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30.4.11

अण्णा हज़ारे जी के नाम कुछ मज़दूर कार्यकर्ताओं की खुली चिट्ठी


मिले,
श्री अण्णा हज़ारे
ग्राम एवं पोस्ट रालेगाँव सिद्धि
तालुका पारनेर, ज़िला अहमदनगर
महाराष्ट्र

आदरणीय अण्णा हज़ारे जी,

हम आपके सामाजिक सरोकारों और जनजीवन से जुड़ी चिन्ताओं की इज़्ज़त करते हैं। आपकी भ्रष्टाचार- विरोधी मुहिम से सारा देश परिचित है। राजनेताओं नौकरशाहों- जजों के भ्रष्टाचार पर नियंत्राण के लिए जन लोकपाल क़ानून बनाने की आपकी माँग सरकार मान चुकी है और अब सरकार और ''सिविल सोसायटी'' के प्रतिनिधियों की साझा ड्राफ्टिंग कमेटी विधेयक का मसौदा तैयार करने में जुट गयी है। भ्रष्टाचार के खिलापफ़ अपनी मुहिम को आप देश स्तर पर फैलाने और आगे बढ़ाने की घोषणा कर चुके हैं। चुने हुए जन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के प्रावधान की भी आपने माँग की है। पढ़े-लिखे लोगों की अच्छी-खासी आबादी आपकी मुहिम को ''एक नयी क्रान्ति'' का आग़ाज़ तक बता रही है। कुछ नेता और बुद्धिजीवी शंकाएँ और विवाद भी उठा रहे हैं। पर हम लोगों के मन में कुछ और सवाल उमड़-घुमड़ रहे हैं। इन सवालों की ज़मीन आम मेहनतकशों की ज़िन्दगी की समस्याएँ हैं। आप लोकतांत्रिक परम्परा और पद्धति के पक्षधर व्यक्ति हैं। हमारा भरोसा है कि हमारे सवालों को यूँ ही दरकिनार नहीं कर देंगे और स्वस्थ और खुले ढंग से इन पर एक देशव्यापी बहस सम्भव हो सकेगी।
भ्रष्टाचार का सामना हम आम ग़रीब लोग अपनी रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी में सबसे अधिक करते हैं। कदम-कदम पर छोटे से छोटे काम के लिए जो रिश्वत हमें देनी पड़ती है, वह रकम खाते-पीते लोगों को तो कम लगती है, मगर हमारा जीना मुहाल कर देती है। भ्रष्टाचार केवल कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी ही नहीं है। सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो यह है कि करोड़ों मज़दूरों को जो थोड़े बहुत हक़-हकू़क श्रम क़ानूनों के रूप में मिले हुए हैं, वे भी फाइलों में सीमित रह जाते हैं और अब उन्हें भी ज़्यादा से ज़्यादा बेमतलब बनाया जा रहा है। अदालतों से ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता। पूँजी की मार से छोटे किसान जगह-ज़मीन से उजाड़कर तबाह कर दिये जाते हैं और यह सब कुछ एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है! जिस देश में 40 प्रतिशत बच्चे और 70 प्रतिशत माँएँ कुपोषित हों, 40 प्रतिशत लोगों का बाँडी मास इण्डेक्स सामान्य से नीचे हो, 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हों और 18 करोड़ बेघर हों, वहाँ सत्ता सँभालने के 64 वर्षों बाद भी सरकार यदि जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी नहीं उठाती (उल्टे उन्हें घोषित तौर पर बाज़ार की शक्तियों के हवाल कर देती हो), तो इससे बड़ा विधिसम्मत सरकारी भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा? इससे अधिक अमानवीय ''कानूनी'' भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा कि मानव विकास सूचकांक में जो देश दुनिया के निर्धनतम देशों की पंगत में (उप सहारा के देशों, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि के साथ) बैठा हो, जहाँ 70 प्रतिशत से अधिक आबादी को शौचालय, साफ पानी, सुचारु परिवहन, स्वास्थ्य सेवा तक नसीब न हो, वहाँ संविधान में ''समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य'' होने का उल्लेख होने के बावजूद सरकार ने इन सभी ज़िम्मेदारियों से हाथ खींच लिया हो और समाज से उगाही गयी सारी पूँजी का निवेश पूँजीपति 10 फीसदी आबादी के लिए आलीशान महल, कारों बाइकों-फ्रिज-ए.सी. आदि की असंख्य किस्में, लकदक शाँपिंग माँल और मल्टीप्लेक्स आदि बनाने में कर रहे हों तथा करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हो।
