राजनीतिक आज़ादी मिलने के बाद सत्ता सँभालने वाला भारतीय पूँजीपति वर्ग जितना जनवादी था और साम्राज्यवाद से जिस हद तक इसकी आज़ादी वास्तविक थी, उसी हद तक यह भारतीय जनता को जनवाद दे सकता था। भारत के बुर्जुआ जनवाद और राष्ट्रीय स्वतन्त्राता का जितना खण्डित-विकृत-विकलांग चरित्र था, यहाँ का संविधान और उसकी निर्माण-प्रक्रिया भी उसी से मेल खाती हुई थी। इस बात को ठीक से समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा और पीछे जाना होगा।
भारत का पूँजीपति वर्ग ऊपर से आरोपित औपनिवेशिक सामाजिक संरचना के भीतर से पैदा हुआ था। आर्थिक धारातल पर, (यूरोप की तरह) कृषि-दस्तकारी-मैन्यूपफैक्चरिंग' इसकी विकास-यात्रा के सोपान नहीं थे। वैचारिक-राजनीतिक धारातल पर पुनर्जागरण (रिनेसाँ)-प्रबोधान (एनलाइटेनमेण्ट)-जनवादी क्रान्ति इसकी विकास-प्रक्रिया की मंज़िलें नहीं थीं। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक इसका औद्योगिक आधार बेहद कमज़ोर था, यह मुख्यत: ब्रिटिश औद्योगिक पूँजी के अधीन था। तब इसका राजनीतिक स्वर वपफादार ब्रिटिश प्रजा का राजनीतिक स्वर था। इसके भीतर जब अपनी औद्योगिक पूँजी के विकास और राष्ट्रीय बाज़ार में हिस्सेदारी की आकांक्षा ने उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में, आर.सी. दत्ता, दादाभाई नौरोजी आदि की राजनीतिक धारा को जन्म दिया जिसे कुछ इतिहासकार प्राय: आर्थिक राष्ट्रवाद का नाम देते हैं। यह धारा औपनिवेशिक गर्भ में पली- बढ़ी भारतीय पूँजी के हितों से भी अधिक, कुछ दबी ज़ुबान से और कुछ मुखर रूप से, रियायतों की माँग करने वाले पढ़े-लिखे औपनिवेशिक मधय वर्ग का प्रतिनिधित्व करती थी जो ब्रिटिश प्रजा के रूप में अपने कुछ अधिकार माँग रहा था। फ़िर इसी की प्रतिद्वन्द्वी रैडिकल राष्ट्रवाद की एक दूसरी धारा भी (तिलक की धारा) पैदा हुई, जो मधय वर्ग के निचले-मँझोले संस्तरों की राष्ट्रीय चेतना का प्रतिनिधित्व करती थी। 1905 तक कांग्रेस में भारतीय पूँजीपति की सक्रियता कुछ और बढ़ी। प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के उलझे होने के कारण 1914-18 के दौरान जब ब्रिटेन से भारत को होने वाले माल-निर्यात और पूँजी-निर्यात में भारी कमी आयी, और युद्ध सम्बन्धी उपकरणों और अन्य सामानों के भारी उत्पादन की आसन्न आवश्यकता पैदा हो गयी, तो इस दौरान भरतीय उद्योगों का तेज़ और भारी विकास हुआ। यानी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिर्स्पद्धा में ब्रिटेन के उलझाव का लाभ उठाकर भारतीय पूँजीपतियों ने अपनी ताक़त बढ़ाई और इसी ताक़त के अनुपात में उसकी राजनीतिक आवाज़ में भी दम आ गया। 1916 में नरम दल और गरम दल के समझौते के बाद कांग्रेस भारतीय पूँजीपति वर्ग की क्लासिकी राजनीतिक पार्टी के रूप में काम करने लगी और गाँधी क्लासिकी बुर्जुआ सिद्धान्तकार और रणनीतिकार के रूप में सामने आये।
वपफादार ब्रिटिश प्रजा से शुरू करके असहयोग आन्दोलन, नमक आन्दोलन की मंज़िलों से होते हुए 'भारत छोड़ो आन्दोलन' तक गाँधी की विचारयात्रा भारतीय पूँजीपति वर्ग की विचारयात्रा और उसके विकास की कहानी है। 'डोमीनियन स्टेटस' फ़िर 'होम रूल' और आज़ादी की माँग तक की यात्राा भारतीय पूँजीपति वर्ग के क्रमश: शक्ति-संचय के साथ ही उसके आत्मविश्वास के बढ़ते जाने का नतीजा थी।
