बादाम मज़दूरों की 15 दिन लम्बी ऐतिहासिक हड़ताल समाप्त
मालिक पक्ष और यूनियन के बीच समझौते के साथ ख़त्म हुआ संघर्ष
31 दिसम्बर, नई दिल्ली। पिछले 15 दिनों से जारी दिल्ली के बादाम मज़दूरों की ऐतिहासिक हड़ताल आज शाम मालिक पक्ष से हुई वार्ता के बाद समाप्त हो गई। ज्ञात हो कि यह हड़ताल 16 दिसम्बर से शुरू हुई थी और इसमें करीब 20 हज़ार मज़दूर परिवार शिरकत कर रहे थे। इसे दिल्ली के असंगठित मज़दूरों की अब तक की सबसे बड़ी और सबसे बड़ी हड़ताल कहा जा रहा था। इस वार्ता के पहले भी एक वार्ता मालिक पक्ष और मज़दूर यूनियन के बीच हुई थी, लेकिन उसमें दोनों पक्ष किसी भी नतीजे पर पहुँच पाने में सफल नहीं हुए थे। उसके बाद हड़ताल जारी रही और आज अंततः दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ।
बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में पिछले 15 दिनों से जारी इस हड़ताल में मज़दूरों ने एक 5-सूत्रीय माँगपत्रक बादाम ठेकेदारों के सामने रखा था। इनमें मुख्य तौर पर श्रम कानूनों द्वारा प्रदत्त अधिकार शामिल थे। पहले बादाम मज़दूरों को एक बोरी बादाम संसाधित करने के लिए मात्र रुपये 50 मिलते थे। इसके अतिरिक्त, उन्हें कई-कई महीने की मज़दूरी का भुगतान नहीं किया जाता था। इसके अतिरिक्त, मज़दूरों के साथ गोदामों के भीतर उनके साथ गाली-गलौच और बदसलूकी आम थी। साथ ही, बादाम से निकलने वाले छिलके को ये ठेकेदार मज़दूरों को मनमानी कीमत पर बेचते थे, जिसे ये मज़दूर खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। यूनियन के नेतृत्व में मज़दूर माँग कर रहे थे कि मज़दूरों को एक बोरी बादाम के संसाधन पर कम-से-कम 70 रुपये मिलने चाहिए और साथ ही छिलका का एक बोरा उन्हें 20 रुपये में मिलना चाहिए। साथ ही, वे माँग कर रहे थे कि उनकी मज़दूरी का भुगतान महीने के पहले सप्ताह में हो जाना चाहिए।
मालिक पक्ष पिछले 15 दिनों से मज़दूरी न बढ़ाने पर अड़ा हुआ था और कह रहा था कि पहले मज़दूर हड़ताल तोड़कर काम पर आएँ और वे 16 जनवरी के बाद मज़दूरी बढ़ाने के बारे में सोचेंगे। लेकिन मज़दूर इस पर राज़ी नहीं थे। हड़ताल के दौरान एक मालिक की महिला मज़दूरों द्वारा पिटाई, पुलिस प्रशासन द्वारा हड़ताल को डरा-धमकाकर तोड़ने के असफल प्रयासों, दलालों और बिचैलियों द्वारा हड़ताल को तोड़ने की नाकाम कोशिशों के बाद मालिक के तरकश के तीर समाप्त हो चुके थे। 29 दिसम्बर के बाद यह स्पष्ट था कि यह अब वक्त की बात है कि मालिक पक्ष कब समझौता करता है। 31 दिसम्बर की सुबह ही कुछ मालिकों ने माँगों को यूनियन से वार्ता के बगैर मान लिया और काम शुरू करा दिया। इसके कारण मालिकों के पक्ष में फूट पड़ गई। अंततः शाम 6 बजे के करीब मालिकों के प्रतिनिधियों और मज़दूरों के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता हुई और इस बात पर समझौता हुआ कि मालिक मज़दूरों को एक बोरी बादाम के संसाधन पर 60 रुपये देंगे, बादाम के छिलके को 20 रुपये में बेचेंगे और साथ ही मज़दूरों को मज़दूरी का भुगतान हर माह के पहले सप्ताह में कर देंगे।