रिश्वतखोरी, कमीशनखोरी, टैक्स चोरी, मिलावटखोरी, भाई-भतीजावाद भला कौन चाहेगा? यदि ये न होते तो अच्छा ही होता। लेकिन अण्णाजी, माफ़ करें, हमारा सवाल तो यह है कि भ्रष्टाचार मात्र इसी का नाम नहीं है। भ्रष्टाचार और अनैतिकता का फैसला क़ानूनीं-गैरक़ानूनी होने से नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक आचरण के व्यापक जनहित के अनुकूल या प्रतिकूल होने से तय होता है। थोड़ी देर के लिए मान लें कि एकदम विधिसम्मत तरीक़े से एक कारख़ानेदार किसी चीज़ के उत्पादन और आपूर्ति का ठेका लेता है और श्रम क़ानूनों का पालन करते हुए मज़दूर की श्रम शक्ति आठ या दस घण्टे के लिए खरीदता है, उतने मूल्य का उत्पादन तो मज़दूर दो या तीन घण्टे में ही कर देता है, शेष मूल्य जो वह पैदा करता है उसमें से कच्चे माल की क़ीमत, मरम्मत-मेन्टेनेंस आदि का खर्च निकालने के बाद बची रकम पूँजीपति का मुनाफ़ा होता है जिसका निवेश करके वह नये कारख़ाने खोलता है, नयी मशीनें लाता है। मज़दूर जो पैदा करता है, उस पर उसका कोई नियंत्राण नहीं होता। पूँजीपति उसे उतना ही देता है जितने में वह ज़िन्दा रहकर, न्यूनतम ज़रूरतें पूरा करके काम करता रह सके। पूँजीवाद में उत्पादन सामाजिक उपभोग के हिसाब से नहीं बल्कि मुनापफ़े के हिसाब से निर्देशित होता है। पूँजीपति कई होते हैं । मुनाफ़े की प्रतिस्पर्द्धा गलाकाटू होती है। बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगलकर डकार भी नहीं लेती। मुनापफ़ा बढ़ाने की होड़ में पूँजीपति मज़दूरों से ज्यादा से ज्यादा काम कराने की तरक़ीबें निकालते हुए मज़दूरों द्वारा हासिल क़ानूनी हक़ों को भी हड़प लेते हैं, जबरिया सिंगल रेट ओवरटाइम कराते हैं। सुरक्षा उपकरण, स्वास्थ्य मुआवज़े आदि मदों के ख़र्चों को मार लेते हैं, फिर टैक्स भी चुरा लेते हैं तथा नेताओं-अपफसरों को रिश्वत भी खिलाते हैं। मतलब यह कि पूँजीवादी लूट-खसोट की होड़ जब क़ानूनी दायरे में होती है तब भी वह आम मेहनक़शों के हक़ मारती है और फिर यह होड़ क़नून की चौहद्दी को लाँघ जाती है तो रिश्वतखोरी कमीशनखोरी के रूप में समाज में काला धन का अम्बार इकट्ठा करने लगती है और विलासी नेताओें-अफसरों-दलालों का बिचौलिया तबका भी चाँदी काटने लगता है। थोड़ा और आगे बढ़ें। मुनाफ़े की रफ्ऱतार बढ़ाने के लिए पूँजीपति फिर उन्नत मशीनें और नयी तकनीकें लाता है, कम मज़दूरों से ज्यादा उत्पादन लेता है, बाक़ी मज़दूरों को बाहर निकाल देता है। मज़दूरों की बेरोजगारी बढ़ने से उनकी मोलतोल की ताकत घट जाती है और वे और अधिक कम मज़दूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। ब्लैकमेलिंग का यह काम भी एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है। पूँजी बटोरकर प्रतिस्पर्द्धी को पीछे छोड़ने के लिए पूँजीपति बैंक से जनता की बचत उधार लेते हैं, एक से दस बनाते हैं और उसका एक अत्यंत छोटा हिस्सा ब्याज के रूप में वापस करते हैं। यह धोखाधड़ी भी क़ानूनी ढंग से होती है। फिर वे शेयर बाज़ार से पूँजी बटोरने उतरते हैं, पहले शेयर का का़नूनी खेल होता है फिर वही तर्क नियंत्रण से बाहर जाकर ग़ैरक़ानूनी सट्टेबाज़ी को परवान चढ़ाता है। पूँजी बढ़ाने की यह होड़ ही हवाला कारोबार, ग़ैरक़ानूनी कारख़ानों और तमाम ग़ैरक़ानूनी कारोबारों को जन्म देती है और फिर अपराध को भी एक संगठित कारोबार बना देती है। माल बेचने के लिए अरबों-खरबों खर्च करके विज्ञापनों द्वारा जो भ्रामक प्रचार किये जाते हैं, वह भी क़ानूनी ठगी नहीं तो भला और क्या है?
पूँजीवाद की समूची कार्यप्रणाली का विवरण न तो यहाँ सम्भव है, न ही हमारा यह उद्देश्य है। पहली बात हम कहना यह चाहते हैं कि जिस पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन सामाजिक उपभोग को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर होता है, वह यदि एकदम क़ानूनी ढंग से काम करे तो भी अपने आप में ही वह भ्रष्टाचार और अनाचार है। जो पूँजीवाद अपनी स्वतन्त्र आंतरिक गति से धनी-ग़रीब की खाई बढ़ाता रहता है, जिसमें समाज की समस्त सम्पदा पैदा करने वाली बहुसंख्यक श्रमिक आबादी की न्यूनतम ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती, वह स्वयं एक भ्रष्टाचार है। जिस पूँजीवादी लोकतन्त्रा में उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे को चलाने में सामूहिक उत्पादकों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती और निर्णय की ताकत वस्तुतः उनके हाथों में अंशमात्रा भी नहीं होती, वह एक ‘फ्राँड’  है। जो पूँजीवादी राजनीतिक तन्त्र नागरिकों को काम करने का मूलभूत अधिकार नहीं देता और सम्पत्ति को मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा देता है, वह स्वयं में एक भ्रष्टाचार है! हम मेहनक़श अपने अनुभव से जानते हैं कि पूँजीवाद यदि भ्रष्टाचार मुक्त हो जाये, तो भी मज़दूरों को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति नहीं मिल सकती।