1916 से लेकर 1947 तक भारतीय बुर्जुआ वर्ग के सभी हिस्सों का प्रतिनिधित्व करते हुए, कांग्रेस ने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष को कोई 'रैडिकल' दिशा देने के बजाय 'समझौता-दबाव-समझौता' की रणनीति अपनायी। जनाकांक्षाओं को जगाकर आन्दोलन का दबाव बनाकर वह पूँजी के विकास के अनुकूल कुछ राजनीतिक अधिकार हासिल करती थी और फ़िर समझौता करके जन पहलक़दमी को बुर्जुआ वर्ग-हितों के सीमान्तों का अतिक्रमण करने से रोक देती थी। इसके बाद फ़िर वह अगले अनुकूल अवसर का इन्तज़ार करती थी। उसने एक चालाक बौने की तरह आम जनता के जनसंघर्षों का अपने पक्ष में इस्तेमाल किया, जनपहलक़दमी और जुझारूपन को कभी भी निर्बन्धा होकर अपने नियन्त्राण से बाहर नहीं जाने दिया, सम्पूर्ण आज़ादी, रैडिकल भूमि सुधार, राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय के अधिकार, सार्विक मताधिकार आदि रैडिकल माँगों पर जनता को लामबन्द करना और फ़िर उन माँगों से पीछे हटकर विश्वासघात करना यह कांग्रेस की आम फ़ितरत थी। कांग्रेस के भीतर दक्षिणपन्थी धाड़ों के अतिरिक्त मधयमार्गी और गरमागरम आमूलगामी बदलाव और समाजवाद की बात करने वाले नेहरू और सुभाष जैसे लोग और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रैडिकल निम्न बुर्जुआ नेता भी मौजूद थे। कांग्रेस मुख्यत: गाँधी के नेतृत्व में (जब वे औपचारिक तौर पर कांग्रेस से अलग थे, तब भी) ज़रूरत के मुताबिक़ रैडिकल धाड़ों का भी इस्तेमाल (दबाव बनाने के लिए और जनसमुदाय को साथ लेने के लिए भी) करती थी और फ़िर सभी धाड़ों में सन्तुलन भी स्थापित करती थी।
इस तरह 'समझौता-दबाव-समझौता' के रास्ते राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा पर अपना वर्चस्व और नियन्त्राण बरक़रार रखते हुए कांग्रेस राजनीतिक स्वतन्त्राता हासिल करने की मंज़िल तक पहुँची। दूसरे विश्वयुद्ध के कुछ वर्ष बीतते ही यह तय हो चुका था कि मित्रा राष्ट्रों की विजय की स्थिति में भी साम्राज्यवादी विश्व के चौधारी की कुर्सी से ब्रिटिश उपनिवेशवाद को हटना पड़ेगा, उपनिवेशवाद का दौर अब ज्यादा नहीं चल सकता। अमेरिका का मानना था और ब्रिटेन के उदारवादी एवं सामाजिक जनवादी नेताओं का भी मानना था कि यदि जनक्रान्तियों और समाजवाद के हौवे से बचना है तो भारत जैसे उपनिवेशों में वहाँ के बुर्जुआ वर्ग को, अपने साम्राज्यवादी हितों की अधिकतम सम्भव हिपफाज़त के लिए भरपूर मोलतोल करके राजनीतिक सत्ता सौंप देनी चाहिए। भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए स्थिति अनुकूल थी। 1942 में 'भारत छोड़ो' का नारा देकर उसने दबाव बनाने में पूरी ताक़त झोंक दी, फ़िर 1945 से, राजनीतिक आज़ादी की दिशा सुनिश्चित जानकर, वह समझौता वार्ताओं में मशग़ूल हो गयी। 1946 में सार्विक मताधिकार की माँग से पीछे हटकर जब वह संविधान बनाने की प्रक्रिया आगे बढ़ाने की हड़बड़ी में थी, तब इसका एक कारण देशव्यापी मज़दूर उभार, तेभागा-तेलंगाना-पुनप्रा वायलार के किसान संघर्ष और नौसेना विद्रोह से बना राष्ट्रीय तूपफानी माहौल भी था, जो उस समय तक के विश्व-परिवेश में सर्वहारा क्रान्ति का हौवा पैदा कर रहा था (अब यह दीगर बात है कि विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर, बँटे हुए नेतृत्व और ढीले-ढाले ढाँचे वाली कम्युनिस्ट पार्टी इस दौर का कोई भी लाभ नहीं उठा सकी।)
1947 में देश को राजनीतिक आज़ादी तो मिली, पर साम्राज्यवादियों के आर्थिक हित (लूट के अवसर) सुरक्षित रहे। राज्यसत्ता अब भारतीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में थी, लेकिन यह राज्यसत्ता साम्राज्यवादी विश्व से आमूल विच्छेद करने के बजाय उनके भी आर्थिक हितों की गारण्टर थी। यह सीमित आज़ादी और खण्डित सम्प्रभुता वाला देश था। भारतीय पूँजीपति वर्ग को यह सुविधा मिल गयी थी कि वह कई साम्राज्यवादी ताक़तों से पूँजी और तकनीक लेते हुए मोलतोल कर सके और जनता से निचोड़े गये मुनापफे में अपनी हिस्सेदारी के लिए शतर्ें