इस समझौते के साथ मज़दूरों ने अपनी हड़ताल समाप्त की और 1 जनवरी से वे काम पर लौटेंगे। इस हड़ताल के समापन के साथ दिल्ली के असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की अब तक की विशालतम हड़ताल का समापन हुआ। बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में हज़ारों असंगठित मज़दूरों ने सिद्ध किया कि वे लड़ सकते हैं और जीत सकते हैं। जाहिर है कि मज़दूर अपनी सभी माँगों को नहीं जीत सके। लेकिन इस हड़ताल का महत्व महज़ इतना नहीं रह गया था कि मज़दूरी कितनी बढ़ती है और कितनी नहीं। एक ऐसे उद्योग में जहाँ मज़दूरों को मालिक और ठेकेदार गुलामों की तरह खटाते थे, उनकी साथ लगातार बदसलूकी की जाती थी और उन्हें इंसान तक नहीं समझा जाता था, वहाँ मज़दूरों ने एक ऐतिहासिक और जुझारू लड़ाई लड़कर इज्जत का अपना हक हासिल किया। मालिकों को पहली बार मज़दूरों की ताक़त का अहसास हुआ और उनकी यह गलतफहमी दूर हो गयी कि मज़दूर उनकी ज़्यादतियों को चुपचाप बर्दाश्त करते रहेंगे और कभी कुछ नहीं बोलेंगे। हड़ताल के अंत के दौर तक मालिक मज़दूरों के सामने हर तरह से झुकने लगे थे। इसके अतिरिक्त, न सिर्फ मालिकों को मज़ूदरों की ताक़त का अन्दाज़ा चला, बल्कि पूरे इलाके में संगठित मज़दूरों की ताक़त एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी।
इस हड़ताल की एक और उपलब्धि यह रही कि सी.पी.आई. (एम.एल.) आदि जैसी चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों को मज़दूरों ने किनारे कर दिया और बादाम मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में बिना किसी चुनावी पार्टी के सहयोग या समर्थन के अपनी लड़ाई को मुकाम तक पहुँचाया। तमाम ट्रेड यूनियनों के दल्लालों को मज़दूरों ने सिरे से नकार दिया। इस पूरी लड़ाई में चुनावी पार्टियों, आर.एस.एस., पुलिस प्रशासन समेत सभी प्रमुख ताक़तों के असली चेहरे को मज़दूरों ने पहचाना और यह समझा कि उन्हें अपनी लड़ाई को अपने बूते लड़ना है।
बादाम मज़दूर यूनियन के संयोजक आशीष कुमार ने कहा कि यह लड़ाई अन्त नहीं बल्कि एक शुरुआत है। आगे भी बादाम मज़दूर अपनी यूनियन के झण्डे तले अपने ऐेसे तमाम अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहेंगे जो अभी भी उनकी पहुँच से दूर हैं। आशीष ने कहा कि जब तक यह पूरा उद्योग अनौपचारिक और अवैध रूप से काम करता रहेगा और किसी कानून के दायरे में नहीं आएगा तब तक मज़दूरों की कानूनी लड़ाई का पहलू कमज़ोर रहेगा। यूनियन का अगला लक्ष्य है कि इस पूरे उद्योग को औपचारिक ढाँचा देने के लिए सरकार के श्रम विभाग से मिला जाय।
बिगुल मज़दूर अखबार के संवाददाता और दिल्ली के श्रमिकों पर शोध कर रहे अभिनव ने कहा कि यह संघर्ष आने वाले कई दशकों तक दिल्ली के मज़दूरों के जेहन में ताज़ा रहेगा। यह अपने किस्म का पहला संघर्ष था और इस संघर्ष ने इस मिथक को ध्वस्त कर दिया कि असंगठित मज़दूर संगठित होकर लड़ नहीं सकते। इलाकाई पैमाने पर मज़दूरों के संगठन खड़े करके असंगठित और बिखरे हुए मज़दूरों की लड़ाई को भी एक संगठित और विशाल रूप दिया जा सकता है। निश्चित रूप से इसकी अपनी चुनौतियाँ और मुश्किलें हैं लेकिन इस हड़ताल ने साबित किया है कि इन मुश्किलों को हल किया जा सकता है।
2 कमेंट:
लेकिन यह तो कोई जीत नहीं हुई. मजदूर क्या केवल 10 रुपया बढ़ने के लिए लड़ रहे थे. मजदूरों के संघर्ष की कीमत पर हुआ यह समझौता मजदूर हित में नहीं है.
majdoor isi tarah ki chote 2 sangharson se sikhnge
yeh to saruat hai
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