दूसरी बात जो हम कहना चाहते हैं, वह यह कि भ्रष्टाचार की मात्रा घटती-बढ़ती रह सकती है, लेकिन पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो सकता! भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद एक मिथक है, एक मध्यवर्गीय आदर्शवादी यूटोपिया है। यदि किसी सदाचारी पूँजीवाद का अस्तित्व भी होता तो वह आम मेहनक़श जन के लिए, और उसकी निगाहों में,  अनाचारी-अत्याचारी-भ्रष्टाचारी ही होता है। हर पूँजीवादी लोकतन्त्र में सरकारें मूलतः पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेंटी की भूमिका निभाती हैं। संसद बहसबाज़ी का अड्डा होती है जहाँ पूँजीपतियों के हित में और जनदबाव को हल्का बनाकर लोकतन्त्र का नाटक जारी रखने के लिए वही क़ानून बनाये जाते हैं जो (सदन में बहुमत के बूते) सरकार चाहती है और पूँजीवाद के सिद्धांतकार जिनका खाका बनाते हैं। राज्यसत्ता का सैन्यबल हर जन विद्रोह को कुचलने को तैयार रहता है, साथ ही वह वैश्विक-क्षेत्रीय चौध्रराहट के मसलों को युद्ध के जरिए हल करने के लिए भी सन्नद्ध रहता है। न्यायपालिका न्याय की नौटंकी करते हुए पूँजीपतियों के हित में बने क़ानूनों के अमल को सुनिश्चित करती है, मूलतः सम्पत्ति के अधिकार और सम्पत्तिवानों के विशेषाधिकारों की हिफ़ाजत का काम करती है तथा शासक वर्गों के आपसी झगड़ों में मध्यस्थ की भूमिका निभाती है। इन सभी कामों में लगे हुए लोग पूँजीपतियों के वफ़ादार सेवक होते हैं और सेवा के बदले उन्हें ऊँचे वेतनभत्तों और विशेषाधिकारों का मेवा मिलता है। यदि वे सिर्फ़ इस मेवे पर ही निर्भर रहें तो आम लोगों के मुक़ाबले उनका जीवन‘स्वर्ग का जीन’ होता है। लेकिन व्यवस्था के भीतर पैठने के बाद वे समझ जाते हैं कि वे लुटेरों के सेवक मात्रा हैं। पूँजीवादी शासन-प्रशासन की विराट मशीनरी में यदि कोई सदाचारी अपफ़सर हो भी तो वह कुछ व्यक्तियों का कल्याण भले कर सकता है, ‘सिस्टम’ को ज़रा भी नहीं बदल सकता। उसकी बिसात महज एक कल-पुर्जे की होती है और यह समझने के साथ ही आदर्शवादियों का आदर्शवाद हवा हो जाता है। वे भी ''रास्ते पर आ जाते हैं''। लुटेरों के सेवकों से नैतिकता, सदाचार और देशभक्ति की उम्मीद नहीं की जा सकती। तमाम सम्पत्तिधारी परजीवियों के हितों की ''कानूनी'' ढंग से रक्षा करते हुए, उन्हें जहाँ भी मौक़ा मिलता है, अपनी भी ज़ेब गर्म कर लेते हैं। समूचे पूँजीपति वर्ग के प्रबंधकों और सेवकों के समूह के कुछ लोग, पूँजीपति घरानों की आपसी होड़ का लाभ उठाकर इस या उस घराने से रिश्वत, दलाली और कमीशन की मोटी रकम ऐंठते ही रहते हैं। पूँजीपतियों की यह आपसी होड़ जब उग्र और अनियंत्रित हो कर पूरी व्यवस्था की पोल खोलने लगती है, और बदहाल जनता का क्रोध फूटने का एक बहाना मिलने लगता है तथा ''लूट के लिए होड़ के खेल'' के नियमों को ताक पर रख दिया जाता है तो व्यवस्था-बहाली और ''डैमेज कंट्रोल'' के लिए पूँजीपतियों की संस्थाएँ (फिक्की, एसोचैम, सी.आई.आई.आदि), पूँजीवादी सिद्धांतकार, समाज सुधारक आदि चिन्तित हो उठते हैं। जो पूँजीपति स्वयं अपने हित के लिए कमीशन देते हैं, वे भी अलग-अलग और समूह में बढ़ते भ्रष्टचार पर चिन्ता जाहिर करते हैं, सरकार की गिरती साख को बहाल करने के लिए सामूहिक तौर पर चिन्ता जाहिर करते हैं और पूँजीवाद को ''भ्रष्टाचार मुक्त'' बनाने की मुहिम में लगी स्वयंसेवी संस्थाओं की उदारतापूर्वक फण्डिंग करते हैं। कभी कोई नेता, कभी कोई अफसर, तो कभी कोई समाजसेवी भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का मसीहा और‘ह्विसल ब्लोअर’ बनकर सामने आता है जो पूँजीवादी शोषण- उत्पीड़न की व्यवस्था का विकल्प सुझाने के बजाय भ्रष्टाचार को ही सारी बुराई की जड़ बताने लगता है और मौजूद ढाँचे में कुछ सुधारमूलक पैबंदसाज़ी की सलाह देते हुए जनता को दिग्भ्रमित कर देता है। इन ‘ह्विसल ब्लोअर’ की नीयत यदि एकदम सही भी हो तो वे तरह-तरह के डिटर्जेण्ट लेकर इस व्यवस्था के दामन पर लगे धब्‍बों को धोने की ही भूमिका अदा करते है। वे भ्रम का कुहासा छोड़ने वाली चिमनी, जनाक्रोश के दबाव को कम करने वाले ‘सेफ्टीवाँल्व’ और व्यवस्था के पतन की सरपट ढलान पर बने ‘स्पीड ब्रेकर’ की ही भूमिका निभाते हैं।