रख सके और दबाव बना सके। भारतीय पूँजीपति वर्ग अपने देश में निचोड़े गये अधिशेष का बड़ा भागीदार था, पर विश्वस्तर पर साम्राज्य- वादियों का जूनियर पार्टनर ही था। यह देशी-विदेशी पूँजी दोनों का साझा हित था कि यहाँ की खेती-बाड़ी का पूँजीवादी विकास हो और उनके माल का, पूँजी का और श्रमशक्ति का राष्ट्रीय बाज़ार निर्मित हो। लेकिन यह काम यदि क्रान्तिकारी ढंग से, एक क्रान्तिकारी झटके के साथ किया जाता, तो जनता उसी क्रान्तिकारी आवेग के साथ और आगे जाने की कोशिश करती और इससे बुर्जआ सत्ता के लिए ख़तरा पैदा हो जाता। इसलिए पूँजीपति वर्ग ने धीरे-धीरे सामन्ती भूमि सम्बन्धाों को तोड़ने का रास्ता चुना। इससे पुराने भूस्वामियों के एक बड़े हिस्से को, अपने को पूँजीवादी भूस्वामी बना लेने का मौवफा मिल गया और धानी और खाते-पीते काश्तकारों-रै)यतों के बीच से कुलकों-पफार्मरों का विकास हुआ। गाँवों में पूँजीवाद का सामाजिक आधार मज़बूत हुआ। पूँजी की कमी को दूर करने के लिए भारतीय पूँजीपति वर्ग केवल विदेश पूँजी पर ही निर्भर नहीं रहा (इससे साम्राज्यवाद पर उसकी निर्भरता बढ़ जाती), उसने समाजवाद के नाम पर, जनता के पैसे से पब्लिक सेक्टर और राजकीय पूँजीवाद का विकास किया। इस प्रक्रिया में नौकरशाह पूँजीपति वर्ग और मधयवर्ग के ऊपरी-मँझोले संस्तरों का भी तेज़ी से विकास हुआ। जब भारत के पूँजीपति वर्ग ने पर्याप्त ताक़त हासिल कर ली तो उसी पब्लिक सेक्टर के प्रतिष्ठानों को औने-पौने वफीमतों पर उसे बेच दिया गया। पर यह आगे की कहानी है, उदारीकरण- निजीकरण के दौर की। हमारा विषय क्षेत्रा यहाँ भारतीय संविधान और गणतन्त्रा के चरित्रा की चर्चा करना है।
उपरोक्त ऐतिहासिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि की चर्चा हम यह स्पष्ट करने के लिए कर रहे हैं कि संविधान शासक वर्ग की हितपोषक नीतियों की मुखर और घनीभूत अभिव्यक्ति होता है, उसकी राज्यसत्ता की बुनियादी आचार संहिता होता है। जिस बुर्जुआ वर्ग ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध कोई रैडिकल संघर्ष करने के बजाय 'समझौता-दबाव- समझौता' की रणनीति अपनाकर सत्ता हासिल की, जो औपनिवेशिक संरचना के गर्भ से पैदा हुआ था और साम्राज्यवादी युग में पला-बढ़ा था, जिसकी इतिहास-यात्राा फ्पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति'' की नहीं थी, जिसकी राजनीतिक आज़ादी भी कटी- पफटी, अधाूरी और विकृत थी, जिसने साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं किया, जिसने पूँजीवादी जनवादी भूमि सुधार के काम को रैडिकल भूमि क्रान्ति के द्वारा नहीं, बल्कि धीरे-धीरे रेंगते हुए, किश्तवार, गैर-क्रान्तिकारी ढंग से किया, वह बुर्जुआ वर्ग जनता को अति सीमित नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकार ही दे सकता है और व्यवस्था पर थोड़ा-बहुत राजनीतिक संकट पैदा होते ही वह इन सीमित जन अधिकारों को भी छीनकर निरंकुश सर्वसत्तावादी शासन की स्थापना के लिए तैयार रहेगा। ऐसा ही भारतीय पूँजीपति वर्ग का इतिहास रहा है और ऐसा ही उसका संविधान रहा है। यह संविधान भारत की जनता को वस्तुत: अतिसीमित जनवादी अधिकार देता है, बावफी बड़ी-बड़ी बातों की लफ़्रपफाज़ी बहुत करता है। इसीलिए कापफी मोटा है।
जिन देशों में पूँजीपति वर्ग क्रान्ति करके सत्ता में आया, उनकी स्थिति से एकदम अलग, यहाँ का पूँजीपति वर्ग अपनी आर्थिक ताक़त बढ़ते जाने और राजनीतिक आन्दोलन को क्रमश: (दबाव का पहलू बढ़ाते हुए) आगे बढ़ाते हुए कुछ विधायी (लेजिस्लेटिव यानी विधान बनाने सम्बन्ध्ी) अधिकारों और कुछ कार्यकारी (एक्ज़ीक्यूटिव या शासन-प्रशासन में भागीदारी विषयक) अधिकारों की माँग उठाता रहा और वफानूनी-विधायी दायरे में यह लड़ाई-लड़ता रहा। हर बार वह जनान्दोलनों के दबाव का इस्तेमाल करता रहा और भारतीय दीवानी कचहरियों के घुटे हुए मुक़दमेबाज़ों की तरह अपने मामले की पैरवी करता रहा। यह काम उसकी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने बड़ी कुशलता के साथ किया और इस तरह कई औपनिवेशिक वफानूनों के ज़रिये होते हुए वह 1935 के 'गवर्नवमेण्ट ऑपफ इण्डिया ऐक्ट' और फ़िर 1946 में संविधान सभा बनाकर संविधान बनाने की प्रक्रिया तक पहुँचा।
1920 तक, औपनिवेशिक भारत की विधान परिषदों को वस्तुत: कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। इनकी हैसियत वायसराय की सलाहकार परिषद से अधिक नहीं होती थी। 1857 के महान जनविद्रोह के बाद, ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग ने, औपनिवेशिक प्रशासन सीधो ब्रिटिश संसद और सरकार के प्रत्यक्ष नियन्त्राण में आने के बाद, पहला काम पफौजी सुधारों का किया जिसका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि भारतीय सिपाहियों पर बेहतर नियन्त्राण के लिए भारतीय सामन्ती अभिजातों और उन्हीं के बीच से आये शहरी, शिक्षित मधयवर्गीय कुलीनों को पफौज की अपफसरी में हिस्सा मिले (और केवल उन्हें ही मिले, आम भारतीय को नहीं) दूसरा प्रशासनिक कदम था 1861 का इण्डिया कौंसिल ऐक्ट, जिसके तहत वायसराय, तीनों (बंगाल, मद्रास और बम्बई) प्रेसिडेंसियों के गवर्नरों तथा उत्तार-पश्चिम प्रान्त और पंजाब के लेफ्रिटनेण्ट गवर्नरों के अधीन विधान परिषदें वफायम की गयी, जो उन्हें सलाह दे सकती थीं। इनमें से आधो सदस्य वे होते थे, जो सिविल सर्विस में नहीं थे। ये प्रतिनिधि सामन्तों और वाणिज्य-व्यापार से जुड़े शहरी अभिजनों के बीच से चुनकर आते थे। हाउस ऑपफ कॉमन्स में भारत मन्त्राी सर चार्ल्स वुड ने स्पष्ट कर दिया कि इस वफानून का उद्देश्य उच्चपदस्थ और अभिजात भारतीयों को ब्रिटिश शासन का पक्षधार बनाये रखना और औपनिवेशिक शासन को मज़बूती प्रदान करना था। उल्लेखनीय है कि लेजिस्लेटिव कांउसिलों (विधायी परिषदों) के साथ-साथ वायसराय की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिलों (कार्यकारी परिषदों) का गठन हुआ तथा तीनों प्रेसिडेंसियों और उत्तार पश्चिम प्रान्त में हाई कोर्टों की स्थापना की गयी।
फ़िर आया 1892 का इण्डियन काउंसिल ऐक्ट, जिसमें केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानपरिषदों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी। जिनमें से कुछ का निर्वाचन नगरपालिकाओं, जिला बोर्डों आदि के ज़रिये परोक्ष चुनाव द्वारा होना था। फ़िर भी परिषदों में सरकारी बहुमत था और वायसराय या गवर्नर जनरलों के निर्णयों को प्रभावित करने के मामले में उनके अधिकार नहीं के बराबर थे। इस वफानून का खाका बनाने वाले लार्ड डपफरिन और अन्य ब्रिटिश राजनीतिज्ञों-नौकरशाहों का मानना था कि इसके ज़रिये कुछ मुखर एवं प्रबुद्ध उच्च मधयवर्गीय भारतीय नेताओं को (कांग्रेस के वे तत्कालीन नेता, जिन्हें कुछ इतिहासकार आर्थिक राष्ट्रवादी नाम देते हैं) औपनिवेशिक राजनीतिक ढाँचे में शामिल कर लेने से भाप निकलती रहेगी और राजनीतिक दबाव कम होता रहेगा। इस उद्देश्य में वे सपफल भी रहे, लेकिन एकबार ऐसी परिषद के अस्तित्व में आ जाने के बाद इसकी मूल अन्दरूनी गति की एक विरोधी गति भी (गौण ही सही) इसके भीतर से पैदा हुई जो उपनिवेशवादियों की इच्छा से स्वतन्त्रा थी। 