अण्णाजी, हमें आपकी नीयत पर भी शक़ नहीं है। पर व्यवस्था की कार्यप्रणाली, भ्रष्टाचार के मूल कारण और समस्या के समाधान की आपकी समझदारी पर हमारे सवाल हैं। भ्रष्टाचार पूँजीवादी समाज की सार्विक परिघटना है। जहाँ लोभ-लाभ की संस्कृति होगी, वहाँ मुनाफ़ा निचोड़ने की हवस क़ानूनी दायरों को लाँघकर खुली लूटपाट और दलाली को जन्म देती ही रहेगी। जनता को भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद नहीं चाहिए बल्कि पूँजीवाद से ही मुक्ति चाहिए। जहाँ क़ानूनी शोषण और लूट होगी, वहाँ गैरक़ानूनी शोषण और लूट भी होगी ही। काला धन सफ़ेद धन का ही सगा भाई होता है।
फ्रांसीसी उपन्यासकार बाल्ज़ाक ने यूँ ही नहीं कहा था कि हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ा होता है। दूर क्यों जायें? हम जन लोकपाल बिल की ड्राफ्रिटंग कमेटी में शामिल शान्तिभूषण-प्रशान्तभूषण का ही उदाहरण लेते हैं। हम अमर सिंह के आरोपों और उनके द्वारा प्रस्तुत सीडी के असली-फर्जी होने, स्टाँम्पचोरी जैसे आरोपों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। पर यह तो सच है कि बसपा विधायकों का दलबदल कराने को लेकर मुलायम सिंह पर चल रहे मुकदमें में शान्तिभूषण उनके वकील थे। यह तो सच है कि एक-एक पेशी के लिए शांतिभूषण 25 लाख रुपये की फीस लेते हैं। प्रशांतभूषण भी लाखों में ही लेते हैं। आपके मंच पर समर्थन देने आये राम जेठमलानी की भी यही स्थिति है। क्या शुचिता मात्रा यही है कि शान्तिभूषण जी अपनी फ़़ीस का पूरा हिसाब रखते हैं और टैक्स देते हैं। सवाल क्या यह नहीं है कि इतने मँहगे वकील कितने ग़रीबों को न्याय दिला सकते हैं ? क्या कुछ राजनीतिक क़ैदियों को ज़मानत दिला देने, कुछ जनहित याचिकाएँ दाखिल कर देने और जन लोकपाल बिल का मसौदा बनाने में भागीदार हो जाने से सारा पाप-प्रक्षालन हो गया? जिस देश में 77.5 फीसदी आबादी 20 रुपये रोज़ से कम पर जीती हो और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित है, वहाँ किसी व्यक्ति के पास 1 अरब 36 करोड़ की दौलत और आठ अचल सम्पत्तियाँ (शांतिभूषण जी की संपत्तिद्ध) क्या आपने आप में अनाचार नहीं है? प्रशांतभूषण जी और रामजेठमलानी जैसों की सम्पत्ति भी करोड़ों में है। शांतिभूषण या रामजेठमलानी जिन काँरपोरेट घरानों के मुकदमों की पैरवी पेशे के नाम पर करते हैं, वे घराने मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़कर और टैक्स चोरी करके ही अकूत धन जुटाते हैं और फिर अपने हितों की क़ानूनी हिफ़ाजत के लिए शांतिभूषण जैसे वकीलों को मोटी फीस देते हैं। बाबा रामदेव भ्रष्टाचार के विरुद्ध ऊँची आवाज़ में बोलते हैं। आपके मंच पर भी आकर समर्थन जता गये। क्या उनके ट्रस्टों द्वारा संचालित प्रतिष्ठानों में जो मज़दूर काम करते हैं, उन्हें श्रम क़ानूनों के अनुसार सारी सुविधाएँ दी जाती है? अभी दिलीप मण्डल के ब्लाँग से यह जानकारी मिली कि अरविन्द केजरीवाल की दो एन.जी.ओ संस्थाओं को टाटा घराने के ट्रस्टों से अनुदान मिलते हैं। भ्रष्टाचार की ही बात करें तो टाटा-राडिया टेप की याद दिलाना मात्र काफ़ी होगा। टाटा की जो भी सम्पदा है वह मज़दूरों से अधिशेष निचोड़कर ही संचित हुई है। जो ''सिविल सोसायटी'' भ्रष्टाचार- विरोध  की मुहिम में सबसे अधिक मुखर है, वह एक कुलीन मध्यवर्गीय सुधारवादी आन्दोलन है जिसके कर्ता-धर्ता एन.जी.ओ हैं, जिनकी फण्डिंग देशी पूँजीपतियों के ट्रस्टों के अतिरिक्त उन्हीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा स्थापित फण्डिंग एजेंसियों से होती है, जो पूरी दुनिया के कच्चे माल को लूटकर, मज़दूरों को निचोड़कर, हथियार से लेकर दवाएँ तक बेचकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं, तेल के लिए विनाशकारी युद्ध करवाती हैं, सरकारों का तख़्तापलट कराती हैं, और पर्यावरण को तबाह करती हैं। दूसरी ओर यही कम्पनियाँ मुनाफ़े की लूटमार से मचने वाली तबाही को नियंत्रित करने के लिए, जनता को दिग्भ्रमित और शांत करने के लिए, पूँजीवाद के अंतरविरोधों को विस्‍फ़ोटक होने से बचाने के लिए दान देती हैं, सामाजिक आन्दोलनों का मंच संगठित करने में पीछे से पैसा लगाती हैं, सुधारमूलक कार्यवाइयाँ करती हैं और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को समर्थन देती हैं। बिल गेट्स, वारेन बफ़ेट्स, अजीम प्रेमजी, टाटा - सभी चैरिटी करते हैं। यह आज से नहीं हो रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी से ही यही चलन है।