1893 से 1909 के बीच, वपफादार ब्रिटिश प्रजा के रूप में न्यायपूर्ण प्रशासन, शिक्षा आदि की माँग करने वाले तथा भारत का अकूत धन ब्रिटेन ले जाने के बजाय उसे यहीं उद्योग और वाणिज्य, शिक्षा, यातायात-परिवहन आदि में लगाने की माँग करने वाले गोखले, पफीरोज़शाह मेहता, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आदि नेता विधान परिषदों में बोलते हुए आर्थिक दोहन और भ्रष्ट निरंकुश प्रशासन के बारे में जो तथ्य देते थे, उनका पढ़े-लिखे मधयवर्ग पर मन्तव्य से अधिक राजनीतिक प्रभाव पड़ता था। तिलक और कुछ अन्य गरम दली नेताओं ने भी विधान परिषदों में हिस्सा लिया। उस समय तक नौरोजी, गोखले और तिलक कनाडा और आस्ट्रेलिया की तरह स्वशासित उपनिवेशों की तर्ज पर भारत में स्वशासन की माँग रख रहे थे। बहरहाल, उस दौर की केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान परिषदें वफानूनी तौर पर तो एकदम अधिकारविहीन थीं, लेकिन नवजात भारतीय बुर्जुआ वर्ग की रियायतों की माँग और मधयवर्ग के मरियल नवजात राष्ट्रवाद को उन मंचों पर अभिव्यक्त होने का अवसर ज़रूर मिला।
औपनिवेशिक काल के संवैधानिक-वैधिक इतिहास का अगला मुवफाम था, मॉरले-मिण्टो सुधार और 1909 का 'इण्डियन काउंसिल ऐक्ट।' इस समय की राजनीतिक पृष्ठभूमि को (जिसकी संक्षिप्त चर्चा ऊपर की जा चुकी है)। बाल-लाल-पाल जैसे गरम दलीय नेताओं और अजीत सिंह आदि के प्रभाव से (पूर्ण आज़ादी की माँग न रखते हुए भी) देश के विभिन्न हिस्सों में जनान्दोलन उठने लगे थे। मधयवर्गीय क्रान्तिकारी आतंकवाद और मज़दूरों-किसानों के पहले की अपेक्षा अधिक संगठित आन्दोलन की शुरुआत हो चुकी थी। मधयवर्ग का विस्तार होने के साथ ही, उसके निचले संस्तरों को राष्ट्रवादी विचार प्रभावित करने लगे थे। (विशेषकर देशी भाषाओं के पत्रा-पत्रिाकाओं की इसमें विशेष भूमिका थी।) बंग-भंग के बाद सत्ता एक उग्र जनान्दोलन की साक्षी हो चुकी थी।
तत्कालीन वायसराय मिण्टो और भारत मंत्राी मॉरले के संवैधानिक सुधारों और उनकी रोशनी में बने 1909 के 'इण्डियन काउंसिल ऐक्ट' का औपनिवेशिक भारत के इतिहास में एक विशेष महत्व है। राजनीतिक अशान्ति से निपटने के लिए मॉरले और मिण्टो ने ऐसी नीतियाँ तय की जो कमोबेश 1947 तक औपनिवेशिक शासन का मानक बनी रहीं। इन नीतियों के तीन प्रमुख अंग थे 'दमन और आतंक', 'नरम दल को पक्ष में लेने के लिए रियायतें' तथा 'पूफट डालो और राज करो' की नीति। 1910 में लागू 'इण्डियन काउंसिल ऐक्ट' के मुताबिक केन्द्रीय और प्रान्तीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या बढ़ाकर कुल सदस्य संख्या की आधी कर दी गयी। लेकिन इसके साथ ही, बड़े शातिराना ढंग से निर्वाचन क्षेत्राों का बँटवारा जातीय और धार्मिक आधार पर करके साम्प्रादायिकता की राजनीति की ज़मीन तैयार की गयी। यह एक अलग कहानी है कि आगे चलकर किस प्रकार अपने संकीर्ण वर्ग-स्वार्थ के चलते भारतीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि साम्प्रदायिक राजनीति और देश-विभाजन के औपनिवेशिक कुचक्र को न केवल रोकने में विपफल रहे, बल्कि कई मुकामों पर स्वयं इस प्रक्रिया में सहायक बने गये और अन्तत: विभाजन के निर्णय को स्वीकार किया। 1909 के वफानून के तहत केन्द्रीय काउंसिल के 68 प्रतिनिधियों में 36 सरकारी अधिकारी और 5 गैरसरकारी व्यक्ति नामांकित किये जाते थे। 27 निर्वाचित प्रतिनिधियों में से 6 का चुनाव बड़े ज़मीन्दार और दो का अंग्रेज़ पूँजीपति करते थे। शेष 19 सीटें सामान्य और मुस्लिम निर्वाचक मण्डलों में बँटी थीं, जिसमें से मुस्लिम मतदाताओं को तो प्रत्यक्ष मताधिकार प्राप्त था, लेकिन सामान्य श्रेणी के सीटों पर परोक्ष चुनाव, दो-तीन चरणों में होते थे। तुर्रा यह कि इस तरह से बनी इन विधान परिषदों की हैसियत भी वायसराय और उच्च प्रशासकों के पफैसलों में हस्तक्षेप करने की नहीं बनती थी। प्रान्तीय विधान परिषदों की भी यही स्थिति थी। इस वफानून का मुख्य लक्ष्य सम्पत्तिाशाली वर्गों में औपनिवेशिक शासन का आधार व्यापक बनाना था और साथ ही साम्प्रदायिक जातिगत आधार पर जनसमुदाय को बाँटना था।