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19.4.11

मजदूर मांगपत्रक आंदोलन 2011


हर इंसाफ़पसन्‍द नागरिक से समर्थन की अपील

भारत की शहरी और ग्रामीण मज़दूर आबादी असहनीय और अकथनीय परेशानी और बदहाली का जीवन बिता रही है। इसमें असंगठित क्षेत्र के ग्रामीण और शहरी मज़दूरों तथा संगठित क्षेत्र के असंगठित मज़दूरों की दशा सबसे बुरी है। उदारीकरण-निजीकरण के बीस वर्षों में जो भी तरक़्क़ी हुई है, उसका फल ऊपर की 15 फ़ीसदी आबादी को ही मिला है। इस दौरान अमीर-ग़रीब के बीच की खाई भारतीय इतिहास में सबसे तेज़ रफ़्तार से बढ़ी है। तेज़ आर्थिक तरक्क़ी के इन बीस वर्षों ने मेहनतकशों को और अधिक बदहाल बना दिया है। आँकड़े इन तथ्यों के गवाह हैं। सरकारें भरोसा दिलाती रहीं और वे इन्तज़ार करते रहे, लेकिन विकास का एक क़तरा भी रिसकर मेहनतकशों की अँधेरी दुनिया तक नहीं पहुँचा।
लम्बे संघर्षों और क़ुर्बानियों की बदौलत जो क़ानूनी अधिकार मज़दूरों ने हासिल किये थे, आज उनमें से ज़्यादातर छीने जा चुके हैं। जो पुराने श्रम क़ानून (जो क़तई नाकाफ़ी हैं) काग़ज़ों पर मौजूद हैं, उनका व्यवहार में लगभग कोई मतलब नहीं रह गया है। दिखावे के लिए सरकार जो नये क़ानून बना रही है, वे ज़्यादातर प्रभावहीन और पाखण्डपूर्ण हैं या मालिकों के पक्ष में हैं। श्रम क़ानून न केवल बेहद उलझे हुए हैं, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और लम्बी है और मज़दूरों को शायद ही कभी न्याय मिल पाता है। श्रम विभाग के कार्यालयों, अधिकारियों, कर्मचारियों की संख्या ज़रूरत से काफ़ी कम है और श्रम क़ानूनों को लागू करवाने के बजाय यह विभाग प्राय: मालिकों के एजेण्ट की भूमिका निभाता है। श्रम न्यायालयों और औद्योगिक ट्रिब्यूनलों की संख्या भी काफ़ी कम है। भारत की मेहनतकश जनता के लिए संविधानप्रदत्त जीने के मूलभूत अधिकार का कोई मतलब नहीं है। नागरिक आज़ादी और लोकतान्त्रिक अधिकार उनके लिए बेमानी हैं।
देश के 90 प्रतिशत से ज़्यादा औद्योगिक और ग्रामीण मज़दूरों को न्‍यूनतम मज़दूरी, काम के घण्‍टों की उचित सीमा, ई.एस.आई.,जॉब कार्ड जैसे बुनियादी अधिकार भी हासिल नहीं हैं। नारकीय, अस्‍वास्‍थ्‍यकर और ख़तरनाक हालात में जीते और काम करते हुए वे 12-12,14-14 घण्‍टों तक खटने के बाद भी जीवन की बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते। भीषण महँगाई के इस दौर में कारख़ानों में काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर 8 घण्‍टे काम के लिए 1800 से 4500 के बीच पाते हैं। आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं में मौत या घायल होने पर मुआवज़ा तो दूर, अक्‍सर इलाज भी नहीं कराया जाता और काम से हटा भी दिया जाता है। ज़्यादातर मज़दूर ठेके, कैज़ुअल, दिहाड़ी या पीसरेट पर काम करते हैं और उनके लिए कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होता। किसी भी रूप में एकजुट या संगठित होने की कोशिश करने पर मज़दूरों को या तो सीधे निकाल दिया जाता है या फिर पुलिस और प्रशासन के पूरे सहयोग से दमन-उत्‍पीड़न-आतंक का शिकार बनाया जाता है।
इन हालात में, भारत के मज़दूर, भारत की संसद और सरकार को बता देना चाहते हैं कि उन्‍हें यह अन्‍धेरगर्दी, यह अनाचार-अत्याचार अब और अधिक बर्दाश्त नहीं। मज़दूर वर्ग को हर क़ीमत पर हक़ और इंसाफ़ चाहिए और इसके लिए एक लम्बी मुहिम की शुरुआत कर दी गयी है। इसके पहले क़दम के तौर पर, संसद में बैठे जन-प्रतिनिधियों और शासन चलाने वाली सरकार के सामने, सम्मानपूर्वक जीने के लिए,अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करते हुए जीने के लिए, अपने न्यायसंगत और लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए, और इस देश की तमाम तरक़्क़ी में अपना वाजिब हक़ पाने के लिए मज़दूरों का एक माँग-पत्रक प्रस्तुत किया जा रहा है। इस माँग-पत्रक में कुल 26 श्रेणी की माँगें हैं जोभारत के मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख आवश्‍यकताओं का प्रतिनिधित्‍व करती हैं और साथ ही उसकी राजनीतिक माँगों को भी अभिव्‍यक्‍त करती हैं।
आगामी 1 मई, 2011 को देश के कई हिस्‍सों के मज़दूर हज़ारों मज़दूरों के हस्‍ताक्षरों से युक्‍त इसमाँग-पत्रक को लेकर दिल्‍ली में संसद पर दस्‍तक देंगे।



फ़ि‍लहाल मज़दूर ज़्यादा कुछ नहीं माँग रहे हैं। वे संसद में बैठे बहरों से बस यह माँग कर रहे हैं कि इस देश के क़ानून मज़दूरों को जो हक़ देने की बात करते हैं उन्‍हें लागू करने का इन्‍तज़ाम तो करो। इंसान के नाते जीने के लिए जो कुछ चाहिए, न्‍यूनतम वह तो दो। मज़दूर वर्ग की लड़ाई बहुत आगे तक जाती है, लेकिन अभी अपने जनवादी (लोकतांत्रिक) अधिकारों की माँग से शुरुआत की जा रही है।
यह नयी पहल इस मामले में महत्‍वपूर्ण है कि मज़दूर अलग-अलग झण्‍डे-बैनर के तले नहीं बल्कि ‘मज़दूर माँग-पत्रकआन्‍दोलन’ के एक ही साझा बैनर के तले अपनी माँगें रख रहे हैं। अलग-अलग मालिकों से लड़ने में मज़दूर खण्‍ड-खण्‍ड में बँट जाते हैं जिसका सीधा फ़ायदा मालिकों को होता है। इसलिए ‘मज़दूर माँग-पत्रक आन्‍दोलन’ पूरे मज़दूर वर्ग की माँगों को देश की हुक़ूमत के सामने रख रहा है।
इस आन्‍दोलन की माँगों को गढ़ने में देश के अलग-अलग हिस्‍सों में काम करने वाले कुछ स्‍वतंत्र मज़दूर संगठनों, यूनियनों और मज़दूर अख़बार की भूमिका है, लेकिन यह स्‍पष्‍ट करना ज़रूरी है कि यह आन्‍दोलन किसी यूनियन, संगठन या राजनीतिक पार्टी के बैनर तले नहीं है। इसका प्रारूप तैयार करने और इसे मज़दूरों तक पहुँचाने में इन स्‍वतंत्र मज़दूर संगठनों, यूनियनों और मज़दूर अख़बार ने पहल की है,इस पर विचार-विमर्श के लिए कुछ इलाक़ों में हुई मज़दूरों की छोटी-छोटी पंचायतों की भी इसमें भूमिका है, लेकिन इसका लक्ष्‍य है कि ‘मज़दूर माँग-पत्रक आन्‍दोलन’ उन सबका आन्‍दोलन बने जिनकी माँगें इसमें उठायी गयी हैं, यानी देश के समस्‍त मज़दूर वर्ग का साझा आन्‍दोलन बने। यह आन्‍दोलन कई चक्रों में चलेगा। ऐतिहासिक मई दिवस की 125वीं वर्षगाँठ के अवसर पर एक प्रतीकात्‍मक आरम्‍भ किया जा रहा है है। मज़दूर वर्ग की मुक्ति की लम्बी लड़ाई का यह पहला क़दम है।
आज यह शुरुआत प्रतीकात्‍मक है क्‍योंकि विशाल मज़दूर वर्ग आज बिखरा हुआ और असंगठित है। लेकिन यह ऐसे ही नहीं रहेगा। शहरों और गाँवों की सर्वहारा तथा अर्द्धसर्वहारा आबादी आज तक़रीबन 75 करोड़ है। इसे लगातार बदहाली का शिकार हो रहे निम्‍न-मध्‍यवर्ग का भी समर्थन मिलेगा। संगठित होकर यह एक बहुत बड़ी ताक़त बनेगी। देश की तीन-चौथाई आबादी के हक़ों की यह बात आगे बढ़ेगी तो बहुत दूर तक जायेगी।
हम आप सबसे इस आन्‍दोलन में साथ देने की अपील कर रहे हैं। अगर आप मज़दूर हैं तो इस माँग-पत्रक पर हस्‍ताक्षर कीजिए, अपने साथियों से कराइये और 1 मई को दिल्‍ली के जन्‍तर-मन्‍तर पर पहुँचने की तैयारी कीजिए। अगर आप मज़दूर नहीं हैं तो अपने आसपास की मज़दूर बस्तियों में जाकर इस माँग-पत्रक के बारे में बताइये, इस पर हस्‍ताक्षर कराइये और इसके समर्थन में आप भी दिल्‍ली के जन्‍तर-मन्‍तर पर पहुँचिये। पिछले कुछ महीनों से मज़दूरों की बस्तियों, कारख़ाना इलाकों, लॉजों-बेड़ों, झुग्गियों में गली-गली, कमरे-कमरे जाकर माँग-पत्रक पर मज़दूरों के हस्‍ताक्षर कराये जा रहे हैं, रात्रि बैठकें की जा रही हैं, टोलियाँ बनाकर माँग-पत्रक का प्रचार किया जा रहा है। आप में से जिसे भी, जहाँ भी ये माँगें वाजिब, न्‍यायपूर्ण लगें, वह अपने इलाके में हस्‍ताक्षर जुटाना शुरू कर सकता है, या हमारे साथ इन कार्रवाइयों में शामिल होने के लिए हमसे सम्‍पर्क कर सकता है।
बेशक इस माँग-पत्रक पर हस्‍ताक्षर केवल मज़दूरों के होने हैं लेकिन जो भी इससे सहमत है उसे दिल्‍ली पहुँचकर अपनी एकजुटता का इज़हार ज़रूर करना चाहिए।
मध्‍यवर्ग के लोग भ्रष्‍टाचार से बहुत परेशान हैं लेकिन सबसे बड़ा भ्रष्‍टाचार तो वह है जो देश के तमाम मेहनतकशों को उनकी मेहनत के फल से लगातार वंचित रखता है। पिछले 20 वर्ष में देश में जिस स्‍वर्ग का निर्माण हुआ है उसके तलघर के अँधेरे में रहने वाली 80 फ़ीसदी आबादी को मूलभूत अधिकारों से भी वंचित करके न्‍याय की दुहाइयाँ नहीं दी जा सकतीं। यह सोया हुआ ज्‍वालामुखी जब जागेगा तो स्‍वर्ग की मीनारें काँप उठेंगी।
हर लम्‍बे सफ़र की शुरुआत एक छोटे-से क़दम से होती है। हक़ और इंसाफ़ के लिए इस मुहिम का साथ देने के लिए हम आपका आह्वान करते हैं!
– संयोजन समिति, मज़दूर माँग-पत्रक आन्‍दोलन-2011