औपनिवेशिक 'संवैधानिक प्रयोगों में 1909 के इण्डियन काउंसिल ऐक्ट की उम्र सबसे कम थी। 9 वर्षों बाद ही, 1919 में मॉण्टेग्यू-चेम्सपफोर्ड रिपोर्ट ने इसे पूरी तरह से बदल दिया। इस रिपोर्ट के आधार पर बना गवर्नमेण्ट ऑपफ इण्डियन ऐक्ट 1919 में लागू हुआ। यह वफानून बनने के समय की राजनीति आर्थिक पृष्ठभूमि की चर्चा हम कर चुके हैं। महायुद्ध के दौरान अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाकर भारतीय पूँजीपति वर्ग ज्यादा दबाव बनाने और ज्यादा माँग करने की स्थिति में आ चुका था। तिलक के होम रूल आन्दोलन , शहरी मधय वर्ग के आन्दोलन, किसानों-मज़दूरों के बढ़ते आन्दोलन, क्रान्तिकारी आतंकवाद और विश्वयुद्ध के दौरान सशस्त्रा विद्रोह की तीन विपफल कोशिशों, गदर पार्टी की भूमिका और अक्टूबर 1917 की रूसी क्रान्ति के राष्ट्रीय आन्दोलन, मज़दूर वर्ग और बुद्धिजीवियों पर पड़े प्रभाव को एकसाथ मिलाकर देखें तो मॉण्टेग्यू-चेम्सपफोर्ड सुधार और 1919 के 'गवर्नमेण्ट ऑपफ इण्डिया ऐक्ट' की ज़रूरत, चरित्रा और लक्ष्य को आसानी से समझा जा सकता है। नये गृहसचिव मॉण्टेग्यू ने हाउस ऑपफ कॉमन्स में घोषणा की कि प्रस्तावित वफानून का लक्ष्य है भारतीय प्रशासन में भारतीय जनता को भागीदार बनाना और स्वशासन की विभिन्न संस्थाओं का क्रमिक विकास करना जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़ी कोई उत्तारदायी सरकार स्थापित की जा सके। वास्तव में, इसका लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य से नाभिनालबद्ध सामन्तों के अतिरिक्त भारतीय बुर्जुआ वर्ग को भी शासन में कुछ रस्मी भागीदारी देना तथा जनान्दोलन पर पानी के छींटे मारना था। 1919 के ऐक्ट ने केन्द्र में दो सदस्यों की प्रणाली (काउंसिल ऑपफ स्टेट और लेजिस्लेटिव असेम्बली की प्रणाली) स्थापित की, जिनमें निर्वाचित प्रतिनिधियों का बहुमत तो था, लेकिन मन्त्रिायों पर उसका कोई नियंत्राण नहीं था और वायसराय को वीटो का अधिकार भी था। यही स्थिति प्रान्तों की विधान परिषदों, मन्त्रिायों और गवर्नरों की थी। नये वफानून ने न केवल धार्मिक-जातिगत आधार पर पृथक् निर्वाचक मण्डलों को बनाये रखा, बल्कि उन्हें कापफी बढ़ा भी दिया। निर्वाचक मण्डलों की संख्या प्रान्तों में बढ़कर 55 लाख और केन्द्रीय सदनों के लिए 15 लाख हो गयी। यह देश की वयस्क जनसंख्या के मुश्किल से एक से तीन प्रतिशत (ज्यादातर ऊपरी, कुलीन हिस्से को) भाग को ही अपने दायरे में लेता था। इतनी रियायतों से न तो भारतीय बुर्जुआ वर्ग सन्तुष्ट था, न ही जनभावनाओं के लिए ये 'सेफ़्रटीवॉल्व' या 'कुशन' का ही काम कर पायीं। इसका प्रमाण था 1919-22 के दौरान का प्रचण्ड साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन जिसकी कमान जब बुर्जुआ वर्ग और उसकी पार्टी कांग्रेस के हाथ से निकलती दीखी, 'समझौता-दबाव- समझौता' की रणनीति में दबाव का पहलू जब बुर्जुआ सीमाओं को लाँघने का ख़तरा पैदा करने लगा, तो गाँधी ने चौरीचौरा काण्ड के बहाने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया।