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10.4.11

गोरखपुर में मज़दूर नेताओं को फर्ज़ी आरोप में गिरफ्तार किया। थाने पर बात करने गए मज़दूरों पर बार-बार लाठीचार्ज, कई घायल


Workers' leaders arrested in Gorakhpur in false case. Police trying to instigate workers on

उद्योगपतियों के इशारे पर पुलिस मज़दूरों को भड़काने की कोशिश कर रही है
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गोरखपुर। गोरखपुर के बरगदवा औद्योगिक क्षेत्र में आज दोपहर पुलिस ने बिगुल मज़दूर दस्ता और टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन से जुडे़ दो मज़दूर नेताओं तपीश मैन्दोला और प्रमोद कुमार को झूठे आरोप में गिरफ्तार कर लिया। इसके विरोध में थाने पर गए मज़दूरों पर बुरी तरह लाठीचार्ज किया गया और थानाध्‍यक्ष से बात करने गए दो अन्य मज़दूर नेताओं प्रशांत तथा राजू को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
इसकी जानकारी मिलते ही कई कारखानों के मज़दूर जैसे ही थाने पर पहुंचे उन पर फिर से लाठीचार्ज किया गया। मालिकों के इशारे पर कुछ असामाजिक तत्वों ने पथराव करने की कोशिश की जिसे मज़दूरों ने नाकाम कर दिया। स्पष्ट है कि ये कार्रवाइयां मज़दूरों को उकसाने के लिए की जा रही हैं जिससे पुलिस को दमन का बहाना मिल सके। दरअसल, पिछले कुछ समय से मज़दूर 'मांगपत्रक आन्दोलन-2011' की तैयारी में गोरखपुर के मज़दूरों की भागीदारी और उत्साह देखकर गोरखपुर के उद्योगपति बौखलाए हुए हैं। उद्योगपतियों और स्थानीय सांसद की शह पर लगातार मज़दूरों को इस आन्दोलन के खिलाफ़ भड़काने की कोशिश की जा रही है और फर्जी नामों से बांटे जा रहे पर्चों-पोस्टरों के जरिए और ज़बानी तौर पर मज़दूरों और आम जनता के बीच यह झूठा प्रचार किया जा रहा है कि यह आन्दोलन माओवादियों द्वारा चलाया जा रहा है।
आज दिन में एक कारखाने के सिक्योरिटी गार्ड और कुछ मज़दूरों के बीच आपसी मारपीट की एक घटना हुई थी जिसका टेक्सटाइल वर्कर्स यूनियन या बिगुल मज़दूर दस्ता से कोई लेनादेना नहीं था। लेकिन इसे बहाना बनाकर, पुलिस ने एक चाय की दुकान पर चाय पी रहे मज़दूर नेता तपीश मैंदोला और प्रमोद को गिरफ्तार कर लिया। घटना की जानकारी मिलने पर करीब 100 मज़दूर थाने पहुंचे तो थानाध्‍यक्ष ने उनके साथ गाली-गलौच की और टैक्सटाइल वर्कर्स यूनियन के प्रशांत एवं राजू को भी गिरफ्तार कर लिया और अचानक लाठीचार्ज करा कर बाकी मज़दूरों को वहां से खदेड़ दिया। इस लाठीचार्ज में कई मज़दूरों को काफ़ी चोट लगी है।
थोड़ी देर बाद मज़दूर फिर इकट्ठा होकर थाने के सामने पहुंचे ही थे कि मज़दूरों के बीच घुसे कुछ तीन-चार लोगों ने (जोकि निश्चित तौर पर मालिकों के इशारे पर काम कर रहे थे) थाने पर पथराव करने का प्रयास किया। लेकिन बाकी मज़दूरों ने तुरंत ही उन्हें नियंत्रित कर लिया और वहां से भगा दिया। थाने तक एक भी पत्थर नहीं पहुंचा लेकिन थानाधयक्ष ने फिर से लाठीचार्ज करा दिया। यह सारी कार्रवाइयां पुलिस-प्रशासन और उद्योगपतियों की मिली-भगत से योजनाबद्ध ढंग से की जा रही हैं और चुन-चुन कर अगुवा मज़दूरों और मज़दूर नेताओं को गिरफ्तार किया गया है।
इस दौरान सभी कारखानों में एक पारी छूट चुकी थी और खबर मिलते ही करीब पांच-छह सौ मज़दूर फिर जुलूस लेकर डीएम कार्यालय की ओर चल पड़े। लेकिन बरगदवा से बाहर निकलते ही उन्हें पुलिस ने रोक लिया तथा डराने-धमकाने की कोशिश की। वहां पर भारी संख्या में पुलिस और पीएसी तैनात कर दी गई है। बाद में स्थिति बिगड़ती देख एडीएम सिटी अखिलेश तिवारी और अन्य अधिकारी वहां पहुंचे और मज़दूरों को आश्वासन दिया कि आप लोग लौट जाएं, सभी गिरफ्तार मज़दूर नेताओं को निजी मुचलके पर आज ही छोड़ दिया जाएगा। लेकिन खबर लिखे जाने तक मज़दूरों और प्रशासन के बीच बातचीत चल रही थी तथा मज़दूर अपने साथियों को तुरंत रिहा करने की मांग पर डटे थे।
इस घटना से साफ है कि मांगपत्रक आन्दोलन-2011 के लिए मज़दूरों की एकजुटता को देखकर मालिकान बौखलाए हुए हैं और अपने गुर्गों तथा पुलिस-प्रशासन की मदद से मज़दूरों की एकजुटता को तोड़ने, उन्हें भड़काने, डराने-धमकाने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि पूरे देश में कानून सम्मत मांगों के लिए चल रहे इस आन्दोलन पर वे 'माओवादियों द्वारा संचालित आन्दोलन' का ठप्पा लगाने और विदेशी चंदे से चलने वाले आन्दोलन के रूप में प्रचारित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। उल्लेखनीय है कि दो वर्ष पहले जब गोरखपुर के मज़दूरों ने अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर लड़ने की शुरुआत की थी तभी से उद्योगपति-प्रशासन-स्थानीय सांसद का गठजोड़ उसे बदनाम करने के लिए इसी प्रकार का कुत्सा-प्रचार करता रहा है।

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बिगुल के बारे में

बिगुल पुस्तिकाएं
1. कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका ढाँचा -- लेनिन

2. मकड़ा और मक्खी -- विल्हेल्म लीब्कनेख़्त

3. ट्रेडयूनियन काम के जनवादी तरीके -- सेर्गेई रोस्तोवस्की

4. मई दिवस का इतिहास -- अलेक्ज़ैण्डर ट्रैक्टनबर्ग

5. पेरिस कम्यून की अमर कहानी

6. बुझी नहीं है अक्टूबर क्रान्ति की मशाल

7. जंगलनामा : एक राजनीतिक समीक्षा -- डॉ. दर्शन खेड़ी

8. लाभकारी मूल्य, लागत मूल्य, मध्यम किसान और छोटे पैमाने के माल उत्पादन के बारे में मार्क्सवादी दृष्टिकोण : एक बहस

9. संशोधनवाद के बारे में

10. शिकागो के शहीद मज़दूर नेताओं की कहानी -- हावर्ड फास्ट

11. मज़दूर आन्दोलन में नयी शुरुआत के लिए

12. मज़दूर नायक, क्रान्तिकारी योद्धा

13. चोर, भ्रष् और विलासी नेताशाही

14. बोलते आंकड़े चीखती सच्चाइयां


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