1922-27 का दौर, असहयोग आन्दोलन की वापसी से पैदा हुई निराशा और कांग्रेस के बुर्जुआ राष्ट्रवादी नेतृत्व से जनसमुदाय के मोहभंग के कारण, बुर्जुआ राष्ट्रवादी राजनीति के भीतर ठहराव और पफूट का दौर था। स्वराज पार्टी वाले कौंसिलों में भागीदारी कर रहे थे। अपरिवर्तनवादी उनका विरोधा कर रहे थे। गाँधी हरिजन उत्थान आदि रचनात्मक कार्यों में लगे थे। इससे पैदा हुई रिक्तता में, एक ओर मुस्लिम साम्प्रदियकता और हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति तेज़ी से पाँव पसार रही थी, दूसरी ओर क्रान्तिकारी आतंकवाद (जिसका बड़ा हिस्सा कम्युनिज्म की ओर आकृष्ट हो रहा था), कम्युनिस्ट पार्टी और मज़दूर किसान पार्टियों की राजनीति, मज़दूर आन्दोलन, किसान आन्दोलन और युवा आन्दोलन रूप में नयी शक्तियाँ राजनीतिक रंगमंच पर प्रभावी हो रही थीं। यह प्रक्रिया 1927 के बाद के वर्षों में भी तेज़ी से आगे बढ़ी। 1928 में भारत में प्रशासन के तरीकों के सुझाव पेश करने के लिए नियुक्त साइमन कमीशन जब भारत आया तो कांग्रेसी, स्वराजियों, क्रान्तिकारियों, कम्युनिस्टों सभी ने उसका विरोधा किया। साइमन के बहिष्कार और बारदोली सत्याग्रह से गाँधी और कांग्रेस की प्रतिष्ठा फ़िर से बहाल हो गयी। 1928 में मोतीलाल नेहरू की अधयक्षता में बनी संविधान समिति ने औपनिवेशिक स्वराज्य का प्रस्ताव रखा। कांग्रेस के रैडिकल धाड़े ने (जो मुख्यत: रैडिकल बुर्जुआ और निम्न बुर्जुआ हिस्सा था) पूर्ण स्वराज्य की माँग को आगे बढ़ाया। गाँधी की अवस्थिति बीच की थी, सन्तुलनकारी थी और वही बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि अवस्थिति थी। कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन द्वारा पूर्ण स्वराज्य की घोषणा किये जाने के बाद भी गाँधी की भाषा यह हुआ करती थी कि यदि निधर्ाारित समय के भीतर 'डोमीनियन स्टेटस' नहीं मिल जाये तो हम पूर्ण स्वराज्य के लिए लड़ेंगे। 1930-35 के दौर में, नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, गोलमेज़ सम्मेलन, गाँधी-इरविन समझौता, पुन: सविनय अवज्ञा आन्दोलन, काउंसिल राजनीति की वापसी और कांग्रेस के भीतर फ्वाम'' और दक्षिण प्रवृत्तिायों के टकराव के दौरान गाँधी ने फ्समझौता-दबाव-समझौता'' की राजनीति का कुशलतम प्रयोग किया। सत्ता पर दबाव के लिए वे कांग्रेसी फ्वाम धाडे'' क़ा इस्तेमाल करने के साथ ही उग्र जनान्दोलनों के बेकाबू हो जाने का भी भय दिखलाते थे, वर्ग संघर्ष का भी भय दिखलाते थे और कांग्रेस के भीतर के निम्न बुर्जुआ रैडिकल तत्वों को नियन्त्रिात करने के लिए नरमपंथी- दक्षिणपंथी धाड़े का इस्तेमाल करते थे।
1935 का गवर्नमेण्ट ऑपफ इण्डिया ऐक्ट भारतीय बुर्जुआ वर्ग और पूरे राष्ट्रीय आन्दोलन के दबाव के आगे शासन विधान में बदलाव करके भारतीय बुर्जुआ वर्ग को कुछ और रियायतें देने की औपनिवेशिक नीति की अभिव्यक्ति था। दूसरी ओर यह औपनिवेशिक सत्ता के सामाजिक आधारों के विस्तार की एक महत्वपूर्ण कोशिश थी। नवम्बर 1934 के काउंसिल चुनावों में केन्द्रीय विधान परिषद में कांग्रेस को आधो से अधिक मत एवं स्थान मिले थे। नये केन्द्रीय विधानमण्डल में साइमन कमीशन और गोलमेज़ सम्मेलन की सिपफारिशों पर आधारित 'गवर्नमेण्ट ऑपफ इण्डिया बिल' को किसी भी पार्टी ने समर्थन नहीं दिया, फ़िर भी अगस्त, 1935 में ब्रिटिश संसद ने इस ऐक्ट का अनुमोदन कर दिया। इस नये शासन-विधान में निर्वाचकों की संख्या को विस्तारित कर दिया गया था। अब देश की वयस्क आबादी के 11.5 प्रतिशत हिस्से को मताधिकार मिल गया था, पर इसका भी बहुलांश, ज़ाहिर है कि समाज का सम्पत्तिशाली हिस्सा ही था। धानी हिसानों और मज़दूर निर्वाचक मण्डल के प्रतिनिधियों को चुनने वाले कुछ मज़दूरों को भी मताधिकार दिया गया था। सरकारें अब उनके प्रति एक हद तक उत्तारदायी थीं, लेकिन वास्तविक सत्ता, निर्णय की वीटो पॉवर अभी भी वायसराय और गवर्नरों के ही हाथ में थी। ऐक्ट ने भारतीय पूँजीपतियों और भूस्वामियों को तथा उच्च मधयवर्ग को विशेष रियायतें दी थीं, लेकिन इसका एक दूसरा लक्ष्य आन्दोलन में पफूट डालना और पृथक निर्वाचक मण्डलों की व्यवस्था को मजबूत बनाकर साम्प्रदायिकता की राजनीति को आगे बढ़ाना भी था। राजाओं-रियासतों का प्रभाव बढ़ाकर औपनिवेशिक सत्ता के अवलम्बों को मज़बूत बनाना भी इसका एक मकसद था। केन्द्रीय विधान मण्डल में उनके प्रतिनिधियों को 1/3 और राज्य विधान परिषदों में 2/5 स्थान प्राप्त थे। इसका सबसे साज़िशाना पहलू इसके भीतर निहित देश के सम्भावित विभाजन की व्यवस्था भी थी। ऐक्ट तथाकथित फ्संघीय योजना'' के तहत राजाओं को यह तय करने की छूट देता था कि वे ब्रिटिश साम्राज्य में रहना चाहेंगे या इससे स्वतन्त्रा सम्बन्धा बनाना चाहेंगे। यह ऐक्ट 'डोमीनियन स्टेटस' तक के बारे में पूरी तरह मौन था। संयुक्त संसदीय समिति के अधयक्ष और 1936 से वायसराय के आकलन से इस ऐक्ट का मकसद एकदम सापफ हो जाता है। उनके अनुसार, ऐक्ट को ऐसा इसलिए बनाया गया था कि फ्उनकी दृष्टि में भारत में ब्रिटिश प्रभाव को बनाये रखने का वही सर्वोत्ताम उपाय था। मैं समझता हूँ कि...हमारी नीति में ...कहीं भी यह बात नहीं कि भारतीयों को नियंत्राण सौंपने की गति को अनावश्यक रूप से उस गति की तुलना में बढ़ाया जाये, जिसे, हम, दीर्घकालीक दृष्टि से भारत को साम्राज्य से जोड़े रखने के लिए सर्वोत्ताम समझते हैं।''
इस ऐक्ट को फ्गुलामी के शासन विधान' की संज्ञा देते हुए पूरे देश में इसका व्यापक विरोधा हुआ। कांग्रेस की राजनीति के दोहरे चरित्रा के समझने के लिए उसके उस दौर के राजनीतिक व्यवहार को समझना जरूरी है। कांग्रेस ने 1935 के ऐक्ट का पुरज़ोर विरोधा किया। उसने सार्विक वयस्क मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के केन्द्रीय नारे की हिमायत की। आगे 1946 में संविधान के गठन के समय जो हुआ, उसमें कांग्रेस के विश्वासघात को समझने के लिए इस बात को याद रखना ज़रूरी है कि नेहरू और कांग्रेस का फ्वाम धाड़ा'' 1930 के दशक में लगातार सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के चुनाव की माँग कर रहे थे। लखनऊ और पफैज़पुर अधिवेशनों (अप्रैल-दिसम्बर 1936) में नेहरू ने इस माँग को केन्द्रीय नारा बनाने की हिमायत की थी। लखनऊ अधिवेशन में तो उन्होंने यहाँ तक कहा था कि ऐसा केवल र्फ्अ(क्रान्तिकारी स्थिति में ही हो पायेगा'' और इसके लिए कांग्रेस को एक वास्तविक 'साम्राज्यवाद विरोधी जन मोर्चा' बनाना होगा। उस दौर में बिड़ला, ठाकुरदास, वालचन्द आदि पूँजीपतियों के आपसी पत्रा व्यवहार का सुमित सरकार व अन्य कई इतिहासकारों ने अधययन करके दर्शाया है कि अग्रणी भारतीय पूँजीपतियों को नेहरू को पटरी पर रखने की महात्माजी की योग्यता पर पूरा भरोसा था। वे जानते थे कि कांग्रेस के दक्षिणपंथी तत्व नेहरू के समाजवाद की काट करते रहेंगे और गाँधी इसमें सन्तुलनकारी भूमिका निभाते रहेंगे। नेहरू की फ्सदाशयता'' पर और सत्ता में आने पर ''सन्तुलित'' आचरण पर भी उन्हें पूरा भरोसा था और वे यह भी जानते थे कि राष्ट्रीय आन्दोलन में किसानों-मज़दूरों और रैडिकल मधयवर्ग को साथ बनाये रखने के लिए नेहरू के रैडिकल तेवर और समाजवादी लफ्रपफाजी उनके लिए बड़े काम की चीज़ है! (क्रमश:)
आलोक रंजन
(अगले अंक में : 1946 में कैसे हुआ संविधान सभा का चुनाव? कैसे किया कांग्रेस ने ऐतिहासिक विश्वासघात? कैसे बना भारत का संविधान? अम्बेडकर की भूमिका। संविधान और वफानून व्यवस्था की अन्दरूनी हवफीक़त। भारत के बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की नंगी-काली सच्चाइयाँ...)
1 कमेंट:
yah sawidhan janwirodhi hai aur poonjipatiyon ki sewa karta